वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 27 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 27
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः (सर्ग 27)
सीता की श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिये प्रार्थना
एवमुक्ता तु वैदेही प्रियाय प्रियवादिनी।
प्रणयादेव संक्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर प्रियवादिनी विदेहकुमारी सीताजी, जो सब प्रकार से अपने स्वामी का प्यार पाने योग्य थीं, प्रेम से ही कुछ कुपित होकर पति से इस प्रकार बोलीं- ॥ १॥
किमिदं भाषसे राम वाक्यं लघुतया ध्रुवम्।
त्वया यदपहास्यं मे श्रुत्वा नरवरोत्तम ॥२॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम! आप मुझे ओछी समझकर यह क्या कह रहे हैं? आपकी ये बातें सुनकर मुझे बहुत हँसी आती है॥२॥
वीराणां राजपुत्राणां शस्त्रास्त्रविदुषां नृप।
अनर्हमयशस्यं च न श्रोतव्यं त्वयेरितम्॥३॥
‘नरेश्वर! आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्रशस्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों के योग्य नहीं है। वह अपयश का टीका लगानेवाला होने के कारण सुनने योग्य भी नहीं है॥३॥
आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा।
स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते॥४॥
‘आर्यपुत्र ! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू-ये सब पुण्यादि कर्मों का फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य (शुभाशुभ कर्म) के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं॥४॥
भर्तुर्भाग्यं तु नार्येका प्राप्नोति पुरुषर्षभ।
अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि॥५॥
‘पुरुषप्रवर! केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गयी है॥५॥
न पिता नात्मजो वात्मा न माता न सखीजनः।
इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा॥६॥
‘नारियों के लिये इस लोक और परलोक में एकमात्र पति ही सदा आश्रय देनेवाला है। पिता, पुत्र, माता, सखियाँ तथा अपना यह शरीर भी उसका सच्चा सहायक नहीं है।
यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव।
अग्रतस्ते गमिष्यामि मृदुनन्ती कुशकण्टकान्॥ ७॥
‘रघुनन्दन! यदि आप आज ही दुर्गम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो मैं रास्ते के कुश और काँटों को कुचलती हुई आपके आगे-आगे चलूँगी॥७॥
ईर्ष्या रोषं बहिष्कृत्य भुक्तशेषमिवोदकम्।
नय मां वीर विस्रब्धः पापं मयि न विद्यते॥८॥
‘अतः वीर! आप ईर्ष्या और रोष को दूर करके पीने से बचे हुए जल की भाँति मुझे निःशङ्क होकर साथ ले चलिये। मुझमें ऐसा कोई पाप-अपराध नहीं है, जिसके कारण आप मुझे यहाँ त्याग दें॥८॥
१. स्त्री होकर यह वनमें जानेका साहस कैसे करती है ? इस विचारसे ईर्ष्या होती है।
२. यह मेरी बात नहीं मान रही है, यह सोचकर रोष प्रकट होता है। इन दोनों का त्याग अपेक्षित है।
३. जैसे किसी जलहीन बीहड़ पथ में लोग अपने पीने से बचे हुए पानी को साथ ले चलते हैं, उसी प्रकार मुझे भी आप साथ ले चलें—यह सीता का अनुरोध है।
प्रासादाग्रे विमानैर्वा वैहायसगतेन वा।
सर्वावस्थागता भर्तुः पादच्छाया विशिष्यते॥९॥
‘ऊँचे-ऊँचे महलों में रहना, विमानों पर चढ़कर घूमना अथवा अणिमा आदि सिद्धियों के द्वारा आकाश में विचरना—इन सबकी अपेक्षा स्त्री के लिये सभी अवस्थाओं में पति के चरणों की छाया में रहना विशेष महत्त्व रखता है॥९॥
अनुशिष्टास्मि मात्रा च पित्रा च विविधाश्रयम्।
नास्मि सम्प्रति वक्तव्या वर्तितव्यं यथा मया॥ १०॥
‘मुझे किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस विषय में मेरी माता और पिता ने मुझे अनेक प्रकार से शिक्षा दी है। इस समय इसके विषय में मुझे कोई उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है॥ १०॥
अहं दुर्गं गमिष्यामि वनं पुरुषवर्जितम्।
नानामृगगणाकीर्णं शार्दूलगणसेवितम्॥११॥
‘अतः नाना प्रकारके वन्य पशुओंसे व्याप्त तथा सिंहों और व्याघ्रोंसे सेवित उस निर्जन एवं दुर्गम | वनमें मैं अवश्य चलूँगी॥११॥
सुखं वने निवत्स्यामि यथैव भवने पितुः।
अचिन्तयन्ती त्रील्लोकांश्चिन्तयन्ती पतिव्रतम्॥
‘मैं तो जैसे अपने पिता के घर में रहती थी, उसी प्रकार उस वन में भी सुखपूर्वक निवास करूँगी। वहाँ तीनों लोकों के ऐश्वर्य को भी कुछ न समझती हुई मैं सदा पतिव्रत-धर्म का चिन्तन करती हुई आपकी सेवा में लगी रहूँगी॥ १२ ॥
शुश्रूषमाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी।
सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगन्धिषु॥१३॥
‘वीर! नियमपूर्वक रहकर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करूँगी और सदा आपकी सेवा में तत्पर रहकर आपही के साथ मीठी-मीठी सुगन्ध से भरे हुए वनों में विचरूँगी॥ १३॥
त्वं हि कर्तुं वने शक्तो राम सम्परिपालनम्।
अन्यस्यापि जनस्येह किं पुनर्मम मानद ॥१४॥
‘दूसरों को मान देने वाले श्रीराम! आप तो वन में रहकर दूसरे लोगों की भी रक्षा कर सकते हैं, फिर मेरी रक्षा करना आपके लिये कौन बड़ी बात है?॥ १४॥
साहं त्वया गमिष्यामि वनमद्य न संशयः।
नाहं शक्या महाभाग निवर्तयितुमुद्यता॥१५॥
‘महाभाग! अतः मैं आपके साथ आज अवश्य वनमें चलूँगी। इसमें संशय नहीं है। मैं हर तरह चलनेको तैयार हूँ। मुझे किसी तरह भी रोका नहीं जा सकता ॥ १५॥
फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः।
न ते दुःखं करिष्यामि निवसन्ती त्वया सदा॥ १६॥
‘वहाँ चलकर मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूंगी, सदा आपके साथ रहूँगी और प्रतिदिन फल-मूल खाकर ही निर्वाह करूँगी। मेरे इस कथनमें किसी प्रकारके संदेहके लिये स्थान नहीं है॥१६॥
अग्रतस्ते गमिष्यामि भोक्ष्ये भुक्तवति त्वयि।
इच्छामि परतः शैलान् पल्वलानि सरांसि च॥ १७॥
द्रष्टुं सर्वत्र निर्मीता त्वया नाथेन धीमता।
‘आपके आगे-आगे चलूँगी और आपके भोजन कर लेने पर जो कुछ बचेगा, उसे ही खाकर रहूँगी।प्रभो! मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं आप बुद्धिमान् प्राणनाथ के साथ निर्भय हो वन में सर्वत्र घूमकर पर्वतों, छोटे-छोटे तालाबों और सरोवरों को देखू॥ १७ १/२॥
हंसकारण्डवाकीर्णाः पद्मिनीः साधुपुष्पिताः॥ १८॥
इच्छेयं सुखिनी द्रष्टुं त्वया वीरेण संगता।
‘आप मेरे वीर स्वामी हैं। मैं आपके साथ रहकर सुखपूर्वक उन सुन्दर सरोवरों की शोभा देखना चाहती हूँ, जो श्रेष्ठ कमलपुष्पों से सुशोभित हैं तथा जिनमें हंस और कारण्डव आदि पक्षी भरे रहते हैं॥ १८ १/२॥
अभिषेकं करिष्यामि तासु नित्यमनुव्रता॥१९॥
सह त्वया विशालाक्ष रंस्ये परमनन्दिनी।
‘विशाल नेत्रोंवाले आर्यपुत्र! आपके चरणों में अनुरक्त रहकर मैं प्रतिदिन उन सरोवरों में स्नान करूँगी और आपके साथ वहाँ सब ओर विचरूँगी, इससे मुझे परम आनन्द का अनुभव होगा॥ १९ १/२ ॥
एवं वर्षसहस्राणि शतं वापि त्वया सह ॥२०॥
व्यतिक्रमं न वेत्स्यामि स्वर्गोऽपि हि न मे मतः।
‘इस तरह सैकड़ों या हजारों वर्षों तक भी यदि आपके साथ रहने का सौभाग्य मिले तो मुझे कभी कष्ट का अनुभव नहीं होगा। यदि आप साथ न हों तो मुझे स्वर्गलोक की प्राप्ति भी अभीष्ट नहीं है॥ २० १/२॥
स्वर्गेऽपि च विना वासो भविता यदि राघव।
त्वया विना नरव्याघ्र नाहं तदपि रोचये॥२१॥
‘पुरुषसिंह रघुनन्दन! आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोक का निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिये रुचिकर नहीं हो सकता—मैं उसे लेना नहीं चाहूँगी॥ २१॥
अहं गमिष्यामि वनं सदर्गमं मृगायुतं वानरवारणैश्च।
वने निवत्स्यामि यथा पितुर्गृहे तवैव पादावुपगृह्य सम्मता॥२२॥
‘प्राणनाथ! अतः उस अत्यन्त दुर्गम वन में, जहाँ सहस्रों मृग, वानर और हाथी निवास करते हैं, मैं अवश्य चलूँगी और आपके ही चरणों की सेवा में रहकर आपके अनुकूल चलती हुई उस वन में उसी तरह सुख से रहूँगी, जैसे पिता के घर में रहा करती थी॥ २२॥
अनन्यभावामनुरक्तचेतसं त्वया वियुक्तां मरणाय निश्चिताम्।
नयस्व मां साधु कुरुष्व याचना नातो मया ते गुरुता भविष्यति ॥२३॥
‘मेरे हृदय का सम्पूर्ण प्रेम एकमात्र आपको ही अर्पित है, आपके सिवा और कहीं मेरा मन नहीं जाता, यदि आपसे वियोग हुआ तो निश्चय ही मेरी मृत्यु हो जायगी। इसलिये आप मेरी याचना सफल करें, मुझे साथ ले चलें, यही अच्छा होगा; मेरे रहने से आपपर कोई भार नहीं पड़ेगा’ ॥ २३॥
तथा ब्रुवाणामपि धर्मवत्सलां न च स्म सीतां नृवरो निनीषति।
उवाच चैनां बहु संनिवर्तने वने निवासस्य च दुःखितां प्रति॥२४॥
धर्म में अनुरक्त रहने वाली सीता के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भी नरश्रेष्ठ श्रीराम को उन्हें साथ ले जाने की इच्छा नहीं हुई। वे उन्हें वनवास के विचार से निवृत्त करने के लिये वहाँ के कष्टों का अनेक प्रकार से विस्तारपूर्वक वर्णन करने लगे॥ २४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥२७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ २७॥
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