वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 46 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 46
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 46)
सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का रात्रि में तमसा-तट पर निवास, पुरवासियों को सोते छोड़कर वन की ओर जाना
ततस्तु तमसातीरं रम्यमाश्रित्य राघवः।
सीतामुद्रीक्ष्य सौमित्रिमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर तमसा के रमणीय तट का आश्रय लेकर श्रीराम ने सीता की ओर देखकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ॥१॥
इयमद्य निशा पूर्वा सौमित्रे प्रहिता वनम्।
वनवासस्य भद्रं ते न चोत्कण्ठितुमर्हसि ॥२॥
‘सुमित्रानन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। हमलोग जो वन की ओर प्रस्थित हुए हैं, हमारे उस वनवास की आज यह पहली रात प्राप्त हुई है; अतः अब तुम्हें नगर के लिये उत्कण्ठित नहीं होना चाहिये॥२॥
पश्य शून्यान्यरण्यानि रुदन्तीव समन्ततः।
यथानिलयमायद्भिर्निलीनानि मृगद्विजैः॥३॥
‘इन सूने वनों की ओर तो देखो, इनमें वन्य पशु पक्षी अपने-अपने स्थान पर आकर अपनी बोली बोल रहे हैं। उनके शब्द से सारी वनस्थली व्याप्त हो गयी है, मानो ये सारे वन हमें इस अवस्था में देखकर खिन्न हो सब ओर से रो रहे हैं॥३॥
अद्यायोध्या तु नगरी राजधानी पितुर्मम।
सस्त्रीपुंसा गतानस्मान् शोचिष्यति न संशयः॥ ४॥
‘आज मेरे पिता की राजधानी अयोध्या नगरी वन में आये हुए हमलोगों के लिये समस्त नर-नारियों सहित शोक करेगी, इसमें संशय नहीं है॥ ४॥
अनुरक्ता हि मनुजा राजानं बहुभिर्गुणैः।
त्वां च मां च नरव्याघ्र शत्रुघ्नभरतौ तथा॥५॥
‘पुरुषसिंह! अयोध्या के मनुष्य बहुत-से सद्गुणों के कारण महाराज में, तुममें, मुझमें तथा भरत और शत्रुघ्न में भी अनुरक्त हैं ॥ ५ ॥
पितरं चानुशोचामि मातरं च यशस्विनीम्।
अपि नान्धौ भवेतां नौ रुदन्तौ तावभीक्ष्णशः॥
‘इस समय मुझे पिता और यशस्विनी माता के लिये बड़ा शोक हो रहा है; कहीं ऐसा न हो कि वे निरन्तर रोते रहने के कारण अंधे हो जायँ॥ ६॥
भरतः खलु धर्मात्मा पितरं मातरं च मे।
धर्मार्थकामसहितैर्वाक्यैराश्वासयिष्यति॥७॥
‘परंतु भरत बड़े धर्मात्मा हैं अवश्य ही वे धर्म, अर्थ और काम–तीनों के अनुकूल वचनों द्वारा पिताजी को और मेरी माता को भी सान्त्वना देंगे॥७॥
भरतस्यानृशंसत्वं संचिन्त्याहं पुनः पुनः।
नानुशोचामि पितरं मातरं च महाभुज॥८॥
‘महाबाहो! जब मैं भरतके कोमल स्वभावका बार-बार स्मरण करता हूँ, तब मुझे माता-पिताके लिये अधिक चिन्ता नहीं होती॥ ८॥
त्वया कार्यं नरव्याघ्र मामनुव्रजता कृतम्।
अन्वेष्टव्या हि वैदेह्या रक्षणार्थं सहायता॥९॥
‘नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! तुमने मेरे साथ आकर बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है; क्योंकि तुम न आते तोमुझे विदेहकुमारी सीताकी रक्षाके लिये कोई सहायक ढूँढ़ना पड़ता॥९॥
अद्भिरेव हि सौमित्रे वत्स्याम्यद्य निशामिमाम्।
एतद्धि रोचते मह्यं वन्येऽपि विविधे सति॥१०॥
‘सुमित्रानन्दन! यद्यपि यहाँ नाना प्रकार के जंगली फल-मूल मिल सकते हैं तथापि आज की यह रात मैं केवल जल पीकर ही बिताऊँगा। यही मुझे अच्छा जान पड़ता है’ ॥ १०॥
एवमुक्त्वा तु सौमित्रिं सुमन्त्रमपि राघवः।
अप्रमत्तस्त्वमश्वेषु भव सौम्येत्युवाच ह ॥११॥
लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने सुमन्त्र से भी कहा—’सौम्य ! अब आप घोड़ों की रक्षा पर ध्यान दें, उनकी ओर से असावधान न हों’ ॥ ११॥
सोऽश्वान् सुमन्त्रः संयम्य सूर्येऽस्तं समुपागते।
प्रभूतयवसान् कृत्वा बभूव प्रत्यनन्तरः॥१२॥
सुमन्त्र ने सूर्यास्त हो जानेपर घोड़ों को लाकर बाँध दिया और उनके आगे बहुत-सा चारा डालकर वे श्रीराम के पास आ गये॥ १२ ॥
उपास्य तु शिवां संध्यां दृष्ट्वा रात्रिमुपागताम्।
रामस्य शयनं चक्रे सूतः सौमित्रिणा सह ॥१३॥
फिर (वर्णानुकूल) कल्याणमयी संध्योपासना करके रात आयी देख लक्ष्मणसहित सुमन्त्र ने श्रीरामचन्द्रजी के शयन करने योग्य स्थान और आसन ठीक किया॥१३॥
तां शय्यां तमसातीरे वीक्ष्य वृक्षदलैर्वृताम्।
रामः सौमित्रिणा सार्धं सभार्यः संविवेश ह॥ १४॥
तमसा के तट पर वृक्ष के पत्तों से बनी हुई वह शय्या देखकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण और सीता के साथ उसपर बैठे॥१४॥
सभार्यं सम्प्रसुप्तं तु श्रान्तं सम्प्रेक्ष्य लक्ष्मणः।
कथयामास सूताय रामस्य विविधान् गुणान्॥ १५॥
थोड़ी देर में सीतासहित श्रीराम को थककर सोया हुआ देख लक्ष्मण सुमन्त्र से उनके नाना प्रकार के गुणों का वर्णन करने लगे॥ १५॥
जाग्रतोरेव तां रात्रिं सौमित्रेरुदितो रविः।
सूतस्य तमसातीरे रामस्य ब्रुवतो गुणान्॥१६॥
सुमन्त्र और लक्ष्मण तमसा के किनारे श्रीराम के गुणों की चर्चा करते हुए रातभर जागते रहे। इतने ही में सूर्योदय का समय निकट आ पहुँचा॥ १६ ॥
गोकुलाकुलतीरायास्तमसाया विदूरतः।
अवसत् तत्र तां रात्रिं रामः प्रकृतिभिः सह॥ १७॥
तमसा का वह तट गौओं के समुदाय से भरा हुआ था। श्रीरामचन्द्रजी ने प्रजाजनों के साथ वहीं रात्रि में निवास किया। वे प्रजाजनों से कुछ दूर पर सोये थे॥ १७॥
उत्थाय च महातेजाः प्रकृतीस्ता निशाम्य च।
अब्रवीद् भ्रातरं रामो लक्ष्मणं पुण्यलक्षणम्॥ १८॥
महातेजस्वी श्रीराम तड़के ही उठे और प्रजाजनों को सोते देख पवित्र लक्षणों वाले भाई लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ॥१८॥
अस्मद्व्यपेक्षान् सौमित्रे निळपेक्षान् गृहेष्वपि।
वृक्षमूलेषु संसक्तान् पश्य लक्ष्मण साम्प्रतम्॥ १९॥
‘सुमित्राकुमार लक्ष्मण! इन पुरवासियों की ओर देखो, ये इस समय वृक्षों की जड़ से सटकर सो रहे हैं। इन्हें केवल हमारी चाह है। ये अपने घरों की ओर से भी पूर्ण निरपेक्ष हो गये हैं॥ १९॥
यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने।
अपि प्राणान् न्यसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम्॥२०॥
‘हमें लौटा ले चलने के लिये ये जैसा उद्योग कर रहे हैं, इससे जान पड़ता है, ये अपना प्राण त्याग देंगे; किंतु अपना निश्चय नहीं छोड़ेंगे॥ २० ॥
यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु।
रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम्॥२१॥
‘अतः जबतक ये सो रहे हैं तभीतक हमलोग रथ पर सवार होकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ से चल दें। फिर हमें इस मार्गपर और किसी के आने का भय नहीं रहेगा॥ २१॥
अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिताः॥२२॥
‘अयोध्यावासी हमलोगों के अनुरागी हैं। जब हम यहाँ से निकल चलेंगे, तब उन्हें फिर अब इस प्रकार वृक्षों की जड़ों से सटकर नहीं सोना पड़ेगा॥ २२॥
पौरा ह्यात्मकृताद् दुःखाद् विप्रमोच्या नृपात्मजैः ।
न तु खल्वात्मना योज्या दुःखेन पुरवासिनः॥ २३॥
