RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 4

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (सर्ग 4)

श्रीराम का माता को समाचार बताना और माता से आशीर्वाद पाकर लक्ष्मण से प्रेमपूर्वक वार्तालाप करना

 

गतेष्वथ नृपो भूयः पौरेषु सह मन्त्रिभिः।
मन्त्रयित्वा ततश्चक्रे निश्चयज्ञः स निश्चयम्॥ १॥
श्व एव पुष्यो भविता श्वोऽभिषेच्यस्तु मे सुतः।
रामो राजीवपत्राक्षो युवराज इति प्रभुः॥२॥

राजसभा से पुरवासियों के चले जानेपर कार्य सिद्धि के योग्य देश-काल के नियम को जानने वाले प्रभावशाली नरेश ने पुनः मन्त्रियों के साथ सलाह करके यह निश्चय किया कि ‘कल ही पुष्य नक्षत्र होगा, अतःकल ही मुझे अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम का युवराज के पदपर अभिषेक कर देना चाहिये’ ॥ १-२॥

अथान्तर्गृहमाविश्य राजा दशरथस्तदा।
सूतमामन्त्रयामास रामं पुनरिहानय॥३॥

तदनन्तर अन्तःपुर में जाकर महाराज दशरथ ने सूत को बुलाया और आज्ञा दी—’जाओ, श्रीराम को एक बार फिर यहाँ बुला लाओ’ ॥३॥

प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं सूतः पुनरुपाययौ।
रामस्य भवनं शीघ्रं राममानयितुं पुनः॥४॥

उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके सुमन्त्र श्रीराम को शीघ्र बुला लाने के लिये पुनः उनके महल में गये॥ ४॥

द्वाःस्थैरावेदितं तस्य रामायागमनं पुनः।
श्रुत्वैव चापि रामस्तं प्राप्तं शङ्कान्वितोऽभवत्॥

द्वारपालों ने श्रीराम को सुमन्त्र के पुनः आगमन की सूचना दी। उनका आगमन सुनते ही श्रीराम के मन में संदेह हो गया॥५॥

प्रवेश्य चैनं त्वरितो रामो वचनमब्रवीत्।
यदागमनकृत्यं ते भूयस्तद्ब्रूह्यशेषतः॥६॥

उन्हें भीतर बुलाकर श्रीराम ने उनसे बड़ी उतावली के साथ पूछा-‘आपको पुनः यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी?’ यह पूर्णरूप से बताइये॥ ६॥

तमुवाच ततः सूतो राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।
श्रुत्वा प्रमाणं तत्र त्वं गमनायेतराय वा॥७॥

तब सूत ने उनसे कहा—’महाराज आपसे मिलना चाहते हैं। मेरी इस बात को सुनकर वहाँ जाने या न जाने का निर्णय आप स्वयं करें’॥७॥

इति सूतवचः श्रुत्वा रामोऽपि त्वरयान्वितः।
प्रययौ राजभवनं पुनर्द्रष्टुं नरेश्वरम्॥८॥

सूत का यह वचन सुनकर श्रीरामचन्द्र जी महाराज दशरथ का पुनः दर्शन करने के लिये तुरंत उनके महल की ओर चल दिये॥८॥

तं श्रुत्वा समनुप्राप्तं रामं दशरथो नृपः।
प्रवेशयामास गृहं विवक्षुः प्रियमुत्तमम्॥९॥

श्रीराम को आया हुआ सुनकर राजा दशरथ ने उनसे प्रिय तथा उत्तम बात कहने के लिये उन्हें महल के भीतर बुला लिया॥९॥

प्रविशन्नेव च श्रीमान् राघवो भवनं पितुः।
ददर्श पितरं दूरात् प्रणिपत्य कृताञ्जलिः॥१०॥

पिता के भवन में प्रवेश करते ही श्रीमान् रघुनाथजी ने उन्हें देखा और दूर से ही हाथ जोड़कर वे उनके चरणों में पड़ गये॥ १०॥

प्रणमन्तं तमुत्थाप्य सम्परिष्वज्य भूमिपः।
प्रदिश्य चासनं चास्मै रामं च पुनरब्रवीत्॥११॥

प्रणाम करते हुए श्रीराम को उठाकर महाराज ने छाती से लगा लिया और उन्हें बैठने के लिये आसन देकर पुनः उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया – ॥११॥

राम वृद्धोऽस्मि दीर्घायुर्भुक्ता भोगा यथेप्सिताः।
अन्नवद्भिः क्रतुशतैर्यथेष्टं भूरिदक्षिणैः॥१२॥

