RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 47

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 47)

प्रातःकाल उठने पर पुरवासियों का विलाप करना और निराश होकर नगर को लौटना

 

प्रभातायां तु शर्वर्यां पौरास्ते राघवं विना।
शोकोपहतनिश्चेष्टा बभूवुर्हतचेतसः॥१॥

इधर रात बीतने पर जब सबेरा हुआ, तब अयोध्यावासी मनुष्य श्रीरघुनाथजी को न देखकर अचेत हो गये। शोक से व्याकुल होने के कारण उनसे कोई भी चेष्टा करते न बनी॥१॥

शोकजाश्रुपरिघुना वीक्षमाणास्ततस्ततः।
आलोकमपि रामस्य न पश्यन्ति स्म दुःखिताः॥ २॥

वे शोकजनित आँसू बहाते हुए अत्यन्त खिन्न हो गये तथा इधर-उधर उनकी खोज करने लगे। परंतु उन दुःखी पुरवासियों को श्रीराम किधर गये, इस बातका पता देने वाला कोई चिह्नतक नहीं दिखायी दिया॥२॥

ते विषादातवदना रहितास्तेन धीमता।
कृपणाः करुणा वाचो वदन्ति स्म मनीषिणः॥ ३॥

बुद्धिमान् श्रीराम से विलग होकर वे अत्यन्त दीन हो गये। उनके मुख पर विषादजनित वेदना स्पष्ट दिखायी देती थी। वे मनीषी पुरवासी करुणा भरे वचन बोलते हुए विलाप करने लगे- ॥३॥

धिगस्तु खलु निद्रां तां ययापहतचेतसः।
नाद्य पश्यामहे रामं पृथूरस्कं महाभुजम्॥४॥

‘हाय! हमारी उस निद्रा को धिक्कार है, जिससे अचेत हो जाने के कारण हम उस समय विशाल वक्ष वाले महाबाहु श्रीराम के दर्शन से वञ्चित हो गये हैं॥४॥

कथं रामो महाबाहुः स तथावितथक्रियः।
भक्तं जनमभित्यज्य प्रवासं तापसो गतः॥५॥

‘जिनकी कोई भी क्रिया कभी निष्फल नहीं होती,वे तापस वेषधारी महाबाहु श्रीराम हम भक्तजनों को छोड़कर परदेश (वन) में कैसे चले गये? ॥ ५ ॥

यो नः सदा पालयति पिता पुत्रानिवौरसान्।
कथं रघूणां स श्रेष्ठस्त्यक्त्वा नो विपिनं गतः॥ ६॥

‘जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार जो सदा हमारी रक्षा करते थे, वे ही रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम आज हमें छोड़कर वन को क्यों चले गये? ॥ ६॥

इहैव निधनं याम महाप्रस्थानमेव वा।
रामेण रहितानां नो किमर्थं जीवितं हितम्॥७॥

‘अब हमलोग यहीं प्राण दे दें या मरने का निश्चय करके उत्तर दिशा की ओर चल दें। श्रीराम से रहित होकर हमारा जीवन-धारण किसलिये हितकर हो सकता है ? ॥ ७॥

सन्ति शुष्काणि काष्ठानि प्रभूतानि महान्ति च।
तैः प्रज्वाल्य चितां सर्वे प्रविशामोऽथवा वयम्॥ ८॥

‘अथवा यहाँ बहुत-से बड़े-बड़े सूखे काठ पड़े हैं, उनसे चिता जलाकर हम सब लोग उसी में प्रवेश कर जायँ॥ ८॥

किं वक्ष्यामो महाबाहुरनसूयः प्रियंवदः।
नीतः स राघवोऽस्माभिरिति वक्तुं कथं क्षमम्॥

(यदि हमसे कोई श्रीराम का वृत्तान्त पूछेगा तो हम उसे क्या उत्तर देंगे?) क्या हम यह कहेंगे कि जो किसी के दोष नहीं देखते और सबसे प्रिय वचन बोलते हैं, उन महाबाहु श्रीरघुनाथजी को हमने वन में पहुँचा दिया है ? हाय! यह अयोग्य बात हमारे मुँह से कैसे निकल सकती है ? ॥९॥

सा नूनं नगरी दीना दृष्ट्वास्मान् राघवं विना।
भविष्यति निरानन्दा सस्त्रीबालवयोऽधिका॥१०॥

