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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 116 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 116

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षोडशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 116)

वृद्ध कुलपतिसहित बहुत-से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना

 

प्रतियाते तु भरते वसन् रामस्तदा वने।
लक्षयामास सोढेगमथौत्सुक्यं तपस्विनाम्॥१॥

भरत के लौट जाने पर श्रीरामचन्द्रजी उन दिनों जब वन में निवास करने लगे, तब उन्होंने देखा कि वहाँ के तपस्वी उद्विग्न हो वहाँ से अन्यत्र चले जाने के लिये उत्सुक हैं॥१॥

ये तत्र चित्रकूटस्य पुरस्तात् तापसाश्रमे।
राममाश्रित्य निरतास्तानलक्षयदुत्सुकान्॥२॥

पहले चित्रकूट के उस आश्रम में जो तपस्वी श्रीराम का आश्रय लेकर सदा आनन्दमग्न रहते थे, उन्हीं को श्रीराम ने उत्कण्ठित देखा (मानो वे कहीं जाने के विषय में कुछ कहना चाहते हों) ॥ २॥

नयनैर्भुकुटीभिश्च रामं निर्दिश्य शङ्किताः।
अन्योन्यमुपजल्पन्तः शनैश्चक्रुर्मिथः कथाः॥

नेत्रों से, भौहें टेढ़ी करके, श्रीराम की ओर संकेत करके मन-ही-मन शङ्कित हो आपस में कुछ सलाह करते हुए वे तपस्वी मुनि धीरे-धीरे परस्पर वार्तालाप कर रहे थे॥३॥

तेषामौत्सुक्यमालक्ष्य रामस्त्वात्मनि शङ्कितः।
कृताञ्जलिरुवाचेदमृषिं कुलपतिं ततः॥४॥

उनकी उत्कण्ठा देख श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह शङ्का हुई कि मुझसे कोई अपराध तो नहीं बन गया। तब वे हाथ जोड़कर वहाँ के कुलपति महर्षि से इस प्रकार बोले- ॥४॥

न कश्चिद् भगवन् किंचित् पूर्ववृत्तमिदं मयि।
दृश्यते विकृतं येन विक्रियन्ते तपस्विनः॥५॥

‘भगवन् ! क्या मुझमें पूर्ववर्ती राजाओं का-सा कोई बर्ताव नहीं दिखायी देता अथवा मुझमें कोई विकृत भाव दृष्टिगोचर होता है, जिससे यहाँ के तपस्वी मुनि विकार को प्राप्त हो रहे हैं॥ ५॥

प्रमादाच्चरितं किंचित् कच्चिन्नावरजस्य मे।
लक्ष्मणस्यर्षिभिदृष्टं नानुरूपं महात्मनः॥६॥

‘क्या मेरे छोटे भाई महात्मा लक्ष्मण का प्रमादवश किया हुआ कोई ऐसा आचरण ऋषियों ने देखा है, जो उसके योग्य नहीं है॥६॥

कच्चिच्छुश्रूषमाणा वः शुश्रूषणपरा मयि।
प्रमदाभ्युचितां वृत्तिं सीता युक्तां न वर्तते॥७॥

‘अथवा क्या जो अर्घ्य-पाद्य आदि के द्वारा सदा आपलोगों की सेवा करती रही है, वह सीता इस समय मेरी सेवा में लग जाने के कारण एक गृहस्थ की सती नारी के अनुरूप ऋषियों की समुचित सेवा नहीं कर पाती है?’ ॥ ७॥

अथर्षिर्जरया वृद्धस्तपसा च जरां गतः।
वेपमान इवोवाच रामं भूतदयापरम्॥८॥

श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर एक महर्षि जो जरावस्था के कारण तो वृद्ध थे ही, तपस्या द्वारा भी वृद्ध हो गये थे, समस्त प्राणियों पर दया करने वाले श्रीराम से काँपते हुए-से बोले- ॥८॥

कुतः कल्याणसत्त्वायाः कल्याणाभिरतेः सदा।
चलनं तात वैदेह्यास्तपस्विष विशेषतः॥९॥

‘तात! जो स्वभाव से ही कल्याणमयी है और सदा सबके कल्याण में ही रत रहती है, वह विदेहनन्दिनी सीता विशेषतः तपस्वीजनों के प्रति बर्ताव करते समय अपने कल्याणमय स्वभाव से विचलित हो जाय, यह कैसे सम्भव है? ॥९॥

त्वन्निमित्तमिदं तावत् तापसान् प्रति वर्तते।
रक्षोभ्यस्तेन संविग्नाः कथयन्ति मिथः कथाः॥ १०॥

‘आपके ही कारण तापसों पर यह राक्षसों की ओर से भय उपस्थित होने वाला है, उससे उद्विग्न हुए ऋषि आपस में कुछ बातें (कानाफूसी) कर रहे हैं॥ १० ॥

रावणावरजः कश्चित् खरो नामेह राक्षसः।
उत्पाट्य तापसान् सर्वाञ्जनस्थाननिवासिनः॥ ११॥
धृष्टश्च जितकाशी च नृशंसः पुरुषादकः।
अवलिप्तश्च पापश्च त्वां च तात न मृष्यते॥ १२॥

‘तात! यहाँ वनप्रान्त में रावण का छोटा भाई खर नामक राक्षस है, जिसने जनस्थान में रहने वाले समस्त तापसों को उखाड़ फेंका है। वह बड़ा ही ढीठ, विजयोन्मत्त, क्रूर, नरभक्षी और घमंडी है। वह आपको भी सहन नहीं कर पाता है॥ ११-१२ ॥

त्वं यदाप्रभृति ह्यस्मिन्नाश्रमे तात वर्तसे।
तदाप्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान्॥१३॥

‘तात! जब से आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तबसे सब राक्षस तापसों को विशेष रूप से सताने लगे हैं।

दर्शयन्ति हि बीभत्सैः क्रूरैर्भीषणकैरपि।
नानारूपैर्विरूपैश्च रूपैरसुखदर्शनैः॥१४॥
अप्रशस्तैरशुचिभिः सम्प्रयुज्य च तापसान्।
प्रतिजन्त्यपरान् क्षिप्रमनार्याः पुरतः स्थितान्॥ १५॥

‘वे अनार्य राक्षस बीभत्स (घृणित), क्रूर और भीषण, नाना प्रकार के विकृत एवं देखने में दुःखदायक रूप धारण करके सामने आते हैं और पापजनक अपवित्र पदार्थों से तपस्वियों का स्पर्श कराकर अपने सामने खड़े हुए अन्य ऋषियों को भी पीड़ा देते हैं॥ १४-१५॥

तेषु तेष्वाश्रमस्थानेष्वबुद्धमवलीय च।
रमन्ते तापसांस्तत्र नाशयन्तोऽल्पचेतसः॥१६॥

“वे उन-उन आश्रमों में अज्ञात रूप से आकर छिप जाते हैं और अल्पज्ञ अथवा असावधान तापसों का विनाश करते हुए वहाँ सानन्द विचरते रहते हैं। १६ ।।

अवक्षिपन्ति स्रुग्भाण्डानग्नीन् सिञ्चन्ति वारिणा।
कलशांश्च प्रमर्दन्ति हवने समुपस्थिते॥१७॥

‘होमकर्म आरम्भ होनेपर वे सुक्-सुवा आदि यज्ञसामग्रियों को इधर-उधर फेंक देते हैं। प्रज्वलित अग्नि में पानी डाल देते हैं और कलशों को फोड़ डालते हैं॥

तैर्दुरात्मभिराविष्टानाश्रमान् प्रजिहासवः।
गमनायान्यदेशस्य चोदयन्त्य॒षयोऽद्य माम्॥ १८॥

‘उन दुरात्मा राक्षसों से आविष्ट हुए आश्रमों को त्याग देने की इच्छा रखकर ये ऋषिलोग आज मुझे यहाँ से अन्य स्थान में चलने के लिये प्रेरित कर रहे हैं। १८॥

तत् पुरा राम शारीरीमुपहिंसां तपस्विषु।
दर्शयन्ति हि दुष्टास्ते त्यक्ष्याम इममाश्रमम्॥ १९॥

‘श्रीराम! वे दुष्ट राक्षस तपस्वियों की शारीरिक हिंसा का प्रदर्शन करें, इसके पहले ही हम इस आश्रम को त्याग देंगे॥ १९॥

बहुमूलफलं चित्रमविदूरादितो वनम्।
अश्वस्याश्रममेवाहं श्रयिष्ये सगणः पुनः॥२०॥

‘यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक विचित्र वन है, जहाँ फल-मूलकी अधिकता है। वहीं अश्वमुनिका आश्रम है, अतः ऋषियोंके समूहको साथ लेकर मैं पुनः उसी आश्रमका आश्रय लूँगा॥ २० ॥

खरस्त्वय्यपि चायुक्तं पुरा राम प्रवर्तते।
सहास्माभिरितो गच्छ यदि बुद्धिः प्रवर्तते॥२१॥

‘श्रीराम! खर आपके प्रति भी कोई अनुचित बर्ताव करे, उसके पहले ही यदि आपका विचार हो तो हमारे साथ ही यहाँ से चल दीजिये॥ २१॥

सकलत्रस्य संदेहो नित्यं युक्तस्य राघव।
समर्थस्यापि हि सतो वासो दुःखमिहाद्य ते॥

‘रघुनन्दन! यद्यपि आप सदा सावधान रहने वाले तथा राक्षसों के दमन में समर्थ हैं, तथापि पत्नी के साथ आजकल उस आश्रम में आपका रहना संदेहजनक एवं दुःखदायक है’ ॥ २२॥

इत्युक्तवन्तं रामस्तं राजपुत्रस्तपस्विनम्।
न शशाकोत्तरैर्वाक्यैरवबढुं समुत्सुकम्॥२३॥

ऐसी बात कहकर अन्यत्र जाने के लिये उत्कण्ठित हुए उन तपस्वी मुनि को राजकुमार श्रीराम सान्त्वनाजनक उत्तरवाक्यों द्वारा वहाँ रोक नहीं सके। २३॥

अभिनन्द्य समापृच्छ्य समाधाय च राघवम्।
स जगामाश्रमं त्यक्त्वा कुलैः कुलपतिः सह। २४॥

तत्पश्चात् वे कुलपति महर्षि श्रीरामचन्द्रजी का अभिनन्दन करके उनसे पूछकर और उन्हें सान्त्वना देकर इस आश्रम को छोड़ वहाँ से अपने दल के ऋषियों के साथ चले गये॥ २४॥

रामः संसाध्य ऋषिगणमनुगमनाद् देशात् तस्मात् कुलपतिमभिवाद्य ऋषिम्।
सम्यक्प्रीतैस्तैरनुमत उपदिष्टार्थः पुण्यं वासाय स्वनिलयमुपसम्पेदे॥२५॥

श्रीरामचन्द्रजी वहाँ से जाने वाले ऋषियों के पीछे पीछे जाकर उन्हें विदा दे कुलपति ऋषि को प्रणाम करके परम प्रसन्न हुए उन ऋषियों की अनुमति ले उनके दिये हुए कर्तव्यविषयक उपदेश को सुनकर लौटे और निवास करने के लिये अपने पवित्र आश्रम में आये॥ २५॥

आश्रममृषिविरहितं प्रभुः क्षणमपि न जहौ स राघवः।
राघवं हि सततमनुगतास्तापसाश्चार्षचरिते धृतगुणाः॥ २६॥

उन ऋषियों से रहित हुए आश्रम को भगवान् श्रीराम ने एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ा। जिनका ऋषियों के समान ही चरित्र था, उन श्रीरामचन्द्रजी में निश्चय ही ऋषियों की रक्षा की शक्तिरूप गुण विद्यमान है। ऐसा विश्वास रखने वाले कुछ तपस्वीजनों ने सदा श्रीराम का ही अनुसरण किया। वे दूसरे किसी आश्रम में नहीं गये॥ २६ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षोडशाधिकशततमः सर्गः॥११६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥११६॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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