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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 52 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 52

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्विपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 52)

श्रीराम की आज्ञासे गुह का नाव मँगाना, श्रीराम का सुमन्त्र को समझाबुझाकर अयोध्यापुरी लौट जाने के लिये आज्ञा देना,सीताकी गङ्गाजी से प्रार्थना

 

प्रभातायां तु शर्वर्यां पृथुवक्षा महायशाः।
उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं शुभलक्षणम्॥१॥

जब रात बीती और प्रभात हुआ, उस समय विशाल वक्षवाले महायशस्वी श्रीरामने शुभलक्षणसम्पन्न सुमित्राकुमार लक्ष्मणसे इस प्रकार कहा- ॥१॥

भास्करोदयकालोऽसौ गता भगवती निशा।
असौ सुकृष्णो विहगः कोकिलस्तात कूजति॥ २॥

‘तात! भगवती रात्रि व्यतीत हो गयी अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। वह अत्यन्त कालेरंग का पक्षी कोकिल कुहू कुहू बोल रहा है। २॥

बर्हिणानां च निर्घोषः श्रूयते नदतां वने।
तराम जाह्नवीं सौम्य शीघ्रगां सागरङ्गमाम्॥३॥

‘वन में अव्यक्त शब्द करने वाले मयूरों की केकावाणी भी सुनायी देती है; अतः सौम्य! अब हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी गङ्गाजी के पार उतरना चाहिये’॥

विज्ञाय रामस्य वचः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः।
गुहमामन्त्र्य सूतं च सोऽतिष्ठद् भ्रातुरग्रतः॥४॥

मित्रों को आनन्दित करने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने श्रीरामचन्द्रजी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह और सुमन्त्र को बुलाकर पार उतरने की व्यवस्था करने के लिये कहा और स्वयं वे भाई के सामने आकर खड़े हो गये।

स तु रामस्य वचनं निशम्य प्रतिगृह्य च।
स्थपतिस्तूर्णमाहूय सचिवानिदमब्रवीत्॥५॥

श्रीरामचन्द्रजी का वचन सुनकर उनका आदेश शिरोधार्य करके निषादराज ने तुरंत अपने सचिवों को बुलाया और इस प्रकार कहा- ॥५॥

अस्यवाहनसंयुक्तां कर्णग्राहवतीं शुभाम्।
सुप्रतारां दृढां तीर्थे शीघ्रं नावमुपाहर॥६॥

‘तुम घाटपर शीघ्र ही एक ऐसी नाव ले आओ, जो मजबूत होने के साथ ही सुगमतापूर्वक खेने योग्य हो, उसमें डाँड़ लगा हुआ हो, कर्णधार बैठा हो तथा वह नाव देखने में सुन्दर हो’॥ ६॥

तं निशम्य गुहादेशं गुहामात्यो गतो महान्।
उपोह्य रुचिरां नावं गुहाय प्रत्यवेदयत्॥७॥

निषादराज गुह का वह आदेश सुनकर उसका महान् मन्त्री गया और एक सुन्दर नाव घाट पर पहुँचाकर उसने गुह को इसकी सूचना दी॥७॥

ततः स प्राञ्जलिर्भूत्वा गुहो राघवमब्रवीत्।
उपस्थितेयं नौर्देव भूयः किं करवाणि ते॥८॥

तब गुह ने हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजी से कहा —’देव! यह नौका उपस्थित है; बताइये, इस समय आपकी और क्या सेवा करूँ? ॥ ८॥

तवामरसुतप्रख्य तर्तुं सागरगामिनीम्।
नौरियं पुरुषव्याघ्र शीघ्रमारोह सुव्रत॥९॥

‘देवकुमार के समान तेजस्वी तथा उत्तम व्रतकापालन करने वाले पुरुषसिंह श्रीराम ! समुद्रगामिनी गङ्गानदी को पार करने के लिये आपकी सेवा में यह नाव आ गयी है, अब आप शीघ्र इस पर आरूढ़ होइये’ ॥९॥

अथोवाच महातेजा रामो गुहमिदं वचः।
कृतकामोऽस्मि भवता शीघ्रमारोप्यतामिति॥ १०॥

तब महातेजस्वी श्रीराम गुह से इस प्रकार बोले ‘सखे! तुमने मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया,अब शीघ्र ही सब सामान नाव पर चढ़ाओ’ ॥ १०॥

ततः कलापान् संनह्य खड्गौ बध्वा च धन्विनौ।
जग्मतुर्येन तां गङ्गां सीतया सह राघवौ॥११॥

यह कहकर श्रीराम और लक्ष्मण ने कवच धारण करके तरकस एवं तलवार बाँधी तथा धनुष लेकर वे दोनों भाई जिस मार्ग से सब लोग घाटपर जाया करते थे, उसी से सीता के साथ गङ्गाजी के तट पर गये॥ ११॥

राममेवं तु धर्मज्ञमुपागत्य विनीतवत्।
किमहं करवाणीति सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ १२॥

उस समय धर्म के ज्ञाता भगवान् श्रीराम के पास जाकर सारथि सुमन्त्र ने विनीतभाव से हाथ जोड़कर पूछा-‘प्रभो! अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’॥ १२॥

ततोऽब्रवीद् दाशरथिः सुमन्त्रं स्पृशन् करेणोत्तमदक्षिणेन।
सुमन्त्र शीघ्रं पुनरेव याहि राज्ञः सकाशे भव चाप्रमत्तः॥१३॥

तब दशरथनन्दन श्रीराम ने सुमन्त्र को उत्तम दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुए कहा—’सुमन्त्रजी! अब आप शीघ्र ही पुनः महाराज के पास लौट जाइये और वहाँ सावधान होकर रहिये’ ॥ १३॥

निवर्तस्वेत्युवाचैनमेतावद्धि कृतं मम।
रथं विहाय पद्भ्यां तु गमिष्यामो महावनम्॥ १४॥

उन्होंने फिर कहा—’इतनी दूरतक महाराज की आज्ञा से मैंने रथ द्वारा यात्रा की है, अब हमलोग रथ छोड़कर पैदल ही महान् वन की यात्रा करेंगे; अतः आप लौट जाइये’ ॥ १४॥

आत्मानं त्वभ्यनुज्ञातमवेक्ष्यार्तः स सारथिः।
सुमन्त्रः पुरुषव्याघ्रमैक्ष्वाकमिदमब्रवीत्॥१५॥

अपने को घर लौटने की आज्ञा प्राप्त हुई देख सारथि सुमन्त्र शोक से व्याकुल हो उठे और इक्ष्वाकुनन्दन पुरुषसिंह श्रीराम से इस प्रकार बोले- ॥ १५॥

नातिक्रान्तमिदं लोके पुरुषेणेह केनचित्।
तव सभ्रातृभार्यस्य वासः प्राकृतवद् वने॥१६॥

‘रघुनन्दन! जिसकी प्रेरणा से आपको भाई और पत्नी के साथ साधारण मनुष्यों की भाँति वन में रहने को विवश होना पड़ा है, उस दैव का इस संसार में किसी भी पुरुष ने उल्लङ्घन नहीं किया॥१६॥

न मन्ये ब्रह्मचर्ये वा स्वधीते वा फलोदयः।
मार्दवार्जवयोऽपि त्वां चेद् व्यसनमागतम्॥ १७॥

‘जब आप-जैसे महान् पुरुष पर यह संकट आ गया, तब मैं समझता हूँ कि ब्रह्मचर्य-पालन, वेदों के स्वाध्याय, दयालुता अथवा सरलता में भी किसी फल की सिद्धि नहीं है॥ १७॥

सह राघव वैदेह्या भ्रात्रा चैव वने वसन्।
त्वं गतिं प्राप्स्यसे वीर त्रील्लोकांस्तु जयन्निव॥ १८॥

‘वीर रघुनन्दन! (इस प्रकार पिता के सत्य की रक्षा के लिये) विदेहनन्दिनी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन में निवास करते हुए आप तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाले महापुरुष नारायण की भाँति उत्कर्ष (महान् यश) प्राप्त करेंगे॥ १८ ॥

वयं खलु हता राम ये त्वया ह्युपवञ्चिताः।
कैकेय्या वशमेष्यामः पापाया दुःखभागिनः॥ १९॥

‘श्रीराम! निश्चय ही हमलोग हर तरह से मारे गये; क्योंकि आपने हम पुरवासियों को अपने साथ न ले जाकर अपने दर्शनजनित सुख से वञ्चित कर दिया। अब हम पापिनी कैकेयी के वश में पड़ेंगे और दुःख भोगते रहेंगे’॥ १९॥

इति ब्रुवन्नात्मसमं सुमन्त्रः सारथिस्तदा।
दृष्ट्वा दूरगतं रामं दुःखार्तो रुरुदे चिरम्॥२०॥

आत्मा के समान प्रिय श्रीरामचन्द्रजी से ऐसी बात कहकर उन्हें दूर जाने को उद्यत देख सारथि सुमन्त्र दुःख से व्याकुल होकर देर तक रोते रहे ॥ २०॥ ।

ततस्तु विगते बाष्पे सूतं स्पृष्ट्वोदकं शुचिम्।
रामस्तु मधुरं वाक्यं पुनः पुनरुवाच तम्॥२१॥

आँसुओं का प्रवाह रुकने पर आचमन करके पवित्र हुए सारथि से श्रीरामचन्द्रजी ने बारंबार मधुर वाणी में कहा- ॥२१॥

इक्ष्वाकूणां त्वया तुल्यं सुहृदं नोपलक्षये।
यथा दशरथो राजा मां न शोचेत् तथा कुरु॥ २२॥

‘सुमन्त्रजी! मेरी दृष्टि में इक्ष्वाकुवंशियों का हित करने वाला सुहृद् आपके समान दूसरा कोई नहीं है। आप ऐसा प्रयत्न करें, जिससे महाराज दशरथ को मेरे लिये शोक न हो॥ २२॥

शोकोपहतचेताश्च वृद्धश्च जगतीपतिः।
कामभारावसन्नश्च तस्मादेतद् ब्रवीमि ते॥२३॥

‘पृथिवीपति महाराज दशरथ एक तो बूढ़े हैं, दूसरे उनका सारा मनोरथ चूर-चूर हो गया है; इसलिये उनका हृदय शोक से पीड़ित है। यही कारण है कि मैं आपको उनकी सँभाल के लिये कहता हूँ॥२३॥

यद् यथा ज्ञापयेत् किंचित् स महात्मा महीपतिः।
कैकेय्याः प्रियकामार्थं कार्यं तदविकांक्षया॥ २४॥

‘वे महामनस्वी महाराज कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से आपको जो कुछ जैसी भी आज्ञा दें, उसका आप आदरपूर्वक पालन करें-यही मेरा अनुरोध है॥ २४॥

एतदर्थं हि राज्यानि प्रशासति नराधिपाः।
यदेषां सर्वकृत्येषु मनो न प्रतिहन्यते॥ २५॥

‘राजा लोग इसीलिये राज्य का पालन करते हैं कि किसी भी कार्य में इनके मन की इच्छा-पूर्ति में विघ्न न डाला जाय॥२५॥

यद् यथा स महाराजो नालीकमधिगच्छति।
न च ताम्यति शोकेन सुमन्त्र कुरु तत् तथा॥ २६॥

समन्त्रजी! जिस किसी भी कार्य में जिस किसी तरह भी महाराज को अप्रिय बात से खिन्न होने का अवसर न आवे तथा वे शोक से दुबले न हों, वह आपको उसी प्रकार करना चाहिये॥ २६ ॥

अदृष्टदुःखं राजानं वृद्धमार्यं जितेन्द्रियम्।
ब्रूयास्त्वमभिवाद्यैव मम हेतोरिदं वचः॥२७॥

‘जिन्होंने कभी दुःख नहीं देखा है, उन आर्य, जितेन्द्रिय और वृद्ध महाराज को मेरी ओर से प्रणाम करके यह बात कहियेगा॥ २७॥

न चाहमनुशोचामि लक्ष्मणो न च शोचति।
अयोध्यायाश्च्युताश्चेति वने वत्स्यामहेति वा॥ २८॥

‘हम लोग अयोध्या से निकल गये अथवा हमें वन में रहना पड़ेगा, इस बात को लेकर न तो मैं कभी शोक करता हूँ और न लक्ष्मण को ही इसका शोक है। २८॥

चतुर्दशसु वर्षेषु निवृत्तेषु पुनः पुनः।
लक्ष्मणं मां च सीतां च द्रक्ष्यसे शीघ्रमागतान्॥ २९॥

‘चौदह वर्ष समाप्त होने पर हम पुनः शीघ्र ही लौट आयेंगे और उस समय आप मुझे, लक्ष्मण को और सीता को भी फिर देखेंगे॥ २९॥

एवमुक्त्वा तु राजानं मातरं च सुमन्त्र मे।
अन्याश्च देवीः सहिताः कैकेयीं च पुनः पुनः॥ ३०॥

“सुमन्त्रजी! महाराज से ऐसा कहकर आप मेरी माता से, उनके साथ बैठी हुई अन्य देवियों (माताओं) से तथा कैकेयी से भी बारंबार मेरा कुशल-समाचार कहियेगा॥३०॥

आरोग्यं ब्रूहि कौसल्यामथ पादाभिवन्दनम्।
सीताया मम चार्यस्य वचनाल्लक्ष्मणस्य च॥ ३१॥

‘माता कौसल्या से कहियेगा कि तुम्हारा पुत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न है। इसके बाद सीता की ओर से, मुझ ज्येष्ठ पुत्र की ओर से तथा लक्ष्मण की ओर से भी माता की चरण वन्दना कह दीजियेगा॥३१॥

ब्रूयाश्चापि महाराजं भरतं क्षिप्रमानय।
आगतश्चापि भरतः स्थाप्यो नृपमते पदे॥३२॥

तदनन्तर मेरी ओर से महाराज से भी यह निवेदन कीजियेगा कि आप भरत को शीघ्र ही बुलवा लें और जब वे आ जायँ, तब अपने अभीष्ट युवराज पद पर उनका अभिषेक कर दें॥३२॥

भरतं च परिष्वज्य यौवराज्येऽभिषिच्य च।
अस्मत्संतापजं दुःखं न त्वामभिभविष्यति॥३३॥

‘भरत को छाती से लगाकर और युवराज के पद पर अभिषिक्त करके आपको हमलोगों के वियोग से होने वाला दुःख दबा नहीं सकेगा॥३३॥

भरतश्चापि वक्तव्यो यथा राजनि वर्तसे।
तथा मातृषु वर्तेथाः सर्वास्वेवाविशेषतः॥ ३४॥

‘भरत से भी हमारा यह संदेश कह दीजियेगा कि महाराज के प्रति जैसा तुम्हारा बर्ताव है, वैसा ही समानरूप से सभी माताओं के प्रति होना चाहिये। ३४॥

यथा च तव कैकेयी सुमित्रा चाविशेषतः।
तथैव देवी कौसल्या मम माता विशेषतः॥ ३५॥

‘तुम्हारी दृष्टि में कैकेयी का जो स्थान है, वही समान रूप से सुमित्रा और मेरी माता कौसल्या का भी होना उचित है, इन सबमें कोई अन्तर न रखना॥ ३५॥

तातस्य प्रियकामेन यौवराज्यमवेक्षता।
लोकयोरुभयोः शक्यं नित्यदा सुखमेधितुम्॥ ३६॥

‘पिताजीका प्रिय करने की इच्छा से युवराज पद को स्वीकार करके यदि तुम राजकाज की देखभाल करते रहोगे तो इहलोक और परलोक में सदा ही सुख पाओगे’।

निवर्त्यमानो रामेण सुमन्त्रः प्रतिबोधितः।
तत्सर्वं वचनं श्रुत्वा स्नेहात् काकुत्स्थमब्रवीत्॥३७॥

श्रीरामचन्द्रजी ने  सुमन्त्र को लौटाते हुए जब इस प्रकार समझाया, तब उनकी सारी बातें सुनकर वे श्रीराम से स्नेहपूर्वक बोले- ॥ ३७॥

यदहं नोपचारेण ब्रूयां स्नेहादविक्लवम्।
भक्तिमानिति तत् तावद् वाक्यं त्वं क्षन्तुमर्हसि॥ ३८॥
कथं हि त्वद्धिहीनोऽहं प्रतियास्यामि तां पुरीम्।
तव तात वियोगेन पुत्रशोकातुरामिव॥ ३९॥

तात! सेवक का स्वामी के प्रति जो सत्कारपूर्ण बर्ताव होना चाहिये, उसका यदि मैं आपसे बात करते समय पालन न कर सकूँ, यदि मेरे मुख से स्नेहवश कोई धृष्टतापूर्ण बात निकल जाय तो ‘यह
मेरा भक्त है’ ऐसा समझकर आप मुझे क्षमा कीजियेगा। जो आपके वियोग से पुत्रशोक से आतुर हुई माता की भाँति संतप्त हो रही है, उस अयोध्यापुरी में मैं आपको साथ लिये बिना कैसे लौटकर जा सकूँगा? ॥ ३८-३९॥

सराममपि तावन्मे रथं दृष्ट्वा तदा जनः।
विना रामं रथं दृष्ट्वा विदीर्येतापि सा पुरी॥४०॥

‘आते समय लोगों ने मेरे रथ में श्रीराम को विराजमान देखा था, अब इस रथ को श्रीराम से रहित देखकर उन लोगों का और उस अयोध्यापुरी का भी हृदय विदीर्ण हो जायगा॥ ४० ॥

दैन्यं हि नगरी गच्छेद् दृष्ट्वा शून्यमिमं रथम्।
सूतावशेषं स्वं सैन्यं हतवीरमिवाहवे॥४१॥

‘जैसे युद्ध में अपने स्वामी वीर रथी के मारे जाने पर जिसमें केवल सारथि शेष रह गया हो ऐसे रथ को देखकर उसकी अपनी सेना अत्यन्त दयनीय अवस्था में पड़ जाती है, उसी प्रकार मेरे इस रथ को आपसे सूना देखकर सारी अयोध्या नगरी दीन दशा को प्राप्त हो जायगी॥४१॥

दूरेऽपि निवसन्तं त्वां मानसेनाग्रतः स्थितम्।
चिन्तयन्तोऽद्य नूनं त्वां निराहाराः कृताः प्रजाः॥ ४२॥

‘आप दूर रहकर भी प्रजा के हृदय में निवास करने के कारण सदा उसके सामने ही खड़े रहते हैं। निश्चय ही इस समय प्रजावर्ग के सब लोगों ने आपका ही चिन्तन करते हुए खाना-पीना छोड़ दिया होगा। ४२॥

दृष्टं तद् वै त्वया राम यादृशं त्वत्प्रवासने।
प्रजानां संकुलं वृत्तं त्वच्छोकक्लान्तचेतसाम्॥ ४३॥

‘श्रीराम! जिस समय आप वन को आने लगे, उस समय आपके शोक से व्याकुलचित्त हुई प्रजा ने जैसा आर्तनाद एवं क्षोभ प्रकट किया था, उसे तो आपने देखा ही था॥४३॥

आर्तनादो हि यः पौरैरुन्मुक्तस्त्वत्प्रवासने।
सरथं मां निशाम्यैव कुर्युः शतगुणं ततः॥४४॥

‘आपके अयोध्या से निकलते समय पुरवासियों ने जैसा आर्तनाद किया था, आपके बिना मुझे खाली रथ लिये लौटा देख वे उससे भी सौगुना हाहाकार करेंगे॥

अहं किं चापि वक्ष्यामि देवीं तव सुतो मया।
नीतोऽसौ मातुलकुलं संतापं मा कृथा इति॥
असत्यमपि नैवाहं ब्रूयां वचनमीदृशम्।
कथमप्रियमेवाहं ब्रूयां सत्यमिदं वचः॥ ४६॥

‘क्या मैं महारानी कौसल्या से जाकर कहँगा कि मैंने आपके बेटे को मामा के घर पहुँचा दिया है ? इसलिये आप संताप न करें, यह बात प्रिय होने पर भी असत्य है, अतः ऐसा असत्य वचन भी मैं कभी नहीं कह सकता। फिर यह अप्रिय सत्य भी कैसे सुना सकूँगा कि मैं आपके पुत्र को वन में पहुँचा आया। ४५-४६॥

मम तावन्नियोगस्थास्त्वबन्धुजनवाहिनः।
कथं रथं त्वया हीनं प्रवाह्यन्ति हयोत्तमाः॥४७॥

‘ये उत्तम घोड़े मेरी आज्ञा के अधीन रहकर आपके बन्धुजनों का भार वहन करते हैं (आपके बन्धुजनों से हीन रथ का ये वहन नहीं करते हैं), ऐसी दशा में आपसे सूने रथ को ये कैसे खींच सकेंगे?॥४७॥

तन्न शक्ष्याम्यहं गन्तुमयोध्यां त्वदृतेऽनघ।
वनवासानुयानाय मामनुज्ञातुमर्हसि ॥४८॥

‘अतः निष्पाप रघुनन्दन! अब मैं आपके बिना अयोध्या लौटकर नहीं जा सकूँगा। मुझे भी वन में चलने की ही आज्ञा दीजिये॥४८॥

यदि मे याचमानस्य त्यागमेव करिष्यसि।
सरथोऽग्निं प्रवेक्ष्यामि त्यक्तमात्र इह त्वया॥ ४९॥

‘यदि इस तरह याचना करनेपर भी आप मुझे त्याग ही देंगे तो मैं आपके द्वारा परित्यक्त होकर यहाँ रथसहित अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा॥४९॥

भविष्यन्ति वने यानि तपोविघ्नकराणि ते।
रथेन प्रतिबाधिष्ये तानि सर्वाणि राघव॥५०॥

‘रघुनन्दन! वन में आपकी तपस्या में विघ्न डालने वाले जो-जो जन्तु उपस्थित होंगे, मैं इस रथ के द्वारा उन सबको दूर भगा दूंगा॥ ५० ॥

त्वत्कृतेन मया प्राप्तं रथचर्याकृतं सुखम्।
आशंसे त्वत्कृतेनाहं वनवासकृतं सुखम्॥५१॥

श्रीराम! आपकी कृपा से मुझे आपको रथ पर बिठाकर यहाँ तक लाने का सुख प्राप्त हुआ। अब आपके ही अनुग्रह से मैं आपके साथ वन में रहने का सुख भी पाने की आशा करता हूँ॥५१॥