‘श्रीराम के बिना हमलोगों को लौटा हुआ देखकर स्त्री, बालक और वृद्धोंसहित सारी अयोध्यानगरी निश्चय ही दीन और आनन्दहीन हो जायगी॥ १० ॥

निर्यातास्तेन वीरेण सह नित्यं महात्मना।
विहीनास्तेन च पुनः कथं द्रक्ष्याम तां पुरीम्॥११॥

‘हमलोग वीरवर महात्मा श्रीराम के साथ सर्वदा निवास करने के लिये निकले थे अब उनसे बिछुड़कर हम अयोध्यापुरी को कैसे देख सकेंगे’॥ ११॥

इतीव बहुधा वाचो बाहुमुद्यम्य ते जनाः।
विलपन्ति स्म दुःखार्ता हृतवत्सा इवाग्रयगाः॥ १२॥

इस प्रकार अनेक तरह की बातें कहते हुए वे समस्त पुरवासी अपनी भुजा उठाकर विलाप करने लगे। वे बछड़ों से बिछुड़ी हुई अग्रगामिनी गौओं की भाँति दुःख से व्याकुल हो रहे थे॥ १२॥

ततो मार्गानुसारेण गत्वा किंचित् ततः क्षणम्।
मार्गनाशाद् विषादेन महता समभिप्लुताः॥१३॥

फिर रास्ते पर रथ की लीक देखते हुए सब-के-सब कुछ दूर तक गये; किंतु क्षणभर में मार्गका चिह्न न मिलने के कारण वे महान् शोक में डूब गये॥१३॥

रथमार्गानुसारेण न्यवर्तन्त मनस्विनः।
किमिदं किं करिष्यामो दैवेनोपहता इति॥१४॥

उस समय यह कहते हुए कि ‘यह क्या हुआ? अब हम क्या करें? दैव ने हमें मार डाला’ वे मनस्वी पुरुष रथ की लीक का अनुसरण करते हुए अयोध्या की ओर लौट पड़े॥ १४ ॥

तदा यथागतेनैव मार्गेण क्लान्तचेतसः।
अयोध्यामगमन् सर्वे पुरीं व्यथितसज्जनाम्॥ १५॥

उनका चित्त क्लान्त हो रहा था। वे सब जिस मार्ग से गये थे, उसी से लौटकर अयोध्यापुरी में जा पहुँचे, जहाँ के सभी सत्पुरुष श्रीराम के लिये व्यथित थे॥ १५॥

आलोक्य नगरी तां च क्षयव्याकुलमानसाः।
आवर्तयन्त तेऽणि नयनैः शोकपीडितैः॥१६॥

उस नगरी को देखकर उनका हृदय दुःख से व्याकुल हो उठा। वे अपने शोकपीड़ित नेत्रों द्वारा आँसुओं की वर्षा करने लगे॥१६॥

एषा रामेण नगरी रहिता नातिशोभते।
आपगा गरुडेनेव ह्रदादुद्धृतपन्नगा॥१७॥

(वे बोले-) जिसके गहरे कुण्ड से वहाँ का नाग गरुड़ के द्वारा निकाल लिया गया हो, वह नदी जैसे शोभाहीन हो जाती है, उसी प्रकार श्रीराम से रहित हुई यह अयोध्यानगरी अब अधिक शोभा नहीं पाती है’।

चन्द्रहीनमिवाकाशं तोयहीनमिवार्णवम्।
अपश्यन् निहतानन्दं नगरं ते विचेतसः॥ १८॥

उन्होंने देखा, सारा नगर चन्द्रहीन आकाश और जलहीन समुद्र के समान आनन्दशून्य हो गया है। पुरी की यह दुरवस्था देख वे अचेत-से हो गये॥ १८ ॥

ते तानि वेश्मानि महाधनानि दुःखेन दुःखोपहता विशन्तः।
नैव प्रजग्मुः स्वजनं परं वा निरीक्ष्यमाणाः प्रविनष्टहर्षाः॥१९॥

उनके हृदय का सारा उल्लास नष्ट हो चुका था। वे दुःख से पीड़ित हो उन महान् वैभवसम्पन्न गृहों में बड़े क्लेश के साथ प्रविष्ट हो सबको देखते हुए भी अपने और पराये की पहचान न कर सके॥ १९॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः॥ ४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४७॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 47

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: