वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 34 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 34
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 34)
सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का रानियों सहित राजा दशरथ के पास जाकर वनवास के लिये विदा माँगना, राजा का शोक और मूर्छा
ततः कमलपत्राक्षः श्यामो निरुपमो महान्।
उवाच रामस्तं सूतं पितुराख्याहि मामिति॥१॥
स रामप्रेषितः क्षिप्रं संतापकलुषेन्द्रियम्।
प्रविश्य नृपतिं सूतो निःश्वसन्तं ददर्श ह॥२॥
जब कमलनयन श्यामसुन्दर उपमारहित महापुरुष श्रीराम ने सूत सुमन्त्र से कहा—’आप पिताजी को मेरे आगमन की सूचना दे दीजिये’ तब श्रीराम की प्रेरणा से शीघ्र ही भीतर जाकर सारथि सुमन्त्र ने राजा का दर्शन किया। उनकी सारी इन्द्रियाँ संताप से कलुषित हो रही थीं। वे लम्बी साँस खींच रहे थे॥ १-२॥
उपरक्तमिवादित्यं भस्मच्छन्नमिवानलम्।
तटाकमिव निस्तोयमपश्यज्जगतीपतिम्॥३॥
आबोध्य च महाप्राज्ञः परमाकुलचेतनम्।
राममेवानुशोचन्तं सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥४॥
सुमन्त्र ने देखा, पृथ्वीपति महाराज दशरथ राहुग्रस्त सूर्य, राख से ढकी हुई आग तथा जलशून्य तालाब के समान श्रीहीन हो रहे हैं। उनका चित्त अत्यन्त व्याकुल है और वे श्रीराम का ही चिन्तन कर रहे हैं। तब महाप्राज्ञ सूत ने महाराज को सम्बोधित करके हाथ जोड़कर कहा॥
तं वर्धयित्वा राजानं पूर्वं सूतो जयाशिषा।
भयविक्लवया वाचा मन्दया श्लक्ष्णयाब्रवीत्॥
पहले तो सूत सुमन्त्र ने विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए महाराज की अभ्युदय-कामना की; फिर भय से व्याकुल मन्द-मधुर वाणी द्वारा यह बात कही—॥ ५॥
अयं स पुरुषव्याघ्रो द्वारि तिष्ठति ते सुतः।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सर्वं चैवोपजीविनाम्॥ ६॥
स त्वां पश्यतु भद्रं ते रामः सत्यपराक्रमः।
सर्वान् सुहृद आपृच्छ्य त्वां हीदानी दिदृक्षते॥ ७॥
गमिष्यति महारण्यं तं पश्य जगतीपते।
वृतं राजगुणैः सर्वैरादित्यमिव रश्मिभिः॥८॥
‘पृथ्वीनाथ! आपके पुत्र ये सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह श्रीराम ब्राह्मणों तथा आश्रित सेवकों को अपना साराधन देकर द्वार पर खड़े हैं। आपका कल्याण हो, ये अपने सब सुहृदों से मिलकर उनसे विदा लेकर इस
समय आपका दर्शन करना चाहते हैं। आज्ञा हो तो यहाँ आकर आपका दर्शन करें। राजन्! अब ये विशाल वन में चले जायेंगे, अतः किरणों से युक्त सूर्य की भाँति समस्त राजोचित गुण से सम्पन्न इन
श्रीराम को आप भी जी भरकर देख लीजिये’॥ ६– ८॥
स सत्यवाक्यो धर्मात्मा गाम्भीर्यात् सागरोपमः।
आकाश इव निष्पङ्को नरेन्द्रः प्रत्युवाच तम्॥९॥