‘राजकुमारों का यह कर्तव्य है कि वे पुरवासियों को अपने द्वारा होने वाले दुःख से मुक्त करें, न कि अपना दुःख देकर उन्हें और दुःखी बना दें’॥ २३॥
अब्रवील्लक्ष्मणो रामं साक्षाद् धर्ममिव स्थितम्।
रोचते मे तथा प्राज्ञ क्षिप्रमारुह्यतामिति ॥ २४॥
यह सुनकर लक्ष्मण ने साक्षात् धर्म के समान विराजमान भगवान् श्रीराम से कहा—’परम बुद्धिमान् आर्य! मुझे आपकी राय पसंद है। शीघ्र ही रथ पर सवार होइये’ ॥२४॥
अथ रामोऽब्रवीत् सूतं शीघ्रं संयुज्यतां रथः।
गमिष्यामि ततोऽरण्यं गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥
तब श्रीराम ने सुमन्त्र से कहा—’प्रभो! आप जाइये और शीघ्र ही रथ जोतकर तैयार कीजिये फिर मैं जल्दी ही यहाँ से वन की ओर चलूँगा’ ॥ २५ ॥
सूतस्ततः संत्वरितः स्यन्दनं तैर्हयोत्तमैः।
योजयित्वा तु रामस्य प्राञ्जलिः प्रत्यवेदयत्॥ २६॥
आज्ञा पाकर सुमन्त्र ने उन उत्तम घोड़ों को तुरंत ही रथ में जोत दिया और श्रीराम के पास हाथ जोड़कर निवेदन किया- ॥ २६॥
अयं युक्तो महाबाहो रथस्ते रथिनां वर।
त्वरयाऽऽरोह भद्रं ते ससीतः सहलक्ष्मणः॥२७॥
‘महाबाहो! रथियों में श्रेष्ठ वीर! आपका कल्याण हो आपका यह रथ जुता हुआ तैयार है अब सीता और लक्ष्मण के साथ शीघ्र इस पर सवार होइये’॥ २७॥
तं स्यन्दनमधिष्ठाय राघवः सपरिच्छदः।
शीघ्रगामाकुलावर्ती तमसामतरन्नदीम्॥२८॥
श्रीरामचन्द्रजी सबके साथ रथ पर बैठकर तीव्रगति से बहने वाली भँवरों से भरी हुई तमसा नदी के उस पार गये॥ २८॥
स संतीर्य महाबाहुः श्रीमान् शिवमकण्टकम्।
प्रापद्यत महामार्गमभयं भयदर्शिनाम्॥२९॥
नदी को पार करके महाबाहु श्रीमान् राम ऐसे महान् मार्ग पर जा पहुँचे जो कल्याणप्रद, कण्टकरहित तथा सर्वत्र भय देखने वालों के लिये भी भय से रहित था। २९॥
मोहनार्थं तु पौराणां सूतं रामोऽब्रवीद् वचः।
उदमखः प्रयाहि त्वं रथमारुह्य सारथे॥३०॥
मुहूर्तं त्वरितं गत्वा निवर्तय रथं पुनः।
यथा न विद्युः पौरा मां तथा कुरु समाहितः॥ ३१॥
उस समय श्रीराम ने पुरवासियों को भुलावा देने के लिये सुमन्त्र से यह बात कही—’सारथे! (हम लोग तो यहीं उतर जाते हैं;) परंतु आप रथ पर आरूढ़ होकरपहले उत्तर दिशा की ओर जाइये। दो घड़ी तक तीव्रगति से उत्तर जाकर फिर दूसरे मार्ग से रथ को यहीं लौटा लाइये। जिस तरह भी पुरवासियों को मेरा पता न चले, वैसा एकाग्रतापूर्वक प्रयत्न कीजिये’। ३०-३१॥
रामस्य तु वचः श्रुत्वा तथा चक्रे च सारथिः।
प्रत्यागम्य च रामस्य स्यन्दनं प्रत्यवेदयत्॥ ३२॥
श्रीरामजीका यह वचन सुनकर सारथिने वैसा ही किया और लौटकर पुनः श्रीरामकी सेवामें रथ उपस्थित कर दिया॥ ३२॥
तौ सम्प्रयुक्तं तु रथं समास्थितौ तदा ससीतौ रघुवंशवर्धनौ।
प्रचोदयामास ततस्तुरंगमान् स सारथिर्येन पथा तपोवनम्॥३३॥
तत्पश्चात् सीतासहित श्रीराम और लक्ष्मण, जो रघुवंश की वृद्धि करने वाले थे, लौटाकर लाये गये उस रथ पर चढ़े तदनन्तर सारथि ने घोड़ों को उस मार्गपर बढ़ा दिया, जिससे तपोवन में पहुँचा जा सकता था॥ ३३॥
ततः समास्थाय रथं महारथः ससारथिर्दाशरथिर्वनं ययौ।
उदमखं तं तु रथं चकार प्रयाणमाङ्गल्यनिमित्तदर्शनात्॥ ३४॥
तदनन्तर सारथिसहित महारथी श्रीराम ने यात्राकालिक मङ्गलसूचक शकुन देखने के लिये पहले तो उस रथ को उत्तराभिमुख खड़ा किया; फिर वे उस रथ पर आरूढ़ होकर वन की ओर चल दिये। ३४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः॥ ४६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४६॥
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