वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 14 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 14
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्दशःसर्गः (सर्ग 14)
कैकेयी का राजा को अपने वरों की पूर्ति के लिये दुराग्रह दिखाना, राजा की आज्ञा से सुमन्त्रका श्रीराम को बुलाना
पुत्रशोकार्दितं पापा विसंज्ञं पतितं भुवि।
विचेष्टमानमुत्प्रेक्ष्य ऐक्ष्वाकमिदमब्रवीत्॥१॥
इक्ष्वाकुनन्दन राजा दशरथ पुत्रशोक से पीड़ित हो पृथ्वी पर अचेत पड़े थे और वेदना से छटपटा रहे थे, उन्हें इस अवस्था में देखकर पापिनी कैकेयी इस प्रकार बोली- ॥१॥
पापं कृत्वेव किमिदं मम संश्रुत्य संश्रवम्।
शेषे क्षितितले सन्नः स्थित्यां स्थातुं त्वमर्हसि॥ २॥
‘महाराज! आपने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी और जब मैंने उन्हें माँगा, तब आप इस प्रकार सन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो कोई पाप करके पछता रहे हों, यह क्या बात है? आपको सत्पुरुषों की मर्यादा में स्थिर रहना चाहिये॥२॥
आहुः सत्यं हि परमं धर्मं धर्मविदो जनाः।
सत्यमाश्रित्य च मया त्वं धर्मं प्रतिचोदितः॥३॥
‘धर्मज्ञ पुरुष सत्य को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म बतलाते हैं, उस सत्य का सहारा लेकर मैंने आपको धर्म का पालन करने के लिये ही प्रेरित किया है॥३॥
संश्रुत्य शैब्यः श्येनाय स्वां तनुं जगतीपतिः।
प्रदाय पक्षिणे राजा जगाम गतिमुत्तमाम्॥४॥
‘पृथ्वीपति राजा शैब्य ने बाज पक्षी को अपना शरीर देने की प्रतिज्ञा करके उसे दे ही दिया और देकर उत्तम गति प्राप्त कर ली॥४॥
तथा ह्यलर्कस्तेजस्वी ब्राह्मणे वेदपारगे।
याचमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ॥५॥
‘इसी प्रकार तेजस्वी राजा अलर्कने वेदोंके पारङ्गत । विद्वान् ब्राह्मणको उसके याचना करनेपर मनमें खेद न लाते हए अपनी दोनों आँखें निकालकर दे दी थीं॥
सरितां तु पतिः स्वल्पां मर्यादां सत्यमन्वितः।
सत्यानुरोधात् समये वेलां स्वां नातिवर्तते॥६॥
‘सत्यको प्राप्त हुआ समुद्र सत्यका ही अनुसरण करनेके कारण पर्व आदिके समय भी अपनी छोटीसी सीमातट-भूमिका भी उल्लङ्घन नहीं करता॥६॥
सत्यमेकपदं ब्रह्म सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः।।
सत्यमेवाक्षया वेदाः सत्येनावाप्यते परम्॥७॥
‘सत्य ही प्रणवरूप शब्दब्रह्म है, सत्यमें ही धर्म प्रतिष्ठित है, सत्य ही अविनाशी वेद है और सत्यसे ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है॥७॥
सत्यं समनुवर्तस्व यदि धर्मे धृता मतिः।
स वरः सफलो मेऽस्तु वरदो ह्यसि सत्तम॥८॥
