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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 26

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (सर्ग 26)

श्रीराम को उदास देखकर सीता का उनसे इसका कारण पूछना और श्रीराम का वन में जाने का निश्चय बताते हुए सीता को घर में रहने के लिये समझाना

 

अभिवाद्य तु कौसल्यां रामः सम्प्रस्थितो वनम्।
कृतस्वस्त्ययनो मात्रा धर्मिष्ठे वर्त्मनि स्थितः॥१॥

धर्मिष्ठ मार्ग पर स्थित हुए श्रीराम माता द्वारा स्वस्तिवाचन-कर्म सम्पन्न हो जाने पर कौसल्या को प्रणाम करके वहाँ से वन के लिये प्रस्थित हुए॥१॥

विराजयन् राजसुतो राजमार्ग नरैर्वृतम्।
हृदयान्याममन्थेव जनस्य गुणवत्तया॥२॥

उस समय मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए राजमार्ग को प्रकाशित करते हुए राजकुमार श्रीराम अपने सद्गुणों के कारण लोगों के मन  को मथने-से लगे (ऐसे गुणवान् श्रीराम को वनवास दिया जा रहा है, यह सोचकर वहाँ के लोगों का जी कचोटने लगा) ॥२॥

वैदेही चापि तत् सर्वं न शुश्राव तपस्विनी।
तदेव हृदि तस्याश्च यौवराज्याभिषेचनम्॥३॥

तपस्विनी विदेहनन्दिनी सीता ने अभी तक वह सारा हाल नहीं सुना था। उनके हृदय में यही बात समायी हुई थी कि मेरे पति का युवराज पद पर अभिषेक हो रहा होगा।

देवकार्यं स्म सा कृत्वा कृतज्ञा हृष्टचेतना।
अभिज्ञा राजधर्माणां राजपुत्री प्रतीक्षति॥४॥

विदेहराजकुमारी सीता सामयिक कर्तव्यों तथा राजधर्मो को जानती थीं, अतः देवताओं की पूजा करके प्रसन्नचित्त से श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं।

प्रविवेशाथ रामस्तु स्ववेश्म सुविभूषितम्।
प्रहृष्टजनसम्पूर्ण ह्रिया किंचिदवाङ्मखः॥५॥

इतने में ही श्रीराम ने अपने भलीभाँति सजे-सजाये अन्तःपुर में, जो प्रसन्न मनुष्यों से भरा हुआ था, प्रवेश किया। उस समय लज्जा से उनका मुख कुछ नीचा हो रहा था।

अथ सीता समुत्पत्य वेपमाना च तं पतिम्।
अपश्यच्छोकसंतप्तं चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियम्॥

सीता उन्हें देखते ही आसन से उठकर खड़ी हो गयीं। उनकी अवस्था देखकर काँपने लगीं और चिन्ता से व्याकुल इन्द्रियों वाले अपने उन शोकसंतप्त पति को निहारने लगीं॥६॥

तां दृष्ट्वा स हि धर्मात्मा न शशाक मनोगतम्।
तं शोकं राघवः सोढुं ततो विवृततां गतः॥७॥

धर्मात्मा श्रीराम सीता को देखकर अपने मानसिक शोक का वेग सहन न कर सके, अतः उनका वह शोक प्रकट हो गया॥७॥

विवर्णवदनं दृष्ट्वा तं प्रस्विन्नममर्षणम्।
आह दुःखाभिसंतप्ता किमिदानीमिदं प्रभो॥८॥

उनका मुख उदास हो गया था। उनके अङ्गों से पसीना निकल रहा था। वे अपने शोक को दबाये रखने में असमर्थ हो गये थे। उन्हें इस अवस्था में देखकर सीता दुःख से संतप्त हो उठी और बोलीं —’प्रभो! इस समय यह आपकी कैसी दशा है? ॥ ८॥

अद्य बार्हस्पतः श्रीमान् युक्तः पुष्येण राघव।
प्रोच्यते ब्राह्मणैः प्राज्ञैः केन त्वमसि दुर्मनाः॥९॥