यह सुनकर समुद्र के समान गम्भीर तथा आकाश की भाँति निर्मल, सत्यवादी धर्मात्मा महाराज दशरथ ने उन्हें उत्तर दिया- ॥९॥
सुमन्त्रानय मे दारान् ये केचिदिह मामकाः।
दारैः परिवृतः सर्वैर्द्रष्टमिच्छामि राघवम्॥१०॥
‘सुमन्त्र! यहाँ जो कोई भी मेरी स्त्रियाँ हैं, उन सबको बुलाओ। उन सबके साथ मैं श्रीराम को देखना चाहता हूँ’॥१०॥
सोऽन्तःपुरमतीत्यैव स्त्रियस्ता वाक्यमब्रवीत्।
आर्यो ह्वयति वो राजा गम्यतां तत्र मा चिरम्॥ ११॥
तब सुमन्त्र ने बड़े वेग से अन्तःपुर में जाकर सब स्त्रियों से कहा—’देवियो! आपलोगों को महाराज बुला रहे हैं, अतः वहाँ शीघ्र चलें ॥११॥
एवमुक्ताः स्त्रियः सर्वाः सुमन्त्रेण नृपाज्ञया।
प्रचक्रमुस्तद् भवनं भर्तुराज्ञाय शासनम्॥१२॥
राजा की आज्ञा से सुमन्त्र के ऐसा कहने पर वे सब रानियाँ स्वामी का आदेश समझकर उस भवन की ओर चलीं॥ १२॥
अर्धसप्तशतास्तत्र प्रमदास्ताम्रलोचनाः।
कौसल्यां परिवार्याथ शनैर्जग्मुधृतव्रताः॥१३॥
कुछ-कुछ लाल नेत्रोंवाली साढ़े तीन सौ पतिव्रता युवती स्त्रियाँ महारानी कौसल्या को सब ओर से घेरकर धीरे-धीरे उस भवन में गयीं॥ १३॥
आगतेषु च दारेषु समवेक्ष्य महीपतिः।
उवाच राजा तं सूतं सुमन्त्रानय मे सुतम्॥१४॥
उन सबके आ जाने पर उन्हें देखकर पृथ्वीपति राजा दशरथ ने सूत से कहा—’सुमन्त्र! अब मेरे पुत्र को ले आओ’ ॥
स सूतो राममादाय लक्ष्मणं मैथिली तथा।
जगामाभिमुखस्तूर्णं सकाशं जगतीपतेः ॥१५॥
आज्ञा पाकर सुमन्त्र गये और श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता को साथ लेकर शीघ्र ही महाराज के पास लौट आये॥ १५॥
स राजा पुत्रमायान्तं दृष्ट्वा चारात् कृताञ्जलिम्।
उत्पपातासनात् तूर्णमार्तः स्त्रीजनसंवृतः॥१६॥
महाराज दूर से ही अपने पुत्र को हाथ जोड़कर आते देख सहसा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उस समय स्त्रियों से घिरे हुए वे नरेश शोक से आर्त हो रहे थे॥
सोऽभिदुद्राव वेगेन रामं दृष्ट्वा विशाम्पतिः।
तमसम्प्राप्य दुःखार्तः पपात भुवि मूर्च्छितः॥ १७॥
श्रीराम को देखते ही वे प्रजापालक महाराज बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े, किंतु उनके पास पहँचने के पहले ही दुःख से व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े और मूर्छित हो गये॥१७॥
तं रामोऽभ्यपतत् क्षिप्रं लक्ष्मणश्च महारथः।
विसंज्ञमिव दुःखेन सशोकं नृपतिं तथा॥१८॥
उस समय श्रीराम और महारथी लक्ष्मण बड़ी तेजी से चलकर दुःख के कारण अचेत-से हुए शोकमग्न महाराज के पास जा पहुँचे॥१८॥
स्त्रीसहस्रनिनादश्च संजज्ञे राजवेश्मनि।
हा हा रामेति सहसा भूषणध्वनिमिश्रितः॥१९॥
इतने ही में उस राजभवन के भीतर सहसा आभूषणों की ध्वनि के साथ सहस्रों स्त्रियों का ‘हा राम! हा राम!’ यह आर्तनाद गूंज उठा॥१९॥
तं परिष्वज्य बाहुभ्यां तावुभौ रामलक्ष्मणौ।
पर्यङ्के सीतया सार्धं रुदन्तः समवेशयन्॥२०॥
श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई भी सीता के साथ रो पड़े और उन तीनों ने महाराज को दोनों भुजाओं से उठाकर पलंग पर बिठा दिया॥ २०॥
अथ रामो मुहूर्तस्य लब्धसंज्ञं महीपतिम्।
उवाच प्राञ्जलिर्बाष्पशोकार्णवपरिप्लुतम्॥२१॥
शोकाश्रु के सागर में डूबे हुए महाराज दशरथ को दो घड़ी में जब फिर चेत हुआ, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा- ॥ २१॥
आपृच्छे त्वां महाराज सर्वेषामीश्वरोऽसि नः।
प्रस्थितं दण्डकारण्यं पश्य त्वं कुशलेन माम्॥ २२॥
‘महाराज! आप हमलोगों के स्वामी हैं। मैं दण्डकारण्य को जा रहा हूँ और आपसे आज्ञा लेने आया हूँ। आप अपनी कल्याणमयी दृष्टि से मेरी ओर देखिये॥
लक्ष्मणं चानुजानीहि सीता चान्वेतु मां वनम्।
कारणैर्बहुभिस्तथ्यैर्वार्यमाणौ न चेच्छतः॥ २३॥
अनुजानीहि सर्वान् नः शोकमुत्सृज्य मानद।
लक्ष्मणं मां च सीतां च प्रजापतिरिवात्मजान्॥ २४॥
‘मेरे साथ लक्ष्मण को भी वन में जाने की आज्ञा दीजिये। साथ ही यह भी स्वीकार कीजिये कि सीता भी मेरे साथ वन को जाय। मैंने बहुत-से सच्चे कारण बताकर इन दोनों को रोकने की चेष्टा की है. परंतु ये यहाँ रहना नहीं चाहते हैं; अतः दूसरों को मान देने वाले नरेश! आप शोक छोड़कर हम सबको मुझको, लक्ष्मण को और सीता को भी उसी तरह वन में जाने की आज्ञा दीजिये, जैसे ब्रह्माजी ने अपने पुत्र सनकादिकों को तप के लिये वन में जाने की अनुमति दी थी’ ॥ २३-२४॥
प्रतीक्षमाणमव्यग्रमनुज्ञां जगतीपतेः।
उवाच राजा सम्प्रेक्ष्य वनवासाय राघवम्॥२५॥
इस प्रकार शान्तभाव से वनवास के लिये राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखकर महाराज ने उनसे कहा— ॥२५॥
अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः।
अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम्॥ २६॥
‘रघुनन्दन ! मैं कैकेयी को दिये हुए वर के कारण मोह में पड़ गया हूँ। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अब अयोध्या के राजा बन जाओ’ ॥ २६॥
एवमुक्तो नृपतिना रामो धर्मभृतां वरः।
रत्युवाचाञ्जलिं कृत्वा पितरं वाक्यकोविदः॥ २७॥
महाराज के ऐसा कहने पर बातचीत करने में कुशल धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर पिता को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२७॥
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य कांक्षिता॥ २८॥
‘महाराज! आप सहस्रों वर्षों तक इस पृथ्वी केअधिपति बने रहें। मैं तो अब वन में ही निवास करूँगा। मुझे राज्य लेने की इच्छा नहीं है॥ २८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप॥२९॥
