वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 118 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 118
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टादशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 118)
सीता-अनसूया-संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना तथा अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना
सा त्वेवमुक्ता वैदेही त्वनसूयानसूयया।
प्रतिपूज्य वचो मन्दं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥१॥
तपस्विनी अनसूया के इस प्रकार उपदेश देने पर किसी के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाली विदेहराजकुमारी सीता ने उनके वचनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करके धीरे-धीरे इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥१॥
नैतदाश्चर्यमार्यायां यन्मां त्वमनुभाषसे।
विदितं तु ममाप्येतद् यथा नार्याः पतिर्गुरुः॥२॥
‘देवि! आप संसार की स्त्रियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। आपके मुँह से ऐसी बातों का सुनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। नारी का गुरु पति ही है, इस विषय में जैसा आपने उपदेश किया है, यह बात मुझे भी पहले से ही विदित है॥२॥
यद्यप्येष भवेद् भर्ता अनार्यो वृत्तिवर्जितः।
अद्वैधमत्र वर्तव्यं यथाप्येष मया भवेत्॥३॥
‘मेरे पतिदेव यदि अनार्य (चरित्रहीन) तथा जीविका के साधनों से रहित (निर्धन) होते तो भी मैं बिना किसी दुविधा के इनकी सेवा में लगी रहती॥३॥
किं पुनर्यो गुणश्लाघ्यः सानुक्रोशो जितेन्द्रियः।
स्थिरानुरागो धर्मात्मा मातृवत्पितृवत्प्रियः॥४॥
‘फिर जब कि ये अपने गणों के कारण ही सबकी प्रशंसा के पात्र हैं, तब तो इनकी सेवा के लिये कहना ही क्या है। ये श्रीरघुनाथजी परम दयालु, जितेन्द्रिय, दृढ़ अनुराग रखने वाले, धर्मात्मा तथा माता-पिता के समान प्रिय हैं।॥ ४॥
यां वृत्तिं वर्तते रामः कौसल्यायां महाबलः।
तामेव नृपनारीणामन्यासामपि वर्तते॥५॥
‘महाबली श्रीराम अपनी माता कौसल्या के प्रति जैसा बर्ताव करते हैं वैसा ही महाराज दशरथ की दूसरी रानियों के साथ भी करते हैं॥५॥
सकृद् दृष्टास्वपि स्त्रीषु नृपेण नृपवत्सलः।
मातृवद् वर्तते वीरो मानमुत्सृज्य धर्मवित्॥६॥
‘महाराज दशरथ ने एक बार भी जिन स्त्रियों को प्रेमदृष्टि से देख लिया है, उनके प्रति भी ये पितृवत्सल धर्मज्ञ वीर श्रीराम मान छोड़कर माता के समान ही बर्ताव करते हैं॥६॥
आगच्छन्त्याश्च विजनं वनमेवं भयावहम्।
समाहितं हि मे श्वश्र्वा हृदये यत् स्थिरं मम॥ ७॥
‘जब मैं पति के साथ निर्जन वन में आने लगी, उस समय मेरी सास कौसल्या ने मुझे जो कर्तव्य का उपदेश दिया था, वह मेरे हृदय में ज्यों-का-त्यों स्थिरभाव से अङ्कित है॥७॥
पाणिप्रदानकाले च यत् पुरा त्वग्निसंनिधौ।
अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्॥८॥
‘पहले मेरे विवाह-काल में अग्नि के समीप माता ने मुझे जो शिक्षा दी थी, वह भी मुझे अच्छी तरह याद है।॥८॥
न विस्मृतं तु मे सर्वं वाक्यैः स्वैर्धर्मचारिणि।
पतिशुश्रूषणान्नार्यास्तपो नान्यद् विधीयते॥९॥
‘धर्मचारिणि! इसके सिवा मेरे अन्य स्वजनों ने अपने वचनों द्वारा जो-जो उपदेश किया है, वह भी मुझे भूला नहीं है। स्त्री के लिये पति की सेवा के अतिरिक्त दूसरे किसी तप का विधान नहीं है॥९॥
सावित्री पतिशुश्रूषां कृत्वा स्वर्गे महीयते।
तथावृत्तिश्च याता त्वं पतिशुश्रूषया दिवम्॥१०॥
‘सत्यवान की पत्नी सावित्री पति की सेवा करके ही स्वर्गलोक में पूजित हो रही हैं। उन्हीं के समान बर्ताव करने वाली आप (अनसूया देवी) ने भी पति की सेवा के ही प्रभाव से स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त कर लिया है॥१०॥
वरिष्ठा सर्वनारीणामेषा च दिवि देवता।
रोहिणी न विना चन्द्रं मुहूर्तमपि दृश्यते॥११॥
‘सम्पूर्ण स्त्रियों में श्रेष्ठ यह स्वर्ग की देवी रोहिणी पतिसेवा के प्रभाव से ही एक मुहूर्त के लिये भी चन्द्रमा से बिलग होती नहीं देखी जाती॥ ११ ॥
एवंविधाश्च प्रवराः स्त्रियो भर्तृदृढव्रताः।
देवलोके महीयन्ते पुण्येन स्वेन कर्मणा ॥१२॥
‘इस प्रकार दृढ़तापूर्वक पातिव्रत्य-धर्म का पालन करने वाली बहुत-सी साध्वी स्त्रियाँ अपने पुण्यकर्म के बल से देवलोक में आदर पा रही हैं ॥१२॥
ततोऽनसूया संहृष्टा श्रुत्वोक्तं सीतया वचः।
शिरसाऽऽघ्राय चोवाच मैथिली हर्षयन्त्युत॥ १३॥
तदनन्तर सीता के कहे हुए वचन सुनकर अनसूया को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने उनका मस्तक सूंघा और फिर उन मिथिलेशकुमारी का हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा
नियमैर्विविधैराप्तं तपो हि महदस्ति मे।
तत् संश्रित्य बलं सीते छन्दये त्वां शुचिव्रते॥ १४॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाली सीते! मैंने अनेक प्रकार के नियमों का पालन करके बहुत बड़ी तपस्या संचित की है। उस तपोबल का ही आश्रय लेकर मैं तुमसे इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहती हूँ॥१४॥
उपपन्नं च युक्तं च वचनं तव मैथिलि।
प्रीता चासम्युचितां सीते करवाणि प्रियं च किम्॥ १५॥
‘मिथिलेशकुमारी सीते! तुमने बहुत ही युक्तियुक्त और उत्तम वचन कहा है। उसे सुनकर मुझे बड़ा संतोष हुआ है, अतः बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा विस्मिता मन्दविस्मया।
कृतमित्यब्रवीत् सीता तपोबलसमन्विताम्॥ १६॥
उनका यह कथन सुनकर सीता को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे तपोबलसम्पन्न अनसूया से मन्द-मन्द मुसकराती हुई बोलीं-‘आपने अपने वचनों द्वारा ही मेरा सारा प्रिय कार्य कर दिया, अब और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है’।
