वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 24 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 24
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्विंशः सर्गः (सर्ग 24)
कौसल्या का श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिये आग्रह करना , श्रीराम का उन्हें रोकना और वन जाने के लिये उनकी अनुमति प्राप्त करना
तं समीक्ष्य व्यवसितं पितुर्निर्देशपालने।
कौसल्या बाष्पसंरुद्धा वचो धर्मिष्ठमब्रवीत्॥१॥
कौसल्या ने जब देखा कि श्रीराम ने पिता की आज्ञा के पालन का ही दृढ़ निश्चय कर लिया है, तब वे आँसुओं से सैंधी हुई गद्गद वाणी में धर्मात्मा श्रीराम से इस प्रकार बोलीं- ॥१॥
अदृष्टदुःखो धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः।
मयि जातो दशरथात् कथमुञ्छेन वर्तयेत्॥२॥
‘हाय! जिसने जीवन में कभी दुःख नहीं देखा है, जो समस्त प्राणियों से सदा प्रिय वचन बोलता है, जिसका जन्म महाराज दशरथ से मेरे द्वारा हुआ है,वह मेरा धर्मात्मा पुत्र उञ्छवृत्ति से-खेत में गिरे हुए अनाज के एक-एक दाने को बीनकर कैसे जीवन निर्वाह कर सकेगा? ॥ २॥
यस्य भृत्याश्च दासाश्च मृष्टान्यन्नानि भुञ्जते।
कथं स भोक्ष्यते रामो वने मूलफलान्ययम्॥३॥
‘जिनके भृत्य और दास भी शुद्ध, स्वादिष्ट अन्न खाते हैं, वे ही श्रीराम वन में फल-मूल का आहार कैसे करेंगे? ॥ ३॥
क एतच्छ्रद्दधेच्छ्रत्वा कस्य वा न भवेद् भयम्।
गुणवान् दयितो राज्ञः काकुत्स्थो यद् विवास्यते॥४॥
‘जो सद्गुणसम्पन्न और महाराज दशरथ के प्रिय हैं, उन्हीं ककुत्स्थ-कुल-भूषण श्रीराम को जो वनवास दिया जा रहा है, इसे सुनकर कौन इस पर विश्वास करेगा? अथवा ऐसी बात सुनकर किसको भय नहीं होगा? ॥ ४॥
नूनं तु बलवाँल्लोके कृतान्तः सर्वमादिशन्।
लोके रामाभिरामस्त्वं वनं यत्र गमिष्यसि॥५॥
श्रीराम! निश्चय ही इस जगत् में दैव सबसे बड़ा बलवान् है। उसकी आज्ञा सबके ऊपर चलती है वही सबको सुख-दुःख से संयुक्त करता है; क्योंकि उसी के प्रभाव में आकर तुम्हारे-जैसा लोकप्रिय मनुष्य भी वन में जाने को उद्यत है॥५॥
अयं तु मामात्मभवस्तवादर्शनमारुतः।
विलापदुःखसमिधो रुदिताश्रुहुताहुतिः॥६॥
चिन्ताबाष्पमहाधूमस्तवागमनचिन्तजः।।
कर्शयित्वाधिकं पुत्र निःश्वासायाससम्भवः॥७॥
त्वया विहीनामिह मां शोकाग्निरतुलो महान्।
प्रधक्ष्यति यथा कक्ष्यं चित्रभानुर्हिमात्यये॥८॥
‘परंतु बेटा! तुमसे बिछुड़ जाने पर यहाँ मुझे शोक की अनुपम एवं बहुत बढ़ी हुई आग उसी तरह जलाकर भस्म कर डालेगी, जैसे ग्रीष्मऋतु में दावानल सूखी लकड़ियों और घास-फूस को जला डालता है। शोक की यह आग मेरे अपने ही मन में प्रकट हुई है। तुम्हें न देख पाने की सम्भावना ही वायु बनकर इस अग्नि को उद्दीप्त कर रही है। । विलाप जनित दुःख ही इसमें ईंधन का काम कर रहे । हैं। रोने से जो अश्रुपात होते हैं, वे ही मानो इसमें दी हुई घी की आहुति हैं। चिन्ता के कारण जो गरम-गरम उच्छ्वास उठ रहा है, वही इसका महान् धूम है। तुम दूर देश में जाकर फिर किस तरह आओगे इस प्रकार की चिंता ही इस शोकाग्नि को जन्म दे रही है। साँस लेने का जो प्रयत्न है, उसी से इस आग की प्रतिक्षण वृद्धि हो रही है। तुम्हीं इसे बुझाने के लिये जल हो तुम्हारे बिना यह आग मुझे अधिक सुखाकर जला डालेगी॥६-८॥
कथं हि धेनुः स्वं वत्सं गच्छन्तमनुगच्छति।
अहं त्वानुगमिष्यामि यत्र वत्स गमिष्यसि ॥९॥
‘वत्स! धेनु आगे जाते हुए अपने बछड़े के पीछे पीछे कैसे चली जाती है, उसी प्रकार मैं भी तुम जहाँ भी जाओगे, तुम्हारे पीछे-पीछे चली चलूँगी’ ॥९॥
यथा निगदितं मात्रा तद् वाक्यं पुरुषर्षभः।
श्रुत्वा रामोऽब्रवीद् वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम्॥ १०॥
माता कौसल्या ने जैसे जो कुछ कहा, उस वचन को सुनकर पुरुषोत्तम श्रीराम ने अत्यन्त दुःख में डूबी हुई अपनी माँ से पुनः इस प्रकार कहा- ॥ १० ॥
कैकेय्या वञ्चितो राजा मयि चारण्यमाश्रिते।
भवत्या च परित्यक्तो न ननं वर्तयिष्यति॥११॥
‘माँ! कैकेयी ने राजा के साथ धोखा किया है। इधर मैं वन को चला जा रहा हूँ। इस दशा में यदि तुम भी उनका परित्याग कर दोगी तो निश्चय ही वे जीवित नहीं रह सकेंगे॥११॥
भर्तः किल परित्यागो नृशंसः केवलं स्त्रियाः।
स भवत्या न कर्तव्यो मनसापि विगर्हितः॥१२॥
‘पति का परित्याग नारी के लिये बड़ा ही क्रूरतापूर्ण कर्म है। सत्पुरुषों ने इसकी बड़ी निन्दा की है; अतः तुम्हें तो ऐसी बात कभी मन में भी नहीं लानी चाहिये। १२॥
यावज्जीवति काकुत्स्थः पिता मे जगतीपतिः।
शुश्रूषा क्रियतां तावत् स हि धर्मः सनातनः॥ १३॥
‘मेरे पिता ककुत्स्थकुल-भूषण महाराज दशरथ जबतक जीवित हैं, तबतक तुम उन्हीं की सेवा करो। पति की सेवा ही स्त्री के लिये सनातन धर्म है’ ॥ १३ ॥
एवमुक्ता तु रामेण कौसल्या शुभदर्शना।
तथेत्युवाच सुप्रीता राममक्लिष्टकारिणम्॥१४॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर शुभ कर्मो पर दृष्टि रखने वाली देवी कौसल्या ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम से कहा —’अच्छा बेटा ! ऐसा ही करूँगी’ ॥ १४ ॥
एवमुक्तस्तु वचनं रामो धर्मभृतां वरः।
भूयस्तामब्रवीद् वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम्॥ १५॥
माँ के इस प्रकार स्वीकृतिसूचक बात कहने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम ने अत्यन्त दुःख में पड़ी हुई अपनी माता से पुनः इस प्रकार कहा- ॥ १५ ॥
मया चैव भवत्या च कर्तव्यं वचनं पितुः।
राजा भर्ता गुरुः श्रेष्ठः सर्वेषामीश्वरः प्रभुः॥ १६॥
‘माँ! पिताजी की आज्ञा का पालन करना मेरा और तुम्हारा—दोनों का कर्तव्य है; क्योंकि राजा हम सब लोगों के स्वामी, श्रेष्ठ गुरु, ईश्वर एवं प्रभु हैं॥ १६॥
इमानि तु महारण्ये विहृत्य नव पञ्च च।
वर्षाणि परमप्रीत्या स्थास्यामि वचने तव॥१७॥
‘इन चौदह वर्षों तक मैं विशाल वन में घूम-फिरकर लौट आऊँगा और बड़े प्रेम से तुम्हारी आज्ञा का पालन करता रहूँगा’॥ १७॥
एवमुक्ता प्रियं पुत्रं बाष्पपूर्णानना तदा।
उवाच परमार्ता तु कौसल्या सुतवत्सला॥१८॥
उनके ऐसा कहने पर पुत्रवत्सला कौसल्या के मुखपर पुनः आँसुओं की धारा बह चली। वे उस समय अत्यन्त आर्त होकर अपने प्रिय पुत्र से बोलीं – ॥१८॥
आसां राम सपत्नीनां वस्तुं मध्ये न मे क्षमम्।
नय मामपि काकुत्स्थ वनं वन्यां मृगीमिव॥ १९॥
यदि ते गमने बुद्धिः कृता पितरपेक्षया।
‘बेटा राम! अब मुझसे इन सौतों के बीच में नहीं रहा जायगा। काकुत्स्थ! यदि पिता की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से तुमने वन में जाने का ही निश्चय किया है तो मुझे भी वनवासिनी हरिणी की भाँति वन में ही ले चलो’ ॥ १९ १/२॥
तां तथा रुदतीं रामो रुदन् वचनमब्रवीत्॥२०॥
जीवन्त्या हि स्त्रिया भर्ता दैवतं प्रभुरेव च।
भवत्या मम चैवाद्य राजा प्रभवति प्रभुः ॥२१॥
यह कहकर माता कौसल्या रोने लगीं। उन्हें उस तरह रोती देख श्रीराम भी रो पड़े और उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले—’माँ! स्त्री के जीते-जी उसका पति ही उसके लिये देवता और ईश्वर के समान है। महाराज तुम्हारे और मेरे दोनों के प्रभु हैं। २०-२१॥
न ह्यनाथा वयं राज्ञा लोकनाथेन धीमता।
भरतश्चापि धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः॥ २२॥
भवतीमनुवर्तेत स हि धर्मरतः सदा।
‘जबतक बुद्धिमान् जगदीश्वर महाराज दशरथ जीवित हैं, तब तक हमें अपने को अनाथ नहीं समझना चाहिये। भरत भी बड़े धर्मात्मा हैं। वे समस्त प्राणियों के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले और सदा ही धर्म में तत्पर रहने वाले हैं; अतः वे तुम्हारा अनुसरण -तुम्हारी सेवा करेंगे॥ २२ १/२ ॥
यथा मयि तु निष्क्रान्ते पुत्रशोकेन पार्थिवः ॥२३॥
श्रमं नावाप्नुयात् किंचिदप्रमत्ता तथा कुरु।
‘मेरे चले जाने पर जिस तरह भी महाराज को पुत्रशोक के कारण कोई विशेष कष्ट न हो, तुम सावधानी के साथ वैसा ही प्रयत्न करना॥ २३ १/२ ॥
दारुणश्चाप्ययं शोको यथैनं न विनाशयेत॥२४॥
राज्ञो वृद्धस्य सततं हितं चर समाहिता।
‘कहीं ऐसा न हो कि यह दारुण शोक इनकी जीवनलीला ही समाप्त कर डाले। जैसे भी सम्भव हो, तुम सदा सावधान रहकर बूढ़े महाराज के हितसाधन में लगी रहना ॥ २४ १/२ ।।
व्रतोपवासनिरता या नारी परमोत्तमा॥२५॥
भर्तारं नानुवर्तेत सा च पापगतिर्भवेत्।
‘उत्कृष्ट गुण और जाति आदि की दृष्टि से परम उत्तम तथा व्रत-उपवास में तत्पर होकर भी जो नारी पति की सेवा नहीं करती है, उसे पापियों को मिलने वाली गति (नरक आदि)- की प्राप्ति होती है। २५ १/२॥
भर्तुः शुश्रूषया नारी लभते स्वर्गमुत्तमम्॥२६॥
अपि या निर्नमस्कारा निवृत्ता देवपूजनात्।
‘जो अन्यान्य देवताओं की वन्दना और पूजा से दूर रहती है, वह नारी भी केवल पति की सेवामात्र से उत्तम स्वर्गलोक को प्राप्त कर लेती है।। २६ १/२॥
शुश्रूषामेव कुर्वीत भर्तुः प्रियहिते रता॥ २७॥
एष धर्मः स्त्रिया नित्यो वेदे लोके श्रुतः स्मृतः।
‘अतः नारी को चाहिये कि वह पति के प्रिय एवं हितसाधन में तत्पर रहकर सदा उसकी सेवा ही करे, यही स्त्री का वेद और लोक में प्रसिद्ध नित्य (सनातन) धर्म है। इसी का श्रुतियों और स्मृतियों में भी वर्णन है॥ २७ १/२ ॥
अग्निकार्येषु च सदा सुमनोभिश्च देवताः॥ २८॥
पूज्यास्ते मत्कृते देवि ब्राह्मणाश्चैव सत्कृताः।
‘देवि! तुम्हें मेरी मङ्गल-कामना से सदा अग्निहोत्र के अवसरों पर पुष्पों से देवताओं का तथा सत्कारपूर्वक ब्राह्मणों का भी पूजन करते रहना चाहिये॥ २८ १/२॥
एवं कालं प्रतीक्षस्व ममागमनकांक्षिणी॥२९॥
नियता नियताहारा भर्तृशुश्रूषणे रता।
‘इस प्रकार तुम नियमित आहार करके नियमों का पालन करती हुई स्वामी की सेवा में लगी रहो और मेरे आगमन की इच्छा रखकर समय की प्रतीक्षा करो॥२९ १/२॥
प्राप्स्यसे परमं कामं मयि पर्यागते सति ॥ ३०॥
यदि धर्मभृतां श्रेष्ठो धारयिष्यति जीवितम्।
‘यदि धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज जीवित रहेंगे तो मेरे लौट आने पर तुम्हारी भी शुभ कामना पूर्ण होगी’।
एवमुक्ता तु रामेण बाष्पपर्याकुलेक्षणा॥३१॥
कौसल्या पुत्रशोकार्ता रामं वचनमब्रवीत्।
श्रीराम के ऐसा कहने पर कौसल्या के नेत्रों में आँसू छलक आये। वे पुत्रशोक से पीड़ित होकर श्रीरामचन्द्रजी से बोलीं- ॥३१ १/२॥
गमने सुकृतां बुद्धिं न ते शक्नोमि पुत्रक॥३२॥
विनिवर्तयितुं वीर नूनं कालो दुरत्ययः।
‘बेटा! मैं तुम्हारे वन में जाने के निश्चित विचार को नहीं पलट सकती। वीर! निश्चय ही काल की आज्ञा का उल्लङ्घन करना अत्यन्त कठिन है॥ ३२ १/२॥
गच्छ पुत्र त्वमेकाग्रो भद्रं तेऽस्तु सदा विभो॥ ३३॥
पुनस्त्वयि निवृत्ते तु भविष्यामि गतक्लमा।
‘सामर्थ्यशाली पुत्र! अब तुम निश्चिन्त होकर वन को जाओ, तुम्हारा सदा ही कल्याण हो। जब फिर तुम वन से लौट आओगे, उस समय मेरे सारे क्लेश-सब संताप दूर हो जायेंगे॥ ३३ १/२ ॥
प्रत्यागते महाभागे कृतार्थे चरितव्रते।
पितुरानृण्यतां प्राप्ते स्वपिष्ये परमं सुखम्॥३४॥
‘बेटा! जब तुम वनवास का महान् व्रत पूर्ण करके कृतार्थ एवं महान् सौभाग्यशाली होकर लौट आओगे और ऐसा करके पिता के ऋण से उऋण हो जाओगे, तभी मैं उत्तम सुख की नींद सो सकूँगी॥ ३४ ॥
कृतान्तस्य गतिः पुत्र दुर्विभाव्या सदा भुवि।
यस्त्वां संचोदयति मे वच आविध्य राघव॥
‘बेटा रघुनन्दन! इस भूतल पर दैव की गति को समझना बहुत ही कठिन है, जो मेरी बात काटकर तुम्हें वन जाने के लिये प्रेरित कर रहा है।॥ ३५ ॥
गच्छेदानीं महाबाहो क्षेमेण पुनरागतः।
नन्दयिष्यसि मां पुत्र साम्ना श्लक्ष्णेन चारुणा॥ ३६॥
‘बेटा! महाबाहो! इस समय जाओ, फिर कुशलपूर्वक लौटकर सान्त्वना भरे मधुर एवं मनोहर वचनोंसे मुझे आनन्दित करना।। ३६ ॥
अपीदानीं स कालः स्याद् वनात् प्रत्यागतं पुनः।
यत् त्वां पुत्रक पश्येयं जटावल्कलधारिणम्॥ ३७॥
‘वत्स! क्या वह समय अभी आ सकता है, जब कि जटा-वल्कल धारण किये वन से लौटकर आये हुए तुमको फिर देख सकूँगी’ ॥ ३७॥
तथा हि रामं वनवासनिश्चितं ददर्श देवी परमेण चेतसा।
उवाच रामं शुभलक्षणं वचो बभूव च स्वस्त्ययनाभिकांक्षिणी॥३८॥
देवी कौसल्या ने जब देखा कि इस प्रकार श्रीराम वनवास का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं, तब वे परम आदरयुक्त हृदय से उनको शुभसूचक आशीर्वाद देने और उनके लिये स्वस्तिवाचन कराने की इच्छा करने लगीं ॥ ३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुर्विंशः सर्गः॥२४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥
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