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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 22 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 22

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्वाविंशः सर्गः (सर्ग 22)

श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में दैव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने का आदेश देना

 

अथ तं व्यथया दीनं सविशेषममर्षितम्।
सरोषमिव नागेन्द्रं रोषविस्फारितेक्षणम्॥१॥
आसाद्य रामः सौमित्रिं सुहृदं भ्रातरं प्रियम्।
उवाचेदं स धैर्येण धारयन् सत्त्वमात्मवान्॥२॥

(श्रीराम के राज्याभिषेक में विघ्न पड़ने के कारण) सुमित्राकुमार लक्ष्मण मानसिक व्यथा से बहुत दुःखी थे। उनके मन में विशेष अमर्ष भरा हुआ था। वे रोष से भरे हए गजराज की भाँति क्रोध से आँखें फाड़फाड़कर देख रहे थे। अपने मन को वश में रखने वाले श्रीराम धैर्यपूर्वक चित्त को निर्विकाररूप से काबू में रखते हुए अपने हितैषी सुहृद् प्रिय भाई लक्ष्मण के पास जाकर इस प्रकार बोले- ॥ १-२॥

निगृह्य रोषं शोकं च धैर्यमाश्रित्य केवलम्।
अवमानं निरस्यैनं गृहीत्वा हर्षमुत्तमम्॥३॥
उपक्लुप्तं यदैतन्मे अभिषेकार्थमुत्तमम्।
सर्वं निवर्तय क्षिप्रं कुरु कार्यं निरव्ययम्॥४॥

‘लक्ष्मण! केवल धैर्य का आश्रय लेकर अपने मन के क्रोध और शोक को दूर करो, चित्त से अपमान की भावना निकाल दो और हृदय में भलीभाँति हर्ष भरकर मेरे अभिषेक के लिये यह जो उत्तम सामग्री एकत्र की गयी है, इसे शीघ्र हटा दो और ऐसा कार्य करो, जिससे मेरे वनगमन में बाधा उपस्थित न हो॥३-४॥

सौमित्रे योऽभिषेकार्थे मम सम्भारसम्भ्रमः।
अभिषेकनिवृत्त्यर्थे सोऽस्तु सम्भारसम्भ्रमः॥५॥

‘सुमित्रानन्दन! अबतक अभिषेक के लिये सामग्री जुटाने में जो तुम्हारा उत्साह था, वह इसे रोकने और मेरे वन जाने की तैयारी करने में होना चाहिये॥५॥

यस्या मदभिषेकार्थे मानसं परितप्यते।
माता नः सा यथा न स्यात् सविशङ्का तथा कुरु॥ ६ ॥

मेरे अभिषेक के कारण जिसके चित्त में संताप हो रहा है, उस हमारी माता कैकेयी को जिससे किसी तरह की शङ्का न रह जाय, वही काम करो॥६॥

तस्याः शङ्कामयं दुःखं मुहूर्तमपि नोत्सहे।
मनसि प्रतिसंजातं सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम्॥७॥

‘लक्ष्मण! उसके मन में संदेह के कारण दुःख उत्पन्न हो, इस बात को मैं दो घड़ी के लिये भी नहीं सह सकता और न इसकी उपेक्षा ही कर सकता हूँ।

न बुद्धिपूर्वं नाबुद्धं स्मरामीह कदाचन।
मातृणां वा पितुहिं कृतमल्पं च विप्रियम्॥८॥

‘मैंने यहाँ कभी जान-बूझकर या अनजान में माताओं का अथवा पिताजी का कोई छोटा-सा भी अपराध किया हो, ऐसा याद नहीं आता॥ ८॥

सत्यः सत्याभिसंधश्च नित्यं सत्यपराक्रमः।
परलोकभयाद् भीतो निर्भयोऽस्तु पिता मम॥९॥

‘पिताजी सदा सत्यवादी और सत्यपराक्रमी रहे हैं।वे परलोक के भय से सदा डरते रहते हैं; इसलिये मुझे वही काम करना चाहिये, जिससे मेरे पिताजी का पारलौकिक भय दूर हो जाय॥९॥

तस्यापि हि भवेदस्मिन् कर्मण्यप्रतिसंहृते।
सत्यं नेति मनस्तापस्तस्य तापस्तपेच्च माम्॥ १०॥

‘यदि इस अभिषेकसम्बन्धी कार्य को रोक नहीं दिया गया तो पिताजी को भी मन-ही-मन यह सोचकर संताप होगा कि मेरी बात सच्ची नहीं हुई और उनका वह मनस्ताप मुझे सदा संतप्त करता रहेगा॥ १० ॥
अभिषेकविधानं तु तस्मात् संहृत्य लक्ष्मण।
अन्वगेवाहमिच्छामि वनं गन्तुमितः पुरः॥११॥

