वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 33 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 33
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 33)
सीता और लक्ष्मणसहित श्रीराम का दुःखी नगरवासियों के मुख से तरह की बातें सुनते हुए पिता के दर्शन के लिये कैकेयी के महल में जाना
दत्त्वा तु सह वैदेह्या ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु।
जग्मतुः पितरं द्रष्टं सीतया सह राघवौ॥१॥
विदेहकुमारी सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान करके वन जाने के लिये उद्यत हो पिता का दर्शन करने के लिये गये॥१॥
ततो गृहीते प्रेष्याभ्यामशोभेतां तदायुधे।
मालादामभिरासक्ते सीतया समलंकृते॥२॥
उनके साथ दो सेवक श्रीराम और लक्ष्मण के वे धनुष आदि आयुध लेकर चले, जिन्हें फूल की मालाओं से सजाया गया था और सीताजी ने पूजा के लिये चढ़ाये हुए चन्दन आदि से अलंकृत किया था। उन दोनों के आयुधों की उस समय बड़ी शोभा हो रही थी।॥ २॥
ततः प्रासादहाणि विमानशिखराणि च।।
अभिरुह्य जनः श्रीमानुदासीनो व्यलोकयत्॥३॥
उस अवसरपर धनी लोग प्रासादों (तिमंजिले महलों), हर्म्यगृहों (राजभवनों) तथा विमानों (सात मंजिले महलों) की ऊपरी छतों पर चढ़कर उदासीन भाव से उन तीनों की ओर देखने लगे॥३॥
न हि रथ्याः सुशक्यन्ते गन्तुं बहुजनाकुलाः।
आरुह्य तस्मात् प्रासादाद् दीनाः पश्यन्ति राघवम्॥४॥
उस समय सड़कें मनुष्यों की भीड़ से भरी थीं इसलिये उनपर सुगमतापूर्वक चलना कठिन हो गया था। अतः अधिकांश मनुष्य प्रासादों (तिमंजिले मकानों) पर चढ़कर वहीं से दुःखी होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख रहे थे॥ ४॥
पदातिं सानुजं दृष्ट्वा ससीतं च जनास्तदा।
ऊचुर्बहुजना वाचः शोकोपहतचेतसः॥५॥
श्रीराम को अपने छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ पैदल जाते देख बहुत-से मनुष्यों का हृदय शोक से व्याकुल हो उठा। वे खेदपूर्वक कहने लगे— ॥५॥
यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत्।
तमेकं सीतया सार्धमनुयाति स्म लक्ष्मणः॥६॥
‘हाय! यात्रा के समय जिनके पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चलती थी, वे ही श्रीराम आज अकेले जा रहे हैं और उनके पीछे सीता के साथ लक्ष्मण चल रहे हैं॥ ६॥
ऐश्वर्यस्य रसज्ञः सन् कामानां चाकरो महान्।
नेच्छत्येवानृतं कर्तुं वचनं धर्मगौरवात्॥७॥
‘जो ऐश्वर्य के सुख का अनुभव करने वाले तथा भोग्य वस्तुओं के महान् भण्डार थे—जहाँ सबकी कामनाएँ पूर्ण होती थीं, वे ही श्रीराम आज धर्म का गौरव रखने के लिये पिता की बात झूठी करना नहीं चाहते हैं॥ ७॥
या न शक्या पुरा द्रष्टं भूतैराकाशगैरपि।
तामद्य सीतां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः॥८॥
‘ओह! पहले जिसे आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं॥ ८॥
अङ्गरागोचितां सीतां रक्तचन्दनसेविनीम्।
वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम्॥९॥
‘सीता अङ्गराग-सेवनके योग्य हैं, लाल चन्दनका सेवन करनेवाली हैं। अब वर्षा, गर्मी और सर्दी शीघ्र ही इनके अङ्गोंकी कान्ति फीकी कर देगी॥९॥
अद्य नूनं दशरथः सत्त्वमाविश्य भाषते।
नहि राजा प्रियं पुत्रं विवासयितुमर्हति ॥१०॥
‘निश्चय ही आज राजा दशरथ किसी पिशाच के आवेश में पड़कर अनुचित बात कह रहे हैं; क्योंकि अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहने वाला कोई भी राजा अपने प्यारे पुत्र को घर से निकाल नहीं सकता॥१० ॥
निर्गुणस्यापि पुत्रस्य कथं स्याद् विनिवासनम्।
किं पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम्॥
‘पुत्र यदि गुणहीन हो तो भी उसे घर से निकाल देने का साहस कैसे हो सकता है? फिर जिसके केवल चरित्र से ही यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उसको वनवास देने की तो बात ही कैसे की जा सकती है? ॥
आनृशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः।
राघवं शोभयन्त्येते षड्गुणाः पुरुषर्षभम्॥१२॥
‘क्रूरता का अभाव, दया, विद्या, शील, दम (इन्द्रियसंयम) और शम (मनोनिग्रह)-ये छः गुण नरश्रेष्ठ श्रीराम को सदा ही सुशोभित करते हैं ।। १२ ।।
तस्मात् तस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः।
औदकानीव सत्त्वानि ग्रीष्मे सलिलसंक्षयात्॥
‘अतः इनके ऊपर आघात करने—इनके राज्याभिषेक में विघ्न डालने से प्रजा को उसी तरह महान् क्लेश पहुँचा है, जैसे गर्मी में जलाशय का पानी सूख जाने से उसके भीतर रहने वाले जीव तड़पने लगते हैं।
पीडया पीडितं सर्वं जगदस्य जगत्पतेः।
मूलस्येवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः॥१४॥
‘इन जगदीश्वर श्रीराम की व्यथा से सम्पूर्ण जगत् व्यथित हो उठा है, जैसे जड़ काट देने से पुष्प और फलसहित सारा वृक्ष सूख जाता है॥ १४ ॥
मूलं ह्येष मनुष्याणां धर्मसारो महाद्युतिः।
पुष्पं फलं च पत्रं च शाखाश्चास्येतरे जनाः॥ १५॥
‘ये महान् तेजस्वी श्रीराम सम्पूर्ण मनुष्यों के मूल हैं, धर्म ही इनका बल है। जगत् के दूसरे प्राणी पत्र, पुष्प, फल और शाखाएँ हैं॥ १५ ॥
ते लक्ष्मण इव क्षिप्रं सपत्न्यः सहबान्धवाः।
गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति राघवः॥१६॥
‘अतः हमलोग भी लक्ष्मण की भाँति पत्नी और बन्धु-बान्धवों के साथ शीघ्र ही इन जाने वाले श्रीराम के ही पीछे-पीछे चल दें। जिस मार्ग से श्रीरघुनाथ जी जा रहे हैं, उसी का हम भी अनुसरण करें॥ १६॥
उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च।
एकदुःखसुखा राममनुगच्छाम धार्मिकम्॥१७॥
‘बाग-बगीचे, घर-द्वार और खेती-बारी—सब छोड़कर धर्मात्मा श्रीराम का अनुगमन करें। इनके दुःख-सुख के साथी बनें॥ १७॥
समुद्धृतनिधानानि परिध्वस्ताजिराणि च।
उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः॥१८॥
रजसाभ्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः।
मूषकैः परिधावद्भिरुबिलैरावृतानि च॥१९॥
अपेतोदकधूमानि हीनसम्मार्जनानि च।
प्रणष्टबलिकर्मेज्यामन्त्रहोमजपानि च ॥२०॥
दुष्कालेनेव भग्नानि भिन्नभाजनवन्ति च।
अस्मत्त्यक्तानि कैकेयी वेश्मानि प्रतिपद्यताम्॥ २१॥
‘हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकालें। आँगन की फर्श खोद डालें। सारा धन-धान्य साथ ले लें। सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरों को छोड़कर भाग जाएँ। चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दौड़ लगाने लगें और उनसे ये घर भर जायें। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाड़ ही लगे। यहाँ बलिवैश्वदेव, यज्ञ, मन्त्रपाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायें। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हों और हम सदा के लिये इन्हें छोड़ दें ऐसी दशा में इन घरों पर कैकेयी आकर अधिकार कर ले॥ १८-२१॥
वनं नगरमेवास्तु येन गच्छति राघवः।
अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं सम्पद्यतां वनम्॥ २२॥
‘जहाँ पहुँचने के लिये ये श्रीरामचन्द्रजी जा रहे हैं,वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर भी वन के रूप में परिणत हो जाय॥ २२ ॥
बिलानि दंष्टिणः सर्वे सानूनि मृगपक्षिणः।
त्यजन्त्वस्मद्भयागीता गजाः सिंहा वनान्यपि॥ २३॥
‘वन में हमलोगों के भयसे साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ। पर्वत पर रहने वाले मृग और पक्षी उसके शिखरों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी उन वनों को त्यागकर दूर चले जायँ।। २३॥
अस्मत्त्यक्तं प्रपद्यन्तु सेव्यमानं त्यजन्तु च।
तृणमांसफलादानां देशं व्यालमृगद्विजम्॥२४॥
प्रपद्यतां हि कैकेयी सपुत्रा सह बान्धवैः।
राघवेण वयं सर्वे वने वत्स्याम निर्वृताः॥२५॥
‘वे सर्प आदि उन स्थानों में चले जायँ, जिन्हें हमलोगों ने छोड़ रखा है और उन स्थानों को त्याग दें, जिनका हम सेवन करते हैं। यह देश घास चरने वाले पशुओं, मांसभक्षी हिंसक जन्तुओं और फल खाने वाले पक्षियों का निवासस्थान बन जाय। यहाँ सर्प, पशु और पक्षी रहने लगें। उस दशा में पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित कैकेयी इसे अपने अधिकार में कर ले। हम सब लोग वन में श्रीरघुनाथजी के साथ बड़े आनन्द से रहेंगे’॥ २४-२५ ॥
इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः।
शुश्राव राघवः श्रुत्वा न विचक्रेऽस्य मानसम्॥ २६॥
स तु वेश्म पुनर्मातुः कैलासशिखरप्रभम्।
अभिचक्राम धर्मात्मा मत्तमातङ्गविक्रमः॥२७॥
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत-से मनुष्यों के मुँह से निकली हुई तरह-तरह की बातें सुनीं; किंतु सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं हुआ। मतवाले गजराज के समान पराक्रमी धर्मात्मा श्रीराम पुनः माता कैकेयी के कैलासशिखर के सदृश शुभ्र भवन में गये॥ २६-२७॥
विनीतवीरपुरुषं प्रविश्य तु नृपालयम्।
ददर्शावस्थितं दीनं सुमन्त्रमविदूरतः॥२८॥
विनयशील वीर पुरुषों से युक्त उस राजभवन में प्रवेश करके उन्होंने देखा-सुमन्त्र पास ही दुःखी होकर खड़े हैं।॥ २८॥
प्रतीक्षमाणोऽभिजनं तदात मनार्तरूपः प्रहसन्निवाथ।
जगाम रामः पितरं दिदृक्षुः पितुर्निदेशं विधिवच्चिकीर्षुः ॥ २९॥
पूर्वजों की निवासभूमि अवध के मनुष्य वहाँ शोक से आतुर होकर खड़े थे। उन्हें देखकर भी श्रीराम स्वयं शोक से पीड़ित नहीं हुए उनके शरीर पर व्यथा का कोई चिह्न प्रकट नहीं हुआ। वे पिता की आज्ञा का विधिपूर्वक पालन करने की इच्छा से उनका दर्शन करने के लिये हँसते हुए-आगे बढ़े॥ २९॥
तत्पूर्वमैक्ष्वाकसुतो महात्मा रामो गमिष्यन् नृपमार्तरूपम्।
व्यतिष्ठत प्रेक्ष्य तदा सुमन्त्रं पितुर्महात्मा प्रतिहारणार्थम्॥३०॥
शोकाकुल रूप से पड़े हुए राजा के पास जाने वाले महात्मा महामना इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीराम वहाँ पहुँचने से पहले सुमन्त्र को देखकर पिता के पास अपने आगमन की सूचना भेज नेके लिये उस समय वहीं ठहर गये॥ ३०॥
पितुर्निदेशेन तु धर्मवत्सलो वनप्रवेशे कृतबुद्धिनिश्चयः।
स राघवः प्रेक्ष्य सुमन्त्रमब्रवीनिवेदयस्वागमनं नृपाय मे॥३१॥
पिता के आदेश से वन में प्रवेश करने का बुद्धिपूर्वक निश्चय करके आये हुए धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी सुमन्त्र की ओर देखकर बोले—’आप महाराज को मेरे आगमन की सूचना दे दें’॥ ३१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रयस्त्रिंशः सर्गः॥३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३३॥
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