वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 21 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 21
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (सर्ग 21)
लक्ष्मण का श्रीराम को बलपूर्वक राज्य पर अधिकार कर लेने के लिये प्रेरित करना तथा श्रीराम का पिता की आज्ञा के पालन को ही धर्म बताना
तथा त विलपन्तीं तां कौसल्यां राममातरम्।
उवाच लक्ष्मणो दीनस्तत्कालसदृशं वचः॥१॥
इस प्रकार विलाप करती हुई श्रीराम माता कौसल्या से अत्यन्त दुःखी हुए लक्ष्मण ने उस समय के योग्य बात कही— ॥१॥
न रोचते ममाप्येतदार्ये यद् राघवो वनम्।
त्यक्त्वा राज्यश्रियं गच्छेत् स्त्रिया वाक्यवशंगतः॥२॥
विपरीतश्च वृद्धश्च विषयैश्च प्रधर्षितः।
नृपः किमिव न ब्रूयाच्चोद्यमानः समन्मथः॥३॥
‘बड़ी माँ! मुझे भी यह अच्छा नहीं लगता कि श्रीराम राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके वन में जायँ। महाराज तो इस समय स्त्री की बात में आ गये हैं, इसलिये उनकी प्रकृति विपरीत हो गयी है। एक तो वे बूढ़े हैं, दूसरे विषयों ने उन्हें वश में कर लिया है; अतः कामदेव के वशीभूत हुए वे नरेश कैकेयी-जैसी स्त्री की प्रेरणा से क्या नहीं कह सकते हैं? ।। २-३॥
नास्यापराधं पश्यामि नापि दोषं तथाविधम्।
येन निर्वास्यते राष्ट्राद् वनवासाय राघवः॥४॥
‘मैं श्रीरघुनाथजी का ऐसा कोई अपराध या दोष नहीं देखता, जिससे इन्हें राज्य से निकाला जाय और वन में रहने के लिये विवश किया जाय॥४॥
न तं पश्याम्यहं लोके परोक्षमपि यो नरः।
स्वमित्रोऽपि निरस्तोऽपि योऽस्य दोषमुदाहरेत्॥
‘मैं संसार में एक मनुष्य को भी ऐसा नहीं देखता, जो अत्यन्त शत्रु एवं तिरस्कृत होने पर भी परोक्ष में भी इनका कोई दोष बता सके॥५॥
देवकल्पमृगँ दान्तं रिपूणामपि वत्सलम्।
अवेक्षमाणः को धर्मं त्यजेत् पुत्रमकारणात्॥
‘धर्मपर दृष्टि रखने वाला कौन ऐसा राजा होगा, जो देवता के समान शुद्ध, सरल, जितेन्द्रिय और शत्रुओं पर भी स्नेह रखने वाले (श्रीराम-जैसे) पुत्र का अकारण परित्याग करेगा? ॥ ६॥
तदिदं वचनं राज्ञः पुनर्बाल्यमुपेयुषः।
पुत्रः को हृदये कुर्याद् राजवृत्तमनुस्मरन्॥७॥
‘जो पुनः बालभाव (विवेक शून्यता) को प्राप्त हो गये हैं, ऐसे राजा के इस वचन को राजनीति का ध्यान रखने वाला कौन पुत्र अपने हृदय में स्थान दे सकता है?॥
यावदेव न जानाति कश्चिदर्थमिमं नरः।
तावदेव मया सार्धमात्मस्थं कुरु शासनम्॥८॥
‘रघुनन्दन! जबतक कोई भी मनुष्य आपके वनवास की बात को नहीं जानता है, तब तक ही, आप मेरी सहायता से इस राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लीजिये॥८॥
मया पार्श्वे सधनुषा तव गुप्तस्य राघव।
कः समर्थोऽधिकं कर्तुं कृतान्तस्येव तिष्ठतः॥९॥
रघुवीर ! जब मैं धनुष लिये आपके पास रहकर आपकी रक्षा करता रहूँ और आप काल के समान युद्ध के लिये डट जायँ, उस समय आपसे अधिक पौरुष प्रकट करने में कौन समर्थ हो सकता है? ॥
निर्मनुष्यामिमां सर्वामयोध्यां मनुजर्षभ।
करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैर्यदि स्थास्यति विप्रिये॥ १०॥
‘नरश्रेष्ठ! यदि नगर के लोग विरोध में खड़े होंगे तो मैं अपने तीखे बाणों से सारी अयोध्या को मनुष्यों से सूनी कर दूंगा॥१०॥
भरतस्याथ पक्ष्यो वा यो वास्य हितमिच्छति।
सर्वांस्तांश्च वधिष्यामि मृदुर्हि परिभूयते॥११॥
‘जो-जो भरतका पक्ष लेगा अथवा केवल जो उन्हींका हित चाहेगा, उन सबका मैं वध कर डालूँगा; क्योंकि जो कोमल या नम्र होता है, उसका सभी तिरस्कार करते हैं।॥ ११॥
प्रोत्साहितोऽयं कैकेय्या संतुष्टो यदि नः पिता।
अमित्रभूतो निःसङ्गं वध्यतां वध्यतामपि॥१२॥
‘यदि कैकेयी के प्रोत्साहन देने पर उसके ऊपर – संतुष्ट हो पिताजी हमारे शत्रु बन रहे हैं तो हमें भी मोह-ममता छोड़कर इन्हें कैद कर लेना या मार डालना चाहिये॥ १२॥
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनम्॥१३॥
‘क्योंकि यदि गुरु भी घमंड में आकर कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दण्ड देना आवश्यक हो जाता है। १३॥
बलमेष किमाश्रित्य हेतुं वा पुरुषोत्तम।
दातुमिच्छति कैकेय्यै उपस्थितमिदं तव॥१४॥
‘पुरुषोत्तम! राजा किस बल का सहारा लेकर अथवा किस कारण को सामने रखकर आपको न्यायतः प्राप्त हुआ यह राज्य अब कैकेयी को देना चाहते हैं?॥
त्वया चैव मया चैव कृत्वा वैरमनुत्तमम्।
कास्य शक्तिः श्रियं दातुं भरतायारिशासन॥ १५॥
‘शत्रुदमन श्रीराम! आपके और मेरे साथ भारी वैर बाँधकर इनकी क्या शक्ति है कि यह राज्यलक्ष्मी ये भरत को दे दें? ॥ १५॥
अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वतः।
सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे॥१६॥
‘देवि! (बड़ी माँ!) मैं सत्य, धनुष, दान तथा यज्ञ आदि की शपथ खाकर तुमसे सच्ची बात कहता हूँ कि मेरा अपने पूज्य भ्राता श्रीराम में हार्दिक अनुराग है॥१६॥
दीप्तमग्निमरण्यं वा यदि रामः प्रवेक्ष्यति।
प्रविष्टं तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय॥१७॥
‘देवि! आप विश्वास रखें, यदि श्रीराम जलती हुई आग में या घोर वन में प्रवेश करने वाले होंगे तो मैं इनसे भी पहले उसमें प्रविष्ट हो जाऊँगा॥ १७॥
हरामि वीर्याद् दुःखं ते तमः सूर्य इवोदितः।
देवी पश्यतु मे वीर्यं राघवश्चैव पश्यतु॥१८॥
‘इस समय आप, रघुनाथ जी तथा अन्य सब लोग भी मेरे पराक्रम को देखें। जैसे सूर्य उदित होकर अन्धकार का नाश कर देता है, उसी प्रकार मैं भी अपनी शक्ति से आपके सब दुःख दूर कर दूंगा। १८॥
हनिष्ये पितरं वृद्धं कैकेय्यासक्तमानसम्।
कृपणं च स्थितं बाल्ये वृद्धभावेन गर्हितम्॥ १९॥
‘जो कैकेयी में आसक्तचित्त होकर दीन बन गये हैं, बालभाव (अविवेक) में स्थित हैं और अधिक बुढ़ापे के कारण निन्दित हो रहे हैं, उन वृद्ध पिता को मैं अवश्य मार डालूँगा’ ॥ १९ ॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य महात्मनः।
उवाच रामं कौसल्या रुदती शोकलालसा॥ २०॥
महामनस्वी लक्ष्मण के ये ओजस्वी वचन सुनकर शोकमग्न कौसल्या श्रीराम से रोती हुई बोलीं-॥ २०॥
भ्रातुस्ते वदतः पुत्र लक्ष्मणस्य श्रुतं त्वया।
