वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 51 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 51
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 51)
निषादराज गुह के समक्ष लक्ष्मण का विलाप
तं जाग्रतमदम्भेन भ्रातुराय लक्ष्मणम्।
गुहः संतापसंतप्तो राघवं वाक्यमब्रवीत्॥१॥
लक्ष्मण को अपने भाई के लिये स्वाभाविक अनुराग से जागते देख निषादराज गुह को बड़ा संताप हुआ। उसने रघुकुलनन्दन लक्ष्मण से कहा- ॥१॥
इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता।
प्रत्याश्वसिहि साध्वस्यां राजपुत्र यथासुखम्॥ २॥
‘तात! राजकुमार! तुम्हारे लिये यह आराम देने वाली शय्या तैयार है, इस पर सुखपूर्वक सोकर भलीभाँति विश्राम कर लो॥२॥
उचितोऽयं जनः सर्वः क्लेशानां त्वं सुखोचितः।
गुप्त्यर्थं जागरिष्यामः काकुत्स्थस्य वयं निशाम्॥ ३॥
‘यह (मैं) सेवक तथा इसके साथ के सब लोग वनवासी होने के कारण सब प्रकार के क्लेश सहन करने के योग्य हैं (क्योंकि हम सबको कष्ट सहने का अभ्यास है), परंतु तुम सुख में ही पले हो, अतः उसी के योग्य हो (इसलिये सो जाओ)। हम सब लोग श्रीरामचन्द्रजी की रक्षा के लिये रातभर जागते रहेंगे॥३॥
नहि रामात् प्रियतमो ममास्ते भुवि कश्चन।
ब्रवीम्येव च ते सत्यं सत्येनैव च ते शपे॥४॥
‘मैं सत्य की ही शपथ खाकर तुमसे सत्य कहता हूँ कि इस भूतल पर मुझे श्रीराम से बढ़कर प्रिय दूसरा कोई नहीं है॥४॥
अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन् सुमहद् यशः।
धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थकामौ च पुष्कलौ॥५॥
‘इन श्रीरघुनाथजी के प्रसाद से ही मैं इस लोक में महान् यश, विपुल धर्म-लाभ तथा प्रचुर अर्थ एवं भोग्य वस्तु पाने की आशा करता हूँ॥ ५॥
सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया।
रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वथा ज्ञातिभिः सह ॥ ६॥
अतः मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ हाथ में धनुष लेकर सीतासहित सोये हुए प्रियसखा श्रीराम की सब प्रकार से रक्षा करूँगा॥६॥
न मेऽस्त्यविदितं किंचिद वनेऽस्मिंश्चरतः सदा।
चतुरङ्ग ह्यतिबलं सुमहत् संतरेमहि ॥७॥
‘इस वन में सदा विचरते रहने के कारण मुझसे यहाँ की कोई बात छिपी नहीं है। हमलोग यहाँ शत्रु की अत्यन्त शक्तिशालिनी विशाल चतुरङ्गिणी सेना को भी अनायास ही जीत लेंगे’॥ ७॥
लक्ष्मणस्तु तदोवाच रक्ष्यमाणास्त्वयानघ।
नात्र भीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता॥८॥
कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया।
शक्या निद्रा मया लब्धं जीवितं वा सुखानि वा॥ ९॥
यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा—’निष्पाप निषादराज ! तुम धर्म पर ही दृष्टि रखते हुए हमारी रक्षा करते हो,इसलिये इस स्थान पर हम सब लोगों के लिये कोई भय नहीं है। फिर भी जब महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र सीता के साथ भूमि पर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिये उत्तम शय्यापर सोकर नींद लेना, जीवनधारण के लिये स्वादिष्ट अन्न खाना अथवा दूसरे-दूसरे सुखों को भोगना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥ ८-९॥
यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि।
तं पश्य सुखसंसुप्तं तृणेषु सह सीतया॥१०॥
‘देखो! सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में जिनके वेग को नहीं सह सकते, वे ही श्रीराम इस समय सीता के साथ तिनकों के ऊपर सुखसे सो रहे हैं॥ १०॥
यो मन्त्रतपसा लब्धो विविधैश्च पराक्रमैः।
एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः॥११॥
अस्मिन् प्रव्रजिते राजा न चिरं वर्तयिष्यति।
विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति॥१२॥
‘गायत्री आदि मन्त्रों के जप, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि तप तथा नाना प्रकार के पराक्रम (यज्ञानुष्ठान आदि प्रयत्न) करने से जो महाराज दशरथ को अपने समान उत्तम लक्षणों से युक्त ज्येष्ठ पुत्र के रूप में प्राप्त हुए हैं, उन्हीं इन श्रीराम के वन में आ जाने से अब राजा दशरथ अधिक कालतक जीवन धारण नहीं कर सकेंगे। जान पड़ता है, निश्चय ही यह पृथ्वी अब शीघ्र विधवा हो जायगी॥ ११-१२ ॥
विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः।
निर्घोषोपरतं तात मन्ये राजनिवेशनम्॥१३॥
‘तात! रनिवासकी स्त्रियाँ बड़े जोर से आर्तनाद करके अधिक श्रम के कारण अब चुप हो गयी होंगी। मैं समझता हूँ, राजभवन का हाहाकार और चीत्कार अब शान्त हो गया होगा॥ १३ ॥
कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम।
नाशंसे यदि जीवन्ति सर्वे ते शर्वरीमिमाम्॥ १४॥
