वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 12
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
दादशः सर्गः (सर्ग 12)
महाराज दशरथ की चिन्ता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगने के लिये अनुरोध करना
ततः श्रुत्वा महाराजः कैकेय्या दारुणं वचः।
चिन्तामभिसमापेदे मुहर्तं प्रतताप च॥१॥
कैकेयीcका यह कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथcको बड़ी चिन्ता हुई वे एक मुहूर्त तक अत्यन्त संताप करते रहे॥१॥
किं नु मेऽयं दिवास्वप्नश्चित्तमोहोऽपि वा मम।
अनुभूतोपसर्गो वा मनसो वाप्युपद्रवः॥२॥
उन्होंने सोचा–’क्या दिन में ही यह मुझे स्वप्न दिखायी दे रहा है ? अथवा मेरे चित्त का मोह है ? या किसी भूत (ग्रह आदि) के आवेश से चित्त में विकलता आ गयी है? या आधि-व्याधि के कारण यह कोई मन का ही उपद्रव है’ ॥ २॥
इति संचिन्त्य तद् राजा नाध्यगच्छत् तदासुखम्।
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां कैकेयीवाक्यतापितः॥३॥
यही सोचते हुए उन्हें अपने भ्रम के कारण का पता नहीं लगा। उस समय राजा को मूर्च्छित कर देने वाला महान् दुःख प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् होश में आने पर कैकेयी की बात को याद करके उन्हें पुनः संताप होने लगा॥३॥
व्यथितो विक्लवश्चैव व्याघ्रीं दृष्ट्वा यथा मृगः।
असंवृतायामासीनो जगत्यां दीर्घमुच्छ्वसन्॥४॥
मण्डले पन्नगो रुद्वो मन्त्रैरिव महाविषः।
जैसे किसी बाघिन को देखकर मृग व्यथित हो जाता है, उसी प्रकार वे नरेश कैकेयी को देखकर पीड़ित एवं व्याकुल हो उठे। बिस्तररहित खाली भूमि पर बैठे हुए राजा लंबी साँस खींचने लगे मानो कोई महा विषैला सर्प किसी मण्डल में मन्त्रों द्वारा अवरुद्ध हो गया हो॥ ४ १/२॥
अहो धिगिति सामर्षो वाचमुक्त्वा नराधिपः॥
मोहमापेदिवान् भूयः शोकोपहतचेतनः।
राजा दशरथ रोष में भरकर ‘अहो! धिक्कार है’ यह कहकर पुनः मूर्च्छित हो गये। शोक के कारण उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी।॥ ५ १/२॥
चिरेण तु नृपः संज्ञां प्रतिलभ्य सुदुःखितः॥६॥
कैकेयीमब्रवीत् क्रुद्धो निर्दहन्निव तेजसा।
बहुत देर के बाद जब उन्हें फिर चेत हुआ, तब वे नरेश अत्यन्त दुःखी होकर कैकेयी को अपने तेज से दग्ध-सी करते हुए क्रोधपूर्वक उससे बोले- ॥ ६ १/२॥
नृशंसे दुष्टचारित्रे कुलस्यास्य विनाशिनि॥७॥
किं कृतं तव रामेण पापे पापं मयापि वा।
‘दयाहीन दुराचारिणी कैकेयि! तू इस कुल का विनाश करने वाली डाइन है। पापिनि! बता, मैंने अथवा श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है? ॥ ७ १/२॥
सदा ते जननीतुल्यां वृत्तिं वहति राघवः॥८॥
तस्यैवं त्वमनर्थाय किंनिमित्तमिहोद्यता।
‘श्रीरामचन्द्र तो तेरे साथ सदा सगी माता का-सा बर्ताव करते आये हैं; फिर तू किसलिये उनका इस तरह अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है॥ ८ १/२॥
त्वं मयाऽऽत्मविनाशाय भवनं स्वं निवेशिता॥ ९॥
अविज्ञानान्नृपसुता व्याला तीक्ष्णविषा यथा।
‘मालूम होता है-मैंने अपने विनाश के लिये ही तुझे अपने घर में लाकर रखा था। मैं नहीं जानता था कि तू राजकन्या के रूप में तीखे विषवाली नागिन है॥ ९१/२॥
जीवलोको यदा सर्वो रामस्याह गुणस्तवम्॥ १०॥
अपराधं कमुद्दिश्य त्यक्ष्यामीष्टमहं सुतम्।
‘जब सारा जीव-जगत् श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करता है, तब मैं किस अपराध के कारण अपने उस प्यारे पुत् रको त्याग दूं? ॥ १० १/२ ॥
कौसल्यां च सुमित्रां च त्यजेयमपि वा श्रियम्॥ ११॥
जीवितं चात्मनो रामं न त्वेव पितृवत्सलम्।
‘मैं कौसल्या और सुमित्रा को भी छोड़ सकता हूँ, राजलक्ष्मी का भी परित्याग कर सकता हूँ, परंतु अपने प्राणस्वरूप पितृभक्त श्रीराम को नहीं छोड़ सकता॥ ११ १/२॥
परा भवति मे प्रीतिर्दृष्ट्वा तनयमग्रजम्॥ १२॥
अपश्यतस्तु मे रामं नष्टं भवति चेतनम्।
‘अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखते ही मेरे हृदय में परमप्रेम उमड़ आता है; परंतु जब मैं श्रीराम को नहीं देखता हूँ, तब मेरी चेतना नष्ट होने लगती है॥ १२ १/२॥
तिष्ठेल्लोको विना सूर्यं सस्यं वा सलिलं विना॥ १३॥
न तु रामं विना देहे तिष्ठेत्तु मम जीवितम्।
‘सम्भव है सूर्य के बिना यह संसार टिक सके अथवा पानी के बिना खेती उपज सके, परंतु श्रीराम के बिना मेरे शरीर में प्राण नहीं रह सकते॥ १३ १/२॥
तदलं त्यज्यतामेष निश्चयः पापनिश्चये॥१४॥
अपि ते चरणौ मूर्ना स्पृशाम्येष प्रसीद मे।
किमर्थं चिन्तितं पापे त्वया परमदारुणम्॥१५॥
