वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 111 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 111
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकादशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 111)
श्रीराम को पिताकी आज्ञा के पालन से विरत होते न देख भरत का धरना देने को तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना
वसिष्ठः स तदा राममुक्त्वा राजपुरोहितः।
अब्रवीद् धर्मसंयुक्तं पुनरेवापरं वचः॥१॥
उस समय राजपुरोहित वसिष्ठ ने पूर्वोक्त बातें कहकर पुनः श्रीराम से दूसरी धर्मयुक्त बातें कहीं-॥ १॥
पुरुषस्येह जातस्य भवन्ति गुरवः सदा।
आचार्यश्चैव काकुत्स्थ पिता माता च राघव॥ २॥
‘रघुनन्दन! ककुत्स्थ कुलभूषण! इस संसार में उत्पन्न हुए पुरुष के सदा तीन गुरु होते हैं—आचार्य, पिता और माता॥२॥
पिता ह्येनं जनयति पुरुषं पुरुषर्षभ।
प्रज्ञां ददाति चाचार्यस्तस्मात् स गुरुरुच्यते॥३॥
‘पुरुषप्रवर! पिता पुरुष के शरीर को उत्पन्न करता है, इसलिये गुरु है और आचार्य उसे ज्ञान देता है, इसलिये गुरु कहलाता है॥३॥
स तेऽहं पितुराचार्यस्तव चैव परंतप।
मम त्वं वचनं कुर्वन् नातिवर्तेः सतां गतिम्॥४॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले रघुवीर! मैं तुम्हारे पिता का और तुम्हारा भी आचार्य हूँ; अतः मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम सत्पुरुषों के पथ का त्याग करने वाले नहीं समझे जाओगे॥ ४॥
इमा हि ते परिषदो ज्ञातयश्च नृपास्तथा।
एषु तात चरन् धर्मं नातिवर्तेः सतां गतिम्॥५॥
‘तात! ये तुम्हारे सभासद्, बन्धु-बान्धव तथा सामन्त राजा पधारे हुए हैं, इनके प्रति धर्मानुकूल बर्ताव करने से भी तुम्हारे द्वारा सन्मार्गका उल्लङ्घन नहीं होगा॥५॥
वृद्धाया धर्मशीलाया मातुर्नार्हस्यवर्तितुम्।
अस्या हि वचनं कुर्वन् नातिवर्तेः सतां गतिम्॥ ६॥
‘अपनी धर्मपरायणा बूढ़ी माता की बात तो तुम्हें कभी टालनी ही नहीं चाहिये। इनकी आज्ञा का पालन करके तुम श्रेष्ठ पुरुषों के आश्रयभूत धर्म का उल्लङ्घन करने वाले नहीं माने जाओगे॥६॥
भरतस्य वचः कुर्वन् याचमानस्य राघव।
आत्मानं नातिवर्तेस्त्वं सत्यधर्मपराक्रम॥७॥
‘सत्य, धर्म और पराक्रम से सम्पन्न रघुनन्दन ! भरत अपने आत्मस्वरूप तुमसे राज्य ग्रहण करने और अयोध्या लौटने की प्रार्थना कर रहे हैं, उनकी बात मान लेने से भी तुम धर्म का उल्लङ्घन करने वाले नहीं कहलाओगे’ ॥ ७॥
एवं मधुरमुक्तः स गुरुणा राघवः स्वयम्।
प्रत्युवाच समासीनं वसिष्ठं पुरुषर्षभः॥८॥
गुरु वसिष्ठ ने सुमधुर वचनों में जब इस प्रकार कहा, तब साक्षात् पुरुषोत्तम श्रीराघवेन्द्र ने वहाँ बैठे हुए वसिष्ठजी को यों उत्तर दिया॥८॥
यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा।
न सुप्रतिकरं तत् तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम्॥९॥
यथाशक्तिप्रदानेन स्वापनोच्छादनेन च।
नित्यं च प्रियवादेन तथा संवर्धनेन च ॥१०॥
‘माता और पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम खाद्य पदार्थ देने, अच्छे बिछौने पर सुलाने, उबटन आदि लगाने, सदा मीठी बातें बोलने तथा पालन-पोषण करने आदि के द्वारा माता और पिता ने जो उपकार किया है, उसका बदला सहज ही नहीं चुकाया जा सकता॥
स हि राजा दशरथः पिता जनयिता मम।
आज्ञापयन्मां यत् तस्य न तन्मिथ्या भविष्यति॥ ११॥
‘अतः मेरे जन्मदाता पिता महाराज दशरथने मुझे जो आज्ञा दी है, वह मिथ्या नहीं होगी’ ॥ ११ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण भरतः प्रत्यनन्तरम्।
उवाच विपुलोरस्कः सूतं परमदुर्मनाः॥१२॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर चौड़ी छाती वाले भरतजी का मन बहुत उदास हो गया। वे पास ही बैठे हुए सूत सुमन्त्र से बोले- ॥ १२॥
इह तु स्थण्डिले शीघ्रं कुशानास्तर सारथे।
आर्य प्रत्युपवेक्ष्यामि यावन्मे सम्प्रसीदति॥१३॥
निराहारो निरालोको धनहीनो यथा द्विजः।
शये पुरस्ताच्छालायां यावन्मां प्रतियास्यति॥ १४॥
‘सारथे! आप इस वेदी पर शीघ्र ही बहुत-से कुश बिछा दीजिये। जबतक आर्य मुझ पर प्रसन्न नहीं होंगे,तब तक मैं यहीं इनके पास धरना दूंगा। जैसे साहूकार या महाजनके द्वारा निर्धन किया हुआ ब्राह्मण उसके घर के दरवाजे पर मुँह ढककर बिना खाये-पिये पड़ा रहता है, उसी प्रकार मैं भी उपवासपूर्वक मुख पर आवरण डालकर इस कुटिया के सामने लेट जाऊँगा। जब तक मेरी बात मानकर ये अयोध्या को नहीं लौटेंगे, तब तक मैं इसी तरह पड़ा रहूँगा’ ॥ १३-१४ ॥
स तु राममवेक्षन्तं सुमन्त्रं प्रेक्ष्य दुर्मनाः।
कुशोत्तरमुपस्थाप्य भूमावेवास्थितः स्वयम्॥ १५॥
यह सुनकर सुमन्त्र श्रीरामचन्द्रजी का मुँह ताकने लगे। उन्हें इस अवस्था में देख भरत के मन में बड़ादुःख हुआ और वे स्वयं ही कुश की चटाई बिछाकर जमीन पर बैठ गये॥ १५ ॥
तमुवाच महातेजा रामो राजर्षिसत्तमः।
किं मां भरत कुर्वाणं तात प्रत्युपवेक्ष्यसे ॥१६॥
तब महातेजस्वी राजर्षिशिरोमणि श्रीराम ने उनसे कहा- ‘तात भरत! मैं तुम्हारी क्या बुराई करता हूँ, जो मेरे आगे धरना दोगे? ॥ १६ ॥
ब्राह्मणो ह्येकपाइँन नरान् रोडुमिहार्हति।
न तु मूर्धाभिषिक्तानां विधिः प्रत्युपवेशने ॥१७॥
‘ब्राह्मण एक करवट से सोकर धरना देकर मनुष्यों को अन्याय से रोक सकता है, परंतु राजतिलक ग्रहण करने वाले क्षत्रियों के लिये इस प्रकार धरना देने का विधान नहीं है॥ १७ ॥
उत्तिष्ठ नरशार्दूल हित्वैतद् दारुणं व्रतम्।
पुरवर्यामितः क्षिप्रमयोध्यां याहि राघव॥१८॥
‘अतः नरश्रेष्ठ रघुनन्दन! इस कठोर व्रत का परित्याग करके उठो और यहाँ से शीघ्र ही अयोध्यापुरी को जाओ’॥
आसीनस्त्वेव भरतः पौरजानपदं जनम्।
उवाच सर्वतः प्रेक्ष्य किमार्यं नानुशासथ ॥१९॥
यह सुनकर भरत वहाँ बैठे-बैठे ही सब ओर दृष्टि डालकर नगर और जनपद के लोगों से बोले —’आपलोग भैया को क्यों नहीं समझाते हैं ?’॥ १९॥
ते तदोचुर्महात्मानं पौरजानपदा जनाः।
काकुत्स्थमभिजानीमः सम्यग् वदति राघवः॥ २०॥
तब नगर और जनपद के लोग महात्मा भरत से बोले —’हम जानते हैं, काकुत्स्थ श्रीरामचन्द्रजी के प्रति आप रघुकुल-तिलक भरत जी ठीक ही कहते हैं। २०॥
एषोऽपि हि महाभागः पितुर्वचसि तिष्ठति।
अत एव न शक्ताः स्मो व्यावर्तयितुमञ्जसा॥ २१॥
‘परंतु ये महाभाग श्रीरामचन्द्रजी भी पिता की आज्ञा के पालन में लगे हैं, इसलिये यह भी ठीक ही है। अतएव हम इन्हें सहसा उस ओर से लौटाने में असमर्थ हैं’ ॥ २१॥
तेषामाज्ञाय वचनं रामो वचनमब्रवीत्।
एवं निबोध वचनं सुहृदां धर्मचक्षुषाम्॥ २२॥