सा त्वेवमुक्ता धर्मज्ञा तया प्रीततराभवत्।
सफलं च प्रहर्षं ते हन्त सीते करोम्यहम्॥१७॥
सीता के ऐसा कहने पर धर्मज्ञ अनसूया को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोलीं-‘सीते! तुम्हारी निर्लोभता से जो मुझे विशेष हर्ष हुआ है (अथवा तुम में जो लोभहीनता के कारण सदा आनन्दोत्सव भरा रहता है), उसे मैं अवश्य सफल करूँगी॥१७॥
इदं दिव्यं वरं माल्यं वस्त्रमाभरणानि च।
अङ्गरागं च वैदेहि महार्हमनुलेपनम्॥१८॥
मया दत्तमिदं सीते तव गात्राणि शोभयेत्।
अनुरूपमसंक्लिष्टं नित्यमेव भविष्यति॥१९॥
‘यह सुन्दर दिव्य हार, यह वस्त्र, ये आभूषण, यह अङ्गराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें देती हूँ। विदेह-नन्दिनि सीते! मेरी दी हुई ये वस्तुएँ तुम्हारे अङ्गों की शोभा बढ़ायेंगी। ये सब तुम्हारे ही योग्य हैं
और सदा उपयोग में लायी जानेपर निर्दोष एवं निर्विकार रहेंगी॥
अङ्गरागेण दिव्येन लिप्ताङ्गी जनकात्मजे।
शोभयिष्यसि भर्तारं यथा श्रीविष्णुमव्ययम्॥ २०॥
‘जनककिशोरी! इस दिव्य अङ्गराग को अङ्गों में लगाकर तुम अपने पति को उसी प्रकार सुशोभित करोगी, जैसे लक्ष्मी अविनाशी भगवान् विष्णु की शोभा बढ़ाती है’।
सा वस्त्रमङ्गरागं च भूषणानि स्रजस्तथा।
मैथिली प्रतिजग्राह प्रीतिदानमनुत्तमम्॥२१॥
प्रतिगृह्य च तत् सीता प्रीतिदानं यशस्विनी।
श्लिष्टाञ्जलिपुटा धीरा समुपास्त तपोधनाम्॥ २२॥
अनसूया की आज्ञा से धीर स्वभाव वाली यशस्विनी मिथिलेशकुमारी सीता ने उस वस्त्र, अङ्गराग, आभूषण और हार को उनकी प्रसन्नता का परम उत्तम उपहार समझकर ले लिया। उस प्रेमोपहार को ग्रहण करके वे दोनों हाथ जोड़कर उन तपोधना अनसूया की सेवामें बैठी रहीं।
तथा सीतामुपासीनामनसूया दृढव्रता।
वचनं प्रष्टमारेभे कथां कांचिदनुप्रियाम्॥२३॥
तदनन्तर इस प्रकार अपने निकट बैठी हुई सीता से दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली अनसूया ने कोई परम प्रिय कथा सुनाने के लिये इस प्रकार पूछना आरम्भ किया— ॥ २३ ॥
स्वयंवरे किल प्राप्ता त्वमनेन यशस्विना।
राघवेणेति मे सीते कथा श्रतिमुपागता॥२४॥
‘सीते! इन यशस्वी राघवेन्द्र ने तुम्हें स्वयंवर में प्राप्त किया था, यह बात मेरे सुनने में आयी है॥ २४ ॥
तां कथां श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण च मैथिलि।
यथाभूतं च कात्स्येन तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि॥ २५॥
‘मिथिलेशनन्दिनि! मैं उस वृत्तान्त को विस्तार के साथ सुनना चाहती हूँ। अतः जो कुछ जिस प्रकार हुआ, वह सब पूर्ण रूप से मुझे बताओ’ ॥ २५ ॥
एवमुक्ता तु सा सीता तापसी धर्मचारिणीम्।
श्रूयतामिति चोक्त्वा वै कथयामास तां कथाम्॥ २६॥
उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर सीता ने उन धर्मचारिणी तापसी अनसूया से कहा—’माताजी ! सुनिये।’ ऐसा कहकर उन्होंने उस कथा को इस प्रकार कहना आरम्भ किया
मिथिलाधिपतिर्वीरो जनको नाम धर्मवित्।
क्षत्रकर्मण्यभिरतो न्यायतः शास्ति मेदिनीम्॥ २७॥
‘मिथिला जनपद के वीर राजा ‘जनक’ नाम से प्रसिद्ध हैं। वे धर्म के ज्ञाता हैं, अतः क्षत्रियोचित कर्म में तत्पर रहकर न्यायपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हैं ।। २७॥
तस्य लाङ्गलहस्तस्य कृषतः क्षेत्रमण्डलम्।
अहं किलोत्थिता भित्त्वा जगतीं नृपतेः सुता॥ २८॥
‘एक समय की बात है, वे यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ में हल लेकर जोत रहे थे; इसी समय मैं पृथ्वी को फाड़कर प्रकट हुई। इतने मात्र से ही मैं राजा जनक की पुत्री हुई।
स मां दृष्ट्वा नरपतिर्मुष्टिविक्षेपतत्परः।
पांसुगुण्ठितसर्वाङ्गीं विस्मितो जनकोऽभवत्॥ २९॥
‘वे राजा उस क्षेत्र में ओषधियों को मुट्ठी में लेकर बो रहे थे। इतने ही में उनकी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। मेरे सारे अङ्गों में धूल लिपटी हुई थी। उस अवस्था में मुझे देखकर राजा जनक को बड़ा विस्मय हुआ॥ २९ ॥
अनपत्येन च स्नेहादङ्कमारोप्य च स्वयम्।
ममेयं तनयेत्युक्त्वा स्नेहो मयि निपातितः॥३०॥
‘उन दिनों उनके कोई दूसरी संतान नहीं थी, इसलिये स्नेहवश उन्होंने स्वयं मुझे गोद में ले लिया और ‘यह मेरी बेटी है’ ऐसा कहकर मुझ पर अपने हृदय का सारा स्नेह उड़ेल दिया॥ ३० ॥
अन्तरिक्षे च वागुक्ता प्रतिमामानुषी किल।
एवमेतन्नरपते धर्मेण तनया तव॥३१॥
‘इसी समय आकाशवाणी हुई, जो स्वरूपतःमानवी भाषा में कही गयी थी (अथवा मेरे विषय में प्रकट हुई वह वाणी अमानुषी दिव्य थी)। उसने कहा —’नरेश्वर! तुम्हारा कथन ठीक है, यह कन्या धर्मतः तुम्हारी ही पुत्री है’।
ततः प्रहृष्टो धर्मात्मा पिता मे मिथिलाधिपः।
अवाप्तो विपुलामृद्धिं मामवाप्य नराधिपः॥ ३२॥
‘यह आकाशवाणी सुनकर मेरे धर्मात्मा पिता मिथिला नरेश बड़े प्रसन्न हुए। मुझे पाकर उन नरेश ने मानो कोई बड़ी समृद्धि पा ली थी॥ ३२ ॥
दत्ता चास्मीष्टवद्देव्यै ज्येष्ठायै पुण्यकर्मणे।
तया सम्भाविता चास्मि स्निग्धया मातृसौहृदात्॥
‘उन्होंने पुण्यकर्मपरायणा बड़ी रानी को, जो उन्हें अधिक प्रिय थीं, मुझे दे दिया। उन स्नेहमयी महारानी ने मातृसमुचित सौहार्द से मेरा लालन-पालन किया॥ ३३॥
पतिसंयोगसुलभं वयो दृष्ट्वा तु मे पिता।
चिन्तामभ्यगमद् दीनो वित्तनाशादिवाधनः॥ ३४॥
‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गयी, तब इसके लिये वे बड़ी चिन्ता में पड़े। जैसे कमाये हुए धन का नाश हो जाने से निर्धन मनुष्य को बड़ा दुःख होता है, उसी प्रकार वे मेरे विवाह की चिन्ता से बहुत दुःखी हो गये॥ ३४॥
सदृशाच्चापकृष्टाच्च लोके कन्यापिता जनात्।
प्रधर्षणमवाप्नोति शक्रेणापि समो भुवि॥३५॥
‘संसार में कन्या के पिता को, वह भूतल पर इन्द्र के ही तुल्य क्यों न हो, वर पक्ष के लोगों से, वे अपने समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों, प्रायः अपमान उठाना पड़ता है॥ ३५ ॥