‘इसलिये यदि आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है तो सत्य का अनुसरण कीजिये। साधुशिरोमणे! मेरा माँगा हुआ वह वर सफल होना चाहिये; क्योंकि आप स्वयं ही उस वर के दाता हैं।॥ ८॥
धर्मस्यैवाभिकामार्थं मम चैवाभिचोदनात्।
प्रव्राजय सुतं रामं त्रिः खलु त्वां ब्रवीम्यहम्॥९॥
‘धर्म के ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये तथा मेरी प्रेरणा से भी आप अपने पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दीजिये। मैं अपने इस कथन को तीन बार दुहराती हूँ।
समयं च ममार्येमं यदि त्वं न करिष्यसि।
अग्रतस्ते परित्यक्ता परित्यक्ष्यामि जीवितम्॥ १०॥
‘आर्य! यदि मुझसे की हुई इस प्रतिज्ञा का आप पालन नहीं करेंगे तो मैं आपसे परित्यक्त (उपेक्षित) होकर आपके सामने ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगी’ ॥ १०॥
एवं प्रचोदितो राजा कैकेय्या निर्विशङ्कया।
नाशकत् पाशमुन्मोक्तुं बलिरिन्द्रकृतं यथा॥ ११॥
इस प्रकार कैकेयी ने जब निःशङ्क होकर राजा को प्रेरित किया, तब वे उस सत्यरूपी बन्धन को वैसे ही नहीं खोल सके—उस बन्धन से अपने को उसी तरह नहीं मुक्त कर सके, जैसे राजा बलि इन्द्र प्रेरित वामन के पाश से अपने को मुक्त करने में असमर्थ हो गये थे॥११॥
उद्भ्रान्तहृदयश्चापि विवर्णवदनोऽभवत्।
स धुर्यो वै परिस्पन्दन् युगचक्रान्तरं यथा॥१२॥
दो पहियों के बीच में फँसकर वहाँ से निकलने की चेष्टा करने वाले गाड़ी के बैल की भाँति उनका हृदय उद्भ्रान्त हो उठा था और उनके मुख की कान्ति भी फीकी पड़ गयी थी॥ १२ ॥
विकलाभ्यां च नेत्राभ्यामपश्यन्निव भूमिपः।
कृच्छ्राद् धैर्येण संस्तभ्य कैकेयीमिदमब्रवीत्॥१३॥
अपने विकल नेत्रों से कुछ भी देखने में असमर्थ से होकर भूपाल दशरथ ने बड़ी कठिनाई से धैर्य धारण करके अपने हृदय को सँभाला और कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥१३॥
यस्ते मन्त्रकृतः पाणिरग्नौ पापे मया धृतः।
संत्यजामि स्वजं चैव तव पुत्रं सह त्वया॥१४॥
‘पापिनि! मैंने अग्नि के समीप ‘साष्ठं ते गृभ्णामि सौभगत्वाय हस्तम्’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का पाठ करके तेरे जिस हाथ को पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ। साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र का भी त्याग करता हूँ॥ १४ ॥
प्रयाता रजनी देवि सूर्यस्योदयनं प्रति।
अभिषेकाय हि जनस्त्वरयिष्यति मां ध्रुवम्॥
‘देवि! रात बीत गयी। सूर्योदय होते ही सब लोग निश्चय ही श्रीराम का राज्याभिषेक करने के लिये मुझे शीघ्रता करने को कहेंगे॥ १५ ॥
रामाभिषेकसम्भारैस्तदर्थमुपकल्पितैः।
रामः कारयितव्यो मे मृतस्य सलिलक्रियाम्॥ १६॥
सपुत्रया त्वया नैव कर्तव्या सलिलक्रिया।
‘उस समय जो सामान श्रीराम के अभिषेक के लिये जुटाया गया है, उसके द्वारा मेरे मरने के बाद श्रीराम के हाथ से मुझे जलाञ्जलि दिलवा देना; परंतु अपने पुत्र सहित तू मेरे लिये जलाञ्जलि न देना॥ १६ १/२॥
व्याहन्तास्यशुभाचारे यदि रामाभिषेचनम्॥१७॥
न शक्तोऽद्यास्म्यहं द्रष्टुं दृष्ट्वा पूर्वं तथामुखम्।
हतहर्षं तथानन्दं पुनर्जनमवाङ्मुखम्॥ १८॥
‘पापाचारिणि! यदि तू श्रीराम के अभिषेक में विघ्न डालेगी (तो तुझे मेरे लिये जलाञ्जलि देने का कोई अधिकार न होगा)। मैं पहले श्रीराम के राज्याभिषेक के समाचार से जो जन-समुदाय का हर्षोल्लास से परिपूर्ण उन्नत मुख देख चुका हूँ, वैसा देखने के पश्चात् आज पुनः उसी जनता के हर्ष और आनन्द से शून्य, नीचे लटके हुए मुख को मैं नहीं देख सकूँगा’ ॥ १७-१८॥
तां तथा ब्रुवतस्तस्य भूमिपस्य महात्मनः।
प्रभाता शर्वरी पुण्या चन्द्रनक्षत्रमालिनी॥१९॥
महात्मा राजा दशरथ के कैकेयी से इस तरह की बातें करते-करते ही चन्द्रमा और नक्षत्रमालाओं से अलंकृत वह पुण्यमयी रजनी बीत गयी और प्रभातकाल आ गया॥ १९॥
ततः पापसमाचारा कैकेयी पार्थिवं पुनः।
उवाच परुषं वाक्यं वाक्यज्ञा रोषमूर्च्छिता॥ २०॥
तदनन्तर बातचीत के मर्म को समझने वाली पापचारिणी कैकेयी रोष से मूर्च्छित-सी होकर राजा से पुनः कठोर वाणी में बोली- ॥ २० ॥
किमिदं भाषसे राजन् वाक्यं गररुजोपमम्।
आनाययितुमक्लिष्टं पुत्रं राममिहार्हसि ॥२१॥
स्थाप्य राज्ये मम सुतं कृत्वा रामं वनेचरम्। २०॥
निःसपत्नां च मां कृत्वा कृतकृत्यो भविष्यसि॥ २२॥
‘राजन् ! आप विष और शूल आदि रोगों के समान कष्ट देने वाले ऐसे वचन क्यों बोल रहे हैं (इन बातों से कुछ होने-जाने वाला नहीं है)। आप बिना किसी क्लेश के अपने पुत्र श्रीराम को यहाँ बुलवाइये। मेरे पुत्र को राज्यपर प्रतिष्ठित कीजिये और श्रीराम को वन में भेजकर मुझे निष्कण्टक बनाइये; तभी आप कृतकृत्य हो सकेंगे’॥ २१-२२॥
स तुन्न इव तीक्ष्णेन प्रतोदेन हयोत्तमः।
राजा प्रचोदितोऽभीक्ष्णं कैकेय्या वाक्यमब्रवीत्॥२३॥
तीखे कोडे की मार से पीड़ित हुए उत्तम अश्व की भाँति कैकेयी द्वारा बारंबार प्रेरित होने पर व्यथित हुए राजा दशरथ ने इस प्रकार कहा- ॥२३॥
धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि नष्टा च मम चेतना।
ज्येष्ठं पुत्रं प्रियं रामं द्रष्टुमिच्छामि धार्मिकम्॥ २४॥
‘मैं धर्म के बन्धन में बँधा हुआ हूँ। मेरी चेतना लुप्त होती जा रही है। इसलिये इस समय मैं अपने धर्मपरायण परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखना चाहता हूँ’॥ २४॥
ततः प्रभातां रजनीमुदिते च दिवाकरे।
पुण्ये नक्षत्रयोगे च मुहुर्ते च समागते॥२५॥
वसिष्ठो गुणसम्पन्नः शिष्यैः परिवृतस्तथा।
