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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 31 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 31

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (सर्ग 31)

श्रीराम और लक्ष्मण का संवाद, श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण का सुहृदों से पूछकर और दिव्य आयुध लाकर वनगमन के लिये तैयार होना

 

एवं श्रुत्वा स संवादं लक्ष्मणः पूर्वमागतः।
बाष्पपर्याकुलमुखः शोकं सोढुमशक्नुवन्॥१॥

जिस समय श्रीराम और सीता में बातचीत हो रही थी, लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गये थे। उन दोनों का ऐसा संवाद सुनकर उनका मुखमण्डल आँसुओं से भींग गया। भाई के विरह का शोक अब उनके लिये भी असह्य हो उठा॥१॥

स भ्रातुश्चरणौ गाढं निपीड्य रघुनन्दनः।
सीतामुवाचातियशां राघवं च महाव्रतम्॥२॥

रघुकुल को आनन्दित करने वाले लक्ष्मण ने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी के दोनों पैर जोर से पकड़ लिये और अत्यन्त यशस्विनी सीता तथा महान् व्रतधारी श्रीरघुनाथजी से कहा- ॥२॥

यदि गन्तुं कृता बुद्धिर्वनं मृगगजायुतम्।
अहं त्वानुगमिष्यामि वनमग्रे धनुर्धरः॥३॥

‘आर्य! यदि आपने सहस्रों वन्य पशुओं तथा हाथियों से भरे हुए वन में जाने का निश्चय कर ही लिया है तो मैं भी आपका अनुसरण करूँगा। धनुष हाथ में लेकर आगे-आगे चलूँगा॥३॥

मया समेतोऽरण्यानि रम्याणि विचरिष्यसि।
पक्षिभिर्मंगयूथैश्च संघुष्टानि समन्ततः॥४॥

‘आप मेरे साथ पक्षियों के कलरव और भ्रमरसमूहों के गुञ्जारव से गूंजते हुए रमणीय वनों में सब ओर विचरण कीजियेगा॥ ४॥

न देवलोकाक्रमणं नामरत्वमहं वृणे।
ऐश्वर्यं चापि लोकानां कामये न त्वया विना॥

‘मैं आपके बिना स्वर्ग में जाने, अमर होने तथा सम्पूर्ण लोकों का ऐश्वर्य प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं रखता’ ॥५॥

एवं ब्रुवाणः सौमित्रिर्वनवासाय निश्चितः।
रामेण बहुभिः सान्त्वैर्निषिद्धः पुनरब्रवीत्॥६॥

वनवास के लिये निश्चित विचार करके ऐसी बात कहने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण को श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत-से सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा समझाकर जब वन में चलने से मना किया, तब वे फिर बोले- ॥६॥

अनुज्ञातस्तु भवता पूर्वमेव यदस्म्यहम्।
किमिदानीं पुनरपि क्रियते मे निवारणम्॥७॥

‘भैया! आपने तो पहले से ही मुझे अपने साथ रहने की आज्ञा दे रखी है, फिर इस समय आप मुझे क्यों रोकते हैं? ॥७॥

यदर्थं प्रतिषेधो मे क्रियते गन्तुमिच्छतः।
एतदिच्छामि विज्ञातुं संशयो हि ममानघ॥८॥

‘निष्पाप रघुनन्दन! जिस कारण से आपके साथ चलने की इच्छा वाले मुझको आप मना करते हैं, उस कारण को मैं जानना चाहता हूँ। मेरे हृदय में इसके लिये बड़ा संशय हो रहा है’ ॥ ८॥

ततोऽब्रवीन्महातेजा रामो लक्ष्मणमग्रतः।
स्थितं प्राग्गामिनं धीरं याचमानं कृताञ्जलिम्॥ ९॥

ऐसा कहकर धीर-वीर लक्ष्मण आगे जानेके लिये तैयार हो भगवान् श्रीरामके सामने खड़े हो गये और हाथ जोड़कर याचना करने लगे। तब महातेजस्वी श्रीरामने उनसे कहा- ॥९॥

स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजेयश्च सखा च मे॥ १०॥

‘लक्ष्मण! तुम मेरे स्नेही, धर्मपरायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्ग में स्थित रहने वाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय हो तथा मेरे वश में रहने वाले आज्ञापालक और सखा हो॥१०॥

मयाद्य सह सौमित्रे त्वयि गच्छति तदनम्।
को भजिष्यति कौसल्यां सुमित्रां वा यशस्विनीम्॥११॥

‘सुमित्रानन्दन ! यदि आज मेरे साथ तुम भी वन को चल दोगे तो परमयशस्विनी माता कौसल्या और सुमित्रा की सेवा कौन करेगा? ॥ ११॥

अभिवर्षति कामैर्यः पर्जन्यः पृथिवीमिव।
स कामपाशपर्यस्तो महातेजा महीपतिः॥१२॥

‘जैसे मेघ पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते थे, वे महातेजस्वी महाराज दशरथ अब कैकेयी के प्रेमपाश में बँध गये हैं।॥ १२ ॥

सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता।
दुःखितानां सपत्नीनां न करिष्यति शोभनम्॥ १३॥

‘केकयराज अश्वपतिकी पुत्री कैकेयी महाराजके इस राज्यको पाकर मेरे वियोगके दुःखमें डूबी हुई अपनी सौतोंके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करेगी॥१३॥

न भरिष्यति कौसल्यां सुमित्रां च सुदुःखिताम्।
भरतो राज्यमासाद्य कैकेय्यां पर्यवस्थितः॥१४॥

‘भरत भी राज्य पाकर कैकेयी के अधीन रहने के कारण दुःखिया कौसल्या और सुमित्रा का भरणपोषण नहीं करेंगे॥ १४॥

तामार्यां स्वयमेवेह राजानुग्रहणेन वा।
सौमित्रे भर कौसल्यामुक्तमर्थममुं चर॥१५॥

‘अतः सुमित्राकुमार! तुम यहीं रहकर अपने प्रयत्न से अथवा राजा की कृपा प्राप्त करके माता कौसल्या का पालन करो। मेरे बताये हुए इस प्रयोजन को ही सिद्ध करो॥

एवं मयि च ते भक्तिर्भविष्यति सुदर्शिता।
धर्मज्ञगुरुपूजायां धर्मश्चाप्यतुलो महान्॥१६॥

‘ऐसा करने से मेरे प्रति जो तुम्हारी भक्ति है, वह भी भलीभाँति प्रकट हो जायगी तथा धर्मज्ञ गुरुजनों की पूजा करने से जो अनुपम एवं महान् धर्म होता है, वह भी तुम्हें प्राप्त हो जायगा॥ १६ ॥

एवं कुरुष्व सौमित्रे मत्कृते रघुनन्दन।
अस्माभिर्विप्रहीणाया मातु! न भवेत् सुखम्॥ १७॥

‘रघुकुल को आनन्दित करने वाले सुमित्राकुमार! तुम मेरे लिये ऐसा ही करो; क्योंकि हमलोगों से बिछुड़ी हुई हमारी माँ को कभी सुख नहीं होगा (वह सदा हमारी ही चिन्ता में डूबी रहेगी)’ ॥ १७ ॥

एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः श्लक्ष्णया गिरा।
प्रत्युवाच तदा रामं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्॥ १८॥

श्रीराम के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझने वाले लक्ष्मण ने उस समय बात का तात्पर्य समझने वाले श्रीराम को मधुर वाणी में उत्तर दिया- ॥ १८॥

तवैव तेजसा वीर भरतः पूजयिष्यति।
कौसल्यां च सुमित्रां च प्रयतो नास्ति संशयः॥ १९॥

‘वीर! आपके ही तेज (प्रभाव) से भरत माता कौसल्या और सुमित्रा दोनों का पवित्र भाव से पूजन करेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ १९॥