यदत्रानन्तरं तत्त्वं कुरुष्व यदि रोचते॥२१॥
‘बेटा ! तुमने अपने भाई लक्ष्मण की कही हुई सारी बातें सुन लीं, यदि झुंचे तो अब इसके बाद तुम जो कुछ करना उचित समझो, उसे करो॥ २१ ॥
न चाधर्म्यं वचः श्रुत्वा सपत्न्या मम भाषितम्।
विहाय शोकसंतप्तां गन्तुमर्हसि मामितः॥२२॥
‘मेरी सौत की कही हुई अधर्मयुक्त बात सुनकर मुझ शोक से संतप्त हुई माता को छोड़कर तुम्हें यहाँ से नहीं जाना चाहिये॥ २२॥
धर्मज्ञ इति धर्मिष्ठ धर्मं चरितुमिच्छसि।
शुश्रूष मामिहस्थस्त्वं चर धर्ममनुत्तमम्॥ २३॥
“धर्मिष्ठ! तुम धर्म को जानने वाले हो, इसलिये यदि धर्म का पालन करना चाहो तो यहीं रहकर मेरी सेवा करो और इस प्रकार परम उत्तम धर्म का आचरण करो॥
शुश्रूषुर्जननीं पुत्र स्वगृहे नियतो वसन्।
परेण तपसा युक्तः काश्यपस्त्रिदिवं गतः॥२४॥
‘वत्स! अपने घर में नियम पूर्वक रहकर माता की सेवा करने वाले काश्यप उत्तम तपस्या से युक्त हो स्वर्गलोक में चले गये थे॥ २४॥
यथैव राजा पूज्यस्ते गौरवेण तथा ह्यहम्।
त्वां साहं नानुजानामि न गन्तव्यमितो वनम्॥ २५॥
‘जैसे गौरव के कारण राजा तुम्हारे पूज्य हैं, उसी प्रकार मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा नहीं देती, अतः तुम्हें यहाँ से वन को नहीं जाना चाहिये॥ २५ ॥
त्वद्वियोगान्न मे कार्यं जीवितेन सुखेन च।
त्वया सह मम श्रेयस्तृणानामपि भक्षणम्॥२६॥
‘तुम्हारे साथ तिनके चबाकर रहना भी मेरे लिये श्रेयस्कर है, परंतु तुमसे विलग हो जाने पर न मुझे इस जीवन से कोई प्रयोजन है और न सुख से॥२६॥
यदि त्वं यास्यसि वनं त्यक्त्वा मां शोकलालसाम्।
अहं प्रायमिहासिष्ये न च शक्ष्यामि जीवितुम्॥ २७॥
‘यदि तुम मुझे शोक में डूबी हुई छोड़कर वन को चले जाओगे तो मैं उपवास करके प्राण त्याग दूंगी, जीवित नहीं रह सकूँगी॥ २७॥
ततस्त्वं प्राप्स्यसे पुत्र निरयं लोकविश्रुतम्।
ब्रह्महत्यामिवाधर्मात् समुद्रः सरितां पतिः॥२८॥
‘बेटा! ऐसा होने पर तुम संसार प्रसिद्ध वह नरकतुल्य कष्ट पाओगे, जो ब्रह्महत्या के समान है और जिसे सरिताओं के स्वामी समुद्र ने अपने अधर्म के फलरूप से प्राप्त किया था’* ॥ २८॥
* किसी कल्प में समुद्र ने अपनी माता को दुःख दिया था, उससे पिप्पलाद नामक ब्रह्मर्षि ने उस अधर्म का दण्ड देने के लिये उसके ऊपर एक कृत्या का प्रयोग किया। इससे समुद्र को नरकवासतुल्य महान् दुःख भोगना पड़ा था।
विलपन्तीं तथा दीनां कौसल्यां जननीं ततः।
उवाच रामो धर्मात्मा वचनं धर्मसंहितम्॥२९॥
माता कौसल्या को इस प्रकार दीन होकर विलाप करती देख धर्मात्मा श्रीरामचन्द्र ने यह धर्मयुक्त वचन कहा- ॥२९॥
नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम।
प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम्॥ ३०॥
‘माता! मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर तुम्हें प्रसन्न करना चाहता हूँ। मुझमें पिताजी की आज्ञा का उल्लङ्घन करने की शक्ति नहीं है, अतः मैं वन को ही जाना चाहता हूँ॥ ३०॥
ऋषिणा च पितुर्वाक्यं कुर्वता वनचारिणा।
