वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 44 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 44
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 44)
सुमित्रा का कौसल्या को आश्वासन देना
विलपन्ती तथा तां तु कौसल्यां प्रमदोत्तमाम्।
इदं धर्मे स्थिता धन॑ सुमित्रा वाक्यमब्रवीत्॥१॥
नारियों में श्रेष्ठ कौसल्या को इस प्रकार विलाप करती देख धर्मपरायणा सुमित्रा यह धर्मयुक्त बात बोली- ॥१॥
तवार्ये सद्गुणैर्युक्तः स पुत्रः पुरुषोत्तमः।
किं ते विलपितेनैवं कृपणं रुदितेन वा ॥२॥
‘आर्ये! तुम्हारे पुत्र श्रीराम उत्तम गुणों से युक्त और पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। उनके लिये इस प्रकार विलाप करना और दीनतापूर्वक रोना व्यर्थ है, इस तरह रोने-धोने से क्या लाभ? ॥२॥
यस्तवार्ये गतः पुत्रस्त्यक्त्वा राज्यं महाबलः।
साधु कुर्वन् महात्मानं पितरं सत्यवादिनम्॥३॥
शिष्टैराचरिते सम्यक्शश्वत् प्रेत्य फलोदये।
रामो धर्मे स्थितः श्रेष्ठो न स शोच्यः कदाचन। ४॥
‘बहिन! जो राज्य छोड़कर अपने महात्मा पिता को भलीभाँति सत्यवादी बनाने के लिये वन में चले गये हैं, वे तुम्हारे महाबली श्रेष्ठ पुत्र श्रीराम उस उत्तम धर्म में स्थित हैं, जिसका सत्पुरुषों ने सर्वदा और सम्यक् प्रकार से पालन किया है तथा जो परलोक में भी सुखमय फल प्रदान करने वाला है। ऐसे धर्मात्मा के लिये कदापि शोक नहीं करना चाहिये॥ ३-४ ॥
वर्तते चोत्तमां वृत्तिं लक्ष्मणोऽस्मिन् सदानघः।
दयावान् सर्वभूतेषु लाभस्तस्य महात्मनः॥५॥
‘निष्पाप लक्ष्मण समस्त प्राणियों के प्रति दयालु हैं। वे सदा श्रीराम के प्रति उत्तम बर्ताव करते हैं, अतः उन महात्मा लक्ष्मण के लिये यह लाभ की ही बात है।
अरण्यवासे यद् दुःखं जानन्त्येव सुखोचिता।
अनुगच्छति वैदेही धर्मात्मानं तवात्मजम्॥६॥
‘विदेहनन्दिनी सीता भी जो सुख भोगने के ही योग्य है, वनवास के दुःखों को भलीभाँति सोच-समझकर ही तुम्हारे धर्मात्मा पुत्र का अनुसरण करती है॥६॥
कीर्तिभूतां पताकां यो लोके भ्रमयति प्रभुः।
धर्मः सत्यव्रतपरः किं न प्राप्तस्तवात्मजः॥७॥
‘जो प्रभु संसार में अपनी कीर्तिमयी पताका फहरा रहे हैं और सदा सत्यव्रत के पालन में तत्पर रहते हैं, उन धर्मस्वरूप तुम्हारे पुत्र श्रीराम को कौन-सा श्रेय प्राप्त नहीं हुआ है॥ ७॥
व्यक्तं रामस्य विज्ञाय शौचं माहात्म्यमुत्तमम्।
न गात्रमंशुभिः सूर्यः संतापयितुमर्हति ॥८॥
‘श्रीराम की पवित्रता और उत्तम माहात्म्य को जानकर निश्चय ही सूर्य अपनी किरणों द्वारा उनके शरीर को संतप्त नहीं कर सकते॥८॥
शिवः सर्वेषु कालेषु काननेभ्यो विनिःसृतः।
राघवं युक्तशीतोष्णः सेविष्यति सुखोऽनिलः॥ ९॥
‘सभी समयों में वनों से निकली हई उचित सरदी और गरमी से युक्त सुखद एवं मङ्गलमय वायु श्रीरघुनाथजी की सेवा करेगी॥९॥
शयानमनघं रात्रौ पितेवाभिपरिष्वजन्।
घर्मघ्नः संस्पृशन् शीतश्चन्द्रमा ह्लादयिष्यति॥ १०॥
‘रात्रिकाल में धूप का कष्ट दूर करने वाले शीतल चन्द्रमा सोते हुए निष्पाप श्रीराम का अपने किरणरूपी करों से आलिङ्गन और स्पर्श करके उन्हें आह्लाद प्रदान करेंगे॥१०॥
ददौ चास्त्राणि दिव्यानि यस्मै ब्रह्मा महौजसे।
दानवेन्द्रं हतं दृष्ट्वा तिमिध्वजसुतं रणे॥११॥
‘श्रीराम के द्वारा रणभूमि में तिमिध्वज (शम्बर)-के पुत्र दानवराज सुबाहु को मारा गया देख विश्वामित्रजी ने उन महातेजस्वी वीरको बहुत-से दिव्यास्त्र प्रदान किये थे॥११॥
स शूरः पुरुषव्याघ्रः स्वबाहुबलमाश्रितः।
असंत्रस्तो शरण्येऽसौ वेश्मनीव निवत्स्यते॥ १२॥
‘वे पुरुषसिंह श्रीराम बड़े शूरवीर हैं। वे अपने ही बाहुबल का आश्रय लेकर जैसे महल में रहते थे, उसी तरह वन में भी निडर होकर रहेंगे॥ १२॥
यस्येषुपथमासाद्य विनाशं यान्ति शत्रवः।
कथं न पृथिवी तस्य शासने स्थातुमर्हति॥१३॥
‘जिनके बाणों का लक्ष्य बनकर सभी शत्रु विनाशको प्राप्त होते हैं, उनके शासन में यह पृथ्वी और यहाँ के प्राणी कैसे नहीं रहेंगे? ॥ १३ ॥
या श्रीः शौर्यं च रामस्य या च कल्याणसत्त्वता।
निवृत्तारण्यवासः स्वं क्षिप्रं राज्यमवाप्स्यति॥ १४॥
‘श्रीराम की जैसी शारीरिक शोभा है, जैसा पराक्रम है और जैसी कल्याणकारिणी शक्ति है, उससे जान पड़ता है कि वे वनवास से लौटकर शीघ्र ही अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे॥१४॥
सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्नः प्रभोः प्रभुः।
श्रियाः श्रीश्च भवेदग्र्या कीर्त्याः कीर्तिः क्षमाक्षमा॥१५॥
दैवतं देवतानां च भूतानां भूतसत्तमः।
तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे॥१६॥
‘देवि! श्रीराम सूर्य के भी सूर्य (प्रकाशक) और अग्नि के भी अग्नि (दाहक) हैं। वे प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की भी उत्तम लक्ष्मी और क्षमा की भी क्षमा हैं। इतना ही नहीं वे देवताओं के भी देवता तथा भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वे वन में रहें या नगर में, उनके लिये कौन-से चराचर प्राणी दोषावह हो सकते हैं। १५-१६॥
पृथिव्या सह वैदेह्या श्रिया च पुरुषर्षभः।
क्षिप्रं तिसृभिरेताभिः सह रामोऽभिषेक्ष्यते॥१७॥
‘पुरुषशिरोमणि श्रीराम शीघ्र ही पृथ्वी, सीता और लक्ष्मी—इन तीनों के साथ राज्य पर अभिषिक्त होंगे। १७॥
दुःख विसृजत्यश्रु निष्क्रामन्तमुदीक्ष्य यम्।
अयोध्यायां जनः सर्वः शोकवेगसमाहतः॥१८॥
कुशचीरधरं वीरं गच्छन्तमपराजितम्।
सीतेवानुगता लक्ष्मीस्तस्य किं नाम दुर्लभम्॥ १९॥
जिनको नगर से निकलते देख अयोध्या का सारा जनसमुदाय शोक के वेग से आहत हो नेत्रों से दुःखके आँसू बहा रहा है, कुश और चीर धारण करके वन को जाते हुए जिन अपराजित नित्यविजयी वीर के पीछे-पीछे सीता के रूप में साक्षात् लक्ष्मी ही गयी है, उनके लिये क्या दुर्लभ है ? ॥ १८-१९॥
धनुर्ग्रहवरो यस्य बाणखड्गास्त्रभृत् स्वयम्।
लक्ष्मणो व्रजति ह्यग्रे तस्य किं नाम दुर्लभम्॥ २०॥
‘जिनके आगे धनुर्धारियों में श्रेष्ठ लक्ष्मण स्वयं बाण और खड्ग आदि अस्त्र लिये जा रहे हैं, उनके लिये जगत् में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥
निवृत्तवनवासं तं द्रष्टासि पुनरागतम्।
जहि शोकं च मोहं च देवि सत्यं ब्रवीमि ते॥ २१॥
‘देवि! मैं तुमसे सत्य कहती हूँ। तुम वनवास की अवधि पूर्ण होने पर यहाँ लौटे हुए श्रीराम को फिर देखोगी, इसलिये तुम शोक और मोह छोड़ दो॥ २१॥
शिरसा चरणावेतौ वन्दमानमनिन्दिते।
पुनर्द्रक्ष्यसि कल्याणि पुत्रं चन्द्रमिवोदितम्॥ २२॥
‘कल्याणि! अनिन्दिते! तुम नवोदित चन्द्रमा के समान अपने पुत्र को पुनः अपने चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करते देखोगी॥ २२॥
पुनः प्रविष्टं दृष्ट्वा तमभिषिक्तं महाश्रियम्।
समुत्स्रक्ष्यसि नेत्राभ्यां शीघ्रमानन्दजं जलम्॥ २३॥
‘राजभवन में प्रविष्ट होकर पुनः राजपद पर अभिषिक्त हुए अपने पुत्र को बड़ी भारी राजलक्ष्मी से सम्पन्न देखकर तुम शीघ्र ही अपने नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाओगी॥ २३॥
मा शोको देवि दुःखं वा न रामे दृष्यतेऽशिवम्।
क्षिप्रं द्रक्ष्यसि पुत्रं त्वं ससीतं सहलक्ष्मणम्॥ २४॥
‘देवि! श्रीराम के लिये तुम्हारे मन में शोक और दुःख नहीं होना चाहिये; क्योंकि उनमें कोई अशुभ बात नहीं दिखायी देती। तुम सीता और लक्ष्मण के साथ अपने पुत्र श्रीराम को शीघ्र ही यहाँ उपस्थित देखोगी॥२४॥
त्वयाऽशेषो जनश्चायं समाश्वास्यो यतोऽनघे।
कमिदानीमिदं देवि करोषि हृदि विक्लवम्॥ २५॥
‘पापरहित देवि! तुम्हें तो इन सब लोगों को धैर्य बँधाना चाहिये, फिर स्वयं ही इस समय अपने हृदय में इतना दुःख क्यों करती हो? ॥ २५ ॥
नार्हा त्वं शोचितुं देवि यस्यास्ते राघवः सुतः।
नहि रामात् परो लोके विद्यते सत्पथे स्थितः॥ २६॥
‘देवि! तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि तुम्हें रघुकुलनन्दन राम-जैसा बेटा मिला है। श्रीराम से बढ़कर सन्मार्ग में स्थिर रहने वाला मनुष्य संसार में दूसरा कोई नहीं है॥ २६॥
अभिवादयमानं तं दृष्ट्वा ससुहृदं सुतम्।
मृदाश्र मोक्ष्यसे क्षिप्रं मेघरेखेव वार्षिकी॥२७॥
‘जैसे वर्षाकाल के मेघों की घटा जल की वृष्टि करती है, उसी प्रकार तुम सुहृदोंसहित अपने पुत्र श्रीराम को अपने चरणों में प्रणाम करते देख शीघ्र ही आनन्दपूर्वक आँसुओं की वर्षा करोगी॥२७॥
पुत्रस्ते वरदः क्षिप्रमयोध्यां पुनरागतः।
कराभ्यां मृदुपीनाभ्यां चरणौ पीडयिष्यति॥ २८॥
‘तुम्हारे वरदायक पुत्र पुनः शीघ्र ही अयोध्या में आकर अपने मोटे-मोटे कोमल हाथों द्वारा तुम्हारे दोनों पैरों को दबायँगे॥ २८॥
अभिवाद्य नमस्यन्तं शूरं ससुहृदं सुतम्।
मुदाझैः प्रोक्षसे पुत्रं मेघराजिरिवाचलम्॥ २९॥
‘जैसे मेघमाला पर्वत को नहलाती है, उसी प्रकार तुम अभिवादन करके नमस्कार करते हुए सुहृदोंसहित अपने शूरवीर पुत् रका आनन्द के आँसुओं से अभिषेक करोगी’ ॥ २९॥
आश्वासयन्ती विविधैश्च वाक्यैः क्योपचारे कुशलानवद्या।
रामस्य तां मातरमेवमुक्त्वा देवी सुमित्रा विरराम रामा॥ ३०॥
बातचीत करने में कुशल, दोषरहित तथा रमणीय रूपवाली देवी सुमित्रा इस प्रकार तरह-तरह की बातों से श्रीराम माता कौसल्या को आश्वासन देती हुई उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गयीं॥३०॥
निशम्य तल्लक्ष्मणमातृवाक्यं रामस्य मातुर्नरदेवपत्न्याः ।
सद्यः शरीरे विननाश शोकः शरद्गतो मेघ इवाल्पतोयः॥३१॥
लक्ष्मण की माता का वह वचन सुनकर महाराज दशरथ की पत्नी तथा श्रीराम की माता कौसल्या का सारा शोक उनके शरीर (मन) में ही तत्काल विलीन हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे शरद् ऋतु का थोड़े जलवाला बादल शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो जाता है। ३१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥ ४४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४४॥
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