यदि दुःस्थो न रक्षेत भरतो राज्यमुत्तमम्।
प्राप्य दुर्मनसा वीर गर्वेण च विशेषतः ॥२०॥
तमहं दुर्मतिं क्रूरं वधिष्यामि न संशयः।
तत्पक्षानपि तान् सर्वांस्त्रैलोक्यमपि किं तु सा॥ २१॥
कौसल्या बिभृयादार्या सहस्रं मद्विधानपि।
यस्याः सहस्रं ग्रामाणां सम्प्राप्तमुपजीविनाम्॥ २२॥

‘वीरवर! इस उत्तम राज्य को पाकर यदि भरत बुरे रास्ते पर चलेंगे और दृषित हृदय एवं विशेषतः घमण्ड के कारण माताओं की रक्षा नहीं करेंगे तो मैं उन दुर्बुद्धि और क्रूर भरत का तथा उनके पक्ष का समर्थन करने वाले उन सब लोगों का वध कर डालूँगा; इसमें संशय नहीं है। यदि सारी त्रिलोकी उनका पक्ष करने लगे तो उसे भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा, परंतु बड़ी माता कौसल्या तो स्वयं ही मेरे-जैसे सहस्रों मनुष्यों का भी भरण कर सकती हैं;क्योंकि उन्हें अपने आश्रितों का पालन करने के लिये एक सहस्र गाँव मिले हुए हैं।

तदात्मभरणे चैव मम मातुस्तथैव च।
पर्याप्ता मद्विधानां च भरणाय मनस्विनी॥२३॥

‘इसलिये वे मनस्विनी कौसल्या स्वयं ही अपना, मेरी माताका तथा मेरे-जैसे और भी बहुत-से मनुष्योंका भरण-पोषण करनेमें समर्थ हैं॥ २३॥

कुरुष्व मामनुचरं वैधवें नेह विद्यते।
कृतार्थोऽहं भविष्यामि तव चार्थः प्रकल्प्यते॥ २४॥

‘अतः आप मुझको अपना अनुगामी बना लीजिये। इसमें कोई धर्म की हानि नहीं होगी। मैं कृतार्थ हो जाऊँगा तथा आपका भी प्रयोजन मेरे द्वारा सिद्ध हुआ करेगा॥२४॥

धनुरादाय सगुणं खनित्रपिटकाधरः।
अग्रतस्ते गमिष्यामि पन्थानं तव दर्शयन्॥ २५॥

‘प्रत्यञ्चासहित धनुष लेकर खंती और पिटारी लिये आपको रास्ता दिखाता हुआ मैं आपके आगेआगे चलूँगा॥ २५ ॥

आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च।
वन्यानि च तथान्यानि स्वाहाहा॑णि तपस्विनाम्॥ २६॥

‘प्रतिदिन आपके लिये फल-मूल लाऊँगा तथा तपस्वीजनों के लिये वन में मिलने वाली तथा अन्यान्य हवन-सामग्री जुटाता रहूँगा॥ २६॥

भवांस्तु सह वैदेह्या गिरिसानुषु रंस्यसे।
अहं सर्वं करिष्यामि जाग्रतः स्वपतश्च ते॥२७॥

‘आप विदेहकुमारीके साथ पर्वतशिखरों पर भ्रमण करेंगे। वहाँ आप जागते हों या सोते, मैं हर समय आपके सभी आवश्यक कार्य पूर्ण करूँगा’ ॥ २७॥

रामस्त्वनेन वाक्येन सुप्रीतः प्रत्युवाच तम्।
व्रजापृच्छस्व सौमित्रे सर्वमेव सुहृज्जनम्॥ २८॥

लक्ष्मण की इस बात से श्रीरामचन्द्रजी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनसे कहा —’सुमित्रानन्दन! जाओ, माता आदि सभी सुहृदों से मिलकर अपनी वनयात्रा के विषय में पूछ लो-उनकी आज्ञा एवं अनुमति ले लो॥ २८॥