गौर्हता जानताधर्मं कण्डुना च विपश्चिता॥ ३१॥
‘वनवासी विद्वान् कण्डु मुनि ने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अधर्म समझते हुए भी गौ का वध कर डाला था॥ ३१॥
अस्माकं तु कुले पूर्वं सगरस्याज्ञया पितुः।
खनद्भिः सागरैर्भूमिमवाप्तः सुमहान् वधः॥३२॥
‘हमारे कुल में भी पहले राजा सगर के पुत्र ऐसे हो गये हैं, जो पिता की आज्ञा से पृथ्वी खोदते हुए बुरी तरह से मारे गये॥ ३२॥
जामदग्न्येन रामेण रेणुका जननी स्वयम्।
कृत्ता परशुनारण्ये पितुर्वचनकारणात्॥ ३३॥
‘जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ही वन में फरसे से अपनी माता रेणुका का गला काट डाला था॥ ३३॥
एतैरन्यैश्च बहुभिर्देवि देवसमैः कृतम्।
पितर्वचनमक्लीबं करिष्यामि पितुर्हितम्॥३४॥
‘देवि! इन्होंने तथा और भी बहुत-से देवतुल्य मनुष्यों ने उत्साह के साथ पिता के आदेश का पालन किया है। अतः मैं भी कायरता छोड़कर पिता का हित-साधन करूँगा॥ ३४॥
न खल्वेतन्मयैकेन क्रियते पितृशासनम्।
एतैरपि कृतं देवि ये मया परिकीर्तिताः॥ ३५॥
‘देवि! केवल मैं ही इस प्रकार पिता के आदेश का पालन नहीं कर रहा हूँ। जिनकी मैंने अभी चर्चा की है, उन सबने भी पिता के आदेश का पालन किया है।
नाहं धर्ममपूर्वं ते प्रतिकूलं प्रवर्तये।
पूर्वैरयमभिप्रेतो गतो मार्गोऽनुगम्यते॥३६॥
‘मा! मैं तुम्हारे प्रतिकूल किसी नवीन धर्म का प्रचार नहीं कर रहा हूँ। पूर्वकाल के धर्मात्मा पुरुषों को भी यह अभीष्ट था। मैं तो उनके चले हुए मार्ग का ही अनुसरण करता हूँ॥ ३६॥
तदेतत् तु मया कार्यं क्रियते भुवि नान्यथा।
पितुर्हि वचनं कुर्वन् न कश्चिन्नाम हीयते॥ ३७॥
‘इस भूमण्डल पर जो सबके लिये करने योग्य है, वही मैं भी करने जा रहा हूँ। इसके विपरीत कोई न करने योग्य काम नहीं कर रहा हूँ। पिता की आज्ञा का पालन करने वाला कोई भी पुरुष धर्म से भ्रष्ट नहीं होता’॥
तामेवमुक्त्वा जननी लक्ष्मणं पुनरब्रवीत्।
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्॥ ३८॥
अपनी माता से ऐसा कहकर वाक्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ समस्त धनुर्धरशिरोमणि श्रीराम ने पुनः लक्ष्मण से कहा – ॥ ३८॥
तव लक्ष्मण जानामि मयि स्नेहमनुत्तमम्।
विक्रमं चैव सत्त्वं च तेजश्च सुदुरासदम्॥३९॥
‘लक्ष्मण ! मेरे प्रति तुम्हारा जो परम उत्तम स्नेह है, उसे मैं जानता हूँ। तुम्हारे पराक्रम, धैर्य और दुर्धर्ष तेज का भी मुझे ज्ञान है॥ ३९॥
मम मातुर्महद् दुःखमतुलं शुभलक्षण।
अभिप्रायं न विज्ञाय सत्यस्य च शमस्य च॥ ४०॥
‘शुभलक्षण लक्ष्मण ! मेरी माता को जो अनुपम एवं महान् दुःख हो रहा है, वह सत्य और शम के विषय में मेरे अभिप्राय को न समझने के कारण है।॥ ४० ॥
धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्।
धर्मसंश्रितमप्येतत् पितुर्वचनमुत्तमम्॥४१॥
‘संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। पिताजी का यह वचन भी धर्म के आश्रित होने के कारण परम उत्तम है॥ ४१॥
संश्रुत्य च पितुर्वाक्यं मातुर्वा ब्राह्मणस्य वा।
