RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 48 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 48

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 48)

नगरनिवासिनी स्त्रियों का विलाप करना

 

तेषामेवं विषण्णानां पीडितानामतीव च।
बाष्पविप्लुतनेत्राणां सशोकानां मुमूर्षया॥१॥
अभिगम्य निवृत्तानां रामं नगरवासिनाम्।
उद्गतानीव सत्त्वानि बभूवुरमनस्विनाम्॥२॥

इस प्रकार जो विषादग्रस्त, अत्यन्त पीड़ित,शोकमग्न तथा प्राण त्याग देने की इच्छा से युक्त हो नेत्रों से आँसू बहा रहे थे, श्रीरामचन्द्रजी के साथ जाकर भी जो उन्हें लिये बिना लौट आये थे और इसीलिये जिनका चित्त ठिकाने नहीं था, उन नगरवासियों की ऐसी दशा हो रही थी मानो उनके प्राण निकल गये हों॥ १-२॥

स्वं स्वं निलयमागम्य पुत्रदारैः समावृताः।
अश्रूणि मुमुचुः सर्वे बाष्पेण पिहिताननाः॥३॥

वे सब अपने-अपने घर में आकर पत्नी और पुत्रों से घिरे हुए आँसू बहाने लगे। उनके मुख अश्रुधारा से आच्छादित थे॥३॥

न चाहृष्यन् न चामोदन् वणिजो न प्रसारयन्।
न चाशोभन्त पण्यानि नापचन् गृहमेधिनः॥४॥

उनके शरीर में हर्ष का कोई चिह्न नहीं दिखायी देता था तथा मन में भी आनन्द का अभाव ही था। वैश्यों ने अपनी दुकानें नहीं खोली। क्रय-विक्रय की वस्तुएँ बाजारों में फैलायी जाने पर भी उनकी शोभा नहीं हुई (उन्हें लेने के लिये ग्राहक नहीं आये)। उस दिन गृहस्थों के घर में चूल्हे नहीं जले—रसोई नहीं बनी॥ ४॥

नष्टं दृष्ट्वा नाभ्यनन्दन् विपुलं वा धनागमम्।
पुत्रं प्रथमजं लब्ध्वा जननी नाप्यनन्दत॥५॥

खोयी हुई वस्तु मिल जाने पर भी किसी को प्रसन्नता नहीं हुई, विपुल धन-राशि प्राप्त हो जाने पर भी किसी ने उसका अभिनन्दन नहीं किया। जिसने प्रथम बार पुत्र को जन्म दिया था, वह माता भी आनन्दित नहीं हुई॥ ५॥

गृहे गृहे रुदत्यश्च भर्तारं गृहमागतम्।
व्यगर्हयन्त दुःखार्ता वाग्भिस्तोत्नैरिव द्विपान्॥ ६॥

प्रत्येक घर की स्त्रियाँ अपने पतियों को श्रीराम के बिना ही लौटकर आये देख रो पड़ीं और दुःख से आतुर हो कठोर वचनों द्वारा उन्हें कोसने लगीं, मानो महावत अंकुशों से हाथियों को मार रहे हों॥६॥

किं नु तेषां गृहैः कार्यं किं दारैः किं धनेन वा।
पुत्रैर्वापि सुखैर्वापि ये न पश्यन्ति राघवम्॥७॥

वे बोलीं—’जो लोग श्रीराम को नहीं देखते, उन्हें घर-द्वार, स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और सुख-भोगों से क्या प्रयोजन है? ॥ ७॥

एकः सत्पुरुषो लोके लक्ष्मणः सह सीतया।
योऽनुगच्छति काकुत्स्थं रामं परिचरन् वने॥८॥

‘संसार में एकमात्र लक्ष्मण ही सत्पुरुष हैं, जो सीता के साथ श्रीराम की सेवा करने के लिये उनके पीछे-पीछे वन में जा रहे हैं।॥ ८॥

आपगाः कृतपुण्यास्ताः पद्मिन्यश्च सरांसि च।
येषु यास्यति काकुत्स्थो विगाह्य सलिलं शुचि॥

‘उन नदियों, कमलमण्डित बावड़ियों तथा सरोवरों ने अवश्य ही बहुत पुण्य किया होगा, जिनके पवित्र जल में स्नान करके श्रीरामचन्द्रजी आगे जायँगे॥९॥

शोभयिष्यन्ति काकुत्स्थमटव्यो रम्यकाननाः।
आपगाश्च महानूपाः सानुमन्तश्च पर्वताः॥१०॥

‘जिनमें रमणीय वृक्षावलियाँ शोभा पाती हैं, वेसुन्दर वनश्रेणियाँ, बड़े कछारवाली नदियाँ और शिखरों से सम्पन्न पर्वत श्रीराम की शोभा बढ़ायेंगे॥ १०॥

काननं वापि शैलं वा यं रामोऽनुगमिष्यति।
प्रियातिथिमिव प्राप्तं नैनं शक्ष्यन्त्यनर्चितुम्॥ ११॥

‘श्रीराम जिस वन अथवा पर्वत पर जायँगे, वहाँ उन्हें अपने प्रिय अतिथि की भाँति आया हुआ देख वे वन और पर्वत उनकी पूजा किये बिना नहीं रह सकेंगे॥

विचित्रकुसुमापीडा बहुमञ्जरिधारिणः।
राघवं दर्शयिष्यन्ति नगा भ्रमरशालिनः॥१२॥

‘विचित्र फूलों के मुकुट पहने और बहुत-सी मञ्जरियाँ धारण किये भ्रमरों से सुशोभित वृक्ष वन में श्रीरामचन्द्रजी को अपनी शोभा दिखायेंगे॥ १२ ॥

अकाले चापि मुख्यानि पुष्पाणि च फलानि च।
दर्शयिष्यन्त्यनुक्रोशाद् गिरयो राममागतम्॥ १३॥

‘वहाँ के पर्वत अपने यहाँ पधारे हुए श्रीराम को अत्यन्त आदर के कारण असमय में भी उत्तम-उत्तम फूल और फल दिखायेंगे (भेंट करेंगे) ॥ १३ ॥

प्रस्रविष्यन्ति तोयानि विमलानि महीधराः।
विदर्शयन्तो विविधान् भूयश्चित्रांश्च निर्झरान्॥ १४॥

‘वे पर्वत बारंबार नाना प्रकार के विचित्र झरने दिखाते हुए श्रीराम के लिये निर्मल जल के स्रोत बहायेंगे॥

पादपाः पर्वताग्रेषु रमयिष्यन्ति राघवम्।
यत्र रामो भयं नात्र नास्ति तत्र पराभवः॥१५॥
स हि शूरो महाबाहुः पुत्रो दशरथस्य च।
पुरा भवति नोऽदूरादनुगच्छाम राघवम्॥१६॥

‘पर्वत-शिखरों पर लहलहाते हुए वृक्ष श्रीरघुनाथजी का मनोरंजन करेंगे। जहाँ श्रीराम हैं वहाँ न तो कोई भय है और न किसी के द्वारा पराभव ही हो सकता है; क्योंकि दशरथनन्दन महाबाहु श्रीराम बड़े शूरवीर हैं। अतः जबतक वे हमलोगों से बहुत दूर नहीं निकल जाते, इसके पहले ही हमें उनके पास पहुँचकर पीछे लग जाना चाहिये।

पादच्छाया सुखं भर्तुस्तादृशस्य महात्मनः।
स हि नाथो जनस्यास्य स गतिः स परायणम्॥ १७॥

‘उनके-जैसे महात्मा एवं स्वामी के चरणों की छाया ही हमारे लिये परम सुखद है। वे ही हमारे रक्षक, गति और परम आश्रय हैं।॥ १७॥

वयं परिचरिष्यामः सीतां यूयं च राघवम्।
इति पौरस्त्रियोभर्तृन् दुःखार्तास्तत्तदब्रुवन्॥१८॥

‘हम स्त्रियाँ सीताजी की सेवा करेंगी और तुम सब लोग श्रीरघुनाथजी की सेवा में लगे रहना।’ इस प्रकार पुरवासियों की स्त्रियाँ दुःख से आतुर हो अपने पतियों से उपर्युक्त बातें कहने लगीं॥ १८॥

युष्माकं राघवोऽरण्ये योगक्षेमं विधास्यति।
सीता नारीजनस्यास्य योगक्षेमं करिष्यति॥१९॥

(वे पुनः बोलीं-) ‘वन में श्रीरामचन्द्रजी आपलोगों का योगक्षेम सिद्ध करेंगे और सीताजी हम नारियों के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी॥ १९ ॥

को न्वनेनाप्रतीतेन सोत्कण्ठितजनेन च।
सम्प्रीयेतामनोज्ञेन वासेन हृतचेतसा॥२०॥

‘यहाँ का निवास प्रीति और प्रतीति से रहित है। यहाँ के सब लोग श्रीराम के लिये उत्कण्ठित रहते हैं। किसी को यहाँ का रहना अच्छा नहीं लगता तथा यहाँ रहने से मन अपनी सुध-बुध खो बैठता है। भला, ऐसे निवाससे  किसको प्रसन्नता होगी? ॥ २० ॥

कैकेय्या यदि चेद् राज्यं स्यादधर्म्यमनाथवत् ।
न हि नो जीवितेनार्थः कुतः पुत्रैः कुतो धनैः॥

‘यदि इस राज्य पर कैकेयी का अधिकार हो गया तो यह अनाथ-सा हो जायगा। इसमें धर्म की मर्यादा नहीं रहने पायेगी। ऐसे राज्य में तो हमें जीवित रहने की ही आवश्यकता नहीं जान पड़ती, फिर यहाँ धन और पुत्रों से क्या लेना है ? ॥ २१॥

यया पुत्रश्च भर्ता च त्यक्तावैश्वर्यकारणात्।
कं सा परिहरेदन्यं कैकेयी कलपांसनी॥२२॥

‘जिसने राज्य-वैभव के लिये अपने पुत्र और पति को त्याग दिया, वह कुलकलङ्किनी कैकेयी दूसरे किसका त्याग नहीं करेगी? ॥ २२ ॥

नहि प्रव्रजिते रामे जीविष्यति महीपतिः।
कैकेय्या न वयं राज्ये भृतका हि वसेमहि।
जीवन्त्या जातु जीवन्त्यः पुत्रैरपि शपामहे ॥ २३॥

‘हम अपने पुत्रों की शपथ खाकर कहती हैं कि जबतक कैकेयी जीवित रहेगी, तबतक हम जीते-जी कभी उसके राज्य में नहीं रह सकेंगी, भले ही यहाँ हमारा पालन-पोषण होता रहे (फिर भी हम यहाँ रहना नहीं चाहेंगी) ॥२३॥

या पुत्रं पार्थिवेन्द्रस्य प्रवासयति निघृणा।
कस्तां प्राप्य सुखं जीवेदधर्म्या दुष्टचारिणीम्॥ २४॥

‘जिस निर्दय स्वभाववाली नारी ने महाराज के पुत्र को राज्यसे बाहर निकलवा दिया है, उस अधर्म परायणा दुराचारिणी कैकेयी के अधिकार में रहकर कौन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है ? ॥२४॥

उपद्रुतमिदं सर्वमनालम्भमनायकम्।
कैकेय्यास्तु कृते सर्वं विनाशमुपयास्यति॥२५॥

‘कैकेयी के कारण यह सारा राज्य अनाथ एवं यज्ञरहित होकर उपद्रव का केन्द्र बन गया है, अतः एक दिन सबका विनाश हो जायगा॥ २५ ॥

नहि प्रव्रजिते रामे जीविष्यति महीपतिः।
मृते दशरथे व्यक्तं विलोपस्तदनन्तरम्॥२६॥

‘श्रीरामचन्द्रजी के वनवासी हो जाने पर महाराज दशरथ जीवित नहीं रहेंगे। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि राजा दशरथ की मृत्यु के पश्चात् इस राज्य का लोप हो जायगा॥२६॥

ते विषं पिबतालोड्य क्षीणपुण्याः सुदुःखिताः।
राघवं वानुगच्छध्वमश्रुतिं वापि गच्छत॥२७॥

‘इसलिये अब तुमलोग यह समझ लो कि अब हमारे पुण्य समाप्त हो गये। यहाँ रहकर हमें अत्यन्त दुःख ही भोगना पड़ेगा। ऐसी दशा में या तो जहर घोलकर पी जाओ या श्रीराम का अनुसरण करो
अथवा किसी ऐसे देश में चले चलो, जहाँ कैकेयी का नाम भी न सुनायी पड़े॥२७॥

मिथ्याप्रव्राजितो रामः सभार्यः सहलक्ष्मणः।
भरते संनिबद्धाः स्मः सौनिके पशवो यथा॥ २८॥

‘झूठे वर की कल्पना करके पत्नी और लक्ष्मण के साथ श्रीराम को देश निकाला दे दिया गया और हमें भरत के साथ बाँध दिया गया। अब हमारी दशा कसाई के घर बँधे हुए पशुओं के समान हो गयी है। २८॥

पूर्णचन्द्राननः श्यामो गूढजत्रुररिंदमः।
आजानुबाहुः पद्माक्षो रामो लक्ष्मणपूर्वजः॥२९॥
पूर्वाभिभाषी मधुरः सत्यवादी महाबलः।
सौम्यश्च सर्वलोकस्य चन्द्रवत् प्रियदर्शनः॥ ३०॥

‘लक्ष्मण के ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर है। उनके शरीर की कान्ति श्याम, गले की हँसली मांस से ढकी हुई, भुजाएँ घुटनों तक लंबी और नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। । वे सामने आने पर पहले ही बातचीत छेड़ते हैं तथा मीठे और सत्य वचन बोलते हैं। श्रीराम शत्रुओं का दमन करने वाले और महान बलवान हैं। समस्त जगत् के लिये सौम्य (कोमल स्वभाव वाले) हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान प्यारा है॥ २९-३०॥

नूनं पुरुषशार्दूलो मत्तमातङ्गविक्रमः।
शोभयिष्यत्यरण्यानि विचरन् स महारथः॥ ३१॥

‘निश्चय ही मतवाले गजराज के समान पराक्रमी पुरुषसिंह महारथी श्रीराम भूतल पर विचरते हुए वनस्थलियों की शोभा बढ़ायेंगे’ ॥ ३१॥

तास्तथा विलपन्त्यस्तु नगरे नागरस्त्रियः।
चुक्रुशुर्दुःखसंतप्ता मृत्योरिव भयागमे॥ ३२॥

नगर में नागरिकों की स्त्रियाँ इस प्रकार विलाप करती हुई दुःख से संतप्त हो इस तरह जोर-जोर से रोने लगीं, मानो उन पर मृत्यु का भय आ गया हो॥ ३२॥

इत्येवं विलपन्तीनां स्त्रीणां वेश्मसु राघवम्।
जगामास्तं दिनकरो रजनी चाभ्यवर्तत॥३३॥

अपने-अपने घरों में श्रीराम के लिये स्त्रियाँ इस प्रकार दिनभर विलाप करती रहीं। धीरे-धीरे सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये और रात हो गयी॥ ३३॥

नष्टज्वलनसंतापा प्रशान्ताध्यायसत्कथा।
तिमिरेणानुलिप्तेव तदा सा नगरी बभौ ॥ ३४॥

उस समय किसी के घर में अग्निहोत्र के लिये भी आग नहीं जली। स्वाध्याय और कथा-वार्ता भी नहीं हुई। सारी अयोध्यापुरी अन्धकार से पुती हुई-सी प्रतीत होती थी॥

उपशान्तवणिक्पण्या नष्टहर्षा निराश्रया।
अयोध्या नगरी चासीन्नष्टतारमिवाम्बरम्॥ ३५॥

बनियों की दुकानें बंद होने के कारण वहाँ चहल पहल नहीं थी, सारी पुरी की हँसी-खुशी छिन गयी थी, श्रीरामरूपी आश्रय से रहित अयोध्यानगरी जिसके तारे छिप गये हों, उस आकाश के समान श्रीहीन जान पड़ती थी॥ ३५॥

तदा स्त्रियो रामनिमित्तमातुरा यथा सुते भ्रातरि वा विवासिते।
विलप्य दीना रुरुदुर्विचेतसः सुतैर्हि तासामधिकोऽपि सोऽभवत्॥३६॥

उस समय नगरवासिनी स्त्रियाँ श्रीराम के लिये इस तरह शोकातुर हो रही थीं, मानो उनके सगे बेटे या भाई को देश निकाला दे दिया गया हो। वे अत्यन्त दीनभाव से विलाप करके रोने लगी और रोते-रोते अचेत हो गयीं; क्योंकि श्रीराम उनके लिये पुत्रों (तथा भाइयों)-से भी बढ़कर थे॥३६॥

प्रशान्तगीतोत्सवनृत्यवादना विभ्रष्टहर्षा पिहितापणोदया।
तदा ह्ययोध्या नगरी बभूव सा महार्णवः संक्षपितोदको यथा॥ ३७॥

वहाँ गाने, बजाने और नाचने के उत्सव बंद हो गये, सबका उत्साह जाता रहा, बाजार की दुकानें नहीं खुलीं, इन सब कारणों से उस समय अयोध्यानगरी जलहीन समुद्र के समान सूनसान लग रही थी॥ ३७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टचत्वारिंशः सर्गः॥ ४८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४८॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 48 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 48

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: