वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 3 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 3
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (सर्ग 3)
राज्याभिषेक की तैयारी , राजा दशरथ का श्रीराम को राजनीति की बातें बताना
तेषामञ्जलिपद्मानि प्रगृहीतानि सर्वशः।
प्रतिगृह्याब्रवीद राजा तेभ्यः प्रियहितं वचः॥१॥
सभासदों ने कमलपुष्प की-सी आकृति वाली अपनी अञ्जलियों को सिर से लगाकर सब प्रकार से महाराज के प्रस्ताव का समर्थन किया; उनकी वह पद्माञ्जलि स्वीकार करके राजा दशरथ उन सबसे प्रिय और हितकारी वचन बोले- ॥१॥
अहोऽस्मि परमप्रीतः प्रभावश्चातुलो मम।
यन्मे ज्येष्ठं प्रियं पुत्रं यौवराज्यस्थमिच्छथ॥२॥
‘अहो! आप लोग जो मेरे परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को युवराज के पदपर प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है तथा मेरा प्रभाव अनुपम हो गया है’ ॥ २॥
इति प्रत्यर्चितान् राजा ब्राह्मणानिदमब्रवीत्।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम्॥३॥
इस प्रकार की बातों से पुरवासी तथा अन्यान्य सभासदों का सत्कार करके राजा ने उनके सुनते हुए ही वामदेव और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से इस प्रकार कहा— ॥३॥
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्॥४॥
‘यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर और पवित्र है, इसमें सारे वन-उपवन खिल उठे हैं; अतः इस समय श्रीराम का युवराजपद पर अभिषेक करने के लिये आपलोग सब सामग्री एकत्र कराइये ॥ ४॥
राज्ञस्तूपरते वाक्ये जनघोषो महानभूत्।
शनैस्तस्मिन् प्रशान्ते च जनघोषे जनाधिपः॥५॥
वसिष्ठं मुनिशार्दूलं राजा वचनमब्रवीत्।
राजा की यह बात समाप्त होने पर सब लोग हर्ष के कारण महान् कोलाहल करने लगे। धीरे-धीरे उस जनरव के शान्त होने पर प्रजापालक नरेश दशरथ ने मुनिप्रवर वसिष्ठ से यह बात कही— ॥ ५ १/२ ॥
अभिषेकाय रामस्य यत् कर्म सपरिच्छदम्॥६॥
तदद्य भगवन् सर्वमाज्ञापयितुमर्हसि।
‘भगवन्! श्रीराम के अभिषेक के लिये जो कर्म आवश्यक हो, उसे साङ्गोपाङ्ग बताइये और आज ही उस सबकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दीजिये’ ।। ६ १/२॥
तच्छ्रुत्वा भूमिपालस्य वसिष्ठो मुनिसत्तमः॥७॥
आदिदेशाग्रतो राज्ञः स्थितान् युक्तान् कृताञ्जलीन्।
महाराजका यह वचन सुनकर मुनिवर वसिष्ठने राजा के सामने ही हाथ जोड़कर खड़े हुए आज्ञापालन के लिये तैयार रहने वाले सेवकों से कहा – ॥ ७ १/२ ॥
सुवर्णादीनि रत्नानि बलीन् सर्वौषधीरपि॥८॥
शुक्लमाल्यानि लाजांश्च पृथक् च मधुसर्पिषी।
अहतानि च वासांसि रथं सर्वायुधान्यपि॥९॥
चतुरङ्गबलं चैव गजं च शुभलक्षणम्।
चामरव्यजने चोभे ध्वजं छत्रं च पाण्डुरम्॥ १०॥
शतं च शातकुम्भानां कुम्भानामग्निवर्चसाम्।
हिरण्यशृङमृषभं समग्रं व्याघ्रचर्म च॥११॥
यच्चान्यत् किंचिदेष्टव्यं तत् सर्वमुपकल्प्यताम्।
उपस्थापयत प्रातरग्न्यगारे महीपतेः॥१२॥
‘तुम लोग सुवर्ण आदि रत्न, देवपूजन की सामग्री, सब प्रकार की ओषधियाँ, श्वेत पुष्पों की मालाएँ,खील, अलग-अलग पात्रों में शहद और घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, चतुरङ्गिणी
सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय की पूँछ के बालों से बने हुए दो व्यजन, ध्वज, श्वेत छत्र, अग्नि के समान देदीप्यमान सो नेके सौ कलश, सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाला एक साँड, समूचा व्याघ्रचर्म तथा और जो कुछ भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सबको एकत्र करो और प्रातःकाल महाराज की अग्निशाला में पहुँचा दो॥ ८–१२॥
अन्तःपुरस्य द्वाराणि सर्वस्य नगरस्य च।
चन्दनस्रग्भिरच॑न्तां धूपैश्च घ्राणहारिभिः॥ १३॥
‘अन्तःपुर तथा समस्त नगर के सभी दरवाजों को चन्दन और मालाओं से सजा दो तथा वहाँ ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुगन्ध से लोगों को आकर्षित कर लें॥ १३॥
प्रशस्तमन्नं गुणवद् दधिक्षीरोपसेचनम्।
द्विजानां शतसाहस्रं यत्प्रकाममलं भवेत्॥१४॥
‘दही, दूध और घी आदि से संयुक्त अत्यन्त उत्तम एवं गुणकारी अन्न तैयार कराओ, जो एक लाख ब्राह्मणों के भोजन के लिये पर्याप्त हो॥ १४ ॥
सत्कृत्य द्विजमुख्यानां श्वः प्रभाते प्रदीयताम्।
घृतं दधि च लाजाश्च दक्षिणाश्चापि पुष्कलाः॥ १५॥
‘कल प्रातःकाल श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें वह अन्न प्रदान करो; साथ ही घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणाएँ भी दो॥ १५ ॥
सूर्येऽभ्युदितमात्रे श्वो भविता स्वस्तिवाचनम्।
ब्राह्मणाश्च निमन्त्र्यन्तां कल्प्यन्तामासनानि च। १६॥
‘कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा, इसके लिये ब्राह्मणों को निमन्त्रित करो और उनके लिये आसनों का प्रबन्ध कर लो॥१६॥
आबध्यन्तां पताकाश्च राजमार्गश्च सिच्यताम्।
सर्वे च तालापचरा गणिकाश्च स्वलंकृताः॥ १७॥
कक्ष्यां द्वितीयामासाद्य तिष्ठन्तु नृपवेश्मनः।
‘नगरमें सब ओर पताकाएँ फहरायी जायँ तथा राजमार्गों पर छिड़काव कराया जाय। समस्त तालजीवी (संगीतनिपुण) पुरुष और सुन्दर वेषभूषा से विभूषित वाराङ्गनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहल की दूसरी कक्षा (ड्यौढ़ी) में पहुँचकर खड़ी रहें॥ १७ १/२॥
देवायतनचैत्येषु सान्नभक्ष्याः सदक्षिणाः॥१८॥
उपस्थापयितव्याः स्युर्माल्ययोग्याः पृथक्पृथक्।
‘देव-मन्दिरों में तथा चैत्यवृक्षों के नीचे या चौराहों पर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् भक्ष्य-भोज्य पदार्थ एवं दक्षिणा प्रस्तुत करनी चाहिये॥ १८ १/२ ॥
दीर्घासिबद्धगोधाश्च संनद्धा मृष्टवाससः॥१९॥
महाराजाङ्गनं शूराः प्रविशन्तु महोदयम्।
‘लंबी तलवार लिये और गोधाचर्म के बने दस्ताने पहने और कमर कसकर तैयार रहने वाले शूर-वीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण किये महाराज के महान् अभ्युदयशाली आँगनमें प्रवेश करें’॥ १९ १/२॥
एवं व्यादिश्य विप्रौ तु क्रियास्तत्र विनिष्ठितौ॥ २०॥
चक्रतश्चैव यच्छेषं पार्थिवाय निवेद्य च।
सेवकों को इस प्रकार कार्य करने का आदेश देकर दोनों ब्राह्मण वसिष्ठ और वामदेव ने पुरोहित द्वारा सम्पादित होने योग्य क्रियाओं को स्वयं पूर्ण किया। राजा के बताये हुए कार्यों के अतिरिक्त भी जो शेष आवश्यक कर्तव्य था उसे भी उन दोनों ने राजा से पूछकर स्वयं ही सम्पन्न किया॥ २० १/२॥
कृतमित्येव चाब्रूतामभिगम्य जगत्पतिम्॥२१॥
यथोक्तवचनं प्रीतौ हर्षयुक्तौ द्विजोत्तमौ।
तदनन्तर महाराज के पास जाकर प्रसन्नता और हर्ष से भरे हुए वे दोनों श्रेष्ठ द्विज बोले—’राजन् ! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब कार्य सम्पन्न हो गया’ ॥ २१ १/२॥
ततः सुमन्त्रं द्युतिमान् राजा वचनमब्रवीत्॥२२॥
रामः कृतात्मा भवता शीघ्रमानीयतामिति।
इसके बाद तेजस्वी राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा – ‘सखे! पवित्रात्मा श्रीराम को तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ’ ।। २२ १/२॥
स तथेति प्रतिज्ञाय सुमन्त्रो राजशासनात्॥२३॥
रामं तत्रानयांचक्रे रथेन रथिनां वरम्।
तब ‘जो आज्ञा’ कहकर सुमन्त्र गये तथा राजा के आदेशानुसार रथियों में श्रेष्ठ श्रीराम को रथपर बिठाकर ले आये॥ २३ १/२॥
अथ तत्र सहासीनास्तदा दशरथं नृपम्॥२४॥
प्राच्योदीच्या प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च भूमिपाः।
म्लेच्छाश्चार्याश्च ये चान्ये वनशैलान्तवासिनः॥
उपासांचक्रिरे सर्वे तं देवा वासवं यथा।
उस राजभवन में साथ बैठे हुए पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के भूपाल, म्लेच्छ, आर्य तथा वनों और पर्वतों में रहने वाले अन्यान्य मनुष्य सब-के-सब उस समय राजा दशरथ की उसी प्रकार उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इन्द्र की॥ २४-२५ १/२ ॥
तेषां मध्ये स राजर्षिर्मरुतामिव वासवः ॥२६॥
प्रासादस्थो दशरथो ददर्शायान्तमात्मजम्।
गन्धर्वराजप्रतिमं लोके विख्यातपौरुषम्॥२७॥
उनके बीच अट्टालिका के भीतर बैठे हुए राजा दशरथ मरुद्गणों के मध्य देवराज इन्द्र की भाँति शोभा पा रहे थे; उन्होंने वहीं से अपने पुत्र श्रीराम को अपने पास आते देखा, जो गन्धर्वराज के समान तेजस्वी थे, उनका पौरुष समस्त संसार में विख्यात था॥ २६-२७॥
दीर्घबाहुं महासत्त्वं मत्तमातङ्गगामिनम्।
चन्द्रकान्ताननं राममतीव प्रियदर्शनम्॥२८॥
रूपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणम्।
घर्माभितप्ताः पर्जन्यं ह्लादयन्तमिव प्रजाः॥२९॥
उनकी भुजाएँ बड़ी और बल महान् था। वे । मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती के साथ चल रहे थे। उनका मुख चन्द्रमा से भी अधिक कान्तिमान् था। श्रीराम का दर्शन सबको अत्यन्त प्रिय लगता था।
वे अपने रूप और उदारता आदि गुणों से लोगों की दृष्टि और मन आकर्षित कर लेते थे। जैसे धूप में तपे हुए प्राणियों को मेघ आनन्द प्रदान करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजा को परम आह्लाद देते रहते थे। २८-२९॥
न ततर्प समायान्तं पश्यमानो नराधिपः।
अवतार्य सुमन्त्रस्तु राघवं स्यन्दनोत्तमात्॥३०॥
पितुः समीपं गच्छन्तं प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात्।
आते हुए श्रीरामचन्द्र की ओर एकटक देखते हुए राजा दशरथ को तृप्ति नहीं होती थी। सुमन्त्र ने उस श्रेष्ठ रथ से श्रीरामचन्द्रजी को उतारा और जब वे पिता के समीप जाने लगे, तब सुमन्त्र भी उनके पीछे पीछे हाथ जोड़े हुए गये॥ ३० १/२॥
स तं कैलासशृङ्गाभं प्रासादं रघुनन्दनः॥३१॥
आरुरोह नृपं द्रष्टुं सहसा तेन राघवः।
वह राजमहल कैलास शिखर के समान उज्ज्वल और ऊँचा था, रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम महाराज का दर्शन करने के लिये सुमन्त्र के साथ सहसा उस पर चढ़ गये॥ ३१ १/२ ॥
स प्राञ्जलिरभिप्रेत्य प्रणतः पितुरन्तिके॥३२॥
नाम स्वं श्रावयन् रामो ववन्दे चरणौ पितुः।
श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर विनीत भाव से पिता के पास गये और अपना नाम सुनाते हुए उन्होंने उनके दोनों चरणों में प्रणाम किया॥ ३२ १/२ ॥
तं दृष्ट्वा प्रणतं पार्वे कृताञ्जलिपुटं नृपः॥ ३३॥
गृह्याञ्जलौ समाकृष्य सस्वजे प्रियमात्मजम्।
श्रीरामको पास आकर हाथ जोड़ प्रणाम करते देख राजाने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्रको पास खींचकर छातीसे लगा लिया। ३३ १/२॥
तस्मै चाभ्युद्यतं सम्यमणिकाञ्चनभूषितम्॥ ३४॥
दिदेश राजा रुचिरं रामाय परमासनम्।
उस समय राजा ने उन श्रीरामचन्द्रजी को मणिजटित सुवर्ण से भूषित एक परम सुन्दर सिंहासन पर बैठने की आज्ञा दी, जो पहले से उन्हीं के लिये वहाँ उपस्थित किया गया था॥ ३४ १/२॥
तथाऽऽसनवरं प्राप्य व्यदीपयत राघवः॥ ३५॥
स्वयैव प्रभया मेरुमदये विमलो रविः।
जैसे निर्मल सूर्य उदयकाल में मेरुपर्वत को अपनी किरणों से उद्भासित कर देते हैं उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी उस श्रेष्ठ आसन को ग्रहण करके अपनी ही प्रभा से उसे प्रकाशित करने लगे। ३५ १/२ ।। तेन
विभ्राजिता तत्र सा सभापि व्यरोचत॥३६॥
विमलग्रहनक्षत्रा शारदी द्यौरिवेन्दुना।
उनसे प्रकाशित हुई वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी। ठीक उसी तरह जैसे निर्मल ग्रह और नक्षत्रों से भरा हुआ शरत्-काल का आकाश चन्द्रमा से उद्भासित हो उठता है॥ ३६ १/२ ॥
तं पश्यमानो नृपतिस्तुतोष प्रियमात्मजम्॥३७॥
अलंकृतमिवात्मानमादर्शतलसंस्थितम्।
जैसे सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत हुए अपने ही प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखकर मनुष्य को बड़ा संतोष प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपने शोभाशाली प्रिय पुत्र उन श्रीराम को देखकर राजा बड़े प्रसन्न हुए॥ ३७ १/२॥
स तं सुस्थितमाभाष्य पुत्रं पुत्रवतां वरः॥ ३८॥
उवाचेदं वचो राजा देवेन्द्रमिव कश्यपः।
जैसे कश्यप देवराज इन्द्र को पुकारते हैं, उसी प्रकार पुत्रवानों में श्रेष्ठ राजा दशरथ सिंहासन पर बैठे हुए अपने पुत्र श्रीराम को सम्बोधित करके उनसे इस प्रकार बोले
ज्येष्ठायामसि मे पत्न्यां सदृश्यां सदृशः सुतः॥ ३९॥
उत्पन्नस्त्वं गुणज्येष्ठो मम रामात्मजः प्रियः।
त्वया यतः प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः॥ ४०॥
तस्मात् त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि।
‘बेटा! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्या के गर्भसे हुआ है। तुम अपनी माता के अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो। श्रीराम! तुम गुणों में मुझसे भी बढ़कर हो, अतः मेरे परम प्रिय पुत्र हो; तुमने अपने गुणों से इन समस्त प्रजाओं को प्रसन्न कर लिया है, इसलिये कल पुष्यनक्षत्र के योग में युवराज का पद ग्रहण करो॥ ३९-४० १/२ ॥
कामतस्त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति॥४१॥
गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः॥ ४२॥
‘बेटा! यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में यही सबका निर्णय है तथापि मैं स्नेहवश सद्गुणसम्पन्न होने पर भी तुम्हें कुछ हित की बातें बताता हूँ। तुम और भी अधिक विनय का आश्रय लेकर सदा जितेन्द्रिय बने रहो। ४१-४२॥
कामक्रोधसमुत्थानि त्यजस्व व्यसनानि च।
परोक्षया वर्तमानो वृत्त्या प्रत्यक्षया तथा॥४३॥
‘काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग कर दो, परोक्षवृत्ति से (अर्थात् गुप्तचरों द्वारा यथार्थ बातों का पता लगाकर) तथा प्रत्यक्षवृत्ति से (अर्थात् दरबार में सामने आकर कहने वाली जनता के मुख से उसके वृत्तान्तों को प्रत्यक्ष देख-सुनकर) ठीक-ठीक न्यायविचार में तत्पर रहो॥ ४३॥
अमात्यप्रभृतीः सर्वाः प्रजाश्चैवानुरञ्जय।
कोष्ठागारायुधागारैः कृत्वा संनिचयान् बहून्॥ ४४॥
इष्टानुरक्तप्रकृतिर्यः पालयति मेदिनीम्।
तस्य नन्दन्ति मित्राणि लब्ध्वामृतमिवामराः॥ ४५॥
‘मन्त्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों तथा प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। जो राजा कोष्ठागार(भण्डारगृह) तथा शस्त्रागार आदि के द्वारा उपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा संग्रह करके मन्त्री, सेनापति
और प्रजा आदि समस्त प्रकृतियों को प्रिय मानकर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवं प्रसन्न रखते हुए पृथ्वी का पालन करता है, उसके मित्र उसी प्रकार आनन्दित होते हैं, जैसे अमृत को पाकर देवता प्रसन्न हुए थे॥ ४४-४५॥
तस्मात् पुत्र त्वमात्मानं नियम्यैवं समाचर।
तच्छ्रुत्वा सुहृदस्तस्य रामस्य प्रियकारिणः॥४६॥
त्वरिताः शीघ्रमागत्य कौसल्यायै न्यवेदयन्।
‘इसलिये बेटा ! तुम अपने चित्त को वश में रखकर इस प्रकार के उत्तम आचरणों का पालन करते रहो।’ राजा की ये बातें सुनकर श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने वाले सुहृदों ने तुरंत माता कौसल्या के पास जाकर उन्हें यह शुभ समाचार निवेदन कया॥ ४६ १/२॥
सा हिरण्यं च गाश्चैव रत्नानि विविधानि च॥ ४७॥
व्यादिदेश प्रियाख्येभ्यः कौसल्या प्रमदोत्तमा।
नारियों में श्रेष्ठ कौसल्या ने वह प्रिय संवाद सुनाने वाले उन सुहृदों को तरह-तरह के रत्न, सुवर्ण और गौएँ पुरस्कार रूप में दीं॥ ४७ १/२ ॥
अथाभिवाद्य राजानं रथमारुह्य राघवः।
ययौ स्वं द्युतिमद् वेश्म जनौघैः प्रतिपूजितः॥ ४८॥
इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी राजा को प्रणाम करके रथ पर बैठे और प्रजाजनों से सम्मानित होते हुए वे अपने शोभाशाली भवन में चले गये॥ ४८॥
ते चापि पौरा नृपतेर्वचस्तच्छ्रुत्वा तदा लाभमिवेष्टमाशु।
नरेन्द्रमामन्त्र्य गृहाणि गत्वा देवान् समान,रभिप्रहृष्टाः॥४९॥
नगरनिवासी मनुष्यों ने राजा की बातें सुनकर मन ही-मन यह अनुभव किया कि हमें शीघ्र ही अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी, फिर भी महाराज की आज्ञा लेकर अपने घरों को गये और अत्यन्त हर्ष से भर कर
अभीष्ट-सिद्धि के उपलक्ष्य में देवताओं की पूजा करने लगे॥ ४९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ।३॥
Pingback: Valmiki Ramayana Ayodhya Kand in Hindi वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी