वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 119 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 119
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनविंशत्यधिकशततमः सर्गः (सर्ग 119)
अनसूया की आज्ञा से सीता का उनके दिये हुए वस्त्राभूषणों को धारण करके श्रीरामजी के पास आना
अनसूया तु धर्मज्ञा श्रुत्वा तां महतीं कथाम्।
पर्यष्वजत बाहुभ्यां शिरस्याघ्राय मैथिलीम्॥१॥
धर्म को जानने वाली अनसूया ने उस लंबी कथा को सुनकर मिथिलेशकुमारी सीता को अपनी दोनों भुजाओं से अङ्क में भर लिया और उनका मस्तक सूंघकर कहा
व्यक्ताक्षरपदं चित्रं भाषितं मधुरं त्वया।
यथा स्वयंवरं वृत्तं तत् सर्वं च श्रुतं मया॥२॥
‘बेटी! तुमने सुस्पष्ट अक्षर वाले शब्दों में यह विचित्र एवं मधुर प्रसङ्ग सुनाया। तुम्हारा स्वयंवर जिस प्रकार हुआ था, वह सब मैंने सुन लिया॥२॥
रमेयं कथया ते तु दृढं मधुरभाषिणि।
रविरस्तं गतः श्रीमानुपोह्य रजनीं शुभाम्॥३॥
दिवसं परिकीर्णानामाहारार्थं पतत्त्रिणाम्।
संध्याकाले निलीनानां निद्रार्थं श्रूयते ध्वनिः॥ ४॥
‘मधुरभाषिणी सीते! तुम्हारी इस कथा में मेरा मन बहुत लग रहा है; तथापि तेजस्वी सूर्यदेव रजनी की शुभ वेला को निकट पहुँचाकर अस्त हो गये। जो दिन में चारा चुगने के लिये चारों ओर छिटके हुए थे, वे पक्षी अब संध्याकाल में नींद लेने के लिये अपने घोंसलों में आकर छिप गये हैं; उनकी यह ध्वनि सुनायी दे रही है।
एते चाप्यभिषेकार्द्रा मुनयः कलशोद्यताः।
सहिता उपवर्तन्ते सलिलाप्लुतवल्कलाः॥५॥
‘ये जल से भीगे हुए वल्कल धारण करने वाले मुनि, जिनके शरीर स्नान के कारण आर्द्र दिखायी देते हैं, जलसे भरे कलश उठाये एक साथ आश्रम की ओर लौट रहे हैं।॥ ५ ॥
अग्निहोत्रे च ऋषिणा हुते च विधिपूर्वकम्।
कपोताङ्गारुणो धूमो दृश्यते पवनोद्धतः॥६॥
‘महर्षि (अत्रि) ने विधिपूर्वक अग्निहोत्र-सम्बन्धी होमकर्म सम्पन्न कर लिया है, अतः वायु के वेग से ऊपर को उठा हुआ यह कबूतर के कण्ठ की भाँति श्यामवर्ण का धूम दिखायी दे रहा है॥६॥
अल्पवर्णा हि तरवो घनीभूताः समन्ततः।
विप्रकृष्टेन्द्रिये देशे न प्रकाशन्ति वै दिशः॥७॥
‘अपनी इन्द्रियों से दूर देश में चारों ओर जो वृक्ष दिखायी देते हैं, वे थोड़े पत्तेवाले होने पर भी अन्धकार से व्याप्त हो घनीभूत हो गये हैं; अतएव दिशाओं का भान नहीं हो रहा है ॥७॥
रजनीचरसत्त्वानि प्रचरन्ति समन्ततः।
तपोवनमृगा ह्येते वेदितीर्थेषु शेरते॥८॥
‘रात को विचरने वाले प्राणी (उल्लू आदि) सब ओर विचरण कर रहे हैं तथा ये तपोवन के मृग पुण्यक्षेत्र स्वरूप आश्रम के वेदी आदि विभिन्न प्रदेशों में सो रहे हैं।॥ ८॥
सम्प्रवृत्ता निशा सीते नक्षत्रसमलंकृता।
ज्योत्स्नाप्रावरणश्चन्द्रो दृश्यतेऽभ्युदितोऽम्बरे॥
‘सीते! अब रात हो गयी, वह नक्षत्रों से सज गयी है। आकाश में चन्द्रदेव चाँदनी की चादर ओढ़े उदित दिखायी देते हैं॥९॥
गम्यतामनुजानामि रामस्यानुचरी भव।
कथयन्त्या हि मधुरं त्वयाहमपि तोषिता॥१०॥
‘अतः अब जाओ, मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूँ। जाकर श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में लग जाओ। तुमने अपनी मीठी-मीठी बातों से मुझे भी बहुत संतुष्ट किया है॥१०॥
अलंकुरु च तावत् त्वं प्रत्यक्षं मम मैथिलि।
प्रीतिं जनय मे वत्से दिव्यालंकारशोभिनी॥११॥
‘बेटी! मिथिलेशकुमारी! पहले मेरी आँखों के सामने अपने-आपको अलंकृत करो। इन दिव्य वस्त्र और आभूषणों को धारण करके इनसे सुशोभित हो मुझे प्रसन्न करो’॥
सा तदा समलंकृत्य सीता सुरसुतोपमा।
प्रणम्य शिरसा पादौ रामं त्वभिमुखी ययौ॥ १२॥
यह सुनकर देवकन्या के समान सुन्दरी सीता ने उस समय उन वस्त्राभूषणों से अपना शृङ्गार किया और अनसूया के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करने के अनन्तर वे श्रीराम के सम्मुख गयीं॥ १२ ॥
तथा तु भूषितां सीतां ददर्श वदतां वरः।
राघवः प्रीतिदानेन तपस्विन्या जहर्ष च॥१३॥
श्रीराम ने जब इस प्रकार सीता को वस्त्र और आभूषणों से विभूषित देखा, तब तपस्विनी अनसूया के उस प्रेमोपहार के दर्शन से वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजी को बड़ी प्रसन्नता हुई॥ १३॥
न्यवेदयत् ततः सर्वं सीता रामाय मैथिली।
प्रीतिदानं तपस्विन्या वसनाभरणस्रजाम्॥१४॥
उस समय मिथिलेशकुमारी सीता ने तपस्विनी अनसूया के हाथ से जिस प्रकार वस्त्र, आभूषण और हार आदि का प्रेमोपहार प्राप्त हुआ था, वह सब श्रीरामचन्द्रजी से कह सुनाया।॥ १४ ॥
प्रहृष्टस्त्वभवद् रामो लक्ष्मणश्च महारथः।
मैथिल्याः सत्क्रियां दृष्ट्वा मानुषेषु सुदुर्लभाम्॥
भगवान् श्रीराम और महारथी लक्ष्मण सीता का वह सत्कार, जो मनुष्यों के लिये सर्वथा दुर्लभ है, देखकर बहुत प्रसन्न हुए॥ १५ ॥
ततः स शर्वरीं प्रीतः पुण्यां शशिनिभाननाम्।
अर्चितस्तापसैः सर्वैरुवास रघुनन्दनः॥१६॥
तदनन्तर समस्त तपस्विजनों से सम्मानित हुए रघुकुलनन्दन श्रीराम ने अनसूया के दिये हुए पवित्र अलंकार आदि से अलंकृत चन्द्रमुखी सीता को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ रात्रिभर निवास किया॥१६॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामभिषिच्य हुताग्निकान्।
आपृच्छेतां नरव्याघ्रौ तापसान् वनगोचरान्॥ १७॥
वह रात बीतने पर जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण ने उनसे जाने के लिये आज्ञा माँगी॥ १७॥
तावूचुस्ते वनचरास्तापसा धर्मचारिणः।
वनस्य तस्य संचारं राक्षसैः समभिप्लुतम्॥१८॥
रक्षांसि पुरुषादानि नानारूपाणि राघव।
वसन्त्यस्मिन् महारण्ये व्यालाश्च रुधिराशनाः॥ १९॥
तब वे धर्मपरायण वनवासी तपस्वी उन दोनों भाइयों से इस प्रकार बोले—’रघुनन्दन! इस वन का मार्ग राक्षसों से आक्रान्त है—यहाँ उनका उपद्रव होता रहता है। इस विशाल वन में नानारूपधारी नरभक्षी राक्षस तथा रक्तभोजी हिंसक पशु निवास करते हैं। १८-१९॥
उच्छिष्टं वा प्रमत्तं वा तापसं ब्रह्मचारिणम्।
अदन्त्यस्मिन् महारण्ये तान् निवारय राघव॥ २०॥
‘राघवेन्द्र ! जो तपस्वी और ब्रह्मचारी यहाँ अपवित्र अथवा असावधान अवस्था में मिल जाता है, उसे वे राक्षस और हिंसक जन्तु इस महान् वन में खा जाते हैं; अतः आप उन्हें रोकिये—यहाँ से मार भगाइये।२०॥
एष पन्था महर्षीणां फलान्याहरतां वने।
अनेन तु वनं दुर्गं गन्तुं राघव ते क्षमम्॥२१॥
‘रघुकुलभूषण! यही वह मार्ग है, जिससे महर्षि लोग वन के भीतर फल-मूल लेने के लिये जाते हैं। आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिये’॥ २१॥
इतीरितः प्राञ्जलिभिस्तपस्विभिर्द्विजैः कृतस्वस्त्ययनः परंतपः।
वनं सभार्यः प्रविवेश राघवः सलक्ष्मणः सूर्य इवाभ्रमण्डलम्॥२२॥
तपस्वी ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर जब ऐसी बातें कहीं और उनकी मङ्गलयात्रा के लिये स्वस्तिवाचन किया, तब शत्रुओं को संताप देने वाले भगवान् श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ उस वन में प्रवेश किया, मानो सूर्यदेव मेघों की घटा के भीतर घुस गये हों॥ २२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनविंशत्यधिकशततमः सर्गः॥११९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११९॥
। अयोध्याकाण्डं सम्पूर्णम् ।