‘महारानी कौसल्या, राजा दशरथ तथा मेरी माता सुमित्रा—ये सब लोग आज की राततक जीवित रहेंगे या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता॥ १४ ॥
जीवेदपि हि मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया।
तद् दुःखं यदि कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति॥ १५॥
‘शत्रुघ्न की बाट देखने के कारण सम्भव है मेरी माता जीवित रह जाय, परंतु यदि वीरजननी कौसल्या श्रीराम के विरह में नष्ट हो जायँगी तो यह हमलोगों के लिये बड़े दुःखकी बात होगी॥ १५॥
अनुरक्तजनाकीर्णा सुखालोकप्रियावहा।
राजव्यसनसंसृष्टा सा पुरी विनशिष्यति ॥१६॥
‘जिसमें श्रीराम के अनुरागी मनुष्य भरे हुए हैं तथा जो सदा सुखका दर्शनरूप प्रिय वस्तु की प्राप्ति कराने वाली रही है, वह अयोध्यापुरी राजा दशरथ के निधनजनित दुःख से युक्त होकर नष्ट हो जायगी॥ १६॥
कथं पुत्रं महात्मानं ज्येष्ठपुत्रमपश्यतः।
शरीरं धारयिष्यन्ति प्राणा राज्ञो महात्मनः॥ १७॥
‘अपने ज्येष्ठ पुत्र महात्मा श्रीराम को न देखने पर महामना राजा दशरथ के प्राण उनके शरीर में कैसे टिके रह सकेंगे॥१७॥
विनष्टे नृपतौ पश्चात् कौसल्या विनशिष्यति।
अनन्तरं च मातापि मम नाशमुपैष्यति॥१८॥
‘महाराज के नष्ट होने पर देवी कौसल्या भी नष्ट हो जायँगी। तदनन्तर मेरी माता सुमित्रा भी नष्ट हुए बिना नहीं रहेंगी॥ १८॥
अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम्।
राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति॥१९॥
(महाराज की इच्छा थी कि श्रीराम को राज्य पर अभिषिक्त करूँ) अपने उस मनोरथ को न पाकर श्रीराम को राज्यपर स्थापित किये बिना ही ‘हाय! मेरा सब कुछ नष्ट हो गया, नष्ट हो गया’ ऐसा कहते हुए मेरे पिताजी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ १९ ॥
सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन् काले घुपस्थिते।
प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति राघवम्॥२०॥
‘उनकी उस मृत्यु का समय उपस्थित होने पर जो लोग रहेंगे और मेरे मरे हुए पिता रघुकुलशिरोमणि दशरथ का सभी प्रेतकार्यों में संस्कार करेंगे, वे ही सफल मनोरथ और भाग्यशाली हैं॥ २०॥
रम्यचत्वरसंस्थानां संविभक्तमहापथाम्।
हर्म्यप्रासादसम्पन्नां गणिकावरशोभिताम्॥२१॥
रथाश्वगजसम्बाधां तूर्यनादनिनादिताम्।
सर्वकल्याणसम्पूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम्॥ २२॥
आरामोद्यानसम्पन्नां समाजोत्सवशालिनीम्।
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानी पितुर्मम॥२३॥
‘(यदि पिताजी जीवित रहे तो) रमणीय चबूतरों और चौराहों के सुन्दर स्थानों से युक्त, पृथक्-पृथक् बने हुए विशाल राजमार्गों से अलंकृत, धनिकों की अट्टालिकाओं और देवमन्दिरों एवं राजभवनों से सम्पन्न, श्रेष्ठ वाराङ्गनाओंसे सुशोभित, रथों, घोड़ों और हाथियों के आवागमन से भरी हुई, विविध वाद्यों की ध्वनियों से निनादित, समस्त कल्याणकारी वस्तुओं से भरपूर, हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से सेवित, पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से विभूषित तथा सामाजिक उत्सवों से सुशोभित हुई मेरे पिता की राजधानी अयोध्यापुरी में जो लोग विचरेंगे, वास्तव में वे ही सुखी हैं॥ २१–२३॥
अपि जीवेद् दशरथो वनवासात् पुनर्वयम्।
प्रत्यागम्य महात्मानमपि पश्याम सुव्रतम्॥२४॥
‘क्या मेरे पिता महाराज दशरथ हमलोगों के लौटने तक जीवित रहेंगे? क्या वनवास से लौटकर उन उत्तम व्रतधारी महात्मा का हम फिर दर्शन कर सकेंगे?॥
अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम्।
निवृत्ते वनवासेऽस्मिन्नयोध्यां प्रविशेमहि ॥ २५॥
‘क्या वनवास की इस अवधि के समाप्त होने पर हमलोग सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम के साथ कुशलपूर्वक अयोध्यापुरी में प्रवेश कर सकेंगे?’ ॥ २५ ॥
परिदेवयमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः।
तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत ॥२६॥
इस प्रकार दुःख से आर्त होकर विलाप करते हुए महामना राजकुमार लक्ष्मण को वह सारी रात जागते ही बीती॥२६॥
तथा हि सत्यं ब्रुवति प्रजाहिते नरेन्द्रसूनौ गुरुसौहृदाद् गुहः।
मुमोच बाष्पं व्यसनाभिपीडितो ज्वरातुरो नाग इव व्यथातुरः॥२७॥
प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले राजकुमार लक्ष्मण जब बड़े भाई के प्रति सौहार्दवश उपर्युक्त रूप से यथार्थ बात कह रहे थे, उस समय उसे सुनकर निषादराज गुह दुःख से पीड़ित हो उठा और व्यथा से व्याकुल हो ज्वरसे आतुर हुए हाथी की भाँति आँसू बहाने लगा। २७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकपञ्चाशः सर्गः॥ ५१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्यावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५१॥
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