‘अतः ऐसा वर माँगने से कोई लाभ नहीं। पापपूर्ण निश्चयवाली कैकेयि! तू इस निश्चय अथवा दुराग्रह को त्याग दे। यह लो, मैं तेरे पैरों पर अपना मस्तक रखता हूँ, मुझ पर प्रसन्न हो जा। पापिनि! तूने ऐसी परम क्रूरतापूर्ण बात किसलिये सोची है?॥ १४-१५॥
अथ जिज्ञाससे मां त्वं भरतस्य प्रियाप्रिये।
अस्तु यत्तत्त्वया पूर्वं व्याहृतं राघवं प्रति॥१६॥
‘यदि यह जानना चाहती है कि भरत मुझे प्रिय हैं या अप्रिय तो रघुनन्दन भरत के सम्बन्ध में तू पहले जो कुछ कह चुकी है, वह पूर्ण हो अर्थात् तेरे प्रथम वर के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ॥१६॥
स मे ज्येष्ठसुतः श्रीमान् धर्मज्येष्ठ इतीव मे।
तत् त्वया प्रियवादिन्या सेवार्थं कथितं भवेत्॥ १७॥
‘तू पहले कहा करती थी कि ‘श्रीराम मेरे बड़े बेटे हैं, वे धर्माचरण में भी सबसे बड़े हैं!’ परंतु अब मालूम हुआ कि तू ऊपर-ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें किया करती थी और वह बात तूने श्रीराम से अपनी सेवा कराने के लिये ही कही होगी॥ १७॥
तच्छ्रुत्वा शोकसंतप्ता संतापयसि मां भृशम्।
आविष्टासि गृहे शून्ये सा त्वं परवशं गता॥१८॥
‘आज श्रीराम के अभिषेक की बात सुनकर तू शोक से संतप्त हो उठी है और मुझे भी बहुत संताप दे रही है; इससे जान पड़ता है कि इस सूने घर में तुझपर भूत आदि का आवेश हो गया है, अतः तू परवश होकर ऐसी बातें कह रही है।॥ १८॥
इक्ष्वाकूणां कुले देवि सम्प्राप्तः सुमहानयम्।
अनयो नयसम्पन्ने यत्र ते विकृता मतिः॥१९॥
‘देवि! न्यायशील इक्ष्वाकुवंशमें यह बड़ा भारी अन्याय आकर उपस्थित हुआ है, जहाँ तेरी बुद्धि इस प्रकार विकृत हो गयी है॥ १९॥
नहि किंचिदयुक्तं वा विप्रियं वा पुरा मम।
अकरोस्त्वं विशालाक्षि तेन न श्रद्दधामि ते॥ २०॥
‘विशाललोचने! आज से पहले तूने कभी कोई ऐसा आचरण नहीं किया है, जो अनुचित अथवा मेरे लिये अप्रिय हो; इसीलिये तेरी आजकी बात पर भी मुझे विश्वास नहीं होता है॥ २०॥
ननु ते राघवस्तुल्यो भरतेन महात्मना।
बहुशो हि स्म बाले त्वं कथाः कथयसे मम॥ २१॥
‘तेरे लिये तो श्रीराम भी महात्मा भरत के ही तुल्य हैं। बाले! तू बहुत बार बातचीत के प्रसंग में स्वयं ही यह बात मुझसे कहती रही है॥२१॥
तस्य धर्मात्मनो देवि वने वासं यशस्विनः।
कथं रोचयसे भीरु नव वर्षाणि पञ्च च॥२२॥
‘भीरु स्वभाववाली देवि! उन्हीं धर्मात्मा और यशस्वी श्रीराम का चौदह वर्षों के लिये वनवास तुझे कैसे अच्छा लगता है ? ॥ २२ ॥
अत्यन्तसुकुमारस्य तस्य धर्मे कृतात्मनः।
कथं रोचयसे वासमरण्ये भृशदारुणे॥२३॥
‘जो अत्यन्त सुकुमार और धर्म में दृढ़तापूर्वक मन लगाये रखने वाले हैं, उन्हीं श्रीराम को वनवास देना तुझे कैसे रुचिकर जान पड़ता है ? अहो! तेरा हृदय बड़ा कठोर है॥ २३॥
रोचयस्यभिरामस्य रामस्य शुभलोचने।
तव शुश्रूषमाणस्य किमर्थं विप्रवासनम्॥२४॥
‘सुन्दर नेत्रों वाली कैकेयि! जो सदा तेरी सेवा। शुश्रूषा में लगे रहते हैं, उन नयनाभिराम श्रीराम को देश निकाला दे देने की इच्छा तुझे किसलिये हो रही है ? ॥
रामो हि भरताद् भूयस्तव शुश्रूषते सदा।
विशेषं त्वयि तस्मात् तु भरतस्य न लक्षये॥ २५॥
‘मैं देखता हूँ, भरत से अधिक श्रीराम ही सदा तेरी सेवा करते हैं। भरत उनसे अधिक तेरी सेवा में रहते हों, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा है॥ २५ ॥
शुश्रूषां गौरवं चैव प्रमाणं वचनक्रियाम्।
कस्तु भूयस्तरं कुर्यादन्यत्र पुरुषर्षभात्॥ २६॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम से बढ़कर दूसरा कौन है, जो गुरुजनों की सेवा करने, उन्हें गौरव देने, उनकी बातों को मान्यता देने और उनकी आज्ञा का तुरंत पालन करने में अधिक तत्परता दिखाता हो॥२६॥
बहूनां स्त्रीसहस्राणां बहूनां चोपजीविनाम्।
परिवादोऽपवादो वा राघवे नोपपद्यते॥२७॥
‘मेरे यहाँ कई सहस्र स्त्रियाँ हैं और बहुत-से उपजीवी भृत्यजन हैं, परंतु किसी के मुँह से श्रीराम के सम्बन्ध में सच्ची या झूठी किसी प्रकार की शिकायत नहीं सुनी जाती॥२७॥
सान्त्वयन् सर्वभूतानि रामः शुद्धेन चेतसा।
गृह्णाति मनुजव्याघ्रः प्रियैर्विषयवासिनः ॥२८॥
‘पुरुषसिंह श्रीराम समस्त प्राणियोंको शुद्ध हृदयसे सान्त्वना देते हुए प्रिय आचरणोंद्वारा राज्यकी समस्त प्रजाओंको अपने वशमें किये रहते हैं।॥ २८॥
सत्येन लोकाञ्जयति द्विजान् दानेन राघवः ।
गुरूञ्छुश्रूषया वीरो धनुषा युधि शात्रवान्॥ २९॥
‘वीर श्रीरामचन्द्र अपने सात्त्विक भाव से समस्त लोकों को, दानके द्वारा द्विजों को, सेवा से गुरुजनों को और धनुष-बाणद्वारा युद्ध स्थल में शत्रु-सैनिकों को जीतकर अपने अधीन कर लेते हैं॥ २९ ॥
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम्।
विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे॥३०॥
‘सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, विद्या और गुरु-शुश्रूषा—ये सभी सद्गुण श्रीराम में स्थिररूप से रहते हैं॥ ३० ॥
तस्मिन्नार्जवसम्पन्ने देवि देवोपमे कथम्।
पापमाशंससे रामे महर्षिसमतेजसि॥३१॥
‘देवि! महर्षियों के समान तेजस्वी उन सीधे-सादे देवतुल्य श्रीराम का तू क्यों अनिष्ट करना चाहती है ? ॥
न स्मराम्यप्रियं वाक्यं लोकस्य प्रियवादिनः।
“स कथं त्वत्कृते रामं वक्ष्यामि प्रियमप्रियम्॥ ३२॥
‘श्रीराम सब लोगों से प्रिय बोलते हैं उन्होंने कभी किसी को अप्रिय वचन कहा हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। ऐसे सर्वप्रिय राम से मैं तेरे लिये अप्रिय बात कैसे कहूँगा? ॥ ३२॥
क्षमा यस्मिंस्तपस्त्यागः सत्यं धर्मः कृतज्ञता।
अप्यहिंसा च भूतानां तमृते का गतिर्मम॥३३॥
‘जिनमें क्षमा, तप, त्याग, सत्य, धर्म, कृतज्ञता और समस्त जीवों के प्रति दया भरी हुई है, उन श्रीराम के बिना मेरी क्या गति होगी? ॥ ३३॥
मम वृद्धस्य कैकेयि गतान्तस्य तपस्विनः।
दीनं लालप्यमानस्य कारुण्यं कर्तुमर्हसि ॥३४॥
‘कैकेयि! मैं बूढ़ा हूँ। मौत के किनारे बैठा हूँ। मेरी अवस्था शोचनीय हो रही है और मैं दीनभाव से तेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुझे मुझ पर दया करनी चाहिये॥
पृथिव्यां सागरान्तायां यत् किंचिदधिगम्यते।
तत् सर्वं तव दास्यामि मा च त्वं मन्युमाविश॥ ३५॥
‘समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर जो कुछ मिल सकता है, वह सब मैं तुझे दे दूंगा, परंतु तू ऐसे दुराग्रह में न पड़, जो मुझे मौत के मुँह में ढकेलने वाला हो॥ ३५ ॥
अञ्जलिं कुर्मि कैकेयि पादौ चापि स्पृशामि ते।
शरणं भव रामस्य माधर्मो मामिह स्पृशेत्॥३६॥
‘केकयनन्दिनि! मैं हाथ जोड़ता हूँ और तेरे पैरों पड़ता हूँ। तू श्रीराम को शरण दे, जिससे यहाँ मुझे पाप न लगे’ ॥ ३६॥
इति दुःखाभिसंतप्तं विलपन्तमचेतनम्।
घूर्णमानं महाराजं शोकेन समभिप्लुतम्॥३७॥
पारं शोकार्णवस्याशु प्रार्थयन्तं पुनः पुनः।
प्रत्युवाचाथ कैकेयी रौद्रा रौद्रतरं वचः॥ ३८॥
महाराज दशरथ इस प्रकार दुःख से संतप्त होकर विलाप कर रहे थे। उनकी चेतना बार-बार लुप्त हो जाती थी। उनके मस्तिष्क में चक्कर आ रहा था और वे शोकमग्न हो उस शोक सागर से शीघ्र पार होने के लिये बारंबार अनुनय-विनय कर रहे थे, तो भी कैकेयी का हृदय नहीं पिघला। वह और भी भीषण रूप धारण करके अत्यन्त कठोर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगी- ॥ ३७-३८॥
यदि दत्त्वा वरौ राजन् पुनः प्रत्यनुतप्यसे।
धार्मिकत्वं कथं वीर पृथिव्यां कथयिष्यसि॥ ३९॥
‘राजन्! यदि दो वरदान देकर आप फिर उनके लिये पश्चात्ताप करते हैं तो वीर नरेश्वर! इस भूमण्डल में आप अपनी धार्मिकता का ढिंढोरा कैसे पीट सकेंगे?॥
यदा समेता बहवस्त्वया राजर्षयः सह।
कथयिष्यन्ति धर्मज्ञ तत्र किं प्रतिवक्ष्यसि ॥४०॥
‘धर्मके ज्ञाता महाराज! जब बहुत-से राजर्षि एकत्र होकर आपके साथ मुझे दिये हुए वरदान के विषय में बातचीत करेंगे, उस समय वहाँ आप उन्हें क्या उत्तर देंगे?॥ ४०॥
यस्याः प्रसादे जीवामि या च मामभ्यपालयत्।
तस्याः कृता मया मिथ्या कैकेय्या इति वक्ष्यसि॥ ४१॥
‘यही कहेंगे न, कि जिसके प्रसाद से मैं जीवित हूँ, । जिसने (बहुत बड़े संकट से) मेरी रक्षा की, उसी कैकेयी को वर देने के लिये की हुई प्रतिज्ञा मैंने झूठी कर दी॥ ४१॥
किल्बिषं त्वं नरेन्द्राणां करिष्यसि नराधिप।
यो दत्त्वा वरमद्यैव पुनरन्यानि भाषसे॥४२॥
‘महाराज! आज ही वरदान देकर यदि आप फिर उससे विपरीत बात कहेंगे तो अपने कुल के राजाओं के माथे कलंक का टीका लगायेंगे॥ ४२ ॥
शैब्यः श्येनकपोतीये स्वमांसं पक्षिणे ददौ।
अलर्कश्चक्षुषी दत्त्वा जगाम गतिमुत्तमाम्॥ ४३॥
‘राजा शैब्य ने बाज और कबूतर के झगड़े में (कबूतर के प्राण बचाने की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये) बाज नामक पक्षी को अपने शरीर का मांस काटकर दे दिया था। इसी तरह राजा अलर्क ने (एक अंधे ब्राह्मण को) अपने दोनों नेत्रों का दान करके परम उत्तम गति प्राप्त की थी॥४३॥
सागरः समयं कृत्वा न वेलामतिवर्तते।
समयं मानृतं कार्षीः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥४४॥
‘समुद्रने (देवताओंके समक्ष) अपनी नियत सीमा को न लाँघने की प्रतिज्ञा की थी, सो अब तक वह उसका उल्लङ्घन नहीं करता है। आप भी पूर्ववर्ती महापुरुषों के बर्ताव को सदा ध्यान में रखकर अपनी प्रतिज्ञा झूठी न करें। ४४॥
स त्वं धर्मं परित्यज्य रामं राज्येऽभिषिच्य च।
सह कौसल्यया नित्यं रन्तुमिच्छसि दर्मते॥४५॥
(परंतु आप मेरी बात क्यों सुनेंगे?) दुर्बुद्धि नरेश! आप तो धर्मको तिलाञ्जलि देकर श्रीराम को राज्यपर अभिषिक्त करके रानी कौसल्या के साथ सदा मौज उड़ाना चाहते हैं॥ ४५ ॥
भवत्वधर्मो धर्मो वा सत्यं वा यदि वानृतम्।
यत्त्वया संश्रुतं मह्यं तस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥ ४६॥
‘अब धर्म हो या अधर्म, झूठ हो या सच, जिस बात के लिये आपने मुझसे प्रतिज्ञा कर ली है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता॥ ४६॥
अहं हि विषमद्यैव पीत्वा बहु तवाग्रतः।
पश्यतस्ते मरिष्यामि रामो यद्यभिषिच्यते॥४७॥
‘यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा तो मैं आपके सामने आपके देखते-देखते आज ही बहुत-सा विष पीकर मर जाऊँगी॥४७॥
एकाहमपि पश्येयं यद्यहं राममातरम्।
“अञ्जलिं प्रतिगृह्णन्तीं श्रेयो ननु मृतिर्मम॥४८॥
‘यदि मैं एक दिन भी राम माता कौसल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूँगी तो उस समय मैं अपने लिये मर जाना ही अच्छा समझूगी॥ ४८॥
भरतेनात्मना चाहं शपे ते मनुजाधिप।
यथा नान्येन तुष्येयमृते रामविवासनात्॥४९॥
‘नरेश्वर! मैं आपके सामने अपनी और भरत की शपथ खाकर कहती हूँ कि श्रीराम को इस देश से निकाल देने के सिवा दूसरे किसी वर से मुझे संतोष नहीं होगा’॥
एतावदुक्त्वा वचनं कैकेयी विरराम ह।
विलपन्तं च राजानं न प्रतिव्याजहार सा॥५०॥
इतना कहकर कैकेयी चुप हो गयी। राजा बहुत रोये-गिड़गिड़ाये; किंतु उसने उनकी किसी बातका जवाब नहीं दिया॥५०॥
श्रुत्वा तु राजा कैकेय्या वाक्यं परमशोभनम्।
रामस्य च वने वासमैश्वर्यं भरतस्य च॥५१॥
नाभ्यभाषत कैकेयीं मुहूर्तं व्याकुलेन्द्रियः।
प्रेक्षतानिमिषो देवीं प्रियामप्रियवादिनीम्॥५२॥
‘श्रीराम का वनवास हो और भरत का राज्याभिषेक’ कैकेयी के मुख से यह परम अमङ्गलकारी वचन सुनकर राजा की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे एक मुहूर्त तक कैकेयी से कुछ न बोले। उस अप्रिय वचन बोलने वाली प्यारी रानी की ओर केवल एकटक दृष्टि से देखते रहे।
तां हि वज्रसमां वाचमाकर्ण्य हृदयाप्रियाम्।
दुःखशोकमयीं श्रुत्वा राजा न सुखितोऽभवत्॥
मन को अप्रिय लगने वाली कैकेयी की वह वज्र के समान कठोर तथा दुःख-शोकमयी वाणी सुनकर राजा को बड़ा दुःख हुआ उनकी सुख-शान्ति छिन गयी॥
स देव्या व्यवसायं च घोरं च शपथं कृतम्।
ध्यात्वा रामेति निःश्वस्य च्छिन्नस्तरुरिवापतत्॥ ५४॥
देवी कैकेयी के उस घोर निश्चय और किये हुए शपथ की ओर ध्यान जाते ही वे ‘हा राम!’ कहकर लंबी साँस खींचते हुए कटे वृक्षकी भाँति गिर पड़े। ५४॥
नष्टचित्तो यथोन्मत्तो विपरीतो यथातुरः।
हृततेजा यथा सर्पो बभूव जगतीपतिः॥५५॥
उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी। वे उन्मादग्रस्त-से प्रतीत होने लगे। उनकी प्रकृति विपरीत-सी हो गयी। वे रोगी-से जान पड़ते थे। इस प्रकार भूपाल दशरथ मन्त्रसे जिसका तेज हर लिया गया हो उस सर्प के समान निश्चेष्ट हो गये॥ ५५॥
दीनयाऽऽतुरया वाचा इति होवाच कैकयीम्।
अनर्थमिममर्थाभं केन त्वम्पदेशिता॥५६॥
तदनन्तर उन्होंने दीन और आतुर वाणी में कैकेयी से इस प्रकार कहा—’अरी! तुझे अनर्थ ही अर्थ-सा प्रतीत हो रहा है, किसने तुझे इसका उपदेश दिया है? ॥ ५६॥
भूतोपहतचित्तेव ब्रुवन्ती मां न लज्जसे।
शीलव्यसनमेतत् ते नाभिजानाम्यहं पुरा॥५७॥
‘जान पड़ता है, तेरा चित्त किसी भूत के आवेशसेदूषित हो गया है। पिशाचग्रस्त नारी की भाँति मेरे सामने ऐसी बातें कहती हुई तू लज्जित क्यों नहीं होती? मुझे पहले इस बात का पता नहीं था कि तेरा यह कुलाङ्गनोचित शील इस तरह नष्ट हो गया है। ५७॥
बालायास्तत् त्विदानीं ते लक्षये विपरीतवत्।
कुतो वा ते भयं जातं या त्वमेवंविधं वरम्॥ ५८॥
राष्ट्र भरतमासीनं वृणीषे राघवं वने।
विरमैतेन भावेन त्वमेतेनानृतेन च॥५९॥
‘बालावस्था में जो तेरा शील था, उसे इस समय मैं विपरीत-सा देख रहा हूँ। तुझे किस बात का भय हो गया है जो इस तरह का वर माँगती है ? भरत राज्य सिंहासन पर बैठें और श्रीराम वन में रहें—यही तू माँग रही है। यह बड़ा असत्य तथा ओछा विचार है। तू अब भी इससे विरत हो जा॥ ५८-५९ ॥
यदि भर्तुः प्रियं कार्यं लोकस्य भरतस्य च।
नृशंसे पापसंकल्पे क्षुद्रे दुष्कृतकारिणि॥६०॥
‘क्रूर स्वभाव और पापपूर्ण विचार वाली नीच दुराचारिणि! यदि अपने पति का, सारे जगत् का और भरत का भी प्रिय करना चाहती है तो इस दूषित संकल्प को त्याग दे॥६०॥
किं नु दुःखमलीकं वा मयि रामे च पश्यसि।
“न कथंचिदृते रामाद् भरतो राज्यमावसेत्॥६१॥
‘तू मुझमें या श्रीराम में कौन-सा दुःखदायक या अप्रिय बर्ताव देख रही है (कि ऐसा नीच कर्म करने पर उतारू हो गयी है); श्रीराम के बिना भरत किसी तरह राज्य लेना स्वीकार नहीं करेंगे॥ ६१॥
रामादपि हि तं मन्ये धर्मतो बलवत्तरम्।
कथं द्रक्ष्यामि रामस्य वनं गच्छेति भाषिते॥ ६२॥
मुखवर्णं विवर्णं तु यथैवेन्दम्पप्लुतम्।
‘क्योंकि मेरी समझ में धर्मपालन की दृष्टि से भरत श्रीराम से भी बढ़े-चढ़े हैं। श्रीराम से यह कह देने पर कि तुम वन को जाओ; जब उनके मुख की कान्ति राहुग्रस्त चन्द्रमा की भाँति फीकी पड़ जायगी, उस समय मैं कैसे उनके उस उदास मुख की ओर देख सकूँगा? ॥ ६२ १/२॥
तां तु मे सुकृतां बुद्धिं सुहृद्भिः सह निश्चिताम्॥ ६३॥
कथं द्रक्ष्याम्यपावृत्तां परैरिव हतां चमूम्।
‘मैंने श्रीराम के अभिषेक का निश्चय सुहृदों के साथ विचार करके किया है, मेरी यह बुद्धि शुभ कर्म में प्रवृत्त हुई है; अब मैं इसे शत्रुओं द्वारा पराजित हुई सेना की भाँति पलटी हुई कैसे देखुंगा? ॥ ६३ १/२॥
किं मां वक्ष्यन्ति राजानो नानादिग्भ्यः समागताः॥६४॥
बालो बतायमैक्ष्वाकश्चिरं राज्यमकारयत्।
‘नाना दिशाओं से आये हुए राजालोग मुझे लक्ष्य करके खेदपूर्वक कहेंगे कि इस मूढ इक्ष्वाकुवंशी राजा ने कैसे दीर्घकाल तक इस राज्य का पालन किया है? ॥ ६४ १/२॥
यदा हि बहवो वृद्धा गुणवन्तो बहुश्रुताः॥६५॥
परिप्रक्ष्यन्ति काकुत्स्थं वक्ष्यामीह कथं तदा।
कैकेय्या क्लिश्यमानेन पुत्रः प्रव्राजितो मया॥ ६६॥
‘जब बहुत-से बहुश्रुत गुणवान् एवं वृद्ध पुरुष आकर मुझसे पूछेगे कि श्रीराम कहाँ हैं? तब मैं उनसे कैसे यह कहूँगा कि कैकेयी के दबाव देने पर मैंने अपने बेटे को घर से निकाल दिया॥ ६५-६६॥
यदि सत्यं ब्रवीम्येतत् तदसत्यं भविष्यति।
किं मां वक्ष्यति कौसल्या राघवे वनमास्थिते॥ ६७॥
“किं चैनां प्रतिवक्ष्यामि कृत्वा विप्रियमीदृशम्।
‘यदि कहूँ कि श्रीराम को वनवास देकर मैंने सत्य का पालन किया है तो इसके पहले जो उन्हें राज्य देने की बात कह चुका हूँ, वह असत्य हो जायगी। यदि राम वन को चले गये तो कौसल्या मुझे क्या कहेगी? उसका ऐसा महान् अपकार करके मैं उसे क्या उत्तर दूंगा॥ ६७ १/२ ॥
यदा यदा च कौसल्या दासीव च सखीव च॥ ६८॥
भार्यावद् भगिनीवच्च मातृवच्चोपतिष्ठति।
सततं प्रियकामा मे प्रियपुत्रा प्रियंवदा॥६९॥
न मया सत्कृता देवी सत्कारार्हा कृते तव।
‘हाय! जिसका पुत्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है, वह प्रिय वचन बोलने वाली कौसल्या जब-जब दासी, सखी, पत्नी, बहिन और माता की भाँति मेरा प्रिय करने की इच्छा से मेरी सेवा में उपस्थित होती थी, तब तब उस सत्कार पाने योग्य देवी का भी मैंने तेरे ही कारण कभी सत्कार नहीं किया॥ ६८-६९ १/२ ।।
इदानीं तत्तपति मां यन्मया सुकृतं त्वयि॥७०॥
अपथ्यव्यञ्जनोपेतं भुक्तमन्नमिवातुरम्
‘तेरे साथ जो मैंने इतना अच्छा बर्ताव किया, वह याद आकर इस समय मुझे उसी प्रकार संताप दे रहा है, जैसे अपथ्य (हानिकारक) व्यञ्जनों से युक्त खाया हुआ अन्न किसी रोगी को कष्ट देता है॥ ७० १/२॥
विप्रकारं च रामस्य सम्प्रयाणं वनस्य च॥७१॥
सुमित्रा प्रेक्ष्य वै भीता कथं मे विश्वसिष्यति।
‘श्रीराम के अभिषेक का निवारण और उनका वन की ओर प्रस्थान देखकर निश्चय ही सुमित्रा भयभीत हो जायगी, फिर वह कैसे मेरा विश्वास करेगी? ॥ ७१ १/२॥
कृपणं बत वैदेही श्रोष्यति द्वयमप्रियम्॥७२॥
मां च पञ्चत्वमापन्नं रामं च वनमाश्रितम्।
‘हाय! बेचारी सीता को एक ही साथ दो दुःखद एवं अप्रिय समाचार सुनने पड़ेंगे-श्रीराम का वनवास और मेरी मृत्यु॥ ७२ १/२॥
वैदेही बत मे प्राणान् शोचन्ती क्षपयिष्यति॥ ७३॥
हीना हिमवतः पार्वे किंनरेणेव किंनरी।
‘जब वह श्रीराम के लिये शोक करने लगेगी, उस समय मेरे प्राणों का नाश कर डालेगी उसका शोक देखकर मेरे प्राण इस शरीर में नहीं रह सकेंगे। उसकी दशा हिमालय के पार्श्व भाग में अपने स्वामी किन्नर से बिछुड़ी हुई किन्नरी के समान हो जायगी॥ ७३ १/२॥
नहि राममहं दृष्ट्वा प्रवसन्तं महावने॥७४॥
चिरं जीवितुमाशंसे रुदन्तीं चापि मैथिलीम्।
सा नूनं विधवा राज्यं सपुत्रा कारयिष्यसि॥ ७५॥