तां धर्षणामदूरस्थां संदृश्यात्मनि पार्थिवः।
चिन्तार्णवगतः पारं नाससादाप्लवो यथा॥३६॥
‘वह अपमान सहन करने की घड़ी अपने लिये बहुत समीप आ गयी है, यह देखकर राजा चिन्ता के समुद्र में डूब गये। जैसे नौकारहित मनुष्य पार नहीं पहुँच पाता, उसी प्रकार मेरे पिता भी चिन्ता का पार नहीं पा रहे थे।
अयोनिजां हि मां ज्ञात्वा नाध्यगच्छत् स चिन्तयन्।
सदृशं चाभिरूपं च महीपालः पतिं मम॥३७॥
‘मुझे अयोनिजा कन्या समझकर वे भूपाल मेरे लिये योग्य और परम सुन्दर पति का विचार करने लगे; किंतु किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके॥३७॥
तस्य बुद्धिरियं जाता चिन्तयानस्य संततम्।
स्वयंवरं तनूजायाः करिष्यामीति धर्मतः॥३८॥
‘सदा मेरे विवाह की चिन्ता में पड़े रहने वाले उन महाराज के मन में एक दिन यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं धर्मतः अपनी पुत्री का स्वयं वर करूँगा॥ ३८ ॥
महायज्ञे तदा तस्य वरुणेन महात्मना।
दत्तं धनुर्वरं प्रीत्या तूणी चाक्षय्यसायकौ॥ ३९॥
‘उन्हीं दिनों उनके एक महान् यज्ञ में प्रसन्न होकर महात्मा वरुण ने उन्हें एक श्रेष्ठ दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस दिये॥ ३९ ॥
असंचाल्यं मनुष्यैश्च यत्नेनापि च गौरवात्।
तन्न शक्ता नमयितुं स्वप्नेष्वपि नराधिपाः॥४०॥
‘वह धनुष इतना भारी था कि मनुष्य पूरा प्रयत्न करने पर भी उसे हिला भी नहीं पाते थे। भूमण्डल के नरेश स्वप्न में भी उस धनुष को झुकाने में असमर्थ थे। ४०॥
तद्धनुः प्राप्य मे पित्रा व्याहृतं सत्यवादिना।
समवाये नरेन्द्राणां पूर्वमामन्त्र्य पार्थिवान्॥४१॥
‘उस धनुष को पाकर मेरे सत्यवादी पिता ने पहले भूमण्डल के राजाओं को आमन्त्रित करके उन नरेशों के समूहमें यह बात कही— ॥४१॥
इदं च धनुरुद्यम्य सज्यं यः कुरुते नरः।
तस्य मे दुहिता भार्या भविष्यति न संशयः॥ ४२॥
‘जो मनुष्य इस धनुष को उठाकर इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा, मेरी पुत्री सीता उसी की पत्नी होगी; इसमें संशय नहीं है॥४२॥
तच्च दृष्ट्वा धनुःश्रेष्ठं गौरवाद् गिरिसंनिभम्।
अभिवाद्य नृपा जग्मुरशक्तास्तस्य तोलने॥४३॥
‘अपने भारीपन के कारण पहाड़-जैसे प्रतीत होने वाले उस श्रेष्ठ धनुष को देखकर वहाँ आये हुए राजा जब उसे उठाने में समर्थ न हो सके, तब उसे प्रणाम करके चले गये॥
सुदीर्घस्य तु कालस्य राघवोऽयं महाद्युतिः।
विश्वामित्रेण सहितो यज्ञं द्रष्टुं समागतः॥४४॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा रामः सत्यपराक्रमः।
विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा मम पित्रा सुपूजितः॥ ४५॥