‘श्रीराम! अब मैं बूढ़ा हुआ। मेरी आयु बहुत अधिक हो गयी। मैंने बहुत-से मनोवाञ्छित भोग भोग लिये, अन्न और बहुत-सी दक्षिणाओं से युक्त सैकड़ों यज्ञ भी कर लिये॥ १२॥

जातमिष्टमपत्यं मे त्वमद्यानुपमं भुवि।
दत्तमिष्टमधीतं च मया पुरुषसत्तम॥१३॥

‘पुरुषोत्तम! तुम मेरे परम प्रिय अभीष्ट संतान के रूप में प्राप्त हुए जिसकी इस भूमण्डल में कहीं उपमा नहीं है, मैंने दान, यज्ञ और स्वाध्याय भी कर लिये॥ १३॥

अनुभूतानि चेष्टानि मया वीर सुखान्यपि।
देवर्षिपितृविप्राणामनृणोऽस्मि तथाऽऽत्मनः॥ १४॥

‘वीर! मैंने अभीष्ट सुखों का भी अनुभव कर लिया। मैं देवता, ऋषि, पितर और ब्राह्मणों के तथा अपने ऋण से भी उऋण हो गया।॥ १४॥

न किंचिन्मम कर्तव्यं तवान्यत्राभिषेचनात्।
अतो यत्त्वामहं ब्रूयां तन्मे त्वं कर्तुमर्हसि ॥१५॥

‘अब तुम्हें युवराज-पदपर अभिषिक्त करने के सिवा और कोई कर्तव्य मेरे लिये शेष नहीं रह गया है, अतः मैं तुमसे जो कुछ कहूँ, मेरी उस आज्ञा का तुम्हें पालन करना चाहिये॥ १५॥

अद्य प्रकृतयः सर्वास्त्वामिच्छन्ति नराधिपम्।
अतस्त्वां युवराजानमभिषेक्ष्यामि पुत्रक॥१६॥

‘बेटा! अब सारी प्रजा तुम्हें अपना राजा बनाना चाहती है, अतः मैं तुम्हें युवराज पद पर अभिषिक्त करूँगा॥१६॥

अपि चाद्याशुभान् राम स्वप्नान् पश्यामि राघव।
सनिर्घाता दिवोल्काश्च पतन्ति हि महास्वनाः॥ १७॥

‘रघुकुलनन्दन श्रीराम! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दिखायी देते हैं। दिन में वज्रपात के साथ-साथ बड़ा भयंकर शब्द करने वाली उल्काएँ भी गिर रही हैं।॥ १७॥

अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणग्रहैः।
आवेदयन्ति दैवज्ञाः सूर्याङ्गारकराहुभिः॥१८॥

‘श्रीराम! ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्मनक्षत्र को सूर्य, मङ्गल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है॥ १८॥

प्रायेण च निमित्तानामीदृशानां समुद्भवे।
राजा हि मृत्युमाप्नोति घोरां चापदमृच्छति॥ १९॥

‘ऐसे अशुभ लक्षणों का प्राकट्य होने पर प्रायः राजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा उसकी मृत्यु भी हो जाती है॥ १९॥

तद् यावदेव मे चेतो न विमुह्यति राघव।
तावदेवाभिषिञ्चस्व चला हि प्राणिनां मतिः॥ २०॥

‘अतः रघुनन्दन! जब तक मेरे चित्त में मोह नहीं छा जाता, तबत क ही तुम युवराज-पदपर अपना अभिषेक करा लो; क्योंकि प्राणियों की बुद्धि चञ्चल होती है।

अद्य चन्द्रोऽभ्युपगमत् पुष्यात् पूर्वं पुनर्वसुम्।
श्वः पुष्ययोगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः॥ २१॥

‘आज चन्द्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसु पर विराजमान हैं, अतः निश्चय ही कल वे पुष्य नक्षत्रपर रहेंगे—ऐसा ज्योतिषी कहते हैं ॥ २१॥

तत्र पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम्।
श्वस्त्वाहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परंतप॥२२॥

इसलिये उस पुष्यनक्षत्र में ही तुम अपना अभिषेक करा लो। शत्रुओं को संताप देनेवाले वीर! मेरा मन इस कार्य में बहत शीघ्रता करने को कहता है। इस कारण कल अवश्य ही मैं तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक कर दूंगा॥ २२॥

तस्मात् त्वयाद्यप्रभृति निशेयं नियतात्मना।
सह वध्वोपवस्तव्या दर्भप्रस्तरशायिना॥२३॥

‘अतः तुम इस समय से लेकर सारी रात इन्द्रिय संयम पूर्वक रहते हुए वधू सीता के साथ उपवास करो और कुश की शय्या पर सोओ॥ २३॥

सुहृदश्चाप्रमत्तास्त्वां रक्षन्त्वद्य समन्ततः।
भवन्ति बहुविघ्नानि कार्याण्येवंविधानि हि॥ २४॥

‘आज तुम्हारे सुहृद् सावधान रहकर सब ओरसे तुम्हारी रक्षा करें; क्योंकि इस प्रकारके शुभ कार्योंमें बहुत-से विघ्न आनेकी सम्भावना रहती है।॥ २४ ॥

विप्रोषितश्च भरतो यावदेव पुरादितः।
तावदेवाभिषेकस्ते प्राप्तकालो मतो मम॥२५॥

‘जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहाँ निवास करते हैं, तब तक ही तुम्हारा अभिषेक हो जाना मुझे उचित प्रतीत होता है।॥ २५॥

कामं खलु सतां वृत्ते भ्राता ते भरतः स्थितः।
ज्येष्ठानुवर्ती धर्मात्मा सानक्रोशो जितेन्द्रियः॥ २६॥
किं नु चित्तं मनुष्याणामनित्यमिति मे मतम्।
सतां च धर्मनित्यानां कृतशोभि च राघव॥ २७॥

‘इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारे भाई भरत सत्पुरुषों के आचार-व्यवहार में स्थित हैं, अपने बड़े भाई का अनुसरण करने वाले, धर्मात्मा, दयालु और जितेन्द्रिय हैं तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता ऐसा मेरा मत है। रघुनन्दन! धर्मपरायण सत्पुरुषों का मन भी विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादि से संयुक्त हो जाता है’ ॥ २६-२७॥

इत्युक्तः सोऽभ्यनुज्ञातः श्वोभाविन्यभिषेचने।
व्रजेति रामः पितरमभिवाद्याभ्ययाद् गृहम्॥ २८॥

राजा के इस प्रकार कहने और कल होने वाले राज्याभिषेक के निमित्त व्रतपालन के लिये जाने की आज्ञा देनेपर श्रीरामचन्द्रजी पिता को प्रणाम करके अपने महल में गये॥ २८॥

प्रविश्य चात्मनो वेश्म राज्ञाऽऽदिष्टेऽभिषेचने।
तत्क्षणादेव निष्क्रम्य मातुरन्तःपुरं ययौ॥२९॥

राजा ने राज्याभिषेक के लिये व्रतपालन के निमित्त जो आज्ञा दी थी, उसे सीता को बताने के लिये अपने महल के भीतर प्रवेश करके जब श्रीराम ने वहाँ सीता को नहीं देखा, तब वे तत्काल ही वहाँ से निकलकर माता के अन्तःपुर में चले गये॥ २९॥

तत्र तां प्रवणामेव मातरं क्षौमवासिनीम्।
वाग्यतां देवतागारे ददर्शायाचतीं श्रियम्॥३०॥

वहाँ जाकर उन्होंने देखा माता कौसल्या रेशमी वस्त्र पहने मौन हो देवमन्दिर में बैठकर देवता की आराधना में लगी हैं और पुत्र के लिये राजलक्ष्मी की याचना कर रही हैं॥३०॥

प्रागेव चागता तत्र सुमित्रा लक्ष्मणस्तथा।
सीता चानयिता श्रुत्वा प्रियं रामाभिषेचनम्॥

श्रीराम के राज्याभिषेक का प्रिय समाचार सुनकर सुमित्रा और लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गये थे तथा बाद में सीता वहीं बुला ली गयी थीं॥ ३१ ॥

तस्मिन् कालेऽपि कौसल्या तस्थावामीलितेक्षणा।
सुमित्रयान्वास्यमाना सीतया लक्ष्मणेन च॥३२॥

श्रीरामचन्द्रजी जब वहाँ पहुँचे, उस समय भी कौसल्या नेत्र बंद किये ध्यान लगाये बैठी थीं और सुमित्रा, सीता तथा लक्ष्मण उनकी सेवा में खड़े थे। ३२॥

श्रुत्वा पुष्ये च पुत्रस्य यौवराज्येऽभिषेचनम्।
प्राणायामेन पुरुषं ध्यायमाना जनार्दनम्॥३३॥

पुष्यनक्षत्र के योग में पुत्र के युवराज पद पर अभिषिक्त होने की बात सुनकर वे उसकी मङ्गल कामना से प्राणायाम के द्वारा परमपुरुष नारायण का ध्यान कर रही थीं॥ ३३॥

तथा सनियमामेव सोऽभिगम्याभिवाद्य च।
उवाच वचनं रामो हर्षयंस्तामिदं वरम्॥३४॥

इस प्रकार नियम में लगी हुई माता के निकट उसी अवस्था में जाकर श्रीराम ने उनको प्रणाम किया और उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए यह श्रेष्ठ बात कही-॥ ३४॥

अम्ब पित्रा नियुक्तोऽस्मि प्रजापालनकर्मणि।
भविता श्वोऽभिषेको मे यथा मे शासनं पितुः॥ ३५॥
सीतयाप्युपवस्तव्या रजनीयं मया सह।
एवमुक्तमुपाध्यायैः स हि मामुक्तवान् पिता॥ ३६॥

‘माँ! पिताजी ने मुझे प्रजा पालन के कर्म में नियुक्त किया है। कल मेरा अभिषेक होगा। जैसा कि मे रेलिये पिताजी का आदेश है, उसके अनुसार सीता को भी मेरे साथ इस रात में उपवास करना होगा।
उपाध्यायों ने ऐसी ही बात बतायी थी, जिसे पिताजीने मुझसे कहा है॥

यानि यान्यत्र योग्यानि श्वोभाविन्यभिषेचने।
तानि मे मङ्गलान्यद्य वैदेह्याश्चैव कारय॥३७॥

‘अतः कल होने वाले अभिषेक के निमित्त से आज मेरे और सीता के लिये जो-जो मङ्गलकार्य आवश्यक हों, वे सब कराओ’ ॥ ३७॥

एतच्छ्रुत्वा तु कौसल्या चिरकालाभिकांक्षितम्।
हर्षबाष्पाकुलं वाक्यमिदं राममभाषत॥३८॥

चिरकाल से माता के हृदय में जिस बात की अभिलाषा थी, उसकी पूर्ति को सूचित करने वाली यह बात सुनकर माता कौसल्या ने आनन्द के आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठ से इस प्रकार कहा— ॥ ३८॥

वत्स राम चिरं जीव हतास्ते परिपन्थिनः।
ज्ञातीन् मे त्वं श्रिया युक्तः सुमित्रायाश्च नन्दय॥ ३९॥

‘बेटा श्रीराम! चिरञ्जीवी होओ। तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु नष्ट हो जायँ। तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और सुमित्रा के बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करो॥

कल्याणे बत नक्षत्रे मया जातोऽसि पुत्रक।
येन त्वया दशरथो गुणैराराधितः पिता॥४०॥

‘बेटा! तुम मेरे द्वारा किसी मङ्गलमय नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, जिससे तुमने अपने गुणों द्वारा पिता दशरथ को प्रसन्न कर लिया॥ ४०॥

अमोघं बत मे क्षान्तं पुरुषे पुष्करेक्षणे।
येयमिक्ष्वाकुराजश्रीः पुत्र त्वां संश्रयिष्यति॥ ४१॥

‘बड़े हर्ष की बात है कि मैंने कमलनयन भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये जो व्रत-उपवास आदि किया था, वह आज सफल हो गया। बेटा ! उसी के फल से यह इक्ष्वाकुकुल की राजलक्ष्मी तुम्हें प्राप्त होने वाली है’॥ ४१॥

इत्येवमुक्तो मात्रा तु रामो भ्रातरमब्रवीत्।
प्राञ्जलिं प्रह्वमासीनमभिवीक्ष्य स्मयन्निव॥ ४२॥

माता के ऐसा कहने पर श्रीराम ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर खड़े हुए अपने भाई लक्ष्मण की ओर देखकर मुसकराते हुए-से कहा- ॥ ४२ ॥

लक्ष्मणेमां मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम्।
द्वितीयं मेऽन्तरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता॥ ४३॥

‘लक्ष्मण! तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य का शासन (पालन) करो। तुम मेरे द्वितीय अन्तरात्मा हो यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है॥४३॥

सौमित्रे भुक्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानिच।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये॥४४॥

‘सुमित्रानन्दन ! तुम अभीष्ट भोगों और राज्य के श्रेष्ठ  फलों का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ’॥ ४४ ॥

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं रामो मातरावभिवाद्य च।
अभ्यनुज्ञाप्य सीतां च ययौ स्वं च निवेशनम्॥ ४५॥

लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीराम ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और सीता को भी साथ चलने की आज्ञा दिलाकर वे उनको लिये हुए अपने महल में चले गये॥४५॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ।४॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

2 thoughts on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 4

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: