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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 37 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 37

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः (सर्ग 37)

श्रीराम आदि का वल्कल-वस्त्र-धारण, गुरु वसिष्ठ का कैकेयी को फटकारते हुए सीता के वल्कलधारण का अनौचित्य बताना

 

महामात्रवचः श्रुत्वा रामो दशरथं तदा।
अभ्यभाषत वाक्यं तु विनयज्ञो विनीतवत्॥१॥

प्रधान मन्त्री की पूर्वोक्त बात सुनकर विनय के ज्ञाता श्रीराम ने उस समय राजा दशरथ से विनीत होकर कहा- ॥१॥

त्यक्तभोगस्य मे राजन् वने वन्येन जीवतः।
किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः॥२॥

‘राजन्! मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूँ। मुझे जंगल के फल-मूलों से जीवन-निर्वाह करना है। जब मैं सब ओर से आसक्ति छोड़ चुका हूँ, तब मुझे सेना से क्या प्रयोजन है? ॥२॥

यो हि दत्त्वा द्विपश्रेष्ठं कक्ष्यायां कुरुते मनः।
रज्जुस्नेहेन किं तस्य त्यजतः कुञ्जरोत्तमम्॥३॥

‘जो श्रेष्ठ गजराज का दान करके उसके रस्से में मन लगाता है—लोभवश रस्से को रख लेना चाहता है, वह अच्छा नहीं करता; क्योंकि उत्तम हाथी का त्याग करने वाले पुरुष को उसके रस्से में आसक्ति रखने की क्या आवश्यकता है?॥३॥

तथा मम सतां श्रेष्ठ किं ध्वजिन्या जगत्पते।
सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे॥४॥

‘सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज! इसी तरह मुझे सेना लेकर क्या करना है? मैं ये सारी वस्तुएँ भरत को अर्पित करने की अनुमति देता हूँ। मेरे लिये तो (माता कैकेयी की दासियाँ) चीर (चिथड़े या वल्कलवस्त्र) ला दें॥४॥

खनित्रपिटके चोभे समानयत गच्छत।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम॥५॥

‘दासियो! जाओ, खन्ती और पेटारी अथवा कुदारी और खाँची ये दोनों वस्तुएँ लाओ। चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिये ये चीजें उपयोगी हो सकती हैं।

अथ चीराणि कैकेयी स्वयमाहृत्य राघवम्।
उवाच परिधत्स्वेति जनौघे निरपत्रपा॥६॥

कैकेयी लाज-संकोच छोड़ चुकी थी। वह स्वयं ही जाकर बहुत-सी चीर ले आयी और जनसमुदाय में श्रीरामचन्द्रजी से बोली, ‘लो, पहन लो’ ॥ ६॥

स चीरे पुरुषव्याघ्रः कैकेय्याः प्रतिगृह्य ते।
सूक्ष्मवस्त्रमवक्षिप्य मुनिवस्त्राण्यवस्त ह॥७॥

पुरुषसिंह श्रीराम ने कैकेयी के हाथ से दो चीर ले लिये और अपने महीन वस्त्र उतारकर मुनियों के-से वस्त्र धारण कर लिये॥७॥

लक्ष्मणश्चापि तत्रैव विहाय वसने शुभे।
तापसाच्छादने चैव जग्राह पितुरग्रतः॥८॥

इसी प्रकार लक्ष्मण ने भी अपने पिता के सामने ही दोनों सुन्दर वस्त्र उतारकर तपस्वियों के-से वल्कलवस्त्र पहन लिये॥ ८॥

अथात्मपरिधानार्थं सीता कौशेयवासिनी।
सम्प्रेक्ष्य चीरं संत्रस्ता पृषती वागुरामिव॥९॥
सा व्यपत्रपमाणेव प्रगृह्य च सुदुर्मनाः।
कैकेय्याः कुशचीरे ते जानकी शुभलक्षणा॥ १०॥
अश्रुसम्पूर्णनेत्रा च धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी।
गन्धर्वराजप्रतिमं भर्तारमिदमब्रवीत्॥११॥
कथं नु चीरं बघ्नन्ति मुनयो वनवासिनः।
इति ह्यकुशला सीता सा मुमोह मुहुर्मुहुः॥१२॥

तदनन्तर रेशमी-वस्त्र पहनने और धर्म पर ही दृष्टि रखने वाली धर्मज्ञा शुभलक्षणा जनकनन्दिनी सीता अपने पहनने के लिये भी चीरवस्त्र को प्रस्तुत देख उसी प्रकार डर गयीं, जैसे मृगी बिछे हुए जाल को देखकर भयभीत हो जाती है। वे कैकेयी के हाथ से दो वल्कल-वस्त्र लेकर लज्जित-सी हो गयीं। उनके मन में बड़ा दुःख हुआ और नेत्रों में आँसू भर आये। उस समय उन्होंने गन्धर्वराज के समान तेजस्वी पति से इस प्रकार पूछा—’नाथ! वनवासी मुनि लोग चीर कैसे बाँधते हैं?’ यह कहकर उसे धारण करने में कुशल न होने के कारण सीता बारम्बार मोह में पड़ जाती थीं—भूल कर बैठती थीं।

कृत्वा कण्ठे स्म सा चीरमेकमादाय पाणिना।
तस्थौ ह्यकुशला तत्र व्रीडिता जनकात्मजा॥ १३॥

चीर-धारण में कुशल न होने से जनकनन्दिनी सीता लज्जित हो एक वल्कल गले में डाल दूसरा हाथ में लेकर चुपचाप खड़ी रहीं॥ १३॥

तस्यास्तत् क्षिप्रमागत्य रामो धर्मभृतां वरः।
चीरं बबन्ध सीतायाः कौशेयस्योपरि स्वयम्॥ १४॥

तब धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम जल्दी से उनके पास आकर स्वयं अपने हाथों से उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर वल्कल-वस्त्र बाँधने लगे॥१४॥

रामं प्रेक्ष्य तु सीताया बध्नन्तं चीरमुत्तमम्।
अन्तःपुरचरा नार्यो मुमुचुर्वारि नेत्रजम्॥१५॥

सीता को उत्तम चीरवस्त्र पहनाते हुए श्रीराम की ओर देखकर रनवास की स्त्रियाँ अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगीं॥ १५ ॥

ऊचुश्च परमायत्ता रामं ज्वलिततेजसम्।
वत्स नैवं नियुक्तेयं वनवासे मनस्विनी॥१६॥

वे सब अत्यन्त खिन्न होकर उदीप्त तेजवाले श्रीराम से बोलीं-‘बेटा! मनस्विनी सीता को इस प्रकार वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी है।१६ ॥

पितुर्वाक्यानुरोधेन गतस्य विजनं वनम्।
तावद् दर्शनमस्या नः सफलं भवतु प्रभो॥१७॥

‘प्रभो! तुम पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये जबतक निर्जन वन में जाकर रहोगे, तबतक इसी को देखकर हमारा जीवन सफल होने दो॥ १७॥

लक्ष्मणेन सहायेन वनं गच्छस्व पुत्रक।
नेयमर्हति कल्याणि वस्तुं तापसवद् वने॥१८॥

‘बेटा! तुम लक्ष्मण को अपना साथी बनाकर उनके साथ वन को जाओ, परंतु यह कल्याणी सीता तपस्वी मुनि की भाँति वन में निवास करने के योग्य नहीं है। १८॥

कुरु नो याचनां पुत्र सीता तिष्ठतु भामिनी।
धर्मनित्यः स्वयं स्थातुं न हीदानीं त्वमिच्छसि॥ १९॥

‘पुत्र! तुम हमारी यह याचना सफल करो। भामिनी सीता यहीं रहे। तुम तो नित्य धर्मपरायण हो अतः स्वयं इस समय यहाँ नहीं रहना चाहते हो (परंतु सीता को तो रहने दो)’ ॥ १९॥

तासामेवंविधा वाचः शृण्वन् दशरथात्मजः।
बबन्धैव तथा चीरं सीतया तुल्यशीलया॥२०॥
चीरे गृहीते तु तया सबाष्पो नृपतेर्गुरुः।
निवार्य सीतां कैकेयीं वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥ २१॥

माताओं की ऐसी बातें सुनते हुए भी दशरथ-नन्दन श्रीराम ने सीता को वल्कल-वस्त्र पहना ही दिया। पति के समान शील स्वभाव वाली सीता के वल्कल धारण कर लेने पर राजा के गुरु वसिष्ठजी के नेत्रों में आँसू भर आया। उन्होंने सीता को रोककर कैकेयी से कहा- ॥२०-२१॥

अतिप्रवृत्ते दुर्मेधे कैकेयि कुलपांसनि।
वञ्चयित्वा तु राजानं न प्रमाणेऽवतिष्ठसि ॥२२॥

‘मर्यादा का उल्लङ्घन करके अधर्म की ओर पैर बढ़ाने वाली दुर्बुद्धि कैकेयी! तू केकयराज के कुल की जीती-जागती कलङ्क है। अरी! राजा को धोखा देकर अब तू सीमा के भीतर नहीं रहना चाहती है ? ॥ २२ ॥

न गन्तव्यं वनं देव्या सीतया शीलवर्जिते।
अनुष्ठास्यति रामस्य सीता प्रकृतमासनम्॥२३॥

‘शील का परित्याग करने वाली दुष्टे! देवी सीता वन में नहीं जायँगी। राम के लिये प्रस्तुत हुए राजसिंहासन पर ये ही बैठेंगी॥ २३॥

आत्मा हि दाराः सर्वेषां दारसंग्रहवर्तिनाम्।
आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति मेदिनीम्॥ २४॥

‘सम्पूर्ण गृहस्थों की पत्नियाँ उनका आधा अङ्ग हैं। इस तरह सीता देवी भी श्रीराम की आत्मा हैं; अतः उनकी जगह ये ही इस राज्य का पालन करेंगी॥ २४॥

अथ यास्यति वैदेही वनं रामेण संगता।
वयमत्रानुयास्यामः पुरं चेदं गमिष्यति॥ २५॥
अन्तपालाश्च यास्यन्ति सदारो यत्र राघवः।
सहोपजीव्यं राष्ट्रं च पुरं च सपरिच्छदम्॥२६॥

‘यदि विदेहनन्दिनी सीता श्रीराम के साथ वन में जायँगी तो हमलोग भी इनके साथ चले जायँगे। यह सारा नगर भी चला जायगा और अन्तःपुर के रक्षकभी चले जायँगे। अपनी पत्नी के साथ श्रीरामचन्द्रजी जहाँ निवास करेंगे, वहीं इस राज्य और नगर के लोग भी धन-दौलत और आवश्यक सामान लेकर चले जायँगे॥

भरतश्च सशत्रुघ्नश्चीरवासा वनेचरः।
वने वसन्तं काकुत्स्थमनुवत्स्यति पूर्वजम्॥२७॥

‘भरत और शत्रुघ्न भी चीरवस्त्र धारण करके वन में रहेंगे और वहाँ निवास करने वाले अपने बड़े भाई श्रीराम की सेवा करेंगे॥२७॥

ततः शून्यां गतजनां वसुधां पादपैः सह।
त्वमेका शाधि दुर्वृत्ता प्रजानामहिते स्थिता॥ २८॥

‘फिर तू वृक्षों के साथ अकेली रहकर इस निर्जन एवं सूनी पृथ्वी का राज्य करना। तू बड़ी दुराचारिणी है और प्रजा का अहित करने में लगी हुई है॥ २८॥

न हि तद् भविता राष्ट्रं यत्र रामो न भूपतिः।
तद् वनं भविता राष्ट्रं यत्र रामो निवत्स्यति॥ २९॥

‘याद रख, श्रीराम जहाँ के राजा न होंगे, वह राज्य राज्य नहीं रह जायगा–जंगल हो जायगा तथा श्रीराम जहाँ निवास करेंगे, वह वन एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन जायगा॥ २९॥

न ह्यदत्तां महीं पित्रा भरतः शास्तुमिच्छति।
त्वयि वा पत्रवद वस्तं यदि जातो महीपतेः॥ ३०॥

‘यदि भरत राजा दशरथ से पैदा हुए हैं तो पिता के प्रसन्नतापूर्वक दिये बिना इस राज्य को कदापि लेना नहीं चाहेंगे तथा तेरे साथ पुत्रवत् बर्ताव करने के लिये भी यहाँ बैठे रहने की इच्छा नहीं करेंगे॥ ३० ॥

यद्यपि त्वं क्षितितलाद् गगनं चोत्पतिष्यसि।
पितृवंशचरित्रज्ञः सोऽन्यथा न करिष्यति॥३१॥

‘तू पृथ्वी छोड़कर आसमान में उड़ जाय तो भी अपने पितृकुल के आचार-व्यवहार को जानने वाले भरत उसके विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे॥ ३१॥

तत् त्वया पुत्रगर्धिन्या पुत्रस्य कृतमप्रियम्।
लोके नहि स विद्येत यो न राममनुव्रतः॥ ३२॥

‘तूने पुत्र का प्रिय करने की इच्छा से वास्तव में उसका अप्रिय ही किया है; क्योंकि संसार में कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो श्रीराम का भक्त न हो॥३२॥

द्रक्ष्यस्यद्यैव कैकेयि पशुव्यालमृगद्विजान्।
गच्छतः सह रामेण पादपांश्च तदुन्मुखान्॥ ३३॥

‘कैकेयि! तू आज ही देखेगी कि वन को जाते हुए श्रीराम के साथ पशु, सर्प, मृग और पक्षी भी चले जा रहे हैं औरों की तो बात ही क्या, वृक्ष भी उनके साथ जाने को उत्सुक हैं॥ ३३॥

अथोत्तमान्याभरणानि देवि देहि स्नुषायै व्यपनीय चीरम्।
न चीरमस्याः प्रविधीयतेति न्यवारयत् तद् वसनं वसिष्ठः॥ ३४॥

‘देवि! सीता तेरी पुत्रवधू हैं। इनके शरीर से वल्कल-वस्त्र हटाकर तू इन्हें पहनने के लिये उत्तमोत्तम वस्त्र और आभूषण दे। इनके लिये वल्कल-वस्त्र देना कदापि उचित नहीं है।’ ऐसा कहकर वसिष्ठ ने उसे जानकी को वल्कल-वस्त्र पहनाने से मना किया॥३४॥

एकस्य रामस्य वने निवासस्त्वया वृतः केकयराजपुत्रि।
विभूषितेयं प्रतिकर्मनित्या वसत्वरण्ये सह राघवेण॥३५॥

वे फिर बोले—’केकयराजकुमारी! तूने अकेले श्रीराम के लिये ही वनवास का वर माँगा है (सीता के लिये नहीं); अतः ये राजकुमारी वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर सदा शृङ्गार धारण करके वन में श्रीरामचन्द्रजी के साथ निवास करें। ३५ ॥

यानैश्च मुख्यैः परिचारकैश्च सुसंवृता गच्छतु राजपुत्री।
वस्त्रैश्च सर्वैः सहितैर्विधान र्नेयं वृता ते वरसम्प्रदाने॥ ३६॥

‘राजकुमारी सीता मुख्य-मुख्य सेवकों तथा सवारियों के साथ सब प्रकार के वस्त्रों और आवश्यक उपकरणों से सम्पन्न होकर वन की यात्रा करें। तूने वर माँगते समय पहले सीता के वनवास की कोई चर्चा नहीं की थी (अतः इन्हें वल्कल-वस्त्र नहीं पहनाया जा सकता)’॥

तस्मिंस्तथा जल्पति विप्रमुख्ये गुरौ नृपस्याप्रतिमप्रभावे।
नैव स्म सीता विनिवृत्तभावा प्रियस्य भर्तुः प्रतिकारकामा॥३७॥

ब्राह्मणशिरोमणि अप्रतिम प्रभावशाली राजगुरु महर्षि वसिष्ठ के ऐसा कहने पर भी सीता अपने प्रियतम पति के समान ही वेशभूषा धारण करने की इच्छा रखकर उस चीर-धारण से विरत नहीं हुईं॥ ३७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः॥ ३७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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