वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 114 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 114
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्दशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 114)
भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अन्तःपुर में प्रवेश करके भरत का दुःखी होना
स्निग्धगम्भीरघोषेण स्यन्दनेनोपयान् प्रभुः।
अयोध्यां भरतः क्षिप्रं प्रविवेश महायशाः॥१॥
इसके बाद प्रभावशाली महायशस्वी भरत ने स्निग्ध, गम्भीर घर्घर घोष से युक्त रथ के द्वारा यात्रा करके शीघ्र ही अयोध्या में प्रवेश किया॥१॥
बिडालोलूकचरितामालीननरवारणाम्।
तिमिराभ्याहतां कालीमप्रकाशां निशामिव॥२॥
उस समय वहाँ बिलाव और उल्लू विचर रहे थे। घरों के किवाड़ बंद थे। सारे नगर में अन्धकार छा रहा था। प्रकाश न होने के कारण वह पुरी कृष्णपक्ष की काली रात के समान जान पड़ती थी॥२॥
राहशत्रोः प्रियां पत्नीं श्रिया प्रज्वलितप्रभाम्।
ग्रहेणाभ्युदितेनैकां रोहिणीमिव पीडिताम्॥३॥
जैसे चन्द्रमा की प्रिय पत्नी और अपनी शोभा से प्रकाशित कान्ति वाली रोहिणी उदित हुए राहु नामक ग्रह के द्वारा अपने पति के ग्रस लिये जाने पर अकेली -असहाय हो जाती है, उसी प्रकार दिव्य ऐश्वर्य से प्रकाशित होने वाली अयोध्या राजा के कालकवलित हो जाने के कारण पीड़ित एवं असहाय हो रही थी॥ ३॥
अल्पोष्णक्षुब्धसलिलां घर्मतप्तविहंगमाम्।
लीनमीनझषग्राहां कृशां गिरिनदीमिव॥४॥
वह पुरी उस पर्वतीय नदी की भाँति कृशकाय दिखायी देती थी, जिसका जल सूर्य की किरणों से तपकर कुछ गरम और गँदला हो रहा हो, जिसके पक्षी धूप से संतप्त होकर भाग गये हों तथा जिसके मीन, मत्स्य और ग्राह गहरे जल में छिप गये हों॥ ४॥
विधूमामिव हेमाभां शिखामग्नेः समुत्थिताम्।
हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम्॥
जो अयोध्या पहले धूमरहित सुनहरी कान्तिवाली प्रज्वलित अग्निशिखा के समान प्रकाशित होती थी वही श्रीरामवनवास के बाद हवनीय दुग्ध से सींची गयी अग्नि की ज्वाला के समान बुझकर विलीन-सी हो गयी है॥ ५॥
विध्वस्तकवचां रुग्णगजवाजिरथध्वजाम्।
हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे॥६॥
उस समय अयोध्या महासमर में संकटग्रस्त हुई उस सेना के समान प्रतीत होती थी, जिसके कवच कटकर गिर गये हों, हाथी, घोड़े, रथ और ध्वजा छिन्न-भिन्न हो गये हों और मुख्य-मुख्य वीर मार डाले गये हों। ६॥
सफेनां सस्वनां भूत्वा सागरस्य समुत्थिताम्।
प्रशान्तमारुतोद्धतां जलोर्मिमिव निःस्वनाम्॥ ७॥
प्रबल वायु के वेग से फेन और गर्जना के साथ उठी हुई समुद्र की उत्ताल तरंग सहसा वायु के शान्त हो जाने पर जैसे शिथिल और नीरव हो जाती है, उसी प्रकार कोलाहलपूर्ण अयोध्या अब शब्दशून्य-सी जान पड़ती थी॥७॥
त्यक्तां यज्ञायुधैः सर्वैरभिरूपैश्च याजकैः।
सुत्याकाले सुनिर्वृत्ते वेदिं गतरवामिव॥८॥
यज्ञकाल समाप्त होने पर ‘स्फ्य’ आदि यज्ञसम्बन्धी आयुधों तथा श्रेष्ठ याजकों से सूनी हुई वेदी जैसे मन्त्रोच्चारण की ध्वनि से रहित हो जाती है, उसी प्रकार अयोध्या सुनसान दिखायी देती थी॥ ८॥
गोष्ठमध्ये स्थितामार्तामचरन्तीं नवं तृणम्।
गोवृषेण परित्यक्तां गवां पत्नीमिवोत्सुकाम्॥९॥
जैसे कोई गाय साँड़ के साथ समागम के लिये उत्सुक हो, उसी अवस्था में उसे साँड़ से अलग कर दिया गया हो और वह नूतन घास चरना छोड़कर आर्त भाव से गोष्ठ में बँधी हुई खड़ी हो, उसी तरह अयोध्यापुरी भी आन्तरिक वेदना से पीड़ित थी॥९॥
प्रभाकराद्यैः सुस्निग्धैः प्रज्वलद्भिरिवोत्तमैः।
वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव॥१०॥
श्रीराम आदि से रहित हुई अयोध्या मोतियों की उस नूतन माला के समान श्रीहीन हो गयी थी, जिसकी अत्यन्त चिकनी-चमकीली, उत्तम तथा अच्छी जातिकी पद्मराग आदि मणियाँ उससे निकालकर अलग कर दी गयी हों। १० ॥
सहसाचरितां स्थानान्महीं पुण्यक्षयाद् गताम्।
संहृतद्युतिविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम्॥११॥
जो पुण्य-क्षय होने के कारण सहसा अपने स्थान से भ्रष्ट हो पृथ्वी पर आ पहुँची हो, अतएव जिसकी विस्तृत प्रभा क्षीण हो गयी हो, आकाश से गिरी हुई उस तारिका की भाँति अयोध्या शोभाहीन हो गयी थी॥ ११॥
पुष्पनद्धां वसन्तान्ते मत्तभ्रमरशालिनीम्।
द्रुतदावाग्निविप्लुष्टां क्लान्तां वनलतामिव॥ १२॥
जो ग्रीष्म ऋतु में पहले फूलों से लदी हुई होने के कारण मतवाले भ्रमरों से सुशोभित होती रही हो और फिर सहसा दावानल के लपेट में आकर मुरझा गयी हो, वन की उस लता के समान पहले की उल्लासपूर्ण अयोध्या अब उदास हो गयी थी॥ १२ ॥
सम्मढनिगमां सर्वां संक्षिप्तविपणापणाम्।
प्रच्छन्नशशिनक्षत्रां द्यामिवाम्बुधरैर्युताम्॥१३॥
वहाँके व्यापारी वणिक् शोक से व्याकुल होने के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे, बाजार-हाट और दूकानें बहुत कम खुली थीं। उस समय सारी पुरी उस आकाश की भाँति शोभाहीन हो गयी थी, जहाँ बादलों की घटाएँ घिर आयी हों और तारे तथा चन्द्रमा ढक गये हों ॥ १३॥
क्षीणपानोत्तमैर्भग्नैः शरावैरभिसंवृताम्।
हतशौण्डामिव ध्वस्तां पानभूमिमसंस्कृताम्॥ १४॥
(उन दिनों अयोध्यापुरी की सड़कें झाड़ी-बुहारी नहीं गयी थीं, इसलिये यत्र-तत्र कूड़े-करकट के ढेर पड़े थे। उस अवस्थामें) वह नगरी उस उजड़ी हुई पानभूमि (मधुशाला) के समान श्रीहीन दिखायी देती थी, जिसकी सफाई न की गयी हो, जहाँ मधु से खाली टूटी-फूटी प्यालियाँ पड़ी हों और जहाँ के पीने वाले भी नष्ट हो गये हों॥ १४ ॥
वृक्णभूमितलां निम्नां वृक्णपात्रैः समावृताम्।
उपयुक्तोदकां भग्नां प्रपां निपतितामिव॥१५॥
उस पुरी की दशा उस पौंसले की-सी हो रही थी, जो खम्भों के टूट जाने से ढह गया हो, जिसका चबूतरा छिन्न-भिन्न हो गया हो, भूमि नीची हो गयी हो, पानी चुक गया हो और जलपात्र टूट-फूटकर इधर-उधर सब ओर बिखरे पड़े हों॥ १५॥
विपुलां विततां चैव युक्तपाशां तरस्विनाम्।
भूमौ बाणैर्विनिष्कृत्तां पतितां ज्यामिवायुधात्॥ १६॥
जो विशाल और सम्पूर्ण धनुष में फैली हुई हो, उसकी दोनों कोटियों (किनारों) में बाँधने के लिये जिसमें रस्सी जुड़ी हुई हो, किंतु वेगशाली वीरों के बाणों से कटकर धनुष से पृथ्वी पर गिर पड़ी हो, उस प्रत्यञ्चा के समान ही अयोध्यापुरी भी स्थानभ्रष्ट हुई सी दिखायी देती थी॥ १६॥
सहसा युद्धशौण्डेन हयारोहेण वाहिताम्।
निहतां प्रतिसैन्येन वडवामिव पातिताम्॥१७॥
जिसपर युद्धकुशल घुड़सवार ने सवारी की हो और जिसे शत्रुपक्ष की सेना ने सहसा मार गिराया हो, युद्धभूमि में पड़ी हुई उस घोड़ी की जो दशा होती है, वही उस समय अयोध्यापुरी की भी थी (कैकेयी के कुचक्र से उसके संचालक नरेश का स्वर्गवास और युवराज का वनवास हो गया था) ॥ १७॥
भरतस्तु रथस्थः सन् श्रीमान् दशरथात्मजः।
वाहयन्तं रथश्रेष्ठं सारथिं वाक्यमब्रवीत्॥ १८॥
रथ पर बैठे हुए श्रीमान् दशरथनन्दन भरत ने उस समय श्रेष्ठ रथ का संचालन करने वाले सारथि सुमन्त्र से इस प्रकार कहा- ॥ १८॥
किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्च्छितो न निशाम्यते।
यथापुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिःस्वनः॥१९॥
‘अब अयोध्या में पहले की भाँति सब ओर फैला हुआ गाने-बजाने का गम्भीर नाद नहीं सुनायी पड़ता; यह कितने कष्ट की बात है!॥ १९॥
वारुणीमदगन्धश्च माल्यगन्धश्च मूर्च्छितः।
चन्दनागुरुगन्धश्च न प्रवाति समन्ततः॥२०॥
‘अब चारों ओर वारुणी (मधु) की मादक गन्ध, व्याप्त हुई फूलों की सुगन्ध तथा चन्दन और अगुरु की पवित्र गन्ध नहीं फैल रही है॥ २०॥
यानप्रवरघोषश्च सुस्निग्धहयनिःस्वनः।
प्रमत्तगजनादश्च महांश्च रथनिःस्वनः॥२१॥
‘अच्छी-अच्छी सवारियों की आवाज, घोड़ों के हींसने का सुस्निग्ध शब्द, मतवाले हाथियों का चिग्घाड़ना तथा रथों की घर्घराहट का महान् शब्दये सब नहीं सुनायी दे रहे हैं ॥ २१॥
नेदानीं श्रूयते पुर्यामस्यां रामे विवासिते।
चन्दनागुरुगन्धांश्च महार्हाश्च वनस्रजः॥२२॥
गते रामे हि तरुणाः संतप्ता नोपभुञ्जते।
बहिर्यात्रां न गच्छन्ति चित्रमाल्यधरा नराः॥ २३॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के निर्वासित होने के कारण ही इस पुरी में इस समय इन सब प्रकार के शब्दों का श्रवण नहीं हो रहा है। श्रीराम के चले जाने से यहाँ के तरुण बहुत ही संतप्त हैं। वे चन्दन और अगुरु की सुगन्ध का सेवन नहीं करते तथा बहुमूल्य वनमालाएँ भी नहीं धारण करते। अब इस पुरी के लोग विचित्र फूलों के हार पहनकर बाहर घूमने के लिये नहीं निकलते हैं।। २२-२३॥
नोत्सवाः सम्प्रवर्तन्ते रामशोकार्दिते पुरे।
सा हि नूनं मम भ्रात्रा पुरस्यास्य द्युतिर्गता॥२४॥
‘श्रीराम के शोक से पीड़ित हुए इस नगर में अब नाना प्रकार के उत्सव नहीं हो रहे हैं। निश्चय ही इस पुरी की वह सारी शोभा मेरे भाई के साथ ही चली गयी॥
नहि राजत्ययोध्येयं सासारेवार्जुनी क्षपा।
कदा नु खलु मे भ्राता महोत्सव इवागतः ॥ २५॥
जनयिष्यत्ययोध्यायां हर्षं ग्रीष्म इवाम्बुदः।
‘जैसे वेगयुक्त वर्षा के कारण शुक्लपक्ष की चाँदनी रात भी शोभा नहीं पाती है, उसी प्रकार नेत्रों से आँसू बहाती हुई यह अयोध्या भी शोभित नहीं हो रही है। अब कब मेरे भाई महोत्सव की भाँति अयोध्या में पधारेंगे और ग्रीष्म-ऋतु में प्रकट हुए मेघ की भाँति सबके हृदय में हर्ष का संचार करेंगे। २५ १/२ ॥
तरुणैश्चारुवेषैश्च नरैरुन्नतगामिभिः॥२६॥
सम्पतद्भिरयोध्यायां नाभिभान्ति महापथाः।
‘अब अयोध्या की बड़ी-बड़ी सड़कें हर्ष से उछलकर चलते हुए मनोहर वेषधारी तरुणों के शुभागमन से शोभा नहीं पा रही हैं’॥ २६ १/२॥
इति ब्रुवन् सारथिना दुःखितो भरतस्तदा ॥२७॥
अयोध्यां सम्प्रविश्यैव विवेश वसतिं पितुः।
तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव॥२८॥
इस प्रकार सारथि के साथ बातचीत करते हुए दुःखी भरत उस समय सिंह से रहित गुफा की भाँति राजा दशरथ से हीन पिता के निवास स्थान राजमहल में गये॥
तदा तदन्तःपुरमुज्झितप्रभं सुरैरिवोत्कृष्टमभास्करं दिनम्।
निरीक्ष्य सर्वत्र विभक्तमात्मवान् मुमोच बाष्पं भरतः सुदुःखितः॥२९॥
जैसे सूर्य के छिप जाने से दिन की शोभा नष्ट हो जाती है और देवता शोक करने लगते हैं, उसी प्रकार उस समय वह अन्तःपुर शोभाहीन हो गया था और वहाँ के लोग शोकमग्न थे। उसे सब ओर से स्वच्छता और सजावट से हीन देख भरत धैर्यवान् होने पर भी अत्यन्त दुःखी हो आँसू बहाने लगे॥ २९ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुर्दशाधिकशततमः सर्गः॥११४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११४॥