‘तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् ये महातेजस्वी रघुकुल-नन्दन सत्यपराक्रमी श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को साथ ले विश्वामित्रजी के साथ मेरे पिताका यज्ञ देखने के लिये मिथिला में पधारे। उस समय मेरे पिताने धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि का बड़ा आदरसत्कार किया॥ ४४-४५॥
प्रोवाच पितरं तत्र राघवौ रामलक्ष्मणौ।
सुतौ दशरथस्येमौ धनुर्दर्शनकांक्षिणौ।
धनुर्दर्शय रामाय राजपुत्राय दैविकम्॥४६॥
‘तब वहाँ विश्वामित्रजी मेरे पिता से बोले —’राजन्! ये दोनों रघुकुलभूषण श्रीराम और लक्ष्मण महाराज दशरथ के पुत्र हैं और आपके उस दिव्य धनुष का दर्शन करना चाहते हैं। आप अपना वह देवप्रदत्त धनुष राजकुमार श्रीराम को दिखाइये’। ४६॥
इत्युक्तस्तेन विप्रेण तद् धनुः समुपानयत्।
तद् धनुर्दर्शयामास राजपुत्राय दैविकम्॥४७॥
‘विप्रवर विश्वामित्र के ऐसा कहने पर पिताजी ने उस दिव्य धनुष को मँगवाया और राजकुमार श्रीराम को उसे दिखाया॥४७॥
निमेषान्तरमात्रेण तदानम्य महाबलः।
ज्यां समारोप्य झटिति पूरयामास वीर्यवान्॥ ४८॥
‘महाबली और परम पराक्रमी श्रीराम ने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और उसे तुरंत कान तक खींचा॥ ४८॥
तेनापूरयता वेगान्मध्ये भग्नं द्विधा धनुः।
तस्य शब्दोऽभवद् भीमः पतितस्याशनेर्यथा॥ ४९॥
“उनके वेगपूर्वक खींचते समय वह धनुष बीच से ही टूट गया और उसके दो टुकड़े हो गये। उसके टूटते समय ऐसा भयंकर शब्द हुआ मानो वहाँ वज्र टूट पड़ा हो॥ ४९॥
ततोऽहं तत्र रामाय पित्रा सत्याभिसंधिना।
उद्यता दातुमुद्यम्य जलभाजनमुत्तमम्॥५०॥
‘तब मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिताने जल का उत्तम पात्र लेकर श्रीराम के हाथ में मुझे दे देने का उद्योग किया। ५०॥
दीयमानां न तु तदा प्रतिजग्राह राघवः।
अविज्ञाय पितुश्छन्दमयोध्याधिपतेः प्रभोः॥ ५१॥
‘उस समय अपने पिता अयोध्यानरेश महाराज दशरथ के अभिप्राय को जाने बिना श्रीराम ने राजा जनक के देने पर भी मुझे नहीं ग्रहण किया॥५१॥
ततः श्वशुरमामन्त्र्य वृद्धं दशरथं नृपम्।
मम पित्रा त्वहं दत्तां रामाय विदितात्मने॥५२॥
‘तदनन्तर मेरे बूढ़े श्वशुर राजा दशरथ की अनुमति लेकर पिताजी ने आत्मज्ञानी श्रीराम को मेरा दान कर दिया॥५२॥
मम चैवानुजा साध्वी ऊर्मिला शुभदर्शना।
भार्यार्थे लक्ष्मणस्यापि दत्ता पित्रा मम स्वयम्॥ ५३॥
‘तत्पश्चात् पिताजी ने स्वयं ही मेरी छोटी बहिन सती साध्वी परम सुन्दरी ऊर्मिला को लक्ष्मण की पत्नी रूप से उनके हाथ में दे दिया॥५३॥
एवं दत्तास्मि रामाय तथा तस्मिन् स्वयंवरे।
अनुरक्तास्मि धर्मेण पतिं वीर्यवतां वरम्॥५४॥
‘इस प्रकार उस स्वयंवर में पिताजी ने श्रीराम के हाथ में मुझको सौंपा था। मैं धर्म के अनुसार अपने पति बलवानों में श्रेष्ठ श्रीराम में सदा अनुरक्त रहती हूँ’॥ ५४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टादशाधिकशततमः सर्गः॥११८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११८॥