‘मैं श्रीराम को विशाल वन में निवास करते और मिथिलेशकुमारी सीता को रोती देख अधिक काल तक जीवित रहना नहीं चाहता। ऐसी दशा में तू निश्चय ही विधवा होकर बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करना।
सतीं त्वामहमत्यन्तं व्यवस्याम्यसतीं सतीम्।
रूपिणीं विषसंयुक्तां पीत्वेव मदिरां नरः॥७६॥
‘ओह ! मैं तुझे अत्यन्त सती-साध्वी समझता था, परंतु तू बड़ी दुष्टा निकली; ठीक उसी तरह जैसे कोई मनुष्य देखने में सुन्दर मदिरा को पीकर पीछे उसके द्वारा किये गये विकार से यह समझ पाता है कि इसमें विष मिला हुआ था। ७६ ॥
अनृतैर्बत मां सान्त्वैः सान्त्वयन्ती स्म भाषसे।
गीतशब्देन संरुध्य लुब्धो मृगमिवावधीः॥७७॥
‘अबतक जो तू सान्त्वनापूर्ण मीठे वचन बोलकर मुझे आश्वासन देती हुई बातें किया करती थी, वे तेरी कही हुई सारी बातें झूठी थीं। जैसे व्याध हरिण को मधुर संगीत से आकृष्ट करके उसे मार डालता है,
उसी प्रकार तू भी पहले मुझे लुभाकर अब मेरे प्राण ले रही है।
अनार्य इति मामार्याः पुत्रविक्रायकं ध्रुवम्।
विकरिष्यन्ति रथ्यासु सुरापं ब्राह्मणं यथा॥७८॥
‘श्रेष्ठ पुरुष निश्चय ही मुझे नीच और एक नारी के मोह में पड़कर बेटे को बेच देने वाला कहकर शराबी ब्राह्मण की भाँति मेरी राह-बाट और गली-कूचों में निन्दा करेंगे॥ ७८॥
अहो दुःखमहो कृच्छ्रे यत्र वाचः क्षमे तव।
दुःखमेवंविधं प्राप्तं पुरा कृतमिवाशुभम्॥७९॥
‘अहो! कितना दुःख है! कितना कष्ट है!! जहाँ मझे तेरी ये बातें सहन करनी पड़ती हैं। मानो यह मेरे पूर्वजन्म के किये हुए पाप का ही अशुभ फल है, जो मुझपर ऐसा महान् दुःख आ पड़ा॥ ७९ ॥
चिरं खलु मया पापे त्वं पापेनाभिरक्षिता।
अज्ञानादुपसम्पन्ना रज्जुरुबन्धनी यथा॥८०॥
‘पापिनि! मुझ पापी ने बहुत दिनों से तेरी रक्षा की और अज्ञानवश तुझे गले लगाया; किंतु तू आज मेरे गले में पड़ी हुई फाँसी की रस्सी बन गयी। ८० ॥
रममाणस्त्वया सार्धं मृत्युं त्वां नाभिलक्षये।
बालो रहसि हस्तेन कृष्णसर्पमिवास्पृशम्॥८१॥
‘जैसे बालक एकान्त में खेलता-खेलता काले नाग को हाथ में पकड़ ले, उसी प्रकार मैंने एकान्त में तेरे साथ क्रीडा करते हए तेरा आलिङ्गन किया है,परंतु उस समय मुझे यह न सूझा कि तू ही एक दिन मेरी मृत्यु का कारण बनेगी॥ ८१॥
तं तु मां जीवलोकोऽयं नूनमाक्रोष्टमर्हति।
मया ह्यपितृकः पुत्रः स महात्मा दुरात्मना ॥ ८२॥
‘हाय! मुझ दुरात्माने जीते-जी ही अपने महात्मा पुत्र को पितृहीन बना दिया। मुझे यह सारा संसार निश्चय ही धिक्कारेगा—गालियाँ देगा, जो उचित ही होगा॥ ८२॥
बालिशो बत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।
स्त्रीकृते यः प्रियं पुत्रं वनं प्रस्थापयिष्यति॥८३॥
‘लोग मेरी निन्दा करते हुए कहेंगे कि राजा दशरथ बड़ा ही मूर्ख और कामी है, जो एक स्त्री को संतुष्ट करने के लिये अपने प्यारे पुत्र को वन में भेज रहा है। ८३॥
वेदैश्च ब्रह्मचर्यैश्च गुरुभिश्चोपकर्शितः।
भोगकाले महत्कृच्छं पुनरेव प्रपत्स्यते॥८४॥
‘हाय! अब तक तो श्रीराम वेदों का अध्ययन करने, ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने तथा अनेकानेक गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहने के कारण दुबले होते चले आये हैं। अब जब इनके लिये सुख भोग का समय आया है, तब ये वन में जाकर महान् कष्ट में पड़ेंगे॥ ८४॥
नालं द्वितीयं वचनं पुत्रो मां प्रतिभाषितुम्।
स वनं प्रव्रजेत्युक्तो बाढमित्येव वक्ष्यति॥८५॥
‘अपने पुत्र श्रीराम से यदि मैं कह दूँ कि तुम वन को चले जाओ तो वे तुरंत ‘बहुत अच्छा’ कहकर मेरी आज्ञा को स्वीकार कर लेंगे। मेरे पुत्र राम दूसरी कोई बात कहकर मुझे प्रतिकूल उत्तर नहीं दे सकते॥
यदि मे राघवः कुर्याद् वनं गच्छेति चोदितः।
प्रतिकूलं प्रियं मे स्यान्न तु वत्सः करिष्यति॥ ८६॥
‘यदि मेरे वन जाने की आज्ञा दे देने पर भी श्रीरामचन्द्र उसके विपरीत करते—वन में नहीं जाते तो वही मेरे लिये प्रिय कार्य होगा; किंतु मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता।। ८६॥
राघवे हि वनं प्राप्ते सर्वलोकस्य धिक्कृतम्।
मृत्युरक्षमणीयं मां नयिष्यति यमक्षयम्॥८७॥
‘यदि रघुनन्दन राम वन को चले गये तो सब लोगों के धिक्कारपात्र बने हुए मुझ अक्षम्य अपराधी को मृत्यु अवश्य यमलोक में पहुँचा देगी॥ ८७ ॥
मृते मयि गते रामे वनं मनुजपुङ्गवे।
इष्टे मम जने शेषे किं पापं प्रतिपत्स्यसे॥८८॥
‘यदि नरश्रेष्ठ श्रीराम के वन में चले जाने पर मेरी मृत्यु हो गयी तो शेष जो मेरे प्रियजन (कौसल्या आदि) यहाँ रहेंगे, उनपर तू कौन-सा अत्याचार करेगी? ॥८८॥