प्रसीदेच्छामि तेऽरण्ये भवितुं प्रत्यनन्तरः।
प्रीत्याभिहितमिच्छामि भव मे प्रत्यनन्तरः॥५२॥

‘आप प्रसन्न होकर आज्ञा दीजिये। मैं वन में आपके पास ही रहना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप प्रसन्नतापूर्वक कह दें कि तुम वन में मेरे साथ ही रहो॥५२॥

इमेऽपि च हया वीर यदि ते वनवासिनः।
परिचर्यां करिष्यन्ति प्राप्स्यन्ति परमां गतिम्॥ ५३॥

‘वीर! ये घोड़े भी यदि वन में रहते समय आपकी सेवा करेंगे तो इन्हें परमगति की प्राप्ति होगी॥ ५३॥

तव शुश्रूषणं मूर्ना करिष्यामि वने वसन्।
अयोध्यां देवलोकं वा सर्वथा प्रजहाम्यहम्॥ ५४॥

‘प्रभो! मैं वन में रहकर अपने सिरसे  (सारे शरीर से) आपकी सेवा करूँगा और इस सुख के आगे अयोध्या तथा देवलोक का भी सर्वथा त्याग कर दूँगा।

नहि शक्या प्रवेष्टं सा मयायोध्या त्वया विना।
राजधानी महेन्द्रस्य यथा दुष्कृतकर्मणा ॥५५॥

‘जैसे सदाचारहीन प्राणी इन्द्र की राजधानी स्वर्ग में नहीं प्रवेश कर सकता, उसी प्रकार आपके बिना मैं अयोध्यापुरी में नहीं जा सकता॥ ५५ ॥

वनवासे क्षयं प्राप्ते ममैष हि मनोरथः।
यदनेन रथेनैव त्वां वहेयं पुरी पुनः॥५६॥

‘मेरी यह अभिलाषा है कि जब वनवास की अवधि समाप्त हो जाय, तब फिर इसी रथ पर बिठाकर आपको अयोध्यापुरी में ले चलूँ॥५६॥

चतुर्दश हि वर्षाणि सहितस्य त्वया वने।
क्षणभूतानि यास्यन्ति शतसंख्यानि चान्यथा॥ ५७॥

‘वनमें आपके साथ रहने से ये चौदह वर्ष मेरे लिये चौदह क्षणों के समान बीत जायँगे। अन्यथा चौदह सौ वर्षों के समान भारी जान पड़ेंगे॥५७॥

भृत्यवत्सल तिष्ठन्तं भर्तृपुत्रगते पथि।
भक्तं भृत्यं स्थितं स्थित्या न मा त्वं हातुमर्हसि॥ ५८॥

‘अतः भक्तवत्सल! आप मेरे स्वामी के पुत्र हैं। आप जिस पथ पर चल रहे हैं, उसी पर आपकी सेवा के लिये साथ चलने को मैं भी तैयार खड़ा हूँ। मैं आपके प्रति भक्ति रखता हूँ, आपका भृत्य हूँ और भृत्यजनोचित मर्यादा के भीतर स्थित हूँ; अतः आप मेरा परित्याग न करें’। ५८॥

एवं बहविधं दीनं याचमानं पुनः पुनः।
रामो भृत्यानुकम्पी तु सुमन्त्रमिदमब्रवीत्॥५९॥

इस तरह अनेक प्रकार से दीन वचन कहकर बारंबार याचना करने वाले सुमन्त्र से सेवकों पर कृपा करने वाले श्रीराम ने इस प्रकार कहा- ॥ ५९॥

जानामि परमां भक्तिमहं ते भर्तृवत्सल।
शृणु चापि यदर्थं त्वां प्रेषयामि पुरीमितः॥६०॥

‘सुमन्त्रजी! आप स्वामी के प्रति स्नेह रखने वाले हैं। मुझमें आपकी जो उत्कृष्ट भक्ति है, उसे मैं जानता हूँ; फिर भी जिस कार्य के लिये मैं आपको यहाँ से अयोध्यापुरी में भेज रहा हूँ, उसे सुनिये॥६०॥

नगरीं त्वां गतं दृष्ट्वा जननी मे यवीयसी।
कैकेयी प्रत्ययं गच्छेदिति रामो वनं गतः॥६१॥

‘जब आप नगर को लौट जायँगे, तब आपको देखकर मेरी छोटी माता कैकेयी को यह विश्वास हो जायगा कि राम वन को चले गये॥ ६१॥

विपरीते तुष्टिहीना वनवासं गते मयि।
राजानं नातिशङ्केत मिथ्यावादीति धार्मिकम्॥ ६२॥

‘इसके विपरीत यदि आप नहीं गये तो उसे संतोष नहीं होगा। मेरे वनवासी हो जाने पर भी वह धर्मपरायण महाराज दशरथ के प्रति मिथ्यावादी होने का संदेह करे, ऐसा मैं नहीं चाहता॥६२॥

एष मे प्रथमः कल्पो यदम्बा मे यवीयसी।
भरतारक्षितं स्फीतं पुत्रराज्यमवाप्स्यते॥६३॥

‘आपको भेजने में मेरा मुख्य उद्देश्य यही है कि मेरी छोटी माता कैकेयी भरत द्वारा सुरक्षित समृद्धिशाली राज्य को हस्तगत कर ले॥६३॥

मम प्रियार्थं राज्ञश्च सुमन्त्र त्वं पुरीं व्रज।
संदिष्टश्चापि यानर्थांस्तांस्तान् ब्रूयास्तथा तथा॥ ६४॥

‘सुमन्त्रजी! मेरा तथा महाराज का प्रिय करने के लिये आप अयोध्यापुरी को अवश्य पधारिये और आपको जिनके लिये जो संदेश दिया गया है, वह सब वहाँ जाकर उन लोगों से कह दीजिये’॥ ६४॥

इत्युक्त्वा वचनं सूतं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः।
गुहं वचनमक्लीबो रामो हेतुमदब्रवीत्॥६५॥

ऐसा कहकर श्रीराम ने सुमन्त्र को बारंबार सान्त्वना दी। इसके बाद उन्होंने गुह से उत्साहपूर्वक यह युक्तियुक्त बात कही— ॥६५॥

नेदानीं गुह योग्योऽयं वासो मे सजने वने।
अवश्यमाश्रमे वासः कर्तव्यस्तद्गतो विधिः॥ ६६॥

‘निषादराज गुह! इस समय मेरे लिये ऐसे वन में रहना उचित नहीं है, जहाँ जनपद के लोगों का आनाजाना अधिक होता हो, अब अवश्य मुझे निर्जन वन के आश्रम में ही वास करना होगा। इसके लिये जटा धारण आदि आवश्यक विधि का मुझे पालन करना चाहिये॥

सोऽहं गृहीत्वा नियमं तपस्विजनभूषणम्।
हितकामः पितुर्भूयः सीताया लक्ष्मणस्य च॥ ६७॥
जटाः कृत्वा गमिष्यामि न्यग्रोधक्षीरमानय।
तत्क्षीरं राजपुत्राय गुहः क्षिप्रमुपाहरत्॥६८॥

‘अतः फल-मूल का आहार और पृथ्वी पर शयन आदि नियमों को ग्रहण करके मैं सीता और लक्ष्मण की अनुमति लेकर पिता का हित करने की इच्छा से सिर पर तपस्वी जनों के आभूषण रूप जटा धारण करके यहाँ से वन को जाऊँगा। मेरे केशों को जटा का रूप देने के लिये तुम बड़ का दूध ला दो।’ गुहने तुरंत ही बड़ का दूध लाकर श्रीराम को दिया। ६७-६८॥

लक्ष्मणस्यात्मनश्चैव रामस्तेनाकरोज्जटाः।
दीर्घबाहर्नरव्याघ्रो जटिलत्वमधारयत्॥६९॥

श्रीराम ने उसके द्वारा लक्ष्मण की तथा अपनी जटाएँ बनायीं महाबाहु पुरुषसिंह श्रीराम तत्काल जटाधारी हो गये॥ ६९॥

तौ तदा चीरसम्पन्नौ जटामण्डलधारिणौ।
अशोभेतामृषिसमौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥७०॥

उस समय वे दोनों भाई श्रीराम-लक्ष्मण वल्कल वस्त्र और जटामण्डल धारण करके ऋषियों के समान शोभा पाने लगे॥ ७० ॥

ततो वैखानसं मार्गमास्थितः सहलक्ष्मणः।
व्रतमादिष्टवान् रामः सहायं गुहमब्रवीत्॥७१॥

तदनन्तर वानप्रस्थमार्ग का आश्रय लेकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने वानप्रस्थोचित व्रत को ग्रहण किया। तत्पश्चात् वे अपने सहायक गुह से बोले—॥ ७१॥

अप्रमत्तो बले कोशे दुर्गे जनपदे तथा।
भवेथा गुह राज्यं हि दुरारक्षतमं मतम्॥७२॥

‘निषादराज! तुम सेना, खजाना, किला और राज्य के विषय में सदा सावधान रहना; क्योंकि राज्य की रक्षा का काम बड़ा कठिन माना गया है’। ७२॥

ततस्तं समनुज्ञाप्य गुहमिक्ष्वाकुनन्दनः।
जगाम तूर्णमव्यग्रः सभार्यः सहलक्ष्मणः॥७३॥

गुह को इस प्रकार आज्ञा देकर उससे विदा ले इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजी पत्नी और लक्ष्मण के साथ तुरंत ही वहाँ से चल दिये। उस समय उनके चित्त में तनिक भी व्यग्रता नहीं थी॥७३॥

स तु दृष्ट्वा नदीतीरे नावमिक्ष्वाकुनन्दनः।
तितीर्घः शीघ्रगां गङ्गामिदं वचनमब्रवीत्॥७४॥

नदी के तट पर लगी हुई नाव को देखकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम ने शीघ्रगामी गङ्गानदी के पार जाने की इच्छा से लक्ष्मण को सम्बोधित करके कहा – || ७४॥

आरोह त्वं नरव्याघ्र स्थितां नावमिमां शनैः।
सीतां चारोपयान्वक्षं परिगृह्य मनस्विनीम्॥७५॥

‘पुरुषसिंह! यह सामने नाव खड़ी है। तुम मनस्विनी सीता को पकड़कर धीरे से उस पर बिठा दो, फिर स्वयं भी नाव पर बैठ जाओ’ ॥ ७५ ॥

स भ्रातुः शासनं श्रुत्वा सर्वमप्रतिकूलयन्।
आरोप्य मैथिली पूर्वमारुरोहात्मवांस्ततः॥७६॥

भाई का यह आदेश सुनकर मन को वश में रखने वाले लक्ष्मण ने पूर्णतः उसके अनुकूल चलते हुए पहले मिथिलेशकुमारी श्रीसीता को नावपर बिठाया, फिर स्वयं भी उसपर आरूढ़ हुए॥ ७६ ॥

अथारुरोह तेजस्वी स्वयं लक्ष्मणपूर्वजः।
ततो निषादाधिपतिर्नुहो ज्ञातीनचोदयत्॥७७॥

सबके अन्त में लक्ष्मण के बड़े भाई तेजस्वी श्रीराम स्वयं नौका पर बैठे। तदनन्तर निषादराज गुह ने अपने भाई-बन्धुओं को नौका खेने का आदेश दिया॥ ७७॥

राघवोऽपि महातेजा नावमारुह्य तां ततः।
ब्रह्मवत्क्षत्रवच्चैव जजाप हितमात्मनः॥ ७८ ॥

महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी भी उस नाव पर आरूढ़ होने के पश्चात् अपने हित के उद्देश्य से ब्राह्मण और क्षत्रिय के जपने योग्य ‘दैवी नाव’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का जप करने लगे। ७८॥

आचम्य च यथाशास्त्रं नदीं तां सह सीतया।
प्रणमत्प्रीतिसंतुष्टो लक्ष्मणश्च महारथः॥७९॥

फिर शास्त्रविधि के अनुसार आचमन करके सीता के साथ उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर गङ्गाजी को प्रणाम किया महारथी लक्ष्मण ने भी उन्हें मस्तक झुकाया॥७९॥

अनुज्ञाय सुमन्त्रं च सबलं चैव तं गुहम्।
आस्थाय नावं रामस्तु चोदयामास नाविकान्॥ ८०॥

इसके बाद श्रीराम ने सुमन्त्र को तथा सेनासहित गुह को भी जाने की आज्ञा दे नाव पर भलीभाँति बैठकर मल्लाहों को उसे चलाने का आदेश दिया॥ ८०॥

ततस्तैश्चालिता नौका कर्णधारसमाहिता।
शुभस्फ्यवेगाभिहता शीघ्रं सलिलमत्यगात्॥ ८१॥

तदनन्तर मल्लाहों ने नाव चलायी। कर्णधार सावधान होकर उसका संचालन करता था। वेग से सुन्दर डाँड़ चलाने के कारण वह नाव बड़ी तेजी से पानीपर बढ़ने लगी।। ८१॥

मध्यं तु समनुप्राप्य भागीरथ्यास्त्वनिन्दिता।
वैदेही प्राञ्जलिर्भूत्वा तां नदीमिदमब्रवीत्॥८२॥

भागीरथी की बीच धारा में पहुँचकर सती साध्वी विदेहनन्दिनी सीता ने हाथ जोड़कर गङ्गाजी से यह प्रार्थना की— ॥ ८२॥

पुत्रो दशरथस्यायं महाराजस्य धीमतः।
निदेशं पालयत्वेनं गले त्वदभिरक्षितः॥८३॥

‘देवि गङ्गे! ये परम बुद्धिमान् महाराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये वन में जा रहे हैं। ये आपसे सुरक्षित होकर पिता की इस आज्ञा का पालन कर सकें—ऐसी कृपा कीजिये॥ ८३॥

चतुर्दश हि वर्षाणि समग्राण्युष्य कानने।
भ्रात्रा सह मया चैव पुनः प्रत्यागमिष्यति॥८४॥

‘वन में पूरे चौदह वर्षों तक निवास करके ये मेरे तथा अपने भाई के साथ पुनः अयोध्यापुरी को लौटेंगे। ८४॥

ततस्त्वां देवि सुभगे क्षेमेण पुनरागता।
यक्ष्ये प्रमुदिता गङ्गे सर्वकामसमृद्धिनी॥८५॥

‘सौभाग्यशालिनी देवि गङ्गे ! उस समय वन से पुनः कुशलपूर्वक लौटने पर सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न हुई मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी पूजा करूँगी॥ ८५॥

त्वं हि त्रिपथगे देवि ब्रह्मलोकं समक्षसे।
भार्या चोदधिराजस्य लोकेऽस्मिन् सम्प्रदृश्यसे॥ ८६॥

‘स्वर्ग, भूतल और पाताल–तीनों मार्गो पर विचरनेवाली देवि! तुम यहाँ से ब्रह्मलोकतक फैली हुई हो और इस लोक में समुद्रराज की पत्नी के रूप में दिखायी देती हो। ८६॥

सा त्वां देवि नमस्यामि प्रशंसामि च शोभने।
प्राप्तराज्ये नरव्याघ्र शिवेन पुनरागते॥८७॥

‘शोभाशालिनी देवि! पुरुषसिंह श्रीराम जब पुनः वन से सकुशल लौटकर अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब मैं सीता पुनः आपको मस्तक झुकाऊँगी और आपकी स्तुति करूँगी॥ ८७॥

गवां शतसहस्रं च वस्त्राण्यन्नं च पेशलम्।
ब्राह्मणेभ्यः प्रदास्यामि तव प्रियचिकीर्षया॥ ८८॥

‘इतना ही नहीं, मैं आपका प्रिय करने की इच्छा से ब्राह्मणों को एक लाख गौएँ, बहुत-से वस्त्र तथा उत्तमोत्तम अन्न प्रदान करूँगी॥ ८८ ॥

सुराघटसहस्रेण मांसभूतौदनेन च।
यक्ष्ये त्वां प्रीयतां देवि पुरीं पुनरुपागता॥८९॥

‘देवि! पुनः अयोध्यापुरी में लौटने पर मैं सहस्रों देवदुर्लभ पदार्थों से तथा राजकीय भाग से रहित पृथ्वी, वस्त्र और अन्न के द्वारा भी आपकी पूजा करूँगी। आप मुझ पर प्रसन्न हों* ॥ ८९॥
* इस श्लोक में आये हुए ‘सुराघटसहस्रेण’ की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-‘सुरेषु देवेषु न घटन्ते न सन्तीत्यर्थः, तेषां सहस्रं तेन सहस्रसंख्याकसुरदुर्लभपदार्थेनेत्यर्थः।’ ‘मांसभूतौदनेन’ की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये—’मांसभूतौदनेन मा नास्ति अंसो राजभागो यस्यां सा एव भूः पृथ्वी च उतं वस्त्रं च ओदनं च एतेषां समाहारः, तेन च त्वां यक्ष्ये।’

यानि त्वत्तीरवासीनि दैवतानि च सन्ति हि।
तानि सर्वाणि यक्ष्यामि तीर्थान्यायतनानि च॥ ९०॥

‘आपके किनारे जो-जो देवता, तीर्थ और मन्दिर हैं, उन सबका मैं पूजन करूँगी॥९० ॥

पुनरेव महाबाहुर्मया भ्रात्रा च संगतः।
अयोध्यां वनवासात् तु प्रविशत्वनघोऽनघे॥ ९१॥

‘निष्पाप गङ्गे! ये महाबाहु पापरहित मेरे पतिदेव मेरे तथा अपने भा ईके साथ वनवास से लौटकर पुनः अयोध्या नगरी में प्रवेश करें’॥ ९१॥

तथा सम्भाषमाणा सा सीता गङ्गामनिन्दिता।
दक्षिणा दक्षिणं तीरं क्षिप्रमेवाभ्युपागमत्॥ ९२॥

पति के अनुकूल रहने वाली सती-साध्वी सीता इस प्रकार गङ्गाजी से प्रार्थना करती हुई शीघ्र ही दक्षिण तट पर जा पहुँचीं॥ ९२॥

तीरं तु समनुप्राप्य नावं हित्वा नरर्षभः।
प्रातिष्ठत सह भ्रात्रा वैदेह्या च परंतपः॥९३॥

किनारे पहुँचकर शत्रुओं को संताप देने वाले नरश्रेष्ठ श्रीराम ने नाव छोड़ दी और भाई लक्ष्मण तथा विदेहनन्दिनी सीता के साथ आगे को प्रस्थान किया। ९३॥

अथाब्रवीन्महाबाहुः सुमित्रानन्दवर्धनम्।
भव संरक्षणार्थाय सजने विजनेऽपि वा ॥१४॥
अवश्यं रक्षणं कार्यं मद्विधैर्विजने वने।
अग्रतो गच्छ सौमित्रे सीता त्वामनुगच्छतु ॥९५॥
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सीतां त्वां चानुपालयन्।
अन्योन्यस्य हि नो रक्षा कर्तव्या पुरुषर्षभ॥९६॥

तदनन्तर महाबाहु श्रीराम सुमित्रानन्दन लक्ष्मण से बोले—’सुमित्राकुमार! अब तुम सजन या निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिये सावधान हो जाओ। हमजैसे लोगों को निर्जन वन में नारी की रक्षा अवश्य करनी चाहिये। अतः तुम आगे-आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे-पीछे चलें और मैं सीता की तथा तुम्हारी रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूँगा। पुरुषप्रवर ! हमलोगों को एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये॥ ९४-९६॥

न हि तावदतिक्रान्तासुकरा काचन क्रिया।
अद्य दुःखं तु वैदेही वनवासस्य वेत्स्यति॥९७॥

‘अबतक कोई भी दुष्कर कार्य समाप्त नहीं हुआ है—इस समय से ही कठिनाइयों का सामना आरम्भ हुआ है। आज विदेहकुमारी सीता को वनवास के वास्तविक कष्ट का अनुभव होगा॥९७॥

प्रणष्टजनसम्बाधं क्षेत्रारामविवर्जितम्।
विषमं च प्रपातं च वनमद्य प्रवेक्ष्यति॥९८॥

‘अब ये ऐसे वन में प्रवेश करेंगी, जहाँ मनुष्यों के आने-जाने का कोई चिह्न नहीं दिखायी देगा, न धान आदि के खेत होंगे, न टहलने के लिये बगीचे। जहाँ ऊँची-नीची भूमि होगी और गड्ढे मिलेंगे, जिसमें गिरने का भय रहेगा’ ॥ ९८॥

श्रुत्वा रामस्य वचनं प्रतस्थे लक्ष्मणोऽग्रतः।
अनन्तरं च सीताया राघवो रघुनन्दनः॥९९॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मण आगे बढ़े। उनके पीछे सीता चलने लगीं तथा सीता के पीछे रघुकुलनन्दन श्रीराम थे॥ ९९॥

गतं तु गङ्गापरपारमाशु रामं सुमन्त्रः सततं निरीक्ष्य।
अध्वप्रकर्षाद् विनिवृत्तदृष्टिमुमोच बाष्पं व्यथितस्तपस्वी॥१००॥

श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र गङ्गाजी के उस पार पहुँचकर जबतक दिखायी दिये तब तक सुमन्त्र निरन्तर उन्हीं की ओर दृष्टि लगाये देखते रहे। जब वन के मार्ग में बहुत दूर निकल जाने के कारण वे दृष्टि से ओझल हो गये, तब तपस्वी सुमन्त्र के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। वे नेत्रों से आँसू बहाने लगे॥ १०० ॥

स लोकपालप्रतिमप्रभावस्तीर्वा महात्मा वरदो महानदीम्।
ततः समृद्धान् शुभसस्यमालिनः क्रमेण वत्सान् मुदितानुपागमत्॥१०१॥

लोकपालों के समान प्रभावशाली वरदायक महात्मा श्रीराम महानदी गङ्गा को पार करके क्रमशः समृद्धिशाली वत्सदेश (प्रयाग)-में जा पहुँचे, जो सुन्दर धन-धान्य से सम्पन्न था। वहाँ के लोग बड़े हृष्टपुष्ट थे॥ १०१॥

तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान् वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ – वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्॥१०२॥

वहाँ उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋष्य, पृषत् और महारुरु—इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिये (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये॥ १०२ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्विपञ्चाशः सर्गः॥५२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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