‘नरेश्वर! चौदह वर्षों तक वन में घूम-फिरकर आपकी प्रतिज्ञा पूरी कर लेने के पश्चात् मैं पुनः आपके युगल चरणों में मस्तक झुकाऊँगा’ ॥ २९॥
रुदन्नार्तः प्रियं पुत्रं सत्यपाशेन संयुतः।
कैकेय्या चोद्यमानस्तु मिथो राजा तमब्रवीत्॥ ३०॥
राजा दशरथ एक तो सत्य के बन्धन में बँधे हुए थे, दूसरे एकान्त में कैकेयी उन्हें श्रीराम को वन में तुरंत भेजने के लिये बाध्य कर रही थी—इस अवस्था में वे आर्तभाव से रोते हुए वहाँ अपने प्रिय पुत्र श्रीराम से बोले- ॥३०॥
श्रेयसे वृद्धये तात पुनरागमनाय च।
गच्छस्वारिष्टमव्यग्रः पन्थानमकुतोभयम्॥३१॥
‘तात! तुम कल्याण के लिये, वृद्धि के लिये और फिर लौट आने के लिये शान्तभाव से जाओ। तुम्हारा मार्ग विघ्न-बाधाओं से रहित और निर्भय हो॥३१॥
न हि सत्यात्मनस्तात धर्माभिमनसस्तव।
संनिवर्तयितुं बुद्धिः शक्यते रघुनन्दन॥३२॥
अद्य त्विदानी रजनी पुत्र मा गच्छ सर्वथा।
एकाहं दर्शनेनापि साधु तावच्चराम्यहम्॥३३॥
‘बेटा रघुनन्दन ! तुम सत्यस्वरूप और धर्मात्मा हो। तुम्हारे विचार को पलटना तो असम्भव है; परंतु रात भर और रह जाओ। सिर्फ एक रात के लिये सर्वथा अपनी यात्रा रोक दो। केवल एक दिन भी तो तुम्हें देखने का सुख उठा लूँ॥ ३२-३३॥
मातरं मां च सम्पश्यन् वसेमामद्य शर्वरीम्।
तर्पितः सर्वकामैस्त्वं श्वः काल्ये साधयिष्यसि॥ ३४॥
‘अपनी माता को और मुझको इस अवस्था में देखकर आज की इस रात में यहीं रह जाओ। मेरे द्वारा सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं से तृप्त होकर कल प्रातःकाल यहाँ से जाना॥
दुष्करं क्रियते पुत्र सर्वथा राघव प्रिय।
त्वया हि मत्प्रियार्थं तु वनमेवमुपाश्रितम्॥ ३५॥
‘मेरे प्रिय पुत्र श्रीराम ! तुम सर्वथा दुष्कर कार्य कर रहे हो। मेरा प्रिय करने के लिये ही तुमने इस प्रकार वन का आश्रय लिया है॥ ३५॥
न चैतन्मे प्रियं पुत्र शपे सत्येन राघव।
छन्नया चलितस्त्वस्मि स्त्रिया भस्माग्निकल्पया॥ ३६॥
वञ्चना या तु लब्धा मे तां त्वं निस्तर्तुमिच्छसि।
अनया वृत्तसादिन्या कैकेय्याभिप्रचोदितः॥ ३७॥
‘परंतु बेटा रघुनन्दन! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि यह मुझे प्रिय नहीं है। मुझे तुम्हारा वन में जाना अच्छा नहीं लगता। यह मेरी स्त्री कैकेयी राख में छिपी हुई आग के समान भयंकर है। इसने अपने क्रूर अभिप्राय को छिपा रखा था। इसी ने आज मुझे मेरे अभीष्ट संकल्प से विचलित कर दिया है। कुलोचित सदाचार का विनाश करने वाली इस कैकेयी ने मुझे वरदान के लिये प्रेरित करके मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। इसके द्वारा जो वञ्चना मुझे प्राप्त हुई है, उसी को तुम पार करना चाहते हो॥ ३६-३७॥
न चैतदाश्चर्यतमं यत् त्वं ज्येष्ठः सुतो मम।
अपानृतकथं पुत्र पितरं कर्तुमिच्छसि ॥ ३८॥
‘पुत्र! तुम अपने पिता को सत्यवादी बनाना चाहते हो। तुम्हारे लिये यह कोई अधिक आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि तुम गुण और अवस्था दोनों ही दृष्टियों से मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो’ ॥ ३८॥
अथ रामस्तदा श्रुत्वा पितुरार्तस्य भाषितम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा दीनो वचनमब्रवीत्॥३९॥
अपने शोकाकुल पिता का यह कथन सुनकर उस समय छोटे भाई लक्ष्मणसहित श्रीराम ने दुःखी होकर कहा- ॥३९॥
राप्स्यामि यानद्य गुणान् को मे श्वस्तान् प्रदास्यति।
अपक्रमणमेवातः सर्वकामैरहं वृणे॥४०॥
‘महाराज! आज यात्रा करके मैं जिन गुणों (लाभों) को पाऊँगा, उन्हें कल कौन मुझे देगा?* अतः मैं सम्पूर्ण कामनाओं के बदले आज यहाँ से निकल जाना ही अच्छा समझता हूँ और इसी का वरण करता हूँ॥
* ‘प्राप्स्यामि……इस आधे श्लोक का अर्थ यह भी हो सकता है कि आज यहाँ रहकर जिन उत्तमोत्तम अभीष्ट पदार्थों को मैं पाऊँगा, उन्हें कल से कौन देगा?
इयं सराष्ट्रा सजना धनधान्यसमाकुला।
मया विसृष्टा वसुधा भरताय प्रदीयताम्॥४१॥
‘राष्ट्र और यहाँ के निवासी मनुष्यों सहित धनधान्य से सम्पन्न यह सारी पृथ्वी मैंने छोड़ दी। आप इसे भरत को दे दें॥४१॥
वनवासकृता बुद्धिर्न च मेऽद्य चलिष्यति।
यस्तु युद्धे वरो दत्तः कैकेय्यै वरद त्वया॥४२॥
दीयतां निखिलेनैव सत्यस्त्वं भव पार्थिव।
मेरा वनवास विषयक निश्चय अब बदल नहीं सकेगा। वरदायक नरेश! आपने देवासुर-संग्राम में कैकेयी को जो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, उसे पूर्णरूप से दीजिये और सत्यवादी बनिये॥ ४२ १/२ ।।
अहं निदेशं भवतो यथोक्तमनुपालयन्॥४३॥
चतुर्दश समा वत्स्ये वने वनचरैः सह।
मा विमर्शो वसुमती भरताय प्रदीयताम्॥४४॥
‘मैं आपकी उक्त आज्ञा का पालन करता हुआ चौदह वर्षों तक वन में वनचारी प्राणियों के साथ निवास करूँगा। आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। आप यह सारी पृथ्वी भरत को दे दीजिये॥
नहि मे कांक्षितं राज्यं सुखमात्मनि वा प्रियम्।
यथानिदेशं कर्तुं वै तवैव रघुनन्दन॥४५॥
‘रघुनन्दन! मैंने अपने मन को सुख देने अथवा । स्वजनों का प्रिय करने के उद्देश्य से राज्य लेने की इच्छा नहीं की थी। आपकी आज्ञा का यथावत् रूप से पालन करने के लिये ही मैंने उसे ग्रहण करने की अभिलाषा की थी॥४५॥
अपगच्छतु ते दुःखं मा भूर्बाष्पपरिप्लुतः।
नहि क्षुभ्यति दुर्धर्षः समुद्रः सरितां पतिः॥४६॥
‘आपका दुःख दूर हो जाय, आप इस प्रकार आँसू न बहावें। सरिताओं का स्वामी दुर्धर्ष समुद्र क्षुब्ध नहीं होता है—अपनी मर्यादा का त्याग नहीं करता है (इसी तरह आपको भी क्षुब्ध नहीं होना चाहिये) ॥ ४६॥
नैवाहं राज्यमिच्छामि न सुखं न च मेदिनीम्।
नैव सर्वानिमान् कामान् न स्वर्गं न च जीवितुम्॥ ४७॥
‘मुझे न तो इस राज्य की, न सुख की, न पृथ्वी की, न इन सम्पूर्ण भोगों की, न स्वर्ग की और न जीवन की ही इच्छा है॥४७॥
त्वामहं सत्यमिच्छामि नानृतं पुरुषर्षभ।
प्रत्यक्षं तव सत्येन सुकृतेन च ते शपे॥४८॥
‘पुरुषशिरोमणे! मेरे मन में यदि कोई इच्छा है तो यही कि आप सत्यवादी बनें। आपका वचन मिथ्या न होने पावे। यह बात मैं आपके सामने सत्य और शुभ कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ॥४८॥
न च शक्यं मया तात स्थातुं क्षणमपि प्रभो।
स शोकं धारयस्वेमं नहि मेऽस्ति विपर्ययः॥ ४९॥
तात! प्रभो! अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता। अतः आप इस शोक को अपने भीतर ही दबा लें। मैं अपने निश्चय के विपरीत कुछ नहीं कर सकता॥
अर्थितो ह्यस्मि कैकेय्या वनं गच्छेति राघव।
मया चोक्तं व्रजामीति तत्सत्यमनुपालये॥५०॥
‘रघुनन्दन! कैकेयी ने मुझसे यह याचना की कि ‘राम! तुम वन को चले जाओ’ मैंने वचन दिया था कि ‘अवश्य जाऊँगा’ उस सत्य का मुझे पालन करना
मा चोत्कण्ठां कृथा देव वने रंस्यामहे वयम्।
प्रशान्तहरिणाकीर्णे नानाशकुनिनादिते॥५१॥
‘देव! बीच में हमें देखने या हमसे मिलने के लिये आप उत्कण्ठित न होंगे। शान्तस्वभाव वाले मृगों से भरे हुए और भाँति-भाँति के पक्षियों के कलरवों से गूंजते हुए उस वन में हमलोग बड़े आनन्द से रहेंगे॥५१॥
पिता हि दैवतं तात देवतानामपि स्मृतम्।
तस्माद दैवतमित्येव करिष्यामि पितुर्वचः॥५२॥
‘तात! पिता देवताओं के भी देवता माने गये हैं। अतः मैं देवता समझकर ही पिता (आप) की आज्ञा का पालन करूँगा॥५२॥
चतुर्दशसु वर्षेषु गतेषु नृपसत्तम।
पुनर्द्रक्ष्यसि मां प्राप्तं संतापोऽयं विमुच्यताम्॥ ५३॥
‘नृपश्रेष्ठ! अब यह संताप छोड़िये। चौदह वर्ष बीत जाने पर आप फिर मुझे आया हुआ देखेंगे॥ ५३॥
येन संस्तम्भनीयोऽयं सर्वो बाष्पकलो जनः।
स त्वं पुरुषशार्दूल किमर्थं विक्रियां गतः॥५४॥
‘पुरुषसिंह ! यहाँ जितने लोग आँसू बहा रहे हैं, इन सबको धैर्य बँधाना आपका कर्तव्य है; फिर आप स्वयं ही इतने विकल कैसे हो रहे हैं? ॥ ५४॥
पुरं च राष्ट्रं च मही च केवला मया विसृष्टा भरताय दीयताम्।
अहं निदेशं भवतोऽनुपालयन् वनं गमिष्यामि चिराय सेवितुम्॥५५॥
‘यह नगर, यह राज्य और यह सारी पृथ्वी मैंने छोड़ दी। आप यह सब कुछ भरत को दे दीजिये।अब मैं आपके आदेश का पालन करता हुआ । दीर्घकालतक वन में निवास करने के लिये यहाँ से यात्रा
कर रहा हूँ॥
मया विसृष्टां भरतो महीमिमां सशैलखण्डां सपुरोपकाननाम्।
शिवासु सीमास्वनुशास्तु केवलं त्वया यदुक्तं नृपते तथास्तु तत्॥५६॥
