RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 32 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 32

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः (सर्ग 32)

लक्ष्मण सहित श्रीराम द्वारा ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुहृज्जनों को धन का वितरण

 

 ततः शासनमाज्ञाय भ्रातुः प्रियकरं हितम्।
गत्वा स प्रविवेशाशु सुयज्ञस्य निवेशनम्॥१॥

तदनन्तर अपने भाई श्रीराम की प्रियकारक एवं हितकर आज्ञा पाकर लक्ष्मण वहाँ से चल दिये। उन्होंने शीघ्र ही गुरुपुत्र सुयज्ञ के घर में प्रवेश किया। १॥

तं विप्रमग्न्यगारस्थं वन्दित्वा लक्ष्मणोऽब्रवीत्।
सखेऽभ्यागच्छ पश्य त्वं वेश्म दुष्करकारिणः॥ २॥

” उस समय विप्रवर सुयज्ञ अग्निशाला में बैठे हए थे। लक्ष्मण ने उन्हें प्रणाम करके कहा—’सखे! दुष्कर कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के घर पर आओ और उनका कार्य देखो’॥२॥

ततः संध्यामुपास्थाय गत्वा सौमित्रिणा सह।
ऋष्टुं स प्राविशल्लक्ष्या रम्यं रामनिवेशनम्॥

सुयज्ञ ने मध्याह्नकाल की संध्योपासना पूरी करके लक्ष्मण के साथ जाकर श्रीराम के रमणीय भवन में प्रवेश किया, जो लक्ष्मी से सम्पन्न था॥ ३॥

तमागतं वेदविदं प्राञ्जलिः सीतया सह।
सुयज्ञमभिचक्राम राघवोऽग्निमिवार्चितम्॥४॥

होमकाल में पूजित अग्नि के समान तेजस्वी वेदवेत्ता सुयज्ञ को आया जान सीतासहित श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनकी अगवानी की॥४॥

जातरूपमयैर्मुख्यैरङ्गदैः कुण्डलैः शुभैः ।
सहेमसूत्रैर्मणिभिः केयरैर्वलयैरपि॥५॥
अन्यैश्च रत्नैर्बहुभिः काकुत्स्थः प्रत्यपूजयत्।

तत्पश्चात् ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने सोने के बने हुए श्रेष्ठ अङ्गदों, सुन्दर कुण्डलों, सुवर्णमय सूत्र में पिरोयी हुई मणियों, केयूरों, वलयों तथा अन्य बहुत से रत्नों द्वारा उनका पूजन किया॥ ५ १/२ ।।

सुयज्ञं स तदोवाच रामः सीताप्रचोदितः॥६॥
हारं च हेमसूत्रं च भार्यायै सौम्य हारय।
रशनां चाथ सा सीता दातुमिच्छति ते सखी॥ ७॥

इसके बाद सीता की प्रेरणा से श्रीराम ने सुयज्ञ से कहा —’सौम्य! तुम्हारी पत्नी की सखी सीता तुम्हें अपना हार, सुवर्णसूत्र और करधनी देना चाहती है। इन वस्तुओं को अपनी पत्नी के लिये ले जाओ॥६-७॥

अङ्गदानि च चित्राणि केयूराणि शुभानि च।
प्रयच्छति सखी तुभ्यं भार्यायै गच्छती वनम्॥ ८॥

‘वनको प्रस्थान करने वाली तुम्हारी स्त्रीकी सखी सीता तुम्हें तुम्हारी पत्नी के लिये विचित्र अङ्गद और सुन्दर केयूर भी देना चाहती है॥ ८॥

पर्यमग्र्यास्तरणं नानारत्नविभूषितम्।
तमपीच्छति वैदेही प्रतिष्ठापयितुं त्वयि॥९॥

‘उत्तम बिछौनोंसे युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित जो पलंग है, उसे भी विदेहनन्दिनी सीता तुम्हारे ही घरमें भेज देना चाहती है॥९॥

नागः शत्रुजयो नाम मातुलोऽयं ददौ मम।
तं ते निष्कसहस्रेण ददामि द्विजपुङ्गव॥१०॥

‘विप्रवर! शत्रुञ्जय नामक जो हाथी है, जिसे मेरे मामा ने मुझे भेंट किया था, उसे एक हजार अशर्फियों के साथ मैं तुम्हें अर्पित करता हूँ’॥ १०॥

