वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 113 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 113
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रयोदशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 113)
भरत का भरद्वाज से मिलते हुए अयोध्या को लौट आना
ततः शिरसि कृत्वा तु पादुके भरतस्तदा।
आरुरोह रथं हृष्टः शत्रुघ्नसहितस्तदा ॥१॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी की दोनों चरणपादुकाओं को अपने मस्तक पर रखकर भरत शत्रुघ्न के साथ प्रसन्नता-पूर्वक रथ पर बैठे॥१॥
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिश्च दृढव्रतः।
अग्रतः प्रययुः सर्वे मन्त्रिणो मन्त्रपूजिताः॥२॥
वसिष्ठ, वामदेव तथा दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले जाबालि आदि सब मन्त्री, जो उत्तम मन्त्रणा देने के कारण सम्मानित थे, आगे-आगे चले॥ २॥
मन्दाकिनी नदी रम्यां प्राङ्मुखास्ते ययुस्तदा।
प्रदक्षिणं च कुर्वाणाश्चित्रकूटं महागिरिम्॥३॥
वे सब लोग चित्रकूट नामक महान् पर्वत की परिक्रमा करते हुए परम रमणीय मन्दाकिनी नदी को पार करके पूर्व दिशा की ओर प्रस्थित हुए॥३॥
पश्यन् धातुसहस्राणि रम्याणि विविधानि च।
प्रययौ तस्य पाइँन ससैन्यो भरतस्तदा॥४॥
उस समय भरत अपनी सेना के साथ सहस्रों प्रकार के रमणीय धातुओं को देखते हुए चित्रकूट के किनारे से होकर निकले॥ ४॥
अदूराच्चित्रकूटस्य ददर्श भरतस्तदा।
आश्रमं यत्र स मुनिर्भरद्वाजः कृतालयः॥५॥
चित्रकूट से थोड़ी ही दूर जाने पर भरत ने वह आश्रम देखा, जहाँ मुनिवर भरद्वाज जी निवास करते थे* ॥
* यह आश्रम यमुना से दक्षिण दिशा में चित्रकूट के कुछ निकट था। गङ्गा और यमुना के बीच प्रयाग वाला आश्रम, जहाँ वन में जाते समय श्रीरामचन्द्रजी तथा भरत आदि ने विश्राम किया था, इससे भिन्न जान पड़ता है। तभी इस आश्रम पर भरद्वाज से मिलने के बाद भरत आदि के यमुना पार करने का उल्लेख मिलता है-‘ततस्ते यमुनां दिव्यां नदीं तीवॉर्मिमालिनीम्।’ इस द्वितीय आश्रम से श्रीराम और भरत के समागम का समाचार शीघ्र प्राप्त हो सकता था; इसीलिये भरद्वाजजी भरत के लौटने के समय यहीं मौजूद थे।
स तमाश्रममागम्य भरद्वाजस्य वीर्यवान्।
अवतीर्य रथात् पादौ ववन्दे कुलनन्दनः॥६॥
अपने कुल को आनन्दित करने वाले पराक्रमी भरत महर्षि भरद्वाज के उस आश्रमपर पहुँचकर रथ से उतर पड़े और उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया॥६॥
ततो हृष्टो भरद्वाजो भरतं वाक्यमब्रवीत्।
अपि कृत्यं कृतं तात रामेण च समागतम्॥७॥
उनके आने से महर्षि भरद्वाज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भरत से पूछा—’तात! क्या तुम्हारा कार्य सम्पन्न हुआ? क्या श्रीरामचन्द्रजी से भेंट हुई?’॥ ७॥
एवमुक्तः स तु ततो भरद्वाजेन धीमता।
प्रत्युवाच भरद्वाजं भरतो धर्मवत्सलः॥८॥
बुद्धिमान् भरद्वाजजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मवत्सल भरत ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-॥ ८॥
स याच्यमानो गुरुणा मया च दृढविक्रमः।
राघवः परमप्रीतो वसिष्ठं वाक्यमब्रवीत्॥९॥
‘मुने! भगवान् श्रीराम अपने पराक्रम पर दृढ़ रहने वाले हैं। मैंने उनसे बहुत प्रार्थना की। गुरुजी ने भी अनुरोध किया तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर गुरुदेव वसिष्ठजी से इस प्रकार कहा- ॥९॥
पितुः प्रतिज्ञां तामेव पालयिष्यामि तत्त्वतः।
चतुर्दश हि वर्षाणि या प्रतिज्ञा पितुर्मम॥१०॥
‘मैं चौदह वर्षों तक वन में रहूँ, इसके लिये मेरे पिताजी ने जो प्रतिज्ञा कर ली थी, उनकी उस प्रतिज्ञाका ही मैं यथार्थ रूप से पालन करूँगा’ ॥ १० ॥
एवमुक्तो महाप्राज्ञो वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं राघवं वचनं महत्॥११॥
‘उनके ऐसा कहने पर बात के मर्म को समझने वाले महाज्ञानी वसिष्ठजी ने बातचीत करने में कुशल श्रीरघुनाथजी से यह महत्त्वपूर्ण बात कही— ॥११॥
एते प्रयच्छ संहृष्टः पादुके हेमभूषिते।
अयोध्यायां महाप्राज्ञ योगक्षेमकरो भव॥१२॥
‘महाप्राज्ञ! तुम प्रसन्नतापूर्वक ये स्वर्णभूषित पादुकाएँ अपने प्रतिनिधि के रूप में भरत को दे दो और इन्हीं के द्वारा अयोध्या के योगक्षेम का निर्वाह करो’॥
एवमुक्तो वसिष्ठेन राघवः प्राङ्मुखः स्थितः।
पादुके हेमविकृते मम राज्याय ते ददौ ॥१३॥
‘गुरु वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर पूर्वाभिमुख खड़े हुए श्रीरघुनाथजी ने अयोध्या के राज्य का संचालन करने के लिये ये दोनों स्वर्णभूषित पादुकाएँ मुझे दे दीं॥ १३॥
निवृत्तोऽहमनुज्ञातो रामेण सुमहात्मना।
अयोध्यामेव गच्छामि गृहीत्वा पादुके शुभे॥ १४॥
‘तत्पश्चात् मैं महात्मा श्रीराम की आज्ञा पाकर लौट आया हूँ और उनकी इन मङ्गलमयी चरणपादुकाओं को लेकर अयोध्या को ही जा रहा हूँ’॥ १४॥
एतच्छ्रत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः।
भरद्वाजः शुभतरं मुनिर्वाक्यमुदाहरत्॥१५॥
महात्मा भरत का यह शुभ वचन सुनकर भरद्वाज मुनि ने यह परम मङ्गलमय बात कही— ॥ १५ ॥
नैतच्चित्रं नरव्याघ्र शीलवृत्तविदां वरे।
यदार्यं त्वयि तिष्ठेत्तु निम्नोत्सृष्टमिवोदकम्॥१६॥
‘भरत! तुम मनुष्यों में सिंह के समान वीर तथा शील और सदाचार के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ हो। जैसे जल नीची भूमि वाले जलाशय में सब ओर से बहकर चला आता है, उसी प्रकार तुममें सारे श्रेष्ठ गुण स्थित हों यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है॥ १६ ॥
अनृणः स महाबाहुः पिता दशरथस्तव।
यस्य त्वमीदृशः पुत्रो धर्मात्मा धर्मवत्सलः॥ १७॥
‘तुम्हारे पिता महाबाहु राजा दशरथ सब प्रकार से उऋण हो गये, जिनके तुम-जैसा धर्म प्रेमी एवं धर्मात्मा पुत्र है’ ॥ १७॥
तमृषि तु महाप्राज्ञमुक्तवाक्यं कृताञ्जलिः।
आमन्त्रयितुमारेभे चरणावुपगृह्य च॥१८॥
उन महाज्ञानी महर्षि के ऐसा कहने पर भरत ने हाथ जोड़कर उनके चरणों का स्पर्श किया; फिर वे उनसे जाने की आज्ञा लेने को उद्यत हुए॥ १८॥
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा भरद्वाजं पुनः पुनः।
भरतस्तु ययौ श्रीमानयोध्यां सह मन्त्रिभिः॥ १९॥
तदनन्तर श्रीमान् भरत बारंबार भरद्वाज मुनि की परिक्रमा करके मन्त्रियों सहित अयोध्या की ओर चल दिये॥ १९॥
यानैश्च शकटैश्चैव हयैर्नागैश्च सा चमूः।
पुनर्निवृत्ता विस्तीर्णा भरतस्यानुयायिनी॥२०॥
फिर वह विस्तृत सेना रथों, छकड़ों, घोड़ों और हाथियों के साथ भरत का अनुसरण करती हुई अयोध्या को लौटी॥२०॥
ततस्ते यमुनां दिव्यां नदीं तीोर्मिमालिनीम्।
ददृशुस्तां पुनः सर्वे गङ्गां शिवजलां नदीम्॥ २१॥
तत्पश्चात् आगे जाकर उन सब लोगों ने तरंगमालाओं से सुशोभित दिव्य नदी यमुना को पार करके पुनः शुभसलिला गङ्गाजी का दर्शन किया॥२१॥
तां रम्यजलसम्पूर्णां संतीर्य सहबान्धवः।
शृङ्गवेरपुरं रम्यं प्रविवेश ससैनिकः ॥ २२॥
फिर बन्धु-बान्धवों और सैनिकों के साथ मनोहर जल से भरी हुई गङ्गा के भी पार होकर वे परम रमणीय शृङ्गवेरपुर में जा पहुँचे॥ २२ ॥
शृङ्गवेरपुराद् भूय अयोध्यां संददर्श ह।
अयोध्यां तु तदा दृष्ट्वा पित्रा भ्रात्रा विवर्जिताम्॥ २३॥
भरतो दुःखसंतप्तः सारथिं चेदमब्रवीत्।
शृङ्गवेरपुर से प्रस्थान करने पर उन्हें पुनः अयोध्यापुरी का दर्शन हुआ, जो उस समय पिता और भाई दोनों से विहीन थी। उसे देखकर भरत ने दुःखसे संतप्त हो सारथि से इस प्रकार कहा- ॥ २३ १/२ ॥
सारथे पश्य विध्वस्ता अयोध्या न प्रकाशते॥ २४॥
निराकारा निरानन्दा दीना प्रतिहतस्वना॥ २५॥
‘सारथि सुमन्त्रजी! देखिये, अयोध्या की सारी शोभा नष्ट हो गयी है; अतः यह पहले की भाँति प्रकाशित नहीं होती है। इसका वह सुन्दर रूप, वह आनन्द जाता रहा। इस समय यह अत्यन्त दीन और नीरव हो रही है’ ॥ २४-२५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रयोदशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११३॥