‘मेरी छोड़ी हुई पर्वतखण्डों, नगरों और उपवनोंसहित इस सारी पृथ्वी का भरत कल्याणकारिणी मर्यादाओं में स्थित रहकर पालन करें। नरेश्वर! आपने जो वचन दिया है, वह पूर्ण हो॥५६॥
न मे तथा पार्थिव धीयते मनो महत्सु कामेषु न चात्मनः प्रिये।
यथा निदेशे तव शिष्टसम्मते व्यपैतु दुःखं तव मत्कृतेऽनघ॥५७॥
‘पृथ्वीनाथ! निष्पाप महाराज! सत्पुरुषोंद्वारा अनुमोदित आपकी आज्ञा का पालन करने में मेरा मन जैसा लगता है, वैसा बड़े-बड़े भोगों में तथा अपने किसी प्रिय पदार्थ में भी नहीं लगता; अतः मेरे लिये आपके मन में जो दुःख है, वह दूर हो जाना चाहिये। ५७॥
तदद्य नैवानघ राज्यमव्ययं न सर्वकामान् वसुधां न मैथिलीम्।
न चिन्तितं त्वामनृतेन योजयन् वृणीय सत्यं व्रतमस्तु ते तथा॥५८॥
‘निष्पाप नरेश! आज आपको मिथ्यावादी बनाकर मैं अक्षय राज्य, सब प्रकार के भोग, वसुधा का आधिपत्य, मिथिलेशकुमारी सीता तथा अन्य किसी अभिलषित पदार्थ को भी स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी एक मात्र इच्छा यही है कि ‘आपकी प्रतिज्ञा सत्य हो’ ॥ ५८॥
फलानि मूलानि च भक्षयन् वने गिरीश्च पश्यन् सरितः सरांसि च।
वनं प्रविश्यैव विचित्रपादपं सुखी भविष्यामि तवास्तु निर्वृतिः॥५९॥
‘मैं विचित्र वृक्षों से युक्त वन में प्रवेश करके फलमूल का भोजन करता हुआ वहाँ के पर्वतों, नदियों और सरोवरों को देख-देखकर सुखी होऊँगा; इसलिये आप अपने मन को शान्त कीजिये’ ॥ ५९॥
एवं स राजा व्यसनाभिपन्नस्तापेन दुःखेन च पीड्यमानः।
आलिङ्ग्य पुत्रं सुविनष्टसंज्ञो भूमिं गतो नैव चिचेष्ट किंचित्॥६०॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर पुत्र-बिछोह के संकट में पड़े हुए राजा दशरथ ने दुःख और संताप से पीड़ित हो उन्हें छाती से लगाया और फिर अचेत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय उनका शरीर जड की भाँति कुछ भी चेष्टा न कर सका। ६०॥
देव्यः समस्ता रुरुदुः समेतास्तां वर्जयित्वा नरदेवपत्नीम्।
रुदन् सुमन्त्रोऽपि जगाम मूच्र्छा हाहाकृतं तत्र बभूव सर्वम्॥६१॥
यह देख राजरानी कैकेयी को छोड़कर वहाँ एकत्र हुई अन्य सभी रानियाँ रो पड़ीं। सुमन्त्र भी रोते-रोते मूर्च्छित हो गये तथा वहाँ सब ओर हाहाकार मच गया॥ ६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुस्त्रिंशः सर्गः ॥३४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौंतीसवाँ सर्ग पूराहुआ॥३४॥
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इसमें श्लोक संख्या 23 को समझाए क्या राजा दशरथ की साढ़े तीन सौ रनिया थी और नहीं तो कितनी थी मैं जहा तक जानती हूं पृथ्वीपति महाराज राजा दशरथ की 3 रानियां थी कौशल्या ,सुमित्रा और कैकयी।
कहीं भी दशरथ की पत्नियां नहीं लिखा है। केवल साढ़े तीन सौ पतिव्रता युवती स्त्रियाँ लिखा है।