न कर्तव्यं वृथा वीर धर्ममाश्रित्य तिष्ठता॥४२॥
‘वीर! धर्म का आश्रय लेकर रहने वाले पुरुष को पिता, माता अथवा ब्राह्मण के वचनों का पालन करने की प्रतिज्ञा करके उसे मिथ्या नहीं करना चाहिये॥ ४२ ॥
सोऽहं न शक्ष्यामि पुनर्नियोगमतिवर्तितुम्।
पितुर्हि वचनाद् वीर कैकेय्याह प्रचोदितः॥४३॥
‘वीर! अतः मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं कर सकता; क्योंकि पिताजी के कहने से ही कैकेयी ने मुझे वन में जाने की आज्ञा दी है॥ ४३॥
तदेतां विसृजानार्यां क्षत्रधर्माश्रितां मतिम्।
धर्ममाश्रय मा तैक्ष्ण्यं मबुद्धिरनुगम्यताम्॥ ४४॥
‘इसलिये केवल क्षात्रधर्म का अवलम्बन करने वाली इस ओछी बुद्धि का त्याग करो, धर्म का आश्रय लो, कठोरता छोड़ो और मेरे विचार के अनुसार चलो’ ॥ ४४॥
तमेवमुक्त्वा सौहार्दाद् भ्रातरं लक्ष्मणाग्रजः।
उवाच भूयः कौसल्यां प्राञ्जलिः शिरसा नतः॥ ४५॥
अपने भाई लक्ष्मण से सौहार्दवश ऐसी बात कहकर उनके बड़े भ्राता श्रीराम ने पुनः कौसल्या के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ॥ ४५ ॥
अनुमन्यस्व मां देवि गमिष्यन्तमितो वनम्।
शापितासि मम प्राणैः कुरु स्वस्त्ययनानि मे॥ ४६॥
‘देवि! मैं यहाँ से वन को जाऊँगा। तुम मुझे आज्ञा दो और स्वस्तिवाचन कराओ। यह बात मैं अपने प्राणों की शपथ दिलाकर कहता हूँ॥ ४६॥
तीर्णप्रतिज्ञश्च वनात् पुनरेष्याम्यहं पुरीम्।
ययातिरिव राजर्षिः पुरा हित्वा पुनर्दिवम्॥४७॥
‘जैसे पूर्वकाल में राजर्षि ययाति स्वर्गलोक का त्याग करके पुनः भूतल पर उतर आये थे, उसी प्रकार मैं भी प्रतिज्ञा पूर्ण करके पुनः वन से अयोध्यापुरी को लौट आऊँगा॥ ४७॥
शोकः संधार्यतां मातर्हृदये साधु मा शुचः।
वनवासादिहैष्यामि पुनः कृत्वा पितुर्वचः॥४८॥
‘मा! शोक को अपने हृदय में ही अच्छी तरह दबाये रखो। शोक न करो। पिता की आज्ञा का पालन करके मैं फिर वनवास से यहाँ लौट आऊँगा॥४८॥
त्वया मया च वैदेह्या लक्ष्मणेन सुमित्रया।
पितर्नियोगे स्थातव्यमेष धर्मः सनातनः॥४९॥
‘तुमको, मुझको, सीता को, लक्ष्मण को और माता सुमित्रा को भी पिताजी की आज्ञा में ही रहना चाहिये। यही सनातन धर्म है॥ ४९॥
अम्ब सम्भृत्य सम्भारान् दुःखं हृदि निगृह्य च।
वनवासकृता बुद्धिर्मम धानुवर्त्यताम्॥५०॥
‘मा! यह अभिषेक की सामग्री ले जाकर रख दो। अपने मन का दुःख मन में ही दबा लो और वनवास के सम्बन्ध में जो मेरा धर्मानुकूल विचार है, उसका अनुसरण करो—मुझे जाने की आज्ञा दो’ ॥ ५० ॥
एतद् वचस्तस्य निशम्य माता सुधर्म्यमव्यग्रमविक्लवं च।
मृतेव संज्ञां प्रतिलभ्य देवी समीक्ष्य रामं पुनरित्युवाच॥५१॥
श्रीरामचन्द्रजी की यह धर्मानुकूल तथा व्यग्रता और आकुलता से रहित बात सुनकर जैसे मरे हुए मनुष्य में प्राण आ जाय, उसी प्रकार देवी कौसल्या मर्छा त्यागकर होश में आ गयीं तथा अपने पुत्र श्रीराम की ओर देखकर इस प्रकार कहने लगीं- ॥५१॥
यथैव ते पुत्र पिता तथाहं गुरुः स्वधर्मेण सुहृत्तया च।
न त्वानुजानामि न मां विहाय सुदुःखितामर्हसि पुत्र गन्तुम्॥५२॥
‘बेटा! धर्म और सौहार्द के नाते जैसे पिता तुम्हारे लिये आदरणीय गुरुजन हैं, वैसी ही मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन में जाने की आज्ञा नहीं देती। वत्स! मुझ दुःखिया को छोड़कर तुम्हें कहीं नहीं जाना चाहिये। ५२॥
किं जीवितेनेह विना त्वया मे लोकेन वा किं स्वधयामृतेन।
श्रेयो मुहर्तं तव संनिधानं ममैव कृत्स्नादपि जीवलोकात्॥५३॥
‘तुम्हारे बिना मुझे यहाँ इस जीवन से क्या लाभ है ? इन स्वजनों से, देवता तथा पितरों की पूजा से और अमृत से भी क्या लेना है? तुम दो घड़ी भी मेरे पास रहो तो वही मेरे लिये सम्पूर्ण संसार के राज्य से भी बढ़कर सुख देनेवाला है’ ।। ५३ ।।
नरैरिवोल्काभिरपोह्यमानो महागजो ध्वान्तमभिप्रविष्टः।
भूयः प्रजज्वाल विलापमेवं निशम्य रामः करुणं जनन्याः॥५४॥
जैसे कोई विशाल गजराज किसी अन्धकूप में पड़ जाय और लोग उसे जलते लुआठों से मार-मारकर पीडित करने लगें, उस दशा में वह क्रोध से जल उठे; उसी प्रकार श्रीराम भी माता का बारंबार करुण विलाप सुनकर (इसे स्वधर्मपालन में बाधा मानकर) आवेश में भर गये। (वन में जाने का ही दृढ़ निश्चय कर लिया) ॥५४॥
स मातरं चैव विसंज्ञकल्पामार्तं च सौमित्रिमभिप्रतप्तम्।
धर्मे स्थितो धर्म्यमुवाच वाक्यं यथा स एवार्हति तत्र वक्तुम्॥५५॥
उन्होंने धर्म में ही दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर अचेत सी हो रही माता से और आर्त एवं संतप्त हुए सुमित्रा कुमार लक्ष्मण से भी ऐसी धर्मानुकूल बात कही, जैसी उस अवसर पर वे ही कह सकते थे। ५५॥
अहं हि ते लक्ष्मण नित्यमेव जानामि भक्तिं च पराक्रमं च।
मम त्वभिप्रायमसंनिरीक्ष्य मात्रा सहाभ्यर्दसि मा सुदुःखम्॥५६॥
‘लक्ष्मण ! मैं जानता हूँ, तुम सदा ही मुझमें भक्ति रखते हो और तुम्हारा पराक्रम कितना महान् है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है; तथापि तुम मेरे अभिप्राय की ओर ध्यान न देकर माताजी के साथ स्वयं भी मुझे पीड़ा दे रहे हो। इस तरह मुझे अत्यन्त दुःख में न डालो॥५६॥
धर्मार्थकामाः खलु जीवलोके समीक्षिता धर्मफलोदयेषु।
ये तत्र सर्वे स्युरसंशयं मे भार्येव वश्याभिमता सपुत्रा॥५७॥
‘इस जीवजगत् में पूर्वकृत धर्म के फल की प्राप्ति के अवसरों पर जो धर्म, अर्थ और काम तीनों देखे गये हैं, वे सब-के-सब जहाँ धर्म है, वहाँ अवश्य प्राप्त होते हैं—इसमें संशय नहीं है; ठीक उसी तरह जैसे भार्या धर्म, अर्थ और काम तीनों की साधन होती है। वह पति के वशीभूत या अनुकूल रहकर अतिथिसत्कार आदि धर् के पालन में सहायक होती है। प्रेयसीरूप से काम का साधन बनती है और पुत्रवती होकर उत्तम लोक की प्राप्तिरूप अर्थ की साधिका होती है।। ५७॥
यस्मिंस्तु सर्वे स्युरसंनिविष्टा धर्मो यतः स्यात् तदुपक्रमेत।
द्वेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥५८॥
‘जिस कर्ममें धर्म आदि सब पुरुषार्थोंका समावेश । न हो, उसको नहीं करना चाहिये। जिससे धर्मकी सिद्धि होती हो, उसीका आरम्भ करना चाहिये। जो केवल अर्थपरायण होता है, वह लोकमें सबके द्वेषका पात्र बन जाता है तथा धर्मविरुद्ध काममें अत्यन्त आसक्त होना प्रशंसा नहीं, निन्दाकी बात है। ५८॥