उपगृह्याशु सम्भारान् प्रविवेश पुरोत्तमम्॥२६॥
उधर जब रात बीती, प्रभात हुआ, सूर्यदेव का उदय हो गया और पुण्यनक्षत्र के योग में अभिषेक का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा, उस समय शिष्यों से घिरे हुए शुभगुणसम्पन्न महर्षि वसिष्ठ अभिषेक की आवश्यक सामग्रियों का संग्रह करके शीघ्रतापूर्वक उस श्रेष्ठ पुरी में आये॥ २५-२६॥
सिक्तसम्मार्जितपथां पताकोत्तमभूषिताम्।
संहृष्टमनुजोपेतां समृद्धविपणापणाम्॥२७॥
उस पुण्यवेला में अयोध्या की सड़कें झाड़-बुहारकर साफ की गयी थीं और उनपर जल का छिड़काव हआ था। सारी पुरी उत्तम पताकाओं से सुशोभित थी। वहाँ के सभी मनुष्य हर्ष और उत्साह से भरे हुए थे। बाजार और दूकानें इस तरह सजी हुई थीं कि उनकी समृद्धि देखते ही बनती थी॥ २७॥
महोत्सवसमायुक्तां राघवार्थे समुत्सुकाम्।
चन्दनागुरुधूपैश्च सर्वतः परिधूमिताम्॥२८॥
सब ओर महान् उत्सव हो रहा था। सारी नगरी श्रीरामचन्द्रजी के अभिषेक के लिये उत्सुक थी। चारों ओर चन्दन, अगर और धूप की सुगन्ध व्याप्त हो रही थी॥ २८॥
तां पुरीं समतिक्रम्य पुरंदरपुरोपमाम्।
ददर्शान्तःपुरं श्रीमान् नानाध्वजगणायुतम्॥ २९॥
इन्द्रनगरी अमरावती के समान शोभा पाने वाली उस पुरी को पार करके श्रीमान् वसिष्ठजी ने राजा दशरथ के अन्तःपुर का दर्शन किया जहाँ सहस्रों ध्वजाएँ फहरा रही थीं॥२९॥
पौरजानपदाकीर्णं ब्राह्मणैरुपशोभितम्।
यष्टिमद्भिः सुसम्पूर्ण सदश्वैः परमार्चितैः॥ ३०॥
नगर और जनपद के लोग वहाँ भरे हुए थे। बहुत से ब्राह्मण उस स्थान की शोभा बढ़ाते थे। छड़ीदार राजसेवक तथा सजे-सजाये सुन्दर घोड़े वहाँ अधिक संख्या में उपस्थित थे॥३०॥
तदन्तःपुरमासाद्य व्यतिचक्राम तं जनम्।
वसिष्ठः परमप्रीतः परमर्षिभिरावृतः॥३१॥
श्रेष्ठ महर्षियों से घिरे हए वसिष्ठजी परम प्रसन्न हो उस अन्तःपुर में पहुँचकर उस जन-समुदाय को लाँघकर आगे बढ़ गये॥ ३१॥
स त्वपश्यद् विनिष्क्रान्तं सुमन्त्रं नाम सारथिम्।
द्वारे मनुजसिंहस्य सचिवं प्रियदर्शनम्॥३२॥
वहाँ उन्होंने महाराज के सुन्दर सचिव तथा सारथि सुमन्त्र को अन्तःपुर के द्वार पर उपस्थित देखा, जो उसी समय भीतर से निकले थे॥ ३२॥
तमुवाच महातेजाः सूतपुत्रं विशारदम्।
वसिष्ठः क्षिप्रमाचक्ष्व नृपतेर्मामिहागतम्॥३३॥
तब महातेजस्वी वसिष्ठ ने परम चतुर सूतपुत्र सुमन्त्र से कहा—’सूत! तुम महाराज को शीघ्र ही मेरे आगमन की सूचना दो॥ ३३॥
इमे गङ्गोदकघटाः सागरेभ्यश्च काञ्चनाः।
औदुम्बरं भद्रपीठमभिषेकार्थमाहृतम्॥ ३४॥
‘(उन्हें बताओ कि श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र कर ली गयी है) ये गङ्गाजल से भरे कलश रखे हैं, इन सोने के कलशों में समुद्रों से लाया हुआ जल भरा हुआ है। यह गूलर की लकड़ी का बना हुआ भद्रपीठ है, जो अभिषेक के लिये लाया गया है (इसी पर बिठाकर श्रीराम का अभिषेक होगा) ॥ ३४॥
सर्वबीजानि गन्धाश्च रत्नानि विविधानि च।
क्षौद्रं दधि घृतं लाजा दर्भाः सुमनसः पयः॥ ३५॥
अष्टौ च कन्या रुचिरा मत्तश्च वरवारणः।
चतुरश्वो रथः श्रीमान् निस्त्रिंशो धनुरुत्तमम्॥
वाहनं नरसंयुक्तं छत्रं च शशिसंनिभम्।
श्वेते च वालव्यजने भृङ्गारं च हिरण्मयम्॥३७॥
हेमदामपिनद्धश्च ककुद्मान् पाण्डुरो वृषः।
केसरी च चतुर्दष्ट्रो हरिश्रेष्ठो महाबलः॥ ३८॥
सिंहासनं व्याघ्रतनुः समिधश्च हुताशनः।
सर्वे वादित्रसङ्घाश्च वेश्याश्चालंकृताः स्त्रियः॥ ३९॥
आचार्या ब्राह्मणा गावः पुण्याश्च मृगपक्षिणः।
पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणैः सह ॥ ४०॥
एते चान्ये च बहवः प्रीयमाणाः प्रियंवदाः।
अभिषेकाय रामस्य सह तिष्ठन्ति पार्थिवैः ॥४१॥
‘सब प्रकार के बीज, गन्ध, भाँति-भाँति के रत्न, मधु, दही, घी, लावा या खील, कुश, फूल, दूध, आठ सुन्दरी कन्याएँ, मत्त गजराज, चार घोड़ोंवाला रथ, चमचमाता हुआ खड्ग, उत्तम धनुष, मनुष्यों द्वारा ढोयी जाने वाली सवारी (पालकी आदि), चन्द्रमा के समान श्वेत छत्र, सफेद चँवर, सोने की झारी, सुवर्ण की माला से अलंकृत ऊँचे डीलवाला श्वेत पीतवर्ण का वृषभ, चार दाढ़ों वाला सिंह, महाबलवान् उत्तम अश्व, सिंहासन, व्याघ्रचर्म, समिधाएँ, अग्नि, सब प्रकार के बाजे, वाराङ्गनाएँ, शृङ्गारयुक्त सौभाग्यवती स्त्रियाँ, आचार्य, ब्राह्मण, गौ, पवित्र पशु-पक्षी, नगर और जनपद के श्रेष्ठ पुरुष अपने सेवक-गणों सहित प्रसिद्ध-प्रसिद्ध व्यापारी ये तथा और भी बहुत-से प्रियवादी मनुष्य बहुसंख्यक राजाओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामके अभिषेकके । लिये यहाँ उपस्थित हैं॥ ३५-४१॥
त्वरयस्व महाराजं यथा समुदितेऽहनि।
पुष्ये नक्षत्रयोगे च रामो राज्यमवाप्नुयात्॥४२॥
‘तुम महाराज से शीघ्रता करने के लिये कहो, जिससे अब सूर्योदय के पश्चात् पुष्यनक्षत्र के योग में श्रीरामराज्य प्राप्त कर लें’॥ ४२ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सूतपुत्रो महाबलः।
स्तुवन् नृपतिशार्दूलं प्रविवेश निवेशनम्॥४३॥
वसिष्ठजी के ये वचन सुनकर महाबली सूतपुत्र सुमन्त्र ने राजसिंह दशरथ की स्तुति करते हुए उनके भवन में प्रवेश किया॥४३॥
तं तु पूर्वोदितं वृद्धं द्वारस्था राजसम्मताः।
न शेकुरभिसंरोधडं राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥४४॥
राजा का प्रिय करने की इच्छा रखने वाले और उनके द्वारा सम्मानित द्वारपाल उन बूढ़े सचिव को भीतर जाने से रोक न सके; क्योंकि उनके लिये पहले से ही महाराज की आज्ञा थी कि ये किसी समय भी भीतर आने से रोके न जायँ॥ ४४॥