कौसल्या मां च रामं च पुत्रौ च यदि हास्यति।
दुःखान्यसहती देवी मामेवानुगमिष्यति॥८९॥
‘देवी कौसल्या को यदि मुझसे, श्रीराम से तथा शेष दोनों पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न से विछोह हो जायगा तो वह इतने बड़े दुःख को सहन नहीं कर सकेगी; अतः मेरे ही पीछे वह भी परलोक सिधार जायगी। (सुमित्रा का भी यही हाल होगा) ॥ ८९॥
कौसल्यां च सुमित्रां च मां च पुत्रैस्त्रिभिः सह।
प्रक्षिप्य नरके सा त्वं कैकेयि सुखिता भव॥ ९०॥
‘कैकेयि! इस प्रकार कौसल्या को, सुमित्रा को और तीनों पुत्रों के साथ मुझे भी नरक-तुल्य महान् शोक में डालकर तू स्वयं सुखी होना॥९०॥
मया रामेण च त्यक्तं शाश्वतं सत्कृतं गुणैः।
इक्ष्वाकुकुलमक्षोभ्यमाकुलं पालयिष्यसि ॥९१॥
‘अनेकानेक गुणों से सत्कृत, शाश्वत तथा क्षोभरहित यह इक्ष्वाकुकुल जब मुझसे और श्रीराम से परित्यक्त होकर शोक से व्याकुल हो जायगा, तब उस अवस्था में तू इसका पालन करेगी। ९१॥
प्रियं चेद् भरतस्यैतद् रामप्रव्राजनं भवेत्।
मा स्म मे भरतः कार्षीत् प्रेतकृत्यं गतायुषः॥ ९२॥
‘यदि भरत को भी श्रीरामका यह वनमें भेजा जाना प्रिय लगता हो तो मेरी मृत्यु के बाद वे मेरे शरीर का दाहसंस्कार न करें॥९२॥
मृते मयि गते रामे वनं पुरुषपुङ्गवे।
सेदानीं विधवा राज्यं सपुत्रा कारयिष्यसि॥९३॥
‘पुरुषशिरोमणि श्रीराम के वन-गमन के पश्चात् मेरी मृत्यु हो जाने पर अब विधवा होकर तू बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करेगी॥ ९३॥
त्वं राजपत्रि दैवेन न्यवसो मम वेश्मनि।
अकीर्तिश्चातुला लोके ध्रुवः परिभवश्च मे।
सर्वभूतेषु चावज्ञा यथा पापकृतस्तथा॥९४॥
‘राजकुमारी! तू मेरे दुर्भाग्य से मेरे घर में आकर बस गयी। तेरे कारण संसार में पापाचारी की भाँति मुझे निश्चय ही अनुपम अपयश, तिरस्कार और समस्त प्राणियों से अवहेलना प्राप्त होगी॥९४॥
कथं रथैर्विभुर्यात्वा गजाश्वैश्च मुहुर्मुहुः।
पद्भ्यां रामो महारण्ये वत्सो मे विचरिष्यति॥ ९५॥
‘मेरे पुत्र सामर्थ्यशाली राम बारंबार रथों, हाथियों और घोड़ोंसे यात्रा किया करते थे। वे ही अब उसविशाल वन में पैदल कैसे चलेंगे? ॥ ९५ ॥
यस्य चाहारसमये सूदाः कुण्डलधारिणः।
अहंपूर्वाः पचन्ति स्म प्रसन्नाः पानभोजनम्॥
स कथं नु कषायाणि तिक्तानि कटुकानि च।
भक्षयन् वन्यमाहारं सुतो मे वर्तयिष्यति॥ ९७॥
‘भोजनके समय जिनके लिये कुण्डलधारी रसोइये प्रसन्न होकर ‘पहले मैं बनाऊँगा’ ऐसा कहते हुए खाने-पीने की वस्तुएँ तैयार करते थे, वे ही मेरे पुत्र रामचन्द्र वन में कसैले, तिक्त और कड़वे फलों का आहार करते हुए किस तरह निर्वाह करेंगे॥९६-९७॥
महार्हवस्त्रसम्बद्धो भूत्वा चिरसुखोचितः।
काषायपरिधानस्तु कथं रामो भविष्यति॥९८॥
‘जो सदा बहुमूल्य वस्त्र पहना करते थे और जिनका चिरकाल से सुख में ही समय बीता है, वे ही श्रीराम वन में गेरुए वस्त्र पहनकर कैसे रह सकेंगे? ॥ ९८॥
कस्येदं दारुणं वाक्यमेवंविधमपीरितम्।
रामस्यारण्यगमनं भरतस्याभिषेचनम्॥ ९९॥
‘श्रीराम का वनगमन और भरत का अभिषेक-ऐसा कठोर वाक्य तुने किसकी प्रेरणा से अपने मुंह से निकाला है॥ ९९॥
धिगस्तु योषितो नाम शठाः स्वार्थपरायणाः।
न ब्रवीमि स्त्रियः सर्वा भरतस्यैव मातरम्॥ १००॥
‘स्त्रियों को धिक्कार है; क्योंकि वे शठ और स्वार्थपरायण होती हैं; परंतु मैं सारी स्त्रियों के लिये ऐसा नहीं कह सकता, केवल भरत की माता की ही निन्दा करता हूँ॥१०० ॥
अनर्थभावेऽर्थपरे नृशंसे ममानुतापाय निवेशितासि।
किमप्रियं पश्यसि मन्निमित्तं हितानुकारिण्यथवापि रामे॥१०१॥
‘अनर्थ में ही अर्थबुद्धि रखनेवाली क्रूर कैकेयि! तू मुझे संताप देने के लिये ही इस घर में बसायी गयी है। अरी! मेरे कारण तू अपना कौन-सा अप्रिय होता देख रही है? अथवा सबका निरन्तर हित करने वाले श्रीराम में ही तुझे कौन-सी बुराई दिखायी देती है। १०१॥
“परित्यजेयुः पितरोऽपि पुत्रान् भार्याः पतींश्चापि कृतानुरागाः।
कृत्स्नं हि सर्वं कुपितं जगत् स्याद् दृष्ट्वैव रामं व्यसने निमग्नम्॥१०२॥
‘श्रीराम को संकट के समुद्र में डूबा हुआ देखकर तो पिता अपने पुत्रों को त्याग देंगे। अनुरागिणी स्त्रियाँ भी अपने पतियों को त्याग देंगी। इस प्रकार यह सारा जगत् ही कुपित–विपरीत व्यवहार करनेवाला हो जायगा॥ १०२॥
अहं पुनर्देवकुमाररूपमलंकृतं तं सुतमाव्रजन्तम्।
नन्दामि पश्यन्निव दर्शनेन भवामि दृष्ट्वैव पुनर्युवेव॥१०३॥
‘देवकुमार के समान कमनीय रूपवाले अपने पुत्र श्रीराम को जब वस्त्र और आभूषणों से विभूषित होकर सामने आते देखता हूँ तो नेत्रों से उनकी शोभा निहारकर निहाल हो जाता हूँ। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो मैं फिर जवान हो गया॥ १०३॥
विना हि सूर्येण भवेत् प्रवृत्तिरवर्षता वज्रधरेण वापि।
रामं तु गच्छन्तमितः समीक्ष्य जीवेन्न कश्चित्त्विति चेतना मे॥१०४॥
‘कदाचित् सूर्य के बिना भी संसारका काम चल जाय, वज्रधारी इन्द्र के वर्षा न करने पर भी प्राणियों का जीवन सुरक्षित रह जाय, परंतु राम को यहाँ से वन की ओर जाते देखकर कोई भी जीवित नहीं रह सकता –मेरी ऐसी धारणा है॥ १०४॥
विनाशकामामहिताममित्रामावासयं मृत्युमिवात्मनस्त्वाम्।
चिरं बताङ्केन धृतासि सी महाविषा तेन हतोऽस्मि मोहात्॥ १०५॥
‘अरी! तू मेरा विनाश चाहने वाली, अहित करनेवाली और शत्रुरूप है। जैसे कोई अपनी ही मृत्यु को घर में स्थान दे दे, उसी प्रकार मैंने तुझे घर में बसा लिया है। खेदकी बात है कि मैंने मोहवश तुझ महाविषैली नागिन को चिरकाल से अपने अङ्क में धारण कर रखा है इसीलिये आज मैं मारा गया। १०५॥
मया च रामेण सलक्ष्मणेन प्रशास्तु हीनो भरतस्त्वया सह।
पुरं च राष्ट्रं च निहत्य बान्धवान् ममाहितानां च भवाभिहर्षिणी॥१०६॥
‘मुझसे, श्रीराम और लक्ष्मण से हीन होकर भरत समस्त बान्धवों का विनाश करके तेरे साथ इस नगर तथा राष्ट्र का शासन करें तथा तू मेरे शत्रुओं का हर्ष बढ़ानेवाली हो॥
नृशंसवृत्ते व्यसनप्रहारिणि प्रसह्य वाक्यं यदिहाद्य भाषसे।
न नाम ते तेन मुखात् पतन्त्यधो विशीर्यमाणा दशनाः सहस्रधा॥१०७॥
‘क्रूरतापूर्ण बर्ताव करने वाली कैकेयी! तू संकट में पड़े हुए पर प्रहार कर रही है। अरी! जब तू दुराग्रहपूर्वक आज ऐसी कठोर बातें मुँह से निकालती है, उस समय तेरे दाँतों के हजारों टुकड़े होकर मुँह से नीचे क्यों नहीं गिर जाते? ।। १०७॥
न किंचिदाहाहितमप्रियं वचो न वेत्ति रामः परुषाणि भाषितुम्।
कथं तु रामे ह्यभिरामवादिनि ब्रवीषि दोषान् गुणनित्यसम्मते॥१०८॥
‘श्रीराम कभी किसी से कोई अहितकारक या अप्रिय वचन नहीं कहते हैं। वे कटुवचन बोलना जानते ही नहीं हैं। उनका अपने गुणों के कारण सदासर्वदा सम्मान होता है। उन्हीं मनोहर वचन बोलने वाले श्रीराम में तू दोष कैसे बता रही है? क्योंकि वनवास उसी को दिया जाता है, जिसके बहुत-से दोष सिद्ध हो चुके हों ॥ १०८॥
प्रताम्य वा प्रज्वल वा प्रणश्य वा सहस्रशो वा स्फुटितां महीं व्रज।
न ते करिष्यामि वचः सुदारुणं ममाहितं केकयराजपांसने॥१०९॥
‘ओ केकयराज के कुलकी जीती-जागती कलङ्क ! तू चाहे ग्लानि में डूब जा अथवा आग में जलकर खाक हो जा या विष खाकर प्राण दे दे अथवा पृथ्वी में हजारों दरारें बनाकर उसी में समा जा; परंतु मेरा अहित करने वाली तेरी यह अत्यन्त कठोर बात मैं कदापि नहीं मानूँगा॥ १०९॥
क्षुरोपमां नित्यमसत्प्रियंवदां प्रदुष्टभावां स्वकुलोपघातिनीम्।
न जीवितुं त्वां विषहेऽमनोरमां दिधक्षमाणां हृदयं सबन्धनम्॥११०॥
‘तू छुरे के समान घात करनेवाली है। बातें तो मीठी-मीठी करती है, परंतु वे सदा झूठी औरसद्भावना से रहित होती हैं। तेरे हृदय का भाव अत्यन्त दूषित है तथा तू अपने कुल का भी नाश करनेवाली है। इतना ही नहीं, तू प्राणों सहित मेरे हृदय को भी जलाकर भस्म कर डालना चाहती है; इसीलिये मेरे मन को नहीं भाती है। तुझ पापिनी का जीवित रहना मैं नहीं सह सकता॥ ११० ॥
न जीवितं मेऽस्ति कुतः पुनः सुखं विनात्मजेनात्मवतां कुतो रतिः।
ममाहितं देवि न कर्तुमर्हसि स्पृशामि पादावपि ते प्रसीद मे॥१११॥
‘देवि! अपने बेटे श्रीराम के बिना मेरा जीवन नहीं रह सकता, फिर कहाँ से सुख हो सकता है? आत्मज्ञ पुरुषों को भी अपने पुत्र से बिछोह हो जाने पर कैसे चैन मिल सकता है ? अतः तू मेरा अहित न कर। मैं तेरे पैर छूता हूँ, तू मुझ पर प्रसन्न हो जा’ ॥ १११॥
स भूमिपालो विलपन्ननाथवत् स्त्रिया गृहीतो हृदयेऽतिमात्रया।
पपात देव्याश्चरणौ प्रसारितावुभावसम्प्राप्य यथाऽऽतुरस्तथा॥११२॥
इस प्रकार महाराज दशरथ मर्यादा का उल्लङ्घन करने वाली उस हठीली स्त्री के वश में पड़कर अनाथ की भाँति विलाप कर रहे थे। वे देवी कैकेयी के फैलाये हुए दोनों चरणों को छूना चाहते थे; परंतु उन्हें न पाकर बीच में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। ठीक उसी तरह, जैसे कोई रोगी किसी वस्तु को छूना चाहता है; किंतु दुर्बलता के कारण वहाँ तक न पहँचकर बीच में ही अचेत होकर गिर जाता है।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१२॥
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