गुरुश्च राजा च पिता च वृद्धः क्रोधात् प्रहर्षादथवापि कामात्।
यद् व्यादिशेत् कार्यमवेक्ष्य धर्म कस्तं न कुर्यादनृशंसवृत्तिः॥५९॥
‘महाराज हमलोगों के गुरु, राजा और पिता होने के साथ ही बड़े-बूढ़े माननीय पुरुष हैं। वे क्रोध से, हर्ष से अथवा काम से प्रेरित होकर भी यदि किसी कार्य के लिये आज्ञा दें तो हमें धर्म समझकर उसका पालन करना चाहिये। जिसके आचरणों में क्रूरता नहीं है, ऐसा कौन पुरुष पिता की आज्ञा के पालन रूप धर्म का आचरण नहीं करेगा॥ ५९॥
न तेन शक्नोमि पितुः प्रतिज्ञामिमां न कर्तुं सकलां यथावत्।
स ह्यावयोस्तात गुरुर्नियोगे देव्याश्च भर्ता स गतिश्च धर्मः॥६०॥
‘इसलिये मैं पिता की इस सम्पूर्ण प्रतिज्ञा का यथावत् पालन करने से मुँह नहीं मोड़ सकता। तात लक्ष्मण! वे हम दोनों को आज्ञा देने में समर्थ गुरु हैं और माताजी के तो वे ही पति, गति तथा धर्म हैं। ६०॥
तस्मिन् पुनर्जीवति धर्मराजे विशेषतः स्वे पथि वर्तमाने।
देवी मया सार्धमितोऽभिगच्छेत् कथंस्विदन्या विधवेव नारी॥६१॥
‘वे धर्म के प्रवर्तक महाराज अभी जीवित हैं और विशेषतः अपने धर्ममय मार्गपर स्थित हैं, ऐसी दशा में माताजी, जैसे दूसरी कोई विधवा स्त्री बेटे के साथ रहती है, उस प्रकार मेरे साथ यहाँ से वन में कैसे चल सकती हैं? ॥ ६१॥
सा मानुमन्यस्व वनं व्रजन्तं कुरुष्व नः स्वस्त्ययनानि देवि।
यथा समाप्ते पुनराव्रजेयं यथा हि सत्येन पुनर्ययातिः॥६२॥
‘अतः देवि! तुम मुझे वन में जाने की आज्ञा दो और हमारे मङ्गल के लिये स्वस्तिवाचन कराओ, जिससे वनवास की अवधि समाप्त होने पर मैं फिर तुम्हारी सेवा में आ जाऊँ। जैसे राजा ययाति सत्य के प्रभाव से फिर स्वर्गमें लौट आये थे॥६२॥
यशो ह्यहं केवलराज्यकारणान्न पृष्ठतः कर्तुमलं महोदयम्।
अदीर्घकालेन तु देवि जीविते वृणेऽवरामद्य महीमधर्मतः॥६३॥
केवल धर्महीन राज्य के लिये मैं महान् फलदायक धर्मपालनरूप सुयश को पीछे नहीं ढकेल सकता। मा! जीवन अधिक कालतक रहने वाला नहीं है; इसके लिये मैं आज अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता’ ॥ ६३॥
प्रसादयन्नरवृषभः स मातरं पराक्रमाज्जिगमिषुरेव दण्डकान्।
अथानुजं भृशमनुशास्य दर्शनं चकार तां हृदि जननीं प्रदक्षिणम्॥६४॥
इस प्रकार नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने धैर्यपूर्वक दण्डकारण्य में जाने की इच्छा से माता को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया तथा अपने छोटे भाई लक्ष्मण को भी अपने विचार के अनुसार भलीभाँति धर्म का रहस्य समझाकर मन-ही-मन माता की परिक्रमा करने का संकल्प किया।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकविंशः सर्गः ॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। २१॥
Pingback: Valmiki Ramayana Ayodhya Kand in Hindi वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी