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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 50

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 50)

श्रीराम का शृङ्गवेरपुर में गङ्गा तट पर पहुँचकर रात्रि में निवास, वहाँ निषादराज गुह द्वारा उनका सत्कार

 

विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः।
अयोध्यामुन्मुखो धीमान् प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १॥

इस प्रकार विशाल और रमणीय कोसलदेशकी सीमाको पार करके लक्ष्मणके बड़े भाई बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने अयोध्याकी ओर अपना मुख किया और हाथ जोड़कर कहा- ॥१॥

आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते।
दैवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च॥ २॥

‘ककुत्स्थवंशी राजाओं से परिपालित परीशिरोमणि अयोध्ये! मैं तुमसे तथा जो-जो देवता तुम्हारी रक्षा करते और तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, उनसे भी वन में जाने की आज्ञा चाहता हूँ॥२॥

निवृत्तवनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः।
पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह संगतः॥३॥

‘वनवास की अवधि पूरी करके महाराज के ऋण से उऋण हो मैं पुनः लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पिता से भी मिलूँगा’ ॥ ३॥

ततो रुचिरताम्राक्षो भुजमुद्यम्य दक्षिणम्।
अश्रुपूर्णमुखो दीनोऽब्रवीज्जानपदं जनम्॥४॥

इसके बाद सुन्दर एवं अरुण नेत्र वाले श्रीराम ने दाहिनी भुजा उठाकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए दुःखी होकर जनपद के लोगों से कहा- ॥ ४॥

अनुक्रोशो दया चैव यथार्ह मयि वः कृतः।
चिरं दुःखस्य पापीयो गम्यतामर्थसिद्धये ॥५॥

‘आपने मुझपर बड़ी कृपा की और यथोचित दया दिखायी। मेरे लिये आपलोगों ने बहुत देर तक कष्टसहन किया। इस तरह आपका देर तक दुःख में पड़े रहना अच्छा नहीं है; इसलिये अब आपलोग अपना अपना कार्य करने के लिये जाइये ॥५॥

तेऽभिवाद्य महात्मानं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
विलपन्तो नरा घोरं व्यतिष्ठंश्च क्वचित् क्वचित्॥६॥

यह सुनकर उन मनुष्यों ने महात्मा श्रीराम को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और घोर विलाप करते हुए वे जहाँ-तहाँ खड़े हो गये॥६॥

तथा विलपतां तेषामतृप्तानां च राघवः।
अचक्षुर्विषयं प्रायाद् यथार्कः क्षणदामुखे॥७॥

उनकी आँखें अभी श्रीराम के दर्शन से तृप्त नहीं हुई थीं और वे पूर्वोक्त रूप से विलाप कर ही रहे थे, इतने में श्रीरघुनाथजी उनकी दृष्टि से ओझल हो गये, जैसे सूर्य प्रदोषकाल में छिप जाते हैं॥७॥ ततो

धान्यधनोपेतान् दानशीलजनान् शिवान्।
अकुतश्चिद्भयान् रम्यांश्चैत्ययूपसमावृतान्॥८॥
उद्यानाम्रवणोपेतान् सम्पन्नसलिलाशयान्।
तुष्टपुष्टजनाकीर्णान् गोकुलाकुलसेवितान्॥९॥
रक्षणीयान् नरेन्द्राणां ब्रह्मघोषाभिनादितान्।
रथेन पुरुषव्याघ्रः कोसलानत्यवर्तत ॥१०॥

इसके बाद पुरुषसिंह श्रीराम रथ के द्वारा ही उस कोसल जनपद को लाँघ गये, जो धन-धान्य से सम्पन्न और सुखदायक था। वहाँ के सब लोग दानशील थे। उस जनपद में कहीं से कोई भय नहीं था। वहाँ के भूभाग रमणीय एवं चैत्य-वृक्षों तथा यज्ञ-सम्बन्धी यूपों से व्याप्त थे। बहुत-से उद्यान और आमों के वन उस जनपद की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ जल से भरे हुए बहुत-से जलाशय सुशोभित थे। सारा जनपद हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा था; गौओं के समूहों से व्याप्त और सेवित था। वहाँ के ग्रामों की बहुत-से नरेश रक्षा करते थे तथा वहाँ वेदमन्त्रों की ध्वनि गूंजती रहती थी॥ ८ -१०॥

मध्येन मुदितं स्फीतं रम्योद्यानसमाकुलम्।
राज्यं भोज्यं नरेन्द्राणां ययौ धृतिमतां वरः॥ ११॥

कोसलदेश से आगे बढ़ने पर धैर्यवानों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी मध्यमार्ग से ऐसे राज्य में होकर निकले, जो सुख-सुविधा से युक्त, धन-धान्य से सम्पन्न, रमणीय उद्यानों से व्याप्त तथा सामन्त नरेशों के उपभोग में आने वाला था॥ ११॥

तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयामशैवलाम्।
ददर्श राघवो गङ्गां रम्यामृषिनिषेविताम्॥१२॥

उस राज्य में श्रीरघुनाथजी ने त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गङ्गा का दर्शन किया, जो शीतल जल से भरी हुई, सेवारों से रहित तथा रमणीय थीं। बहुत-से महर्षि उनका सेवन करते थे॥ १२ ॥

आश्रमैरविदूरस्थैः श्रीमद्भिः समलंकृताम्।
कालेऽप्सरोभिर्हृष्टाभिः सेविताम्भोह्रदां शिवाम्॥ १३॥

उनके तट पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर बहुत-से सुन्दर आश्रम बने थे, जो उन देवनदी की शोभा बढ़ाते थे। समय-समय पर हर्ष भरी अप्सराएँ भी उतरकर उनके जलकुण्ड का सेवन करती हैं। वे गङ्गा सबका कल्याण करने वाली हैं॥ १३॥

देवदानवगन्धर्वैः किंनरैरुपशोभिताम्।
नागगन्धर्वपत्नीभिः सेवितां सततं शिवाम्॥१४॥

देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर उन शिवस्वरूपा भागीरथी की शोभा बढ़ाते हैं। नागों और गन्धर्वो की पत्नियाँ उनके जल का सदा सेवन करती हैं।॥ १४॥

देवाक्रीडशताकीर्णा देवोद्यानयुतां नदीम्।
देवार्थमाकाशगतां विख्यातां देवपद्मिनीम्॥१५॥

गङ्गा के दोनों तटों पर देवताओं के सैकड़ों पर्वतीय क्रीड़ास्थल हैं। उनके किनारे देवताओं के बहुत-से उद्यान भी हैं। वे देवताओं की क्रीड़ा के लिये आकाश में भी विद्यमान हैं और वहाँ देवपद्मिनी के रूप में विख्यात हैं॥

जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीम्।
क्वचिद् वेणीकृतजलां क्वचिदावर्तशोभिताम्॥ १६॥

प्रस्तरखण्डों से गङ्गा के जल के टकराने से जो शब्द होता है, वही मानो उनका उग्र अट्टहास है। जल से जो फेन प्रकट होता है, वही उन दिव्य नदी का निर्मल हास है। कहीं तो उनका जल वेणी के आकार का है और कहीं वे भँवरों से सुशोभित होती हैं॥ १६॥

क्वचित् स्तिमितगम्भीरां क्वचिद् वेगसमाकुलाम्।
क्वचिद् गम्भीरनिर्घोषां क्वचिद् भैरवनिःस्वनाम्॥१७॥

कहीं उनका जल निश्चल एवं गहरा है। कहीं वे महान् वेगसे व्याप्त हैं। कहीं उनके जलसे मृदङ्ग आदिके समान गम्भीर घोष प्रकट होता है और कहीं वज्रपात आदिके समान भयंकर नाद सुनायी पड़ता है॥ १७॥

देवसंघाप्लुतजलां निर्मलोत्पलसंकुलाम्।
क्वचिदाभोगपुलिनां क्वचिन्निर्मलवालुकाम्॥ १८॥

उनके जलमें देवताओं के समुदाय गोते लगाते हैं। कहीं-कहीं उनका जल नील कमलों अथवा कुमुदों से आच्छादित होता है। कहीं विशाल पुलिन का दर्शन होता है तो कहीं निर्मल बालुका-राशिका॥ १८॥

हंससारससंघुष्टां चक्रवाकोपशोभिताम्।
सदामत्तैश्च विहगैरभिपन्नामनिन्दिताम्॥१९॥

हंसों और सारसों के कलरव वहाँ गूंजते रहते हैं। चकवे उन देवनदी की शोभा बढ़ाते हैं। सदा मदमत्त रहने वाले विहंगम उनके जलपर मँडराते रहते हैं। वे उत्तम शोभा से सम्पन्न हैं॥ १९॥

क्वचित् तीररुहैर्वृक्षर्मालाभिरिव शोभिताम्।
क्वचित् फुल्लोत्पलच्छन्नां क्वचित् पद्मवनाकुलाम्॥२०॥

कहीं तटवर्ती वृक्ष मालाकार होकर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। कहीं तो उनका जल खिले हुए उत्पलों से आच्छादित है और कहीं कमलवनों से व्याप्त॥ २० ॥

क्वचित् कुमुदखण्डैश्च कुड्मलैरुपशोभिताम्।
नानापुष्परजोध्वस्तां समदामिव च क्वचित्॥ २१॥

कहीं कुमुदसमूह तथा कहीं कलिकाएँ उन्हें सुशोभित करती हैं। कहीं नाना प्रकार के पुष्पों के परागों से व्याप्त होकर वे मदमत्त नारी के समान प्रतीत होती हैं।

व्यपेतमलसंघातां मणिनिर्मलदर्शनाम।
दिशागजैर्वनगजैर्मत्तैश्च वरवारणैः ॥२२॥
देवराजोपवाय॑श्च संनादितवनान्तराम्।

वे मलसमूह (पापराशि) दूर कर देती हैं। उनका जल इतना स्वच्छ है कि मणि के समान निर्मल दिखायी देता है। उनके तटवर्ती वन का भीतरी भाग मदमत्त दिग्गजों, जंगली हाथियों तथा देवराज की सवारी में आने वाले श्रेष्ठ गजराजों से कोलाहलपूर्ण बना रहता है।

प्रमदामिव यत्नेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥२३॥
फलपुष्पैः किसलयैर्वृतां गुल्मैर्दिजैस्तथा।
विष्णुपादच्युतां दिव्यामपापां पापनाशिनीम्॥ २४॥

वे फलों, फूलों, पल्लवों, गुल्मों तथा पक्षियों से आवृत होकर उत्तम आभूषणों से यत्नपूर्वक विभूषित हुई युवती के समान शोभा पाती हैं। उनका प्राकट्य भगवान् विष्णु के चरणों से हुआ है। उनमें पाप का लेश भी नहीं है। वे दिव्य नदी गङ्गा जीवों के समस्त पापों का नाश कर देने वाली हैं॥ २३-२४॥

शिंशुमारैश्च नक्रैश्च भुजंगैश्च समन्विताम्।
शंकरस्य जटाजूटाद् भ्रष्टां सागरतेजसा ॥ २५॥
समुद्रमहिषीं गङ्गां सारसक्रौञ्चनादिताम्।
आससाद महाबाहुः शृङ्गवेरपुरं प्रति॥२६॥

उनके जल में राँस, घड़ियाल और सर्प निवास करते हैं। सगरवंशी राजा भगीरथ के तपोमय तेज से जिनका शंकरजी के जटाजूट से अवतरण हुआ था, जो समुद्र की रानी हैं तथा जिनके निकट सारस और क्रौञ्च पक्षी कलरव करते रहते हैं, उन्हीं देवनदी गङ्गा के पास महाबाहु श्रीरामजी पहुँचे। गङ्गा की वह धारा शृङ्गवेरपुर में बह रही थी॥ २५-२६॥

तामूर्मिकलिलावर्तामन्ववेक्ष्य महारथः।
सुमन्त्रमब्रवीत् सूतमिहैवाद्य वसामहे ॥२७॥

जिनके आवर्त (भँवरें) लहरों से व्याप्त थे, उन गङ्गाजी का दर्शन करके महारथी श्रीराम ने सारथि सुमन्त्र से कहा- ‘सूत! आज हम लोग यहीं रहेंगे’। २७॥

अविदूरादयं नद्या बहुपुष्पप्रवालवान्।
सुमहानिङ्गदीवृक्षो वसामोऽत्रैव सारथे॥२८॥

‘सारथे! गङ्गाजी के समीप ही जो यह बहुत-से फूलों और नये-नये पल्लवों से सुशोभित महान् इङ्गदी का वृक्ष है, इसीके नीचे आज रात में हम निवास करेंगे॥ २८॥

प्रेक्षामि सरितां श्रेष्ठां सम्मान्यसलिलां शिवाम्।
देवमानवगन्धर्वमृगपन्नगपक्षिणाम्॥२९॥

‘जिनका जल देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वो, सो, पशुओं तथा पक्षियों के लिये भी समादरणीय है, उन कल्याणस्वरूपा, सरिताओं में श्रेष्ठ गङ्गाजी का भी मुझे यहाँ से दर्शन होता रहेगा’ ॥ २९॥

लक्ष्मणश्च सुमन्त्रश्च बाढमित्येव राघवम्।
उक्त्वा तमिङ्गदीवृक्षं तदोपययतुर्हयैः॥ ३०॥

तब लक्ष्मण और सुमन्त्र भी श्रीरामचन्द्रजी से बहुत अच्छा कहकर अश्वों द्वारा उस इंगुदी-वृक्ष के समीप गये॥

रामोऽभियाय तं रम्यं वृक्षमिक्ष्वाकुनन्दनः।
रथादवतरत् तस्मात् सभार्यः सहलक्ष्मणः॥३१॥

उस रमणीय वृक्ष के पास पहुँचकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ रथ से उतर गये॥ ३१॥

सुमन्त्रोऽप्यवतीर्याथ मोचयित्वा हयोत्तमान्।
वृक्षमूलगतं राममुपतस्थे कृताञ्जलिः॥३२॥

फिर सुमन्त्र ने भी उतरकर उत्तम घोड़ों को खोल दिया और वृक्ष की जड़पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी के पास जाकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ ३२॥

तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा।
निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः॥ ३३॥

शृङ्गवेरपुर में गुह नाम का राजा राज्य करता था। वह श्रीरामचन्द्रजी का प्राणों के समान प्रिय मित्र था। उसका जन्म निषादकुल में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्ति की दृष्टि से भी बलवान् था तथा वहाँ के निषादों का सुविख्यात राजा था॥ ३३॥

स श्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं रामं विषयमागतम्।
वृद्धैः परिवृतोऽमात्यैातिभिश्चाप्युपागतः॥ ३४॥

उसने जब सुना कि पुरुषसिंह श्रीराम मेरे राज्यमें पधारे हैं, तब वह बूढ़े मन्त्रियों और बन्धु-बान्धवों से घिरा हुआ वहाँ आया॥ ३४॥

ततो निषादाधिपतिं दृष्ट्वा दूरादुपस्थितम्।
सह सौमित्रिणा रामः समागच्छद् गुहेन सः॥ ३५॥

निषादराज को दूर से आया हुआ देख श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ आगे बढ़कर उससे मिले॥ ३५ ॥

तमार्तः सम्परिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत्।
यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते॥३६॥
ईदृशं हि महाबाहो कः प्राप्स्यत्यतिथिं प्रियम्।

श्रीरामचन्द्रजी को वल्कल आदि धारण किये देख गुह को बड़ा दुःख हुआ। उसने श्रीरघुनाथजी को हृदय से लगाकर कहा—’श्रीराम! आपके लिये जैसे अयोध्या का राज्य है, उसी प्रकार यह राज्य भी है। बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? महाबाहो! आप-जैसा प्रिय अतिथि किसको सुलभ होगा?’ ॥ ३६ १/२॥

ततो गुणवदन्नाद्यमुपादाय पृथग्विधम्॥३७॥
अर्घ्य चोपानयच्छीघ्रं वाक्यं चेदमुवाच ह।
स्वागतं ते महाबाहो तवेयमखिला मही॥ ३८॥
वयं प्रेष्या भवान् भर्ता साधु राज्यं प्रशाधि नः।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चैतदुपस्थितम्।
शयनानि च मुख्यानि वाजिनां खादनं च ते॥

फिर भाँति-भाँति का उत्तम अन्न लेकर वह सेवा में उपस्थित हुआ। उसने शीघ्र ही अर्घ्य निवेदन किया और इस प्रकार कहा—’महाबाहो! आपका स्वागत है। यह सारी भूमि, जो मेरे अधिकार में है, आपकी ही है। हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी, आज से आप ही हमारे इस राज्य का भलीभाँति शासन करें। यह भक्ष्य (अन्न आदि), भोज्य (खीर आदि), पेय(पानकरस आदि) तथा लेह्य (चटनी आदि) आपकी सेवा में उपस्थित है, इसे स्वीकार करें। ये उत्तमोत्तम शय्याएँ हैं तथा आपके घोड़ों के खाने के लिये चने और घास आदि भी प्रस्तुत हैं—ये सब सामग्री ग्रहण करें’॥ ३७–३९॥

गुहमेवं ब्रुवाणं तु राघवः प्रत्युवाच ह।
अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वदा वयम्॥४०॥
पद्भ्यामभिगमाच्चैव स्नेहसंदर्शनेन च।

गुह के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्रजी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया—’सखे! तुम्हारे यहाँ तक पैदल आने और स्नेह दिखाने से ही हमारा सदा के लिये भलीभाँति पूजन-स्वागत-सत्कार हो गया। तुमसे मिलकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है’। ४० १/२ ॥

भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन् वाक्यमब्रवीत्॥४१॥
दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि ह्यरोगं सह बान्धवैः।
अपि ते कुशलं राष्ट्र मित्रेषु च वनेषु च॥४२॥

फिर श्रीराम ने अपनी दोनों गोल-गोल भुजाओं से गुह का अच्छी तरह आलिङ्गन करते हुए कहा -‘गुह! सौभाग्य की बात है कि मैं आज तुम्हें बन्धुबान्धवों के साथ स्वस्थ एवं सानन्द देख रहा हूँ। बताओ, तुम्हारे राज्य में, मित्रों के यहाँ तथा वनों में सर्वत्र कुशल तो है? ॥ ४१-४२॥

यत् त्विदं भवता किंचित् प्रीत्या समुपकल्पितम्।
सर्वं तदनुजानामि नहि वर्ते प्रतिग्रहे॥४३॥

‘तुमने प्रेमवश यह जो कुछ सामग्री प्रस्तुत की है, इसे स्वीकार करके मैं तुम्हें वापिस ले जाने की आज्ञा देता हूँ; क्योंकि इस समय दूसरों की दी हुई कोई भी वस्तु मैं ग्रहण नहीं करता-अपने उपयोग में नहीं लाता॥

कुशचीराजिनधरं फलमूलाशनं च माम्।
विद्धि प्रणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम्॥४४॥

‘वल्कल और मृगचर्म धारण करके फल-मूल का आहार करता हूँ और धर्म स्थित रहकर तापस वेश में वन के भीतर ही विचरता हूँ। इन दिनों तुम मुझे इसी नियम में स्थित जानो॥४४॥

अश्वानां खादनेनाहमर्थी नान्येन केनचित् ।
एतावतात्र भवता भविष्यामि सुपूजितः॥४५॥

‘इन सामग्रियों में जो घोड़ों के खाने-पीने की वस्तु है, उसी की इस समय मुझे आवश्यकता है, दूसरी किसी वस्तु की नहीं। घोड़ों को खिला-पिला देने मात्र से तुम्हारे द्वारा मेरा पूर्ण सत्कार हो जायगा।॥ ४५ ॥

एते हि दयिता राज्ञः पितुर्दशरथस्य मे।
एतैः सुविहितैरश्वैर्भविष्याम्यहमर्चितः॥४६॥

‘ये घोड़े मेरे पिता महाराज दशरथ को बहुत प्रिय हैं। इनके खाने-पीने का सुन्दर प्रबन्ध कर देने से मेरा भलीभाँति पूजन हो जायगा’ ॥ ४६॥

अश्वानां प्रतिपानं च खादनं चैव सोऽन्वशात्।
गुहस्तत्रैव पुरुषांस्त्वरितं दीयतामिति॥४७॥

तब गुह ने अपने सेवकों को उसी समय यह आज्ञा दी कि तुम घोड़ों के खाने-पीने के लिये आवश्यक वस्तुएँ शीघ्र लाकर दो॥ ४७॥

ततश्चीरोत्तरासङ्गः संध्यामन्वास्य पश्चिमाम्।
जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणोनाहृतं स्वयम्॥४८॥

तत्पश्चात् वल्कल का उत्तरीय-वस्त्र धारण करने वाले श्रीराम ने सायंकाल की संध्योपासना करके भोजन के नाम पर स्वयं लक्ष्मण का लाया हुआ केवल जलमात्र पी लिया॥ ४८॥

तस्य भूमौ शयानस्य पादौ प्रक्षाल्य लक्ष्मणः।
सभार्यस्य ततोऽभ्येत्य तस्थौ वृक्षमुपाश्रितः॥ ४९॥

फिर पत्नीसहित श्रीराम भूमि पर ही तृण की शय्या बिछाकर सोये। उस समय लक्ष्मण उनके दोनों चरणों को धो-पोंछकर वहाँ से कुछ दूर पर हट आये और एक वृक्ष का सहारा लेकर बैठ गये॥४९॥

गुहोऽपि सह सूतेन सौमित्रिमनुभाषयन्।
अन्वजाग्रत् ततो राममप्रमत्तो धनुर्धरः॥५०॥

गुह भी सावधानी के साथ धनुष धारण करके सुमन्त्र के साथ बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बातचीत करता हुआ श्रीराम की रक्षा के लिये रातभर जागता रहा। ५०॥

तथा शयानस्य ततो यशस्विनो मनस्विनो दाशरथेर्महात्मनः।
अदृष्टदुःखस्य सुखोचितस्य सा तदा व्यतीता सुचिरेण शर्वरी॥५१॥

इस प्रकार सोये हुए यशस्वी मनस्वी दशरथनन्दन महात्मा श्रीराम की, जिन्होंने कभी दुःख नहीं देखा था तथा जो सुख भोगने के ही योग्य थे, वह रात उस समय (नींद न आने के कारण) बहुत देर के बाद व्यतीत हुई।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ।५०॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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