वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 115 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 115
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चदशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 115)
भरत का नन्दिग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन्हें निवेदनपूर्वक राज्य का सब कार्य करना
ततो निक्षिप्य मातृस्ता अयोध्यायां दृढव्रतः।
भरतः शोकसंतप्तो गुरूनिदमथाब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर सब माताओं को अयोध्या में रखकर दृढप्रतिज्ञ भरत ने शोक से संतप्त हो गुरुजनों से इस प्रकार कहा
नन्दिग्रामं गमिष्यामि सर्वानामन्त्रयेऽत्र वः।
तत्र दुःखमिदं सर्वं सहिष्ये राघवं विना॥२॥
‘अब मैं नन्दिग्राम को जाऊँगा, इसके लिये आप सब लोगों की आज्ञा चाहता हूँ। वहाँ श्रीराम के बिना प्राप्त होने वाले इस सारे दुःख को सहन करूँगा॥ २॥
गतश्चाहो दिवं राजा वनस्थः स गुरुर्मम।
रामं प्रतीक्षे राज्याय स हि राजा महायशाः॥३॥
‘अहो! महाराज (पूज्य पिताजी) तो स्वर्ग को सिधारे और वे मेरे गुरु (पूजनीय भ्राता) श्रीरामचन्द्रजी वन में विराज रहे हैं। मैं इस राज्य के लिये वहाँ श्रीराम की प्रतीक्षा करता रहूँगा; क्योंकि वे महायशस्वी श्रीराम ही हमारे राजा हैं ॥३॥
एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः।
अब्रुवन् मन्त्रिणः सर्वे वसिष्ठश्च पुरोहितः॥४॥
महात्मा भरत का यह शुभ वचन सुनकर सब मन्त्री और पुरोहित वसिष्ठ जी बोले- ॥ ४॥
सुभृशं श्लाघनीयं च यदुक्तं भरत त्वया।
वचनं भ्रातृवात्सल्यादनुरूपं तवैव तत्॥५॥
‘भरत! भ्रातृभक्ति से प्रेरित होकर तुमने जो बात कही है, वह बहुत ही प्रशंसनीय है वास्तव में वह तुम्हारे ही योग्य है॥५॥
नित्यं ते बन्धुलुब्धस्य तिष्ठतो भ्रातृसौहृदे।
मार्गमार्यं प्रपन्नस्य नानुमन्येत कः पुमान्॥६॥
‘तुम अपने भाई के दर्शन के लिये सदा लालायित रहते हो और भाई के ही सौहार्द (हितसाधन) में संलग्न हो। साथ ही श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित हो, अतः कौन पुरुष तुम्हारे विचार का अनुमोदन नहीं करेगा’।
मन्त्रिणां वचनं श्रुत्वा यथाभिलषितं प्रियम्।
अब्रवीत् सारथिं वाक्यं रथो मे युज्यतामिति॥ ७॥
मन्त्रियों का अपनी रुचि के अनुरूप प्रिय वचन सुनकर भरत ने सारथि से कहा—’मेरा रथ जोतकर तैयार किया जाय’ ॥ ७॥
प्रहृष्टवदनः सर्वा मातृः समभिभाष्य च।
आरुरोह रथं श्रीमान्शत्रुघ्नेन समन्वितः॥८॥
फिर उन्होंने प्रसन्नवदन होकर सब माताओं से बातचीत करके जाने की आज्ञा ली। इसके बाद शत्रुघ्न के सहित श्रीमान् भरत रथ पर सवार हुए॥८॥
आरुह्य तु रथं क्षिप्रं शत्रुघ्नभरतावुभौ।
ययतुः परमप्रीतौ वृतौ मन्त्रिपुरोहितैः॥९॥
रथ पर आरूढ़ होकर परम प्रसन्न हुए भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई मन्त्रियों तथा पुरोहितों से घिरकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से प्रस्थित हुए॥९॥
अग्रतो गुरवः सर्वे वसिष्ठप्रमुखा द्विजाः।
प्रययुः प्राङ्मुखाः सर्वे नन्दिग्रामो यतो भवेत्॥ १०॥
आगे-आगे वसिष्ठ आदि सभी गुरुजन एवं ब्राह्मणचल रहे थे। उन सब लोगों ने अयोध्या से पूर्वाभिमुख होकर यात्रा की और उस मार्ग को पकड़ा, जो नन्दिग्राम की ओर जाता था॥ १० ॥
बलं च तदनाहूतं गजाश्वरथसंकुलम्।
प्रययौ भरते याते सर्वे च पुरवासिनः॥११॥
भरत के प्रस्थित होने पर हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई सारी सेना भी बिना बुलाये ही उनके पीछे पीछे चल दी और समस्त पुरवासी भी उनके साथ हो लिये॥ ११॥
रथस्थः स तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः।
नन्दिग्रामं ययौ तूर्णं शिरस्यादाय पादुके॥१२॥
धर्मात्मा भ्रातृवत्सल भरत अपने मस्तक पर भगवान् श्रीराम की चरणपादु का लिये रथ पर बैठकर बड़ी शीघ्रता से नन्दिग्राम की ओर चले ॥ १२ ॥
भरतस्तु ततः क्षिप्रं नन्दिग्रामं प्रविश्य सः।
अवतीर्य रथात् तूर्णं गुरूनिदमभाषत॥१३॥
नन्दिग्राम में शीघ्र पहुँचकर भरत तुरंत ही रथ से उतर पड़े और गुरुजनों से इस प्रकार बोले- ॥ १३॥
एतद राज्यं मम भ्रात्रा दत्तं संन्यासमुत्तमम्।
योगक्षेमवहे चेमे पादुके हेमभूषिते॥१४॥
‘मेरे भाई ने यह उत्तम राज्य मुझे धरोहर के रूपमें दिया है, उनकी ये सुवर्णविभूषित चरणपादुकाएँ ही सबके योगक्षेम का निर्वाह करनेवाली हैं’॥ १४ ॥
भरतः शिरसा कृत्वा संन्यासं पादुके ततः।
अब्रवीद् दुःखसंतप्तः सर्वं प्रकृतिमण्डलम्॥ १५॥
तत्पश्चात् भरत ने मस्तक झुकाकर उन चरणपादुकाओं के प्रति उस धरोहर रूप राज्य को समर्पित करके दुःख से संतप्त हो समस्त प्रकृतिमण्डल (मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि) से कहा-॥ १५॥
छत्रं धारयत क्षिप्रमार्यपादाविमौ मतौ।
आभ्यां राज्ये स्थितो धर्मः पादुकाभ्यां गुरोर्मम॥ १६॥
‘आप सब लोग इन चरणपादुकाओं के ऊपर छत्र धारण करें। मैं इन्हें आर्य रामचन्द्रजी के साक्षात् चरण मानता हूँ। मेरे गुरु की इन चरणपादुकाओं से ही इस राज्य में धर्म की स्थापना होगी॥१६॥
भ्रात्रा तु मयि संन्यासो निक्षिप्तः सौहृदादयम्।
तमिमं पालयिष्यामि राघवागमनं प्रति॥१७॥
‘मेरे भाई ने प्रेम के कारण ही यह धरोहर मुझे सौंपी है, अतः मैं उनके लौटने तक इसकी भलीभाँति रक्षा करूँगा॥१७॥
क्षिप्रं संयोजयित्वा तु राघवस्य पुनः स्वयम्।
चरणौ तौ तु रामस्य द्रक्ष्यामि सहपादुकौ ॥१८॥
‘इसके बाद मैं स्वयं इन पादुकाओं को पुनः शीघ्र ही श्रीरघुनाथजी के चरणों से संयुक्त करके इन पादुकाओं से सुशोभित श्रीराम के उन युगल चरणों का दर्शन करूँगा॥
ततो निक्षिप्तभारोऽहं राघवेण समागतः।
निवेद्य गुरवे राज्यं भजिष्ये गुरुवर्तिताम्॥१९॥
‘श्रीरघुनाथजी के आने पर उनसे मिलते ही मैं अपने उन गुरुदेव को यह राज्य समर्पित करके उनकी आज्ञा के अधीन हो उन्हीं की सेवा में लग जाऊँगा। राज्य का यह भार उन पर डालकर मैं हलका हो जाऊँगा॥ १९॥
राघवाय च संन्यासं दत्त्वेमे वरपादुके।
राज्यं चेदमयोध्यां च धूतपापो भवाम्यहम्॥ २०॥
‘मेरे पास धरोहर रूप में रखे हुए इस राज्य को, अयोध्या को तथा इन श्रेष्ठ पादुकाओं को श्रीरघुनाथजी की सेवा में समर्पित करके मैं सब प्रकार के पापताप से मुक्त हो जाऊँगा॥२०॥
अभिषिक्ते तु काकुत्स्थे प्रहृष्टमुदिते जने।
प्रीतिर्मम यशश्चैव भवेद् राज्याच्चतुर्गुणम्॥ २१॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम का अयोध्या के राज्य पर अभिषेक हो जाने पर जब सब लोग हर्ष और आनन्द में निमग्न हो जायेंगे, तब मुझे राज्य पाने की अपेक्षा चौगुनी प्रसन्नता और चौगुने यश की प्राप्ति होगी’ ॥ २१॥
एवं तु विलपन् दीनो भरतः स महायशाः।
नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं दुःखितो मन्त्रिभिः सह॥ २२॥
इस प्रकार दीनभाव से विलाप करते हुए दुःखमग्न महायशस्वी भरत मन्त्रियों के साथ नन्दिग्राम में रहकर राज्य का शासन करने लगे॥ २२ ॥
स वल्कलजटाधारी मुनिवेषधरः प्रभुः।
नन्दिग्रामेऽवसद् धीरः ससैन्यो भरतस्तदा ॥२३॥
सेनासहित प्रभावशाली धीर-वीर भरत ने उस समय वल्कल और जटा धारण करके मुनिवेषधारी हो नन्दिग्राम में निवास किया॥ २३॥
रामागमनमाकांक्षन् भरतो भ्रातृवत्सलः।
भ्रातुर्वचनकारी च प्रतिज्ञापारगस्तदा।
पादके त्वभिषिच्याथ नन्दिग्रामेऽवसत् तदा॥ २४॥
भाई की आज्ञा का पालन और प्रतिज्ञा के पार जाने की इच्छा करने वाले भ्रातृवत्सल भरत श्रीरामचन्द्रजी के आगमन की आकांक्षा रखते हुए उनकी चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन दिनों नन्दिग्राम में रहने लगे।
सवालव्यजनं छत्रं धारयामास स स्वयम्।
भरतः शासनं सर्वं पादुकाभ्यां निवेदयन्॥२५॥
भरतजी राज्य-शासनका समस्त कार्य भगवान् श्रीराम की चरणपादुकाओं को निवेदन करके करते थे तथा स्वयं ही उनके ऊपर छत्र लगाते और चँवर डुलाते थे॥ २५॥
ततस्तु भरतः श्रीमानभिषिच्यार्यपादुके।
तदधीनस्तदा राज्यं कारयामास सर्वदा॥ २६॥
श्रीमान् भरत बड़े भाई की उन पादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके सदा उनके अधीन रहकर उन दिनों राज्य का सब कार्य मन्त्री आदि से कराते थे।॥ २६॥
तदा हि यत् कार्यमुपैति किंचि दुपायनं चोपहृतं महार्हम्।
स पादुकाभ्यां प्रथमं निवेद्य चकार पश्चाद् भरतो यथावत्॥२७॥
उस समय जो कोई भी कार्य उपस्थित होता, जो भी बहुमूल्य भेंट आती, वह सब पहले उन पादुकाओं को निवेदन करके पीछे भरत जी उसका यथावत् प्रबन्ध करते थे॥ २७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चदशाधिकशततमः सर्गः॥११५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११५॥