उन पुरवासियों के वचन का तात्पर्य समझकर श्रीराम ने भरत से कहा—’भरत! धर्मपर दृष्टि रखने वाले सुहृदों के इस कथन को सुनो और समझो॥ २२॥
एतच्चैवोभयं श्रुत्वा सम्यक् सम्पश्य राघव।
उत्तिष्ठ त्वं महाबाहो मां च स्पृश तथोदकम्॥ २३॥
‘रघुनन्दन! मेरी और इनकी दोनों बातों को सुनकर उन पर सम्यक् रूप से विचार करो। महाबाहो! अब शीघ्र उठो तथा मेरा और जल का स्पर्श करो’ ॥ २३॥
अथोत्थाय जलं स्पृष्ट्वा भरतो वाक्यमब्रवीत्।
शृण्वन्तु मे परिषदो मन्त्रिणः शृणुयुस्तथा॥ २४॥
न याचे पितरं राज्यं नानुशासामि मातरम्।
एवं परमधर्मज्ञं नानुजानामि राघवम्॥२५॥
यह सुनकर भरत उठकर खड़े हो गये और श्रीराम एवं जल का स्पर्श करके बोले—’मेरे सभासद् और मन्त्री सब लोग सुनें न तो मैंने पिताजी से राज्य माँगा था और न माता से ही कभी इसके लिये कुछ
कहा था। साथ ही, परम धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी के वनवास में भी मेरी कोई सम्मति नहीं है॥ २४-२५॥
यदि त्ववश्यं वस्तव्यं कर्तव्यं च पितुर्वचः।
अहमेव निवत्स्यामि चतुर्दश वने समाः॥२६॥
‘फिर भी यदि इनके लिये पिताजी की आज्ञा का पालन करना और वन में रहना अनिवार्य है तो इनके बदले मैं ही चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा’॥ २६॥
धर्मात्मा तस्य सत्येन भ्रातुर्वाक्येन विस्मितः।
उवाच रामः सम्प्रेक्ष्य पौरजानपदं जनम्॥२७॥
भाई भरत की इस सत्य बात से धर्मात्मा श्रीराम को बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने पुरवासी तथा राज्यनिवासी लोगों की ओर देखकर कहा- ॥२७॥
विक्रीतमाहितं क्रीतं यत् पित्रा जीवता मम।
न तल्लोपयितुं शक्यं मया वा भरतेन वा॥२८॥
‘पिताजी ने अपने जीवनकाल में जो वस्तु बेंच दी है, या धरोहर रख दी है, अथवा खरीदी है, उसे मैं अथवा भरत कोई भी पलट नहीं सकता॥ २८ ॥
उपाधिन मया कार्यो वनवासे जुगुप्सितः।
युक्तमुक्तं च कैकेय्या पित्रा मे सुकृतं कृतम्॥ २९॥
‘मुझे वनवास के लिये किसी को प्रतिनिधि नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि सामर्थ्य रहते हुए प्रतिनिधि से काम लेना लोक में निन्दित है। कैकेयी ने उचित माँग ही प्रस्तुत की थी और मेरे पिताजी ने उसे देकर पुण्य कर्म ही किया था।
जानामि भरतं क्षान्तं गुरुसत्कारकारिणम्।
सर्वमेवात्र कल्याणं सत्यसंधे महात्मनि॥३०॥
‘मैं जानता हूँ, भरत बड़े क्षमाशील और गुरुजनों का सत्कार करने वाले हैं, इन सत्यप्रतिज्ञ महात्मा में सभी कल्याणकारी गुण मौजूद हैं॥ ३० ॥
अनेन धर्मशीलेन वनात् प्रत्यागतः पुनः।
भ्रात्रा सह भविष्यामि पृथिव्याः पतिरुत्तमः॥ ३१॥
‘चौदह वर्षों की अवधि पूरी करके जब मैं वन से लौटूंगा, तब अपने इन धर्मशील भाई के साथ इस भूमण्डल का श्रेष्ठ राजा होऊँगा॥३१॥
वृतो राजा हि कैकेय्या मया तद्वचनं कृतम्।
अनृतान्मोचयानेन पितरं तं महीपतिम्॥३२॥
‘कैकेयी ने राजा से वर माँगा और मैंने उसका पालन स्वीकार कर लिया, अतः भरत! अब तुम मेरा कहना मानकर उस वर के पालन द्वारा अपने पिता महाराज दशरथ को असत्य के बन्धन से मुक्त करो’। ३२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकादशाधिकशततमः सर्गः॥१११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १११॥
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