“लक्ष्मण! इन्हीं सब कारणों से मैं अपने अभिषेक का कार्य रोककर शीघ्र ही इस नगर से वन को चला जाना चाहता हूँ॥ ११॥

मम प्रव्राजनादद्य कृतकृत्या नृपात्मजा।
सुतं भरतमव्यग्रमभिषेचयतां ततः॥१२॥

‘आज मेरे चले जाने से कृतकृत्य हुई राजकुमारी कैकेयी अपने पुत्र भरत का निर्भय एवं निश्चिन्त होकर अभिषेक करावे॥ १२॥

मयि चीराजिनधरे जटामण्डलधारिणि।
गतेऽरण्यं च कैकेय्या भविष्यति मनः सुखम्॥ १३॥

‘मैं वल्कल और मृगचर्म धारण करके सिर पर जटाजूट बाँधे जब वन को चला जाऊँगा, तभी कैकेयी के मन को सुख प्राप्त होगा॥ १३॥ ।

बुद्धिः प्रणीता येनेयं मनश्च सुसमाहितम्।
तं नु नार्हामि संक्लेष्टुं प्रव्रजिष्यामि मा चिरम्॥ १४॥

‘जिस विधाता ने कैकेयी को ऐसी बुद्धि प्रदान की है तथा जिसकी प्रेरणा से उसका मन मुझे वन भेजने में अत्यन्त दृढ़ हो गया है, उसे विफल मनोरथ करके कष्ट देना मेरे लिये उचित नहीं है।॥ १४ ॥

कृतान्त एव सौमित्रे द्रष्टव्यो मत्प्रवासने।
राज्यस्य च वितीर्णस्य पुनरेव निवर्तने॥ १५॥

‘सुमित्राकुमार! मेरे इस प्रवास में तथा पिताद्वारा दिये हुए राज्य के फिर हाथ से निकल जाने में दैव को ही कारण समझना चाहिये॥ १५ ॥

कैकेय्याः प्रतिपत्तिर्हि कथं स्यान्मम वेदने।
यदि तस्या न भावोऽयं कृतान्तविहितो भवेत्॥ १६॥

‘मेरी समझसे कैकेयी का यह विपरीत मनोभाव दैव का ही विधान है। यदि ऐसा न होता तो वह मुझे वन में भेजकर पीड़ा देने का विचार क्यों करती॥ १६ ॥

जानासि हि यथा सौम्य न मातृषु ममान्तरम्।
भूतपूर्वं विशेषो वा तस्या मयि सुतेऽपि वा॥ १७॥

‘सौम्य! तुम तो जानते ही हो कि मेरे मन में पहले भी कभी माताओं के प्रति भेदभाव नहीं हुआ और कैकेयी भी पहले मुझमें या अपने पुत्र में कोई अन्तर नहीं समझती थी॥ १७॥

सोऽभिषेकनिवृत्त्यर्थैः प्रवासाथैश्च दुर्वचैः।
उग्रैर्वाक्यैरहं तस्या नान्यद् दैवात् समर्थये ॥१८॥

‘मेरे अभिषेक को रोकने और मुझे वन में भेजने के लिये उसने राजा को प्रेरित करने के निमित्त जिन भयंकर और कटुवचनों का प्रयोग किया है, उन्हें साधारण मनुष्यों के लिये भी मुँह से निकालना कठिन है। उसकी ऐसी चेष्टा में मैं दैव के सिवा दूसरे किसी कारण का समर्थन नहीं करता॥ १८॥

कथं प्रकृतिसम्पन्ना राजपुत्री तथागुणा।
ब्रूयात् सा प्राकृतेव स्त्री मत्पीड्यं भर्तृसंनिधौ॥ १९॥

‘यदि ऐसी बात न होती तो वैसे उत्तम स्वभाव और श्रेष्ठ गुणों से युक्त राजकुमारी कैकेयी एक साधारण स्त्री की भाँति अपने पति के समीप मुझे पीड़ा देनेवाली बात कैसे कहती—मुझे कष्ट देने के लिये राम को वन में भेजने का प्रस्ताव कैसे उपस्थित करती। १९॥

यदचिन्त्यं तु तद् दैवं भूतेष्वपि न हन्यते।
व्यक्तं मयि च तस्यां च पतितो हि विपर्ययः॥ २०॥

‘जिसके विषय में कभी कुछ सोचा न गया हो, वही दैव का विधान है। प्राणियों में अथवा उनके अधिष्ठाता देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं है, जो उस दैव के विधान को मेट सके अतः निश्चय ही उसी की प्रेरणा से मुझमें और कैकेयी में यह भारी उलट-फेर हुआ है (मेरे हाथ में आया हुआ राज्य चला गया और कैकेयी की बुद्धि बदल गयी) ॥ २० ॥

कश्च दैवेन सौमित्रे योद्धमुत्सहते पुमान्।
यस्य नु ग्रहणं किंचित् कर्मणोऽन्यन्न दृश्यते॥ २१॥

सुमित्रानन्दन! कर्मों के सुख-दुःखादि रूप फल प्राप्त होने पर ही जिसका ज्ञान होता है, कर्मफल से अन्यत्र कहीं भी जिसका पता नहीं चलता, उस दैव के साथ कौन पुरुष युद्ध कर सकता है ? ॥ २१॥

सुखदुःखे भयक्रोधौ लाभालाभौ भवाभवौ।
यस्य किंचित् तथाभूतं ननु दैवस्य कर्म तत्॥ २२॥

‘सुख-दुःख, भय-क्रोध (क्षोभ), लाभ-हानि, उत्पत्ति और विनाश तथा इस प्रकार के और भी जितने परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका कोई कारण समझ में नहीं आता, वे सब दैव के ही कर्म हैं ॥ २२ ॥

ऋषयोऽप्युग्रतपसो दैवेनाभिप्रचोदिताः।
उत्सृज्य नियमांस्तीव्रान् भ्रश्यन्ते काममन्युभिः॥ २३॥

‘उग्र तपस्वी ऋषि भी दैव से प्रेरित होकर अपने तीव्र नियमों को छोड़ बैठते और काम-क्रोध के द्वारा विवश हो मर्यादा से भ्रष्ट हो जाते हैं।। २३॥

असंकल्पितमेवेह यदकस्मात् प्रवर्तते।
निवारब्धमारम्भैर्ननु दैवस्य कर्म तत्॥२४॥

‘जो बात बिना सोचे-विचारे अकस्मात् सिर पर आ पड़ती है और प्रयत्नों द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य को रोककर एक नया ही काण्ड उपस्थित कर देती है, अवश्य वह दैव का ही विधान है॥२४॥

एतया तत्त्वया बुद्ध्या संस्तभ्यात्मानमात्मना।
व्याहतेऽप्यभिषेके मे परितापो न विद्यते॥ २५॥

‘इस तात्त्विक बुद्धि के द्वारा स्वयं ही मन को स्थिर कर लेने के कारण मुझे अपने अभिषेक में विघ्न पड़ जाने पर भी दुःख या संताप नहीं हो रहा है॥ २५ ॥

तस्मादपरितापः संस्त्वमप्यनविधाय माम्।
प्रतिसंहारय क्षिप्रमाभिषेचनिकी क्रियाम्॥२६॥

‘इसी प्रकार तुम भी मेरे विचार का अनुसरण करके संताप शून्य हो राज्याभिषेक के इस आयोजन को शीघ्र बंद करा दो॥ २६॥

एभिरेव घटैः सर्वैरभिषेचनसम्भृतैः।
मम लक्ष्मण तापस्ये व्रतस्नानं भविष्यति॥२७॥

‘लक्ष्मण! राज्याभिषेक के लिये सँजोकर रखे गये इन्हीं सब कलशों द्वारा मेरा तापस-व्रत के संकल्प के लिये आवश्यक स्नान होगा॥ २७॥

अथवा किं मयैतेन राज्यद्रव्यमयेन तु।
उद्धृतं मे स्वयं तोयं व्रतादेशं करिष्यति ॥२८॥

‘अथवा राज्याभिषेक सम्बन्धी मङ्गल द्रव्यमय इस कलश जल की मुझे क्या आवश्यकता है? स्वयं मेरे द्वारा अपने हाथ से निकाला हुआ जल ही मेरे व्रतादेश का साधक होगा।॥ २८॥

मा च लक्ष्मण संतापं कार्षीर्लक्ष्या विपर्यये।
राज्यं वा वनवासो वा वनवासो महोदयः॥२९॥

‘लक्ष्मण! लक्ष्मी के इस उलट-फेर के विषय में तुम कोई चिन्ता न करो। मेरे लिये राज्य अथवा वनवास दोनों समान हैं, बल्कि विशेष विचार करने पर वनवास ही महान् अभ्युदयकारी प्रतीत होता है।
२९॥

न लक्ष्मणास्मिन् मम राज्यविघ्ने माता यवीयस्यभिशङ्कितव्या।
दैवाभिपन्ना न पिता कथंचिज्जानासि दैवं हि तथाप्रभावम्॥३०॥

‘लक्ष्मण! मेरे राज्याभिषेक में जो विघ्न आया है, इसमें मेरी सबसे छोटी माता कारण है, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वह दैव के अधीन थी। इसी प्रकार पिताजी भी किसी तरह इसमें कारण नहीं हैं। तुम तो दैव और उसके अद्भुत प्रभाव को जानते ही हो, वही कारण है ॥३०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्वाविंशः सर्गः॥ २२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्डमें बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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