‘रघुनन्दन! आज बृहस्पति देवता-सम्बन्धी मङ्गलमय पुष्यनक्षत्र है, जो अभिषेक के योग्य है। उस पुष्यनक्षत्र के योग में विद्वान् ब्राह्मणों ने आपका अभिषेक बताया है। ऐसे समय में जब कि आपको प्रसन्न होना चाहिये था, आपका मन इतना उदास क्यों है? ॥९॥

न ते शतशलाकेन जलफेननिभेन च।
आवृतं वदनं वल्गु च्छत्रेणाभिविराजते॥१०॥

‘मैं देखती हूँ, इस समय आपका मनोहर मुख जल के फेन के समान उज्ज्वल तथा सौ तीलियों वाले श्वेत छत्र से आच्छादित नहीं है, अतएव अधिक शोभा नहीं पा रहा है॥ १० ॥

व्यजनाभ्यां च मुख्याभ्यां शतपत्रनिभेक्षणम्।
चन्द्रहंसप्रकाशाभ्यां वीज्यते न तवाननम्॥११॥

‘कमल-जैसे सुन्दर नेत्र धारण करनेवाले आपके इस मुखपर चन्द्रमा और हंसके समान श्वेत वर्णवाले दो श्रेष्ठ चँवरोंद्वारा हवा नहीं की जा रही है॥ ११॥

वाग्मिनो वन्दिनश्चापि प्रहृष्टास्त्वां नरर्षभ।
स्तुवन्तो नाद्य दृश्यन्ते मङ्गलैः सूतमागधाः॥ १२॥

‘नरश्रेष्ठ! प्रवचनकुशल वन्दी, सूत और मागधजन आज अत्यन्त प्रसन्न हो अपने माङ्गलिक वचनोंद्वारा आपकी स्तुति करते नहीं दिखायी देते हैं।१२ ॥

न ते क्षौद्रं च दधि च ब्राह्मणा वेदपारगाः।
मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्तस्य ददति स्म विधानतः॥

‘वेदों के पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मणों ने आज मूर्धाभिषिक्त हुए आपके मस्तक पर तीर्थोदकमिश्रित मधु और दधि का विधिपूर्वक अभिषेक नहीं किया। १३॥

न त्वां प्रकृतयः सर्वाः श्रेणीमुख्याश्च भूषिताः।
अनुव्रजितुमिच्छन्ति पौरजानपदास्तथा ॥१४॥

‘मन्त्री-सेनापति आदि सारी प्रकृतियाँ, वस्त्राभूषणों से विभूषित मुख्य-मुख्य सेठ-साहूकार तथा नगर और जनपद के लोग आज आपके पीछे पीछे चलने की इच्छा नहीं कर रहे हैं! (इसका क्या कारण है?) ॥१४॥

चतुर्भिर्वेगसम्पन्नैर्हयैः काञ्चनभूषणैः ।
मुख्यः पुष्परथो युक्तः किं न गच्छति तेऽग्रतः॥ १५॥

‘सुनहरे साज-बाज से सजे हुए चार वेगशाली घोड़ों से जुता हुआ श्रेष्ठ पुष्परथ (पुष्पभूषित केवल भ्रमणोपयोगी रथ) आज आपके आगे-आगे क्यों नहीं चल रहा है? ॥ १५ ॥

न हस्ती चाग्रतः श्रीमान् सर्वलक्षणपूजितः।
प्रयाणे लक्ष्यते वीर कृष्णमेघगिरिप्रभः॥१६॥

‘वीर! आपकी यात्रा के समय समस्त शुभ लक्षणों से प्रशंसित तथा काले मेघवाले पर्वत के समान विशालकाय तेजस्वी गजराज आज आपके आगे क्यों नहीं दिखायी देता है ? ॥ १६॥

न च काञ्चनचित्रं ते पश्यामि प्रियदर्शन।
भद्रासनं पुरस्कृत्य यान्तं वीर पुरःसरम्॥१७॥

‘प्रियदर्शन वीर! आज आपके सुवर्णजटित भद्रासन को सादर हाथ में लेकर अग्रगामी सेवक आगे जाता क्यों नहीं दिखायी देता है ? ।। १७॥

अभिषेको यदा सज्जः किमिदानीमिदं तव।
अपूर्वो मुखवर्णश्च न प्रहर्षश्च लक्ष्यते॥१८॥

‘जब अभिषेककी सारी तैयारी हो चुकी है, ऐसे समयमें आपकी यह क्या दशा हो रही है? आपके मुखकी कान्ति उड़ गयी है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। आपके चेहरेपर प्रसन्नताका कोई चिह्न नहीं दिखायी देता है। इसका क्या कारण है?’। १८॥

इतीव विलपन्तीं तां प्रोवाच रघुनन्दनः।
सीते तत्रभवांस्तातः प्रव्राजयति मां वनम्॥१९॥

इस प्रकार विलाप करती हुई सीतासे रघुनन्दन श्रीरामने कहा—’सीते! आज पूज्य पिताजी मुझे वनमें भेज रहे हैं॥१९॥

कुले महति सम्भूते धर्मज्ञे धर्मचारिणि।
शृणु जानकि येनेदं क्रमेणाद्यागतं मम॥२०॥

‘महान् कुलमें उत्पन्न, धर्मको जाननेवाली तथा धर्मपरायणे जनकनन्दिनि! जिस कारण यह वनवास आज मुझे प्राप्त हुआ है, वह क्रमशः बताता हूँ, सुनो॥

राज्ञा सत्यप्रतिज्ञेन पित्रा दशरथेन वै।
कैकेय्यै मम मात्रे तु पुरा दत्तौ महावरौ॥२१॥

मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिता महाराज दशरथ ने माता कैकेयी को पहले कभी दो महान् वर दिये थे॥ २१॥

तयाद्य मम सज्जेऽस्मिन्नभिषेके नृपोद्यते।
प्रचोदितः स समयो धर्मेण प्रतिनिर्जितः॥२२॥

‘इधर जब महाराज के उद्योग से मेरे राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी, तब कैकेयी ने उस वरदान की प्रतिज्ञा को याद दिलाया और महाराज  को धर्मतः अपने काबू में कर लिया॥ २२॥

चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यं दण्डके मया।
पित्रा मे भरतश्चापि यौवराज्ये नियोजितः॥ २३॥

‘इससे विवश होकर पिताजी ने भरत को तो युवराज के पदपर नियुक्त किया और मेरे लिये दूसरा वर स्वीकार किया, जिसके अनुसार मुझे चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में निवास करना होगा॥२३॥

सोऽहं त्वामागतो द्रष्टुं प्रस्थितो विजनं वनम्।
भरतस्य समीपे ते नाहं कथ्यः कदाचन ॥२४॥
ऋद्धियुक्ता हि पुरुषा न सहन्ते परस्तवम्।
तस्मान्न ते गुणाः कथ्या भरतस्याग्रतो मम॥ २५॥

‘इस समय मैं निर्जन वन में जाने के लिये प्रस्थान कर चुका हूँ और तुमसे मिलने के लिये यहाँ आया हूँ। तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा न करना; क्योंकि समृद्धिशाली पुरुष दूसरे की स्तुति नहीं सहन कर पाते हैं। इसीलिये कहता हूँ कि तुम भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा न करना॥ २४-२५ ॥

अहं ते नानुवक्तव्यो विशेषेण कदाचन।
अनुकूलतया शक्यं समीपे तस्य वर्तितुम्॥२६॥

‘विशेषतः तुम्हें भरत के समक्ष अपनी सखियों के साथ भी बारंबार मेरी चर्चा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उनके मन के अनुकूल बर्ताव करके ही तुम उनके निकट रह सकती हो॥२६॥

तस्मै दत्तं नृपतिना यौवराज्यं सनातनम्।
स प्रसाद्यस्त्वया सीते नृपतिश्च विशेषतः॥२७॥

‘सीते! राजा ने उन्हें सदा के लिये युवराज पद दे दिया है, इसलिये तुम्हें विशेष प्रयत्नपूर्वक उन्हें प्रसन्न रखना चाहिये; क्योंकि अब वे ही राजा होंगे। २७॥

अहं चापि प्रतिज्ञां तां गुरोः समनुपालयन्।
वनमद्यैव यास्यामि स्थिरीभव मनस्विनि॥२८॥

मैं भी पिताजी की उस प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये आज ही वन को चला जाऊँगा। मनस्विनि ! तुम धैर्य धारण करके रहना॥२८॥