स समीपस्थितो राज्ञस्तामवस्थामजज्ञिवान्।
वाग्भिः परमतुष्टाभिरभिष्टोतुं प्रचक्रमे॥४५॥
सुमन्त्र राजा के पास जाकर खड़े हो गये। उन्हें उनकी उस अवस्था का पता नहीं था; इसलिये वे अत्यन्त संतोषदायक वचनों द्वारा उनकी स्तुति करने को उद्यत हुए॥ ४५ ॥
ततः सूतो यथापूर्वं पार्थिवस्य निवेशने।
सुमन्त्रः प्राञ्जलिर्भूत्वा तुष्टाव जगतीपतिम्॥ ४६॥
सूत सुमन्त्र राजा के उस महल में पहले की ही भाँति हाथ जोड़कर उन महाराज की स्तुति करने लगे-॥४६॥
यथा नन्दति तेजस्वी सागरो भास्करोदये।
प्रीतः प्रीतेन मनसा तथा नन्दय नस्ततः॥४७॥
‘महाराज! जैसे सूर्योदय होनेपर तेजस्वी समुद्र स्वयं हर्षकी तरंगोंसे उल्लसित हो उसमें स्नानकी इच्छावाले मनुष्योंको आनन्दित करता है, उसी प्रकार आप स्वयं प्रसन्न हो प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे हम सेवकोंको आनन्द प्रदान कीजिये॥ ४७ ॥
इन्द्रमस्यां तु वेलायामभितुष्टाव मातलिः।
सोऽजयद् दानवान् सर्वांस्तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥४८॥
‘देवसारथि मातलि ने इसी बेला में देवराज इन्द्र की स्तुति की थी, जिससे उन्होंने समस्त दानवों पर विजय प्राप्त कर ली, उसी प्रकार मैं भी स्तुति-वचनों द्वारा आपको जगा रहा हूँ॥४८॥
वेदाः सहाङ्गा विद्याश्च यथा ह्यात्मभुवं प्रभुम्।
रह्माणं बोधयन्त्यद्य तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥ ४९॥
‘छहों अङ्गों सहित चारों वेद तथा समस्त विद्याएँ जैसे स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा को जगाती हैं, उसी प्रकार आज मैं आपको जगा रहा हूँ॥४९॥
आदित्यः सह चन्द्रेण यथा भूतधरां शुभाम्।
बोधयत्यद्य पृथिवीं तथा त्वां बोधयाम्यहम्॥ ५०॥
‘जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य समस्त भूतों की आधारभूता इस शुभ-स्वरूपा पृथ्वी को जगाया करते हैं, उसी प्रकार आज मैं आपको जगा रहा हूँ॥ ५० ॥
उत्तिष्ठ सुमहाराज कृतकौतुकमङ्गलः।
विराजमानो वपुषा मेरोरिव दिवाकरः॥५१॥
‘महाराज! उठिये और उत्सवकालिक मङ्गलकृत्य पूर्ण करके वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित शरीरसे सिंहासनपर विराजमान होइये। फिर मेरु पर्वतसे ऊपर उठनेवाले सूर्यदेवके समान आपकी शोभा होती रहे। ५१॥
सोमसूर्यौ च काकुत्स्थ शिववैश्रवणावपि।
वरुणश्चाग्निरिन्द्रश्च विजयं प्रदिशन्तु ते॥५२॥
‘ककुत्स्थ-कुलनन्दन ! चन्द्रमा, सूर्य, शिव, कुबेर, वरुण, अग्नि और इन्द्र आपको विजय प्रदान करें। ५२॥
गता भगवती रात्रिः कृतं कृत्यमिदं तव।
बुध्यस्व नृपशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम्॥५३॥
‘राजसिंह ! भगवती रात्रिदेवी विदा हो गयीं। आपने जिसके लिये आज्ञा दी थी, आपका वह सारा कार्य पूर्ण हो गया। इस बातको आप जान लें और इसके बाद जो अभिषेक का कार्य शेष है, उसे पूर्ण करें। ५३॥
उदतिष्ठत रामस्य समग्रमभिषेचनम्।
पौरजानपदाश्चापि नैगमश्च कृताञ्जलिः॥५४॥
‘श्रीराम के अभिषेक की सारी तैयारी हो चुकी है। नगर और जनपद के लोग तथा मुख्य-मुख्य व्यापारी भी हाथ जोड़े हुए उपस्थित हैं ॥ ५४॥
स्वयं वसिष्ठो भगवान् ब्राह्मणैः सह तिष्ठति।
क्षिप्रमाज्ञाप्यतां राजन् राघवस्याभिषेचनम्॥ ५५॥
‘राजन् ! ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ब्राह्मणों के साथ द्वार पर खड़े हैं; अतः श्रीराम के अभिषेक का कार्य आरम्भ करने के लिये शीघ्र आज्ञा दीजिये॥ ५५ ॥
यथा ह्यपालाः पशवो यथा सेना ह्यनायका।
यथा चन्द्रं विना रात्रिर्यथा गावो विना वृषम्॥ ५६॥
एवं हि भविता राष्ट्रं यत्र राजा न दृश्यते।
‘जैसे चरवाहों के बिना पशु, सेनापति के बिना सेना, चन्द्रमा के बिना रात्रि और साँड़ के बिना गौओं की शोभा नहीं होती, ऐसी ही दशा उस राष्ट्र की हो जाती है, जहाँ राजा का दर्शन नहीं होता है’। ५६ १/२॥
एवं तस्य वचः श्रुत्वा सान्त्वपूर्वमिवार्थवत्॥ ५७॥
अभ्यकीर्यत शोकेन भूय एव महीपतिः।
सुमन्त्रके इस प्रकार कहे हुए सान्त्वनापूर्ण और सार्थक वचनको सुनकर राजा दशरथ पुनः शोकसे ग्रस्त होगये॥ ५७ १/२॥
ततस्तु राजा तं सूतं सन्नहर्षः सुतं प्रति॥५८॥
शोकरक्तेक्षणः श्रीमानुद्रीक्ष्योवाच धार्मिकः।
वाक्यैस्तु खलु मर्माणि मम भूयो निकृन्तसि॥ ५९॥
उस समय पुत्र के वियोग की सम्भावना से उनकी प्रसन्नता नष्ट हो चुकी थी। शोक के कारण उनके नेत्र लाल हो गये थे। उन धर्मात्मा श्रीमान् नरेश ने एकबार दृष्टि उठाकर सूत की ओर देखा और इस प्रकार कहा—’तुम ऐसी बातें सुनाकर मेरे मर्म-स्थानों पर और अधिक आघात क्यों कर रहे हो’। ५८-५९॥
सुमन्त्रः करुणं श्रुत्वा दृष्ट्वा दीनं च पार्थिवम्।
प्रगृहीताञ्जलिः किंचित् तस्माद् देशादपाक्रमत्॥ ६०॥
राजा के ये करुण वचन सुनकर और उनकी दीन दशापर दृष्टिपात करके सुमन्त्र हाथ जोड़े हुए उस स्थानसे कुछ पीछे हट गये॥ ६०॥
यदा वक्तुं स्वयं दैन्यान्न शशाक महीपतिः।
तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह॥६१॥
जब दुःख और दीनता के कारण राजा स्वयं कुछ भी न कह सके, तब मन्त्रणा का ज्ञान रखने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ ६१॥
सुमन्त्र राजा रजनीं रामहर्षसमुत्सुकः।
प्रजागरपरिश्रान्तो निद्रावशमुपागतः॥६२॥
‘सुमन्त्र! राजा रातभर श्रीराम के राज्याभिषेक जनित हर्ष के कारण उत्कण्ठित होकर जागते रहे हैं। अधिक जागरण से थक जाने के कारण इस समय इन्हें नींद आ गयी है। ६२॥
तद् गच्छ त्वरितं सूत राजपुत्रं यशस्विनम्।
राममानय भद्रं ते नात्र कार्या विचारणा॥६३॥
‘अतः सूत! तुम्हारा भला हो। तुम तुरंत जाओ और यशस्वी राजकुमार श्रीराम को यहाँ बुला लाओ। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’ ॥ ६३॥
अश्रुत्वा राजवचनं कथं गच्छामि भामिनि।
तच्छ्रुत्वा मन्त्रिणो वाक्यं राजा मन्त्रिणमब्रवीत्॥ ६४॥
तब सुमन्त्र ने कहा—’भामिनि! मैं महाराज की आज्ञा सुने बिना कैसे जा सकता हूँ?’ मन्त्री की बात सुनकर राजा ने उनसे कहा- ॥६४॥
सुमन्त्र रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम्।
स मन्यमानः कल्याणं हृदयेन ननन्द च॥६५॥
‘सुमन्त्र! मैं सुन्दर श्रीराम को देखना चाहता हूँ। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ ले आओ।’ उस समय श्रीराम के दर्शन से ही कल्याण मानते हुए राजा मन-ही-मन आनन्द का अनुभव करने लगे॥६५॥
निर्जगाम च स प्रीत्या त्वरितो राजशासनात्।
सुमन्त्रश्चिन्तयामास त्वरितं चोदितस्तया॥६६॥
इधर सुमन्त्र राजा की आज्ञा से तुरंत प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चल दिये। कैकेयी ने जो तुरंत श्रीराम को बुला लाने की आज्ञा दी थी, उसे याद करके वे सोचने लगे – ‘पता नहीं, यह उन्हें बुलाने के लिये इतनी जल्दी क्यों मचा रही है? ॥६६॥
व्यक्तं रामाभिषेकार्थे इहायास्यति धर्मराट्।
इति सूतो मतिं कृत्वा हर्षेण महता पुनः॥६७॥
निर्जगाम महातेजा राघवस्य दिदृक्षया।
सागरहदसंकाशात्सुमन्त्रोऽन्तःपुराच्छुभात्।
निष्क्रम्य जनसम्बाधं ददर्श द्वारमग्रतः॥६८॥
‘जान पड़ता है, श्रीरामचन्द्र के अभिषेक के लिये ही यह जल्दी कर रही है। इस कार्य में धर्मराज राजा दशरथ को अधिक आयास करना पड़ता है (शायद इसीलिये ये बाहर नहीं निकलते)।’ ऐसा निश्चय करके महातेजस्वी सूत सुमन्त्र फिर बड़े हर्ष के साथ श्रीराम के दर्शन की इच्छा से चल पड़े। समुद्र के अन्तर्वर्ती जलाशय के समान उस सुन्दर अन्तःपुर से निकलकर सुमन्त्र ने द्वारके सामने मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई देखी॥६७-६८॥
ततः पुरस्तात् सहसा विनिःसृतो महीपतेरिगतान् विलोकयन्।
ददर्श पौरान् विविधान् महाधनानुपस्थितान् द्वारमुपेत्य विष्ठितान्॥६९॥
राजा के अन्तःपुर से सहसा निकलकर सुमन्त्र ने द्वार पर एकत्र हुए लोगों की ओर दृष्टिपात किया। उन्होंने देखा, बहुसंख्यक पुरवासी वहाँ उपस्थित थे और अनेकानेक महाधनी पुरुष राजद्वार पर आकर खड़े थे। ६९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुदर्शः सर्गः॥१४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१४॥
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