वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 53 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 53
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रिपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 53)
श्रीराम का राजा को उपालम्भ देते हुए कैकेयी से कौसल्या आदि के अनिष्ट की आशङ्का बताकर लक्ष्मण को अयोध्या लौटाने के लिये प्रयत्न करना
स तं वृक्षं समासाद्य संध्यामन्वास्य पश्चिमाम्।
रामो रमयतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम्॥१॥
उस वृक्ष के नीचे पहुँचकर आनन्द प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ श्रीराम ने सायंकाल की संध्योपासना करके लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ॥१॥
अद्येयं प्रथमा रात्रिर्याता जनपदाद् बहिः।
या समन्त्रेण रहिता तां नोत्कण्ठितुमर्हसि ॥२॥
‘सुमित्रानन्दन! आज हमें अपने जनपद से बाहर यह पहली रात प्राप्त हुई है। जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं। इस रात को पाकर तुम्हें नगर की सुख सुविधाओं के लिये उत्कण्ठित नहीं होना चाहिये॥२॥
जागर्तव्यमतन्द्रिभ्यामद्यप्रभृति रात्रिषु।
योगक्षेमौ हि सीताया वर्तेते लक्ष्मणावयोः॥३॥
“लक्ष्मण! आज से हम दोनों भाइयों को आलस्य छोड़कर रात में जागना होगा; क्योंकि सीता के योग क्षेम हम दोनों के ही अधीन हैं॥३॥
रात्रिं कथंचिदेवेमां सौमित्रे वर्तयामहे।
अपवर्तामहे भूमावास्तीर्य स्वयमर्जितैः॥४॥
‘सुमित्रानन्दन! यह रात हमलोग किसी तरह बितायँगे और स्वयं संग्रह करके लाये हुए तिनकों और पत्तों की शय्या बनाकर उसे भूमिपर बिछाकर उस पर किसी तरह सो लेंगे’॥ ४॥
स तु संविश्य मेदिन्यां महार्हशयनोचितः।
इमाः सौमित्रये रामो व्याजहार कथाः शुभाः॥
जो बहुमूल्य शय्यापर सोने के योग्य थे, वे श्रीराम भूमि पर ही बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण से ये शुभ बातें कहने लगे— * ॥ ५॥
* श्लोक ६ से लेकर २६ तक श्रीरामचन्द्रजीने जो बातें कही हैं, वे लक्ष्मणकी परीक्षाके लिये तथा उन्हें अयोध्या लौटानेके लिये कही गयी हैं; वास्तवमें उनकी ऐसी मान्यता नहीं थी। यही बात यहाँ सभी व्याख्याकारोंने स्वीकार की है।
ध्रुवमद्य महाराजो दुःखं स्वपिति लक्ष्मण।
कृतकामा तु कैकेयी तुष्टा भवितुमर्हति॥६॥
‘लक्ष्मण! आज महाराज निश्चय ही बड़े दुःख से सो रहे होंगे; परंतु कैकेयी सफल मनोरथ होने के कारण बहुत संतुष्ट होगी॥ ६॥
सा हि देवी महाराजं कैकेयी राज्यकारणात्।
अपि न च्यावयेत् प्राणान् दृष्ट्वा भरतमागतम्॥
‘कहीं ऐसा न हो कि रानी कैकेयी भरत को आया देख राज्य के लिये महाराज को प्राणों से भी वियुक्त कर दे॥७॥
अनाथश्च हि वृद्धश्च मया चैव विना कृतः।
किं करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतः॥ ८॥
‘महाराज का कोई रक्षक न होने के कारण वे इस समय अनाथ हैं, बूढ़े हैं और उन्हें मेरे वियोग का सामना करना पड़ा है। उनकी कामना मन में ही रह गयी तथा वे कैकेयी के वश में पड़ गये हैं; ऐसी दशा में वे बेचारे अपनी रक्षा के लिये क्या करेंगे? ॥ ८॥
इदं व्यसनमालोक्य राज्ञश्च मतिविभ्रमम्।
काम एवार्थधर्माभ्यां गरीयानिति मे मतिः॥९॥
‘अपने ऊपर आये हुए इस संकट को और राजा की मतिभ्रान्ति को देखकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि अर्थ और धर्म की अपेक्षा काम का ही गौरव अधिक है॥९॥
को ह्यविद्वानपि पुमान् प्रमदायाः कृते त्यजेत्।
छन्दानुवर्तिनं पुत्रं तातो मामिव लक्ष्मण ॥१०॥
‘लक्ष्मण ! पिताजी ने जिस तरह मुझे त्याग दिया है, उस प्रकार अत्यन्त अज्ञ होने पर भी कौन ऐसा पुरुष होगा, जो एक स्त्री के लिये अपने आज्ञाकारी पुत् का परित्याग कर दे?॥ १०॥
सुखी बत सुभार्यश्च भरतः केकयीसुतः।
मुदितान् कोसलानेको यो भोक्ष्यत्यधिराजवत्॥ ११॥
‘कैकेयीकुमार भरत ही सुखी और सौभाग्यवती स्त्री के पति हैं, जो अकेले ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरे हुए कोसल देश का सम्राट् की भाँति पालन करेंगे। ११॥
स हि राज्यस्य सर्वस्य सुखमेकं भविष्यति।
ताते तु वयसातीते मयि चारण्यमाश्रिते॥१२॥
‘पिताजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और मैं वन में चला आया हूँ, ऐसी दशा में केवल भरत ही समस्त राज्य के श्रेष्ठ सुख का उपभोग करेंगे॥ १२॥
अर्थधर्मी परित्यज्य यः काममनुवर्तते।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा॥१३॥
‘सच है, जो अर्थ और धर्म का परित्याग करके केवल काम का अनुसरण करता है, वह उसी प्रकार शीघ्र ही आपत्ति में पड़ जाता है, जैसे इस समय महाराज दशरथ पड़े हैं॥ १३॥
मन्ये दशरथान्ताय मम प्रव्राजनाय च।
कैकेयी सौम्य सम्प्राप्ता राज्याय भरतस्य च॥ १४॥
‘सौम्य! मैं समझता हूँ कि महाराज दशरथ के प्राणों का अन्त करने, मुझे देश निकाला देने और भरत को राज्य दिलाने के लिये ही कैकेयी इस राजभवन में आयी थी॥१४॥
अपीदानीं तु कैकेयी सौभाग्यमदमोहिता।
कौसल्यां च सुमित्रां च सा प्रबाधेत मत्कृते॥ १५॥
‘इस समय भी सौभाग्य के मद से मोहित हुई कैकेयी मेरे कारण कौसल्या और सुमित्रा को कष्ट पहुँचा सकती है॥ १५ ॥
मातास्मत्कारणाद् देवी सुमित्रा दुःखमावसेत्।
अयोध्यामित एव त्वं काले प्रविश लक्ष्मण॥ १६॥
‘हमलोगों के कारण तुम्हारी माता सुमित्रादेवी को बड़े दुःख के साथ वहाँ रहना पड़ेगा; अतः लक्ष्मण! तुम यहीं से कल प्रातःकाल अयोध्या को लौट जाओ। १६॥
अहमेको गमिष्यामि सीतया सह दण्डकान्।
अनाथाया हि नाथस्त्वं कौसल्याया भविष्यसि॥ १७॥
‘मैं अकेला ही सीता के साथ दण्डक वन को जाऊँगा। तुम वहाँ मेरी असहाय माता कौसल्या के सहायक हो जाओगे॥ १७॥
क्षुद्रकर्मा हि कैकेयी द्वेषादन्यायमाचरेत्।
परिदद्याद्धि धर्मज्ञ गरं ते मम मातरम्॥१८॥
‘धर्मज्ञ लक्ष्मण! कैकेयी के कर्म बड़े खोटे हैं। वह द्वेषवश अन्याय भी कर सकती है। तुम्हारी और मेरी माता को जहर भी दे सकती है॥ १८॥
नूनं जात्यन्तरे तात स्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः।
जनन्या मम सौमित्रे तदद्यैतदुपस्थितम्॥१९॥
“तात सुमित्राकुमार! निश्चय ही पूर्वजन्म में मेरी माता ने कुछ स्त्रियों का उनके पुत्रों से वियोग कराया होगा, उसी पाप का यह पुत्र-बिछोहरूप फल आज उन्हें प्राप्त हुआ है॥ १९॥
मया हि चिरपुष्टेन दुःखसंवर्धितेन च।
विप्रयुज्यत कौसल्या फलकाले धिगस्तु माम्॥ २०॥
‘मेरी माता ने चिरकाल तक मेरा पालन-पोषण किया और स्वयं दुःख सहकर मुझे बड़ा किया। अब जब पुत्र से प्राप्त होने वाले सुखरूपी फल के भोगने का अवसर आया, तब मैंने माता कौसल्या को अपने से बिलग कर दिया मुझे धिक्कार है !॥ २० ॥
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम्।
सौमित्रे योऽहमम्बाया दद्मि शोकमनन्तकम्॥
‘सुमित्रानन्दन! कोई भी सौभाग्यवती स्त्री कभी ऐसे पुत्र को जन्म न दे, जैसा मैं हूँ; क्योंकि मैं अपनी माता को अनन्त शोक दे रहा हूँ॥ २१॥
मन्ये प्रीतिविशिष्टा सा मत्तो लक्ष्मण सारिका।
यत्तस्याः श्रूयते वाक्यं शुक पादमरेर्दश ॥२२॥
‘लक्ष्मण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि माता कौसल्या में मुझसे अधिक प्रेम उनकी पाली हुई वह सारिका ही करती है; क्योंकि उसके मुख से माँ को सदा यह बात सुनायी देती है कि ‘ऐ तोते! तू शत्रु के पैर को काट खा’ (अर्थात् हमें पालने वाली माता कौसल्या के शत्रु के पाँव को चोंच मार दे। वह पक्षिणी होकर माता का इतना ध्यान रखती है और मैं उनका पुत्र होकर भी उनके लिये कुछ नहीं कर पाता)॥ २२॥
शोचन्त्याश्चाल्पभाग्याया न किंचिदुपकुर्वता।
पुत्रेण किमपुत्राया मया कार्यमरिंदम॥२३॥
‘शत्रुदमन! जो मेरे लिये शोकमग्न रहती है, मन्दभागिनी-सी हो रही है और पुत्र का कोई फल न पाने के कारण निपूती-सी हो गयी है, उस मेरी माता को कुछ भी उपकार न करने वाले मुझ-जैसे पुत्र से क्या प्रयोजन है ? ॥ २३॥
अल्पभाग्या हि मे माता कौसल्या रहिता मया।
शेते परमदुःखार्ता पतिता शोकसागरे॥२४॥
‘मुझसे बिछुड़ जाने के कारण माता कौसल्या वास्तव में मन्दभागिनी हो गयी है और शोक के समुद्र में पड़कर अत्यन्त दुःख से आतुर हो उसी में शयन करती है।
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम्॥२५॥
‘लक्ष्मण! यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो अपने बाणों द्वारा अकेला ही अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डल को निष्कण्टक बनाकर अपने अधिकार में कर लूँ; परंतु पारलौकिक हित-साधन में बल-पराक्रम कारण नहीं होता है (इसीलिये मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ।) ॥ २५ ॥
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये॥२६॥
‘निष्पाप लक्ष्मण ! मैं अधर्म और परलोक के डर से डरता हूँ; इसीलिये आज अयोध्या के राज्यपर अपना अभिषेक नहीं कराता हूँ॥२६॥
एतदन्यच्च करुणं विलप्य विजने बहु।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो निशि तूष्णीमुपाविशत्॥ २७॥
यह तथा और भी बहुत-सी बातें कहकर श्रीराम ने उस निर्जन वन में करुणाजनक विलाप किया। तत्पश्चात् वे उस रात में चुपचाप बैठ गये। उस समय उनके मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी और दीनता छा रही थी॥
विलापोपरतं रामं गतार्चिषमिवानलम्।
समुद्रमिव निर्वेगमाश्वासयत लक्ष्मणः॥२८॥
विलाप से निवृत्त होने पर श्रीराम ज्वालारहित अग्नि और वेगशून्य समुद्र के समान शान्त प्रतीत होते थे। उस समय लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा – ॥२८॥
ध्रुवमद्य पुरी राम अयोध्याऽऽयधिनां वर।
निष्प्रभा त्वयि निष्क्रान्ते गतचन्द्रेव शर्वरी॥ २९॥
‘अस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीराम! आपके निकल आने से निश्चय ही आज अयोध्यापुरी चन्द्रहीन रात्रि के समान निस्तेज हो गयी॥ २९॥
नैतदौपयिकं राम यदिदं परितप्यसे।
विषादयसि सीतां च मां चैव पुरुषर्षभ॥३०॥
‘पुरुषोत्तम श्रीराम! आप जो इस तरह संतप्त हो रहे हैं, यह आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आप ऐसा करके सीता को और मुझको भी खेद में डाल रहे हैं।॥ ३०॥
न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव।
मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविवोद्धृतौ॥ ३१॥
‘रघुनन्दन! आपके बिना सीता और मैं दोनों दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। ठीक उसी तरह, जैसे जल से निकाले हुए मत्स्य नहीं जीते हैं॥ ३१॥
नहि तातं न शत्रुघ्नं न सुमित्रां परंतप।
द्रष्टमिच्छेयमद्याहं स्वर्गं चापि त्वया विना॥३२॥
‘शत्रुओं को ताप देने वाले रघुवीर! आपके बिना आज मैं न तो पिताजी को, न भाई शत्रुघ्न को, न माता सुमित्रा को और न स्वर्गलोक को ही देखना चाहता
ततस्तत्र समासीनौ नातिदूरे निरीक्ष्य ताम्।
न्यग्रोधे सुकृतां शय्यां भेजाते धर्मवत्सलौ॥३३॥
तदनन्तर वहाँ बैठे हुए धर्मवत्सल सीता और श्रीराम ने थोड़ी ही दूरपर वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा सुन्दर ढंग से निर्मित हुई शय्या देखकर उसीका आश्रय लिया (अर्थात् वे दोनों वहाँ जाकर सो गये।) ॥ ३३॥
स लक्ष्मणस्योत्तमपुष्कलं वचो निशम्य चैवं वनवासमादरात्।
समाः समस्ता विदधे परंतपः प्रपद्य धर्मं सुचिराय राघवः॥३४॥
शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनाथजी ने इस प्रकार वनवास के प्रति आदरपूर्वक कहे हुए लक्ष्मण के अत्यन्त उत्तम वचनों को सुनकर स्वयं भी दीर्घकाल के लिये वनवास रूप धर्म को स्वीकार करके सम्पूर्ण वर्षों तक लक्ष्मण को अपने साथ वन में रहने की अनुमति दे दी॥
ततस्तु तस्मिन् विजने महाबलौ महावने राघववंशवर्धनौ।
न तौ भयं सम्भ्रममभ्युपेयतुर्यथैव सिंहौ गिरिसानुगोचरौ॥ ३५॥
तदनन्तर उस महान् निर्जन वन में रघुवंश की वृद्धि करने वाले वे दोनों महाबली वीर पर्वतशिखर पर विचरने वाले दो सिंहों के समान कभी भय और उद्वेग को नहीं प्राप्त हुए।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः॥५३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५३॥
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