ये च राज्ञो ददौ दिव्ये महात्मा वरुणः स्वयम्।
जनकस्य महायज्ञे धनुषी रौद्रदर्शने॥२९॥
अभेद्ये कवचे दिव्ये तूणी चाक्षय्यसायकौ।
आदित्यविमलाभौ द्वौ खड्गौ हेमपरिष्कृतौ॥ ३०॥
सत्कृत्य निहितं सर्वमेतदाचार्यसद्मनि।
सर्वमायुधमादाय क्षिप्रमाव्रज लक्ष्मण॥३१॥

‘लक्ष्मण! राजा जनक के महान् यज्ञ में स्वयं महात्मा वरुण ने उन्हें जो देखने में भयंकर दो दिव्य धनुष दिये थे, साथ ही, जो दो दिव्य अभेद्य कवच, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस तथा सूर्य की भाँति निर्मल दीप्ति से दमकते हुए जो दो सुवर्णभूषित खड्गप्रदान किये थे (वे सभी दिव्यास्त्र मिथिला नरेश ने मुझे दहेज में दे दिये थे), उन सबको आचार्यदेव के घर में सत्कारपूर्वक रखा गया है। तुम उन सारे आयुधों को लेकर शीघ्र लौट आओ’ ॥ २९–३१॥

स सुहृज्जनमामन्त्र्य वनवासाय निश्चितः।
इक्ष्वाकुगुरुमागम्य जग्राहायुधमुत्तमम्॥३२॥

आज्ञा पाकर लक्ष्मणजी गये और सुहृज्जनोंकी अनुमति लेकर वनवास के लिये निश्चित रूप से तैयार हो इक्ष्वाकुकुल के गुरु वसिष्ठजी के यहाँ गये। वहाँ से उन्होंने उन उत्तम आयुधों को ले लिया॥३२॥

तद् दिव्यं राजशार्दूलः सत्कृतं माल्यभूषितम्।
रामाय दर्शयामास सौमित्रिः सर्वमायुधम्॥३३॥

क्षत्रियशिरोमणि सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने सत्कारपूर्वक रखे हुए उन माल्यविभूषित समस्त दिव्य आयुधों को लाकर उन्हें श्रीराम को दिखाया। ३३॥

तमुवाचात्मवान् रामः प्रीत्या लक्ष्मणमागतम्।
काले त्वमागतः सौम्य कांक्षिते मम लक्ष्मण॥३४॥

तब मनस्वी श्रीराम ने वहाँ आये हुए लक्ष्मण से प्रसन्न होकर कहा—’सौम्य! लक्ष्मण! तुम ठीक समय पर आ गये। इसी समय तुम्हारा आना मुझे अभीष्ट था॥ ३५॥

अहं प्रदातुमिच्छामि यदिदं मामकं धनम्।
ब्राह्मणेभ्यस्तपस्विभ्यस्त्वया सह परंतप॥३५॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! मेरा जो यह धन है, इसे मैं तुम्हारे साथ रहकर तपस्वी ब्राह्मणों को बाँटना चाहता हूँ॥ ३५॥

वसन्तीह दृढं भक्त्या गुरुषु द्विजसत्तमाः।
तेषामपि च मे भूयः सर्वेषां चोपजीविनाम्॥ ३६॥

‘गुरुजनों के प्रति सुदृढ़ भक्तिभाव से युक्त जो श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ मेरे पास रहते हैं, उनको तथा समस्तआश्रितजनों को भी मुझे अपना यह धन बाँटना है। ३६॥

वसिष्ठपुत्रं तु सुयज्ञमार्य त्वमानयाशु प्रवरं द्विजानाम्।
अपि प्रयास्यामि वनं समस्तानभ्यर्च्य शिष्टानपरान् द्विजातीन्॥३७॥

‘वसिष्ठजी के पुत्र जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ आर्य सुयज्ञ हैं, उन्हें तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ। मैं इन सबका तथा और जो ब्राह्मण शेष रह गये हों, उनका भी सत्कार करके वन को जाऊँगा’ ॥ ३७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः ॥ ३१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३१॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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