याते च मयि कल्याणि वनं मुनिनिषेवितम्।
व्रतोपवासपरया भवितव्यं त्वयानघे॥२९॥

‘कल्याणि! निष्पाप सीते! मेरे मुनिजन सेवित वन को चले जाने पर तुम्हें प्रायः व्रत और उपवास में संलग्न रहना चाहिये॥ २९॥

कल्यमुत्थाय देवानां कृत्वा पूजां यथाविधि।
वन्दितव्यो दशरथः पिता मम जनेश्वरः॥३०॥

‘प्रतिदिन सबेरे उठकर देवताओंकी विधिपूर्वक पूजा करके तुम्हें मेरे पिता महाराज दशरथकी वन्दना करनी चाहिये॥३०॥

माता च मम कौसल्या वृद्धा संतापकर्शिता।
धर्ममेवाग्रतः कृत्वा त्वत्तः सम्मानमर्हति॥३१॥

‘मेरी माता कौसल्या को भी प्रणाम करना चाहिये। एक तो वे बूढ़ी हुईं, दूसरे दुःख और संताप ने उन्हें दुर्बल कर दिया है; अतः धर्म को ही सामने रखकर तुमसे वे विशेष सम्मान पाने के योग्य हैं॥ ३१॥

वन्दितव्याश्च ते नित्यं याः शेषा मम मातरः।
स्नेहप्रणयसम्भोगैः समा हि मम मातरः॥३२॥

‘जो मेरी शेष माताएँ हैं, उनके चरणों में भी तुम्हें प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिये; क्योंकि स्नेह, उत्कृष्ट प्रेम और पालन-पोषण की दृष्टि से सभी माताएँ मेरे लिये समान हैं॥ ३२॥

भ्रातृपुत्रसमौ चापि द्रष्टव्यौ च विशेषतः।
त्वया भरतशत्रुघ्नौ प्राणैः प्रियतरौ मम॥३३॥

‘भरत और शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं, अतः तुम्हें उन दोनोंको विशेषतः अपने भाई और पुत्र के समान देखना और मानना चाहिये।। ३३॥

विप्रियं च न कर्तव्यं भरतस्य कदाचन।
स हि राजा च वैदेहि देशस्य च कुलस्य च॥ ३४॥

‘विदेहनन्दिनि! तुम्हें भरत की इच्छाके विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस समय वे मेरे देश और कुल के राजा हैं॥ ३४॥

आराधिता हि शीलेन प्रयत्नैश्चोपसेविताः।
राजानः सम्प्रसीदन्ति प्रकुप्यन्ति विपर्यये॥ ३५॥

‘अनुकूल आचरण के द्वारा आराधना और प्रयत्नपूर्वक सेवा करने पर राजा लोग प्रसन्न होते हैं तथा विपरीत बर्ताव करने पर वे कुपित हो जाते हैं। ३५॥

औरस्यानपि पुत्रान् हि त्यजन्त्यहितकारिणः।
समर्थान् सम्प्रगृह्णन्ति जनानपि नराधिपाः॥ ३६॥

‘जो अहित करने वाले हैं, वे अपने औरस पुत्र ही क्यों न हों, राजा उन्हें त्याग देते हैं और आत्मीय न होने पर भी जो सामर्थ्यवान् होते हैं, उन्हें वे अपना बना लेते हैं॥ ३६॥

सा त्वं वसेह कल्याणि राज्ञः समनुवर्तिनी।
भरतस्य रता धर्मे सत्यव्रतपरायणा॥३७॥

‘अतः कल्याणि! तुम राजा भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहाँ निवास करो॥ ३७॥

अहं गमिष्यामि महावनं प्रिये त्वया हि वस्तव्यमिहैव भामिनि।
यथा व्यलीकं कुरुषे न कस्यचित् तथा त्वया कार्यमिदं वचो मम॥३८॥

‘प्रिये! अब मैं उस विशाल वन में चला जाऊँगा,भामिनि! तुम्हें यहीं निवास करना होगा। तुम्हारे बर्ताव से किसी को कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते हुए तुम्हें यहाँ मेरी इस आज्ञा का पालन करते रहना चाहिये’॥ ३८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२६॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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