इत्युक्तः स तु रामेण सुयज्ञः प्रतिगृह्य तत्।
रामलक्ष्मणसीतानां प्रयुयोजाशिषः शिवाः॥ ११॥

श्रीराम के ऐसा कहने पर सुयज्ञने वे सब वस्तुएँ ग्रहण करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के लिये मङ्गलमय आशीर्वाद प्रदान किये॥ ११॥

अथ भ्रातरमव्यग्रं प्रियं रामः प्रियंवदम्।
सौमित्रिं तमुवाचेदं ब्रह्मेव त्रिदशेश्वरम्॥१२॥

तदनन्तर श्रीराम ने शान्तभाव से खड़े हुए और प्रिय वचन बोलने वाले अपने प्रिय भ्राता सुमित्राकुमार लक्ष्मण से उसी तरह निम्नाङ्कित बात कही, जैसे ब्रह्मा देवराज इन्द्र से कुछ कहते हैं॥ १२॥

अगस्त्यं कौशिकं चैव तावुभौ ब्राह्मणोत्तमौ।
अर्चयाहूय सौमित्रे रत्नैः सस्यमिवाम्बुभिः॥
तर्पयस्व महाबाहो गोसहस्रेण राघव।
सुवर्णरजतैश्चैव मणिभिश्च महाधनैः॥१४॥

‘सुमित्रानन्दन! अगस्त्य और विश्वामित्र दोनों उत्तम ब्राह्मणों को बुलाकर रत्नों द्वारा उनकी पूजा करो। महाबाहु रघुनन्दन ! जैसे मेघ जल की वर्षाद्वारा खेती को तृप्त करता है, उसी प्रकार तुम उन्हें सहस्रों गौओं, सुवर्णमुद्राओं, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों द्वारा संतुष्ट करो। १३-१४॥

कौसल्यां च य आशीर्भिर्भक्तः पर्युपतिष्ठति।
आचार्यस्तैत्तिरीयाणामभिरूपश्च वेदवित्॥ १५॥
तस्य यानं च दासीश्च सौमित्रे सम्प्रदापय।
कौशेयानि च वस्त्राणि यावत् तुष्यति स द्विजः॥ १६॥

‘लक्ष्मण! यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणों के जो आचार्य और सम्पूर्ण वेदों के विद्वान् हैं, साथ ही जिनमें दानप्राप्ति की योग्यता है तथा जो माता कौसल्या के प्रति भक्तिभाव रखकर प्रतिदिन उनके पास आकर उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं, उनको सवारी, दास-दासी, रेशमी वस्त्र और जितने धन से वे ब्राह्मणदेवता संतुष्ट हों, उतना धन खजाने से दिलवाओ॥१५-१६ ॥

सूतश्चित्ररथश्चार्यः सचिवः सुचिरोषितः।
तोषयैनं महाहश्च रत्नैर्वस्त्रैर्धनैस्तथा॥१७॥
पशकाभिश्च सर्वाभिर्गवां दशशतेन च।

‘चित्ररथ नामक सूत श्रेष्ठ सचिव भी हैं। वे  सुदीर्घकाल से यहीं राजकुल की सेवा में रहते हैं। इनको भी तुम बहुमूल्य रत्न, वस्त्र और धन देकर संतुष्ट करो। साथ ही, इन्हें उत्तम श्रेणी के अज आदि सभी पशु और एक सहस्र गौएँ अर्पित करके पूर्ण संतोष प्रदान करो॥ १७ १/२॥

ये चेमे कठकालापा बहवो दण्डमाणवाः॥१८॥
नित्यस्वाध्यायशीलत्वान्नान्यत् कुर्वन्ति किंचन।
अलसाः स्वादुकामाश्च महतां चापि सम्मताः॥ १९॥
तेषामशीतियानानि रत्नपूर्णानि दापय।
शालिवाहसहस्रं च द्वे शते भद्रकांस्तथा ॥२०॥

मुझसे सम्बन्ध रखने वाले जो कठशाखा और कलाप-शाखा के अध्येता बहुत-से दण्डधारी ब्रह्मचारी हैं, वे सदा स्वाध्याय में ही संलग्न रहने के कारण दूसरा कोई कार्य नहीं कर पाते। भिक्षा माँगने में आलसी हैं, परंतु स्वादिष्ट अन्न खाने की इच्छा रखते हैं। महान् पुरुष भी उनका सम्मान करते हैं। उनके लिये रत्नों के बोझसे लदे हुए अस्सी ऊँट, अगहनी चावल का भार ढोने वाले एक सहस्र बैल तथा भद्रक नामक धान्यविशेष (चने, मूंग आदि) का भार लिये हुए दो सौ बैल और दिलवाओ॥

व्यञ्जनार्थं च सौमित्रे गोसहस्रमुपाकुरु।
मेखलीनां महासङ्गः कौसल्यां समुपस्थितः।
तेषां सहस्रं सौमित्रे प्रत्येकं सम्प्रदापय॥२१॥

‘सुमित्राकुमार! उपर्युक्त वस्तुओं के सिवा उनके लिये दही, घी आदि व्यञ्जन के निमित्त एक सहस्र गौएँ भी हँकवा दो। माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का बहुत बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दो॥ २१॥

अम्बा यथा नो नन्देच्च कौसल्या मम दक्षिणाम्।
तथा द्विजातीस्तान् सर्वाल्लँक्ष्मणार्चय सर्वशः॥ २२॥

‘लक्ष्मण! उन समस्त ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को मेरे द्वारा दिलायी हुई दक्षिणा देखकर जिस प्रकार मेरी माता कौसल्या आनन्दित हो उठे, उसी प्रकार तुम उन सबकी सब प्रकार से पूजा करो’ ।। २२ ।। ततः

पुरुषशार्दूलस्तद् धनं लक्ष्मणः स्वयम्।
यथोक्तं ब्राह्मणेन्द्राणामददाद् धनदो यथा॥ २३॥

इस प्रकार आज्ञा प्राप्त होने पर पुरुषसिंह लक्ष्मण ने स्वयं ही कुबेर की भाँति श्रीराम के कथनानुसार उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को उस धन का दान किया॥२३॥

अथाब्रवीद् बाष्पगलांस्तिष्ठतश्चोपजीविनः।
स प्रदाय बहुद्रव्यमेकैकस्योपजीवनम्॥२४॥
लक्ष्मणस्य च यद् वेश्म गृहं च यदिदं मम।
अशून्यं कार्यमेकैकं यावदागमनं मम॥ २५॥

इसके बाद वहाँ खड़े हुए अपने आश्रित सेवकों को जिनका गला आँसुओं से रुंधा हुआ था, बुलाकर श्रीराम ने उनमें से एक-एक को चौदह वर्षों तक जीविका चलाने योग्य बहुत-सा द्रव्य प्रदान किया और उन सबसे कहा—’जब तक मैं वन से लौटकर न आऊँ, तब तक तुम लोग लक्ष्मण के और मेरे इस घर को कभी सूना न करना—छोड़कर अन्यत्र न जाना’ ।। २४-२५॥

इत्युक्त्वा दुःखितं सर्वं जनं तमुपजीविनम्।
उवाचेदं धनाध्यक्षं धनमानीयतां मम॥२६॥

वे सब सेवक श्रीराम के वनगमन से बहुत दुःखी थे। उनसे उपर्युक्त बात कहकर श्रीराम अपने धनाध्यक्ष (खजांची) से बोले—’खजाने में मेरा जितना धन है, वह सब ले आओ’ ॥ २६॥

ततोऽस्य धनमाजहः सर्व एवोपजीविनः।
स राशिः सुमहांस्तत्र दर्शनीयो ह्यदृश्यत॥ २७॥

यह सुनकर सभी सेवक उनका धन ढो-ढोकर ले आने लगे। वहाँ उस धन की बहुत बड़ी राशि एकत्र हुई दिखायी देने लगी, जो देखने ही योग्य थी॥२७॥

ततः स पुरुषव्याघ्रस्तद् धनं सहलक्ष्मणः।
द्विजेभ्यो बालवृद्धेभ्यः कृपणेभ्यो ह्यदापयत्॥ २८॥

तब लक्ष्मण सहित पुरुषसिंह श्रीराम ने बालक और बूढ़े ब्राह्मणों तथा दीन-दुःखियों को वह सारा धन बँटवा दिया॥ २८॥

तत्रासीत् पिङ्गलो गार्ग्यस्त्रिजटो नाम वै द्विजः।
क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललाङ्गली॥२९॥

उन दिनों वहाँ अयोध्या के आस-पास वन में त्रिजट नाम वाले एक गर्गगोत्रीय ब्राह्मण रहते थे। उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं था, इसलिये उपवास आदि के कारण उनके शरीर का रंग पीला पड़ गया था। वे सदा फाल, कुदाल और हल लिये वन में फल-मूल की तलाश में घूमा करते थे॥२९॥

तं वृद्धं तरुणी भार्या बालानादाय दारकान्।
अब्रवीद् ब्राह्मणं वाक्यं स्त्रीणां भर्ता हि देवता॥ ३०॥
अपास्य फालं कुद्दालं कुरुष्व वचनं मम।
रामं दर्शय धर्मज्ञं यदि किंचिदवाप्स्यसि॥३१॥

वे स्वयं तो बूढ़े हो चले थे, परंतु उनकी पत्नी अभी तरुणी थी। उसने छोटे बच्चों को लेकर ब्राह्मण देवता से यह बात कही—’प्राणनाथ! (यद्यपि) स्त्रियों के लिये पति ही देवता है, (अतः मुझे आपको आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है, तथापि मैं आपकी भक्त हूँ; इसलिये विनयपूर्वक यह अनुरोध करती हूँ कि-) आप यह फाल और कुदाल फेंककर मेरा कहना कीजिये। धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी से मिलिये। यदि आप ऐसा करें तो वहाँ अवश्य कुछ पा जायँगे’ ॥ ३०-३१॥

स भार्याया वचः श्रुत्वा शाटीमाच्छाद्य दुश्छदाम्।
स प्रातिष्ठत पन्थानं यत्र रामनिवेशनम्॥३२॥

पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण एक फटी धोती, जिससे मुश्किल से शरीर ढक पाता था, पहनकर उस मार्गपर चल दिये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजी का महल था॥ ३२॥

भृग्वङ्गिरःसमं दीप्त्या त्रिजटं जनसंसदि।
आपञ्चमायाः कक्ष्याया नैतं कश्चिदवारयत्॥ ३३॥

भृगु और अङ्गिरा के समान तेजस्वी त्रिजट, जनसमुदाय के बीच से होकर श्रीराम-भवन की पाँचवीं ड्यौढ़ीतक चले गये, परंतु उनके लिये किसी ने रोक टोक नहीं की॥ ३३॥

स राममासाद्य तदा त्रिजटो वाक्यमब्रवीत्।
निर्धनो बहुपुत्रोऽस्मि राजपुत्र महाबल॥३४॥
क्षतवृत्तिर्वने नित्यं प्रत्यवेक्षस्व मामिति।

उस समय श्रीराम के पास पहुँचकर त्रिजट ने कहा-‘महाबली राजकुमार! मैं निर्धन हूँ, मेरे बहुत-से पुत्र हैं, जीविका नष्ट हो जाने से सदा वन में ही रहता हूँ, आप मुझपर कृपादृष्टि कीजिये’ ॥ ३४ १/२ ॥

तमुवाच ततो रामः परिहाससमन्वितम्॥३५॥
गवां सहस्रमप्येकं न च विश्राणितं मया।
परिक्षिपसि दण्डेन यावत्तावदवाप्स्यसे॥३६॥

तब श्रीराम ने विनोदपूर्वक कहा—’ब्रह्मन् ! मेरे पास असंख्य गौएँ हैं, इनमें से एक सहस्र का भी मैंने अभी तक किसी को दान नहीं किया है। आप अपना डंडा जितनी दूर फेंक सकेंगे, वहाँत क की सारी गौएँ आपको मिल जायँगी’ ॥ ३६॥

स शाटी परितः कट्यां सम्भ्रान्तः परिवेष्टय ताम्।
आविध्य दण्डं चिक्षेप सर्वप्राणेन वेगतः॥३७॥

यह सुनकर उन्होंने बड़ी तेजी के साथ धोती के पल्ले को सब ओर से कमर में लपेट लिया और अपनी सारी शक्ति लगाकर डंडे को बड़े वेग से घुमाकर फेंका॥

स तीर्वा सरयूपारं दण्डस्तस्य कराच्च्युतः।
गोव्रजे बहुसाहस्रे पपातोक्षणसंनिधौ॥ ३८॥

ब्राह्मण के हाथसे छूटा हुआ वह डंडा सरयू के उस पार जाकर हजारों गौओं से भरे हुए गोष्ठ में एक साँड़ के पास गिरा॥ ३८॥

तं परिष्वज्य धर्मात्मा आ तस्मात् सरयूतटात्।
आनयामास ता गावस्त्रिजटस्याश्रमं प्रति॥ ३९॥

धर्मात्मा श्रीराम ने त्रिजट को छाती से लगा लिया और उस सरयूतट से लेकर उस पार गिरे हुए डंडे के स्थान तक जितनी गौएँ थीं, उन सबको मँगवाकर त्रिजट के आश्रम पर भेज दिया।॥ ३९ ॥

उवाच च तदा रामस्तं गाय॑मभिसान्त्वयन्।
मन्युर्न खलु कर्तव्यः परिहासो ह्ययं मम॥४०॥

उस समय श्रीराम ने गर्गवंशी त्रिजट को सान्त्वना देते हुए कहा—’ब्रह्मन् ! मैंने विनोद में यह बात कही थी, आप इसके लिये बुरा न मानियेगा॥ ४०॥

इदं हि तेजस्तव यद् दुरत्ययं तदेव जिज्ञासितुमिच्छता मया।
इमं भवानर्थमभिप्रचोदितो वृणीष्व किंचेदपरं व्यवस्यसि ॥४१॥

‘आपका यह जो दुर्लङ्घय तेज है, इसीको जानने की इच्छासे मैंने आपको यह डंडा फेंकने के लिये प्रेरित किया था, यदि आप और कुछ चाहते हों तो माँगिये॥४१॥

ब्रवीमि सत्येन न ते स्म यन्त्रणां धनं हि यद्यन्मम विप्रकारणात्।
भवत्सु सम्यकप्रतिपादनेन मयार्जितं चैव यशस्करं भवेत्॥४२॥

मैं सच कहता हूँ कि इसमें आपके लिये कोई संकोच की बात नहीं है। मेरे पास जो-जो धन हैं, वह सब ब्राह्मणों के लिये ही है। आप-जैसे ब्राह्मणों को शास्त्रीय विधि के अनुसार दान देने से मेरे द्वारा उपार्जित किया हुआ धन मेरे यश की वृद्धि करने वाला होगा’॥

ततः सभार्यस्त्रिजटो महामुनिर्गवामनीकं प्रतिगृह्य मोदितः।
यशोबलप्रीतिसुखोपबंहिणीस्तदाशिषः प्रत्यवदन्महात्मनः॥४३॥

गौओं के उस महान् समूह को पाकर पत्नी सहित महामुनि त्रिजट को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे महात्मा श्रीराम को यश, बल, प्रीति तथा सुख बढ़ानेवाले आशीर्वाद देने लगे॥ ४३॥

स चापि रामः प्रतिपूर्णपौरुषो महाधनं धर्मबलैरुपार्जितम्।
नियोजयामास सुहृज्जने चिराद् यथार्हसम्मानवचः प्रचोदितः॥४४॥

तदनन्तर पूर्ण पराक्रमी भगवान् श्रीराम धर्मबल से उपार्जित किये हुए उस महान् धन को लोगों के यथायोग्य सम्मानपूर्ण वचनों से प्रेरित हो बहुत देर तक अपने सुहृदों में बाँटते रहे ॥४४॥

द्विजः सुहृद् भृत्यजनोऽथवा तदा दरिद्रभिक्षाचरणश्च यो भवेत्।
न तत्र कश्चिन्न बभूव तर्पितो यथार्हसम्माननदानसम्भ्रमैः॥४५॥

उस समय वहाँ कोई भी ब्राह्मण, सुहृद्, सेवक, दरिद्र अथवा भिक्षुक ऐसा नहीं था, जो श्रीराम के यथायोग्य सम्मान, दान तथा आदर-सत्कार से तृप्त न किया गया हो॥ ४५॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः ॥ ३२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३२॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 32 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 32

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: