वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 38 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 38
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टात्रिंशः सर्गः (सर्ग 38)
राजा दशरथ का सीता को वल्कल धारण कराना अनुचित बताकर कैकेयी को फटकारना और श्रीराम का उनसे कौसल्या पर कृपादृष्टि रखने के लिये अनुरोध करना
तस्यां चीरं वसानायां नाथवत्यामनाथवत्।
प्रचुक्रोश जनः सर्वो धिक् त्वां दशरथं त्विति॥
सीताजी सनाथ होकर भी जब अनाथ की भाँति चीर-वस्त्र धारण करने लगी, तब सब लोग चिल्लाचिल्लाकर कहने लगे—’राजा दशरथ! तुम्हें धिक्कार है!’ ॥१॥
तेन तत्र प्रणादेन दुःखितः स महीपतिः।
चिच्छेद जीविते श्रद्धां धर्मे यशसि चात्मनः॥
स निःश्वस्योष्णमैक्ष्वाकस्तां भार्यामिदमब्रवीत्।
कैकेयि कुशचीरेण न सीता गन्तुमर्हति॥३॥
वहाँ होने वाले उस कोलाहल से दुःखी हो इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ ने अपने जीवन, धर्म और यश की उत्कट इच्छा त्याग दी। फिर वे गरम साँस खींचकर अपनी भार्या कैकेयी से इस प्रकार बोले—’कैकेयि! सीता कुश-चीर (वल्कल-वस्त्र) पहनकर वन में जाने के योग्य नहीं है॥ २-३॥
सुकुमारी च बाला च सततं च सुखोचिता।
नेयं वनस्य योग्येति सत्यमाह गुरुर्मम॥४॥
‘यह सुकुमारी है, बालिका है और सदा सुखों में ही पली है। मेरे गुरुजी ठीक कहते हैं कि यह सीता वन में जाने योग्य नहीं है॥४॥
इयं हि कस्यापि करोति किंचित् तपस्विनी राजवरस्य पुत्री।
या चीरमासाद्य जनस्य मध्ये स्थिता विसंज्ञा श्रमणीव काचित् ॥५॥
‘राजाओं में श्रेष्ठ जनक की यह तपस्विनी पुत्री क्या किसी का भी कुछ बिगाड़ती है? जो इस प्रकार जनसमुदाय के बीच किसी किंकर्तव्यविमूढ़ भिक्षुकी के समान चीर धारण करके खड़ी है ? ॥ ५ ॥
चीराण्यपास्याज्जनकस्य कन्या नेयं प्रतिज्ञा मम दत्तपूर्वा ।
यथासुखं गच्छतु राजपुत्री वनं समग्रा सह सर्वरत्नैः॥६॥
‘जनकनन्दिनी अपने चीर-वस्त्र उतार डाले। यह इस रूप में वन जाय’ ऐसी कोई प्रतिज्ञा मैंने पहले नहीं की है और न किसी को इस तरह का वचन ही दिया है। अतः राजकुमारी सीता सम्पूर्ण वस्त्रालंकारों से सम्पन्न हो सब प्रकार के रत्नों के साथ जिस तरह भी वह सुखी रह सके, उसी तरह वन को जा सकती है॥६॥
अजीवनाण मया नृशंसा कृता प्रतिज्ञा नियमेन तावत्।
त्वया हि बाल्यात् प्रतिपन्नमेतत् तन्मा दहेद् वेणुमिवात्मपुष्पम्॥७॥
‘मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ। मैंने तेरे वचनों में बँधकर एक तो यों ही नियम (शपथ) पूर्वक बड़ी क्रूर प्रतिज्ञा कर डाली है, दूसरे तूने अपनी नादानी के कारण सीता को इस तरह चीर पहनाना प्रारम्भ कर दिया। जिस प्रकार बाँस का फूल उसी को सुखा डालता है, उसी प्रकार मेरी की हुई प्रतिज्ञा मुझी को भस्म किये डालती है॥ ७॥
रामेण यदि ते पापे किंचित्कृतमशोभनम्।
अपकारः क इह ते वैदेह्या दर्शितोऽधमे॥८॥
‘नीच पापिनि! यदि श्रीराम ने तेरा कोई अपराध किया है तो (उन्हें तो तू वनवास दे ही चुकी) विदेहनन्दिनी सीता ने ऐसा दण्ड पाने योग्य तेरा कौन सा अपकार कर डाला है ? ॥ ८॥
मृगीवोत्फुल्लनयना मृदुशीला मनस्विनी।
अपकारं कमिव ते करोति जनकात्मजा॥९॥
‘जिसके नेत्र हरिणी के नेत्रों के समान खिले हुए हैं, जिसका स्वभाव अत्यन्त कोमल एवं मधुर है, वह मनस्विनी जनकनन्दिनी तेरा कौन-सा अपराध कर रही है? ॥९॥
ननु पर्याप्तमेवं ते पापे रामविवासनम्।
किमेभिः कृपणैर्भूयः पातकैरपि ते कृतैः॥१०॥
‘पापिनि! तूने श्रीराम को वनवास देकर ही पूरा पाप कमा लिया है। अब सीता को भी वन में भेजने और वल्कल पहनाने आदि का अत्यन्त दुःखद कार्य करके फिर तू इतने पातक किसलिये बटोर रही है ? ॥ १० ॥
प्रतिज्ञातं मया तावत् त्वयोक्तं देवि शृण्वता।
रामं यदभिषेकाय त्वमिहागतमब्रवीः॥११॥
‘देवि! श्रीराम जब अभिषेक के लिये यहाँ आये थे, उस समय तूने उनसे जो कुछ कहा था, उसे सुनकर मैंने उतने के लिये ही प्रतिज्ञा की थी॥११॥
तत्त्वेतत् समतिक्रम्य निरयं गन्तुमिच्छसि।
मैथिलीमपि या हि त्वमीक्षसे चीरवासिनीम्॥ १२॥
‘उसका उल्लङ्घन करके जो तू मिथिलेशकुमारी जानकी को भी वल्कल-वस्त्र पहने देखना चाहती है, इससे जान पड़ता है, तुझे नरक में ही जाने की इच्छा हो रही है ॥ १२॥
एवं ब्रुवन्तं पितरं रामः सम्प्रस्थितो वनम्।
अवाक्शिरसमासीनमिदं वचनमब्रवीत्॥१३॥
राजा दशरथ सिर नीचा किये बैठे हुए जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय वन की ओर जाते हुए श्रीराम ने पिता से इस प्रकार कहा- ॥ १३॥
इयं धार्मिक कौसल्या मम माता यशस्विनी।
वृद्धा चाक्षुद्रशीला च न च त्वां देव गर्हते॥ १४॥
मया विहीनां वरद प्रपन्नां शोकसागरम्।
अदृष्टपूर्वव्यसनां भूयः सम्मन्तुमर्हसि ॥१५॥
‘धर्मात्मन्! ये मेरी यशस्विनी माता कौसल्या अब वृद्ध हो चली हैं। इनका स्वभाव बहुत ही उच्च और उदार है। देव! यह कभी आपकी निन्दा नहीं करती हैं। इन्होंने पहले कभी ऐसा भारी संकट नहीं देखा होगा। वरदायक नरेश! ये मेरे न रहने से शोक के समुद्र में डूब जायँगी। अतः आप सदा इनका अधिक सम्मान करते रहें। १४-१५ ॥
पुत्रशोकं यथा नछेत् त्वया पूज्येन पूजिता।
मां हि संचिन्तयन्ती सा त्वयि जीवेत् तपस्विनी॥ १६॥
‘आप पूज्यतम पतिसे सम्मानित हो जिस प्रकार यह पुत्रशोकका अनुभव न कर सकें और मेरा चिन्तन करती हुई भी आपके आश्रयमें ही ये मेरी तपस्विनी माता जीवन धारण करें, ऐसा प्रयत्न आपको करना चाहिये॥१६॥
इमां महेन्द्रोपम जातगर्धिनी तथा विधातुं जननीं ममार्हसि।
यथा वनस्थे मयि शोककर्शिता न जीवितं न्यस्य यमक्षयं व्रजेत्॥१७॥
‘इन्द्र के समान तेजस्वी महाराज! ये निरन्तर अपने बिछुड़े हुए बेटे को देखने के लिये उत्सुक रहेंगी। कहीं ऐसा न हो मेरे वन में रहते समय ये शोक से कातर हो अपने प्राणों को त्याग करके यमलोक को चली जायँ। अतः आप मेरी माता को सदा ऐसी ही परिस्थिति में रखें, जिससे उक्त आशङ्का के लिये अवकाश न रह जाय’ ॥ १७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टात्रिंशः सर्गः॥ ३८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३८॥
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