वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 55 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 55
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 55)
श्रीराम आदि का अपने ही बनाये हुए बेडे से यमुनाजी को पार करना, सीता की यमुना और श्यामवट से प्रार्थना,यमुनाजी के समतल तटपर रात्रि में निवास करना
उषित्वा रजनीं तत्र राजपुत्रावरिंदमौ।
महर्षिमभिवाद्याथ जग्मतुस्तं गिरिं प्रति॥१॥
उस आश्रम में रातभर रहकर शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों राजकुमार महर्षि को प्रणाम करके चित्रकूट पर्वत पर जाने को उद्यत हुए॥१॥
तेषां स्वस्त्ययनं चैव महर्षिः स चकार ह।
प्रस्थितान् प्रेक्ष्य तांश्चैव पिता पुत्रानिवौरसान्॥ २॥
उन तीनों को प्रस्थान करते देख महर्षि ने उनके लिये उसी प्रकार स्वस्तिवाचन किया जैसे पिता अपने औरस पुत्रों को यात्रा करते देख उनके लिये मङ्गलसूचक आशीर्वाद देता है॥२॥
ततः प्रचक्रमे वक्तुं वचनं स महामुनिः।
भरद्वाजो महातेजा रामं सत्यपराक्रमम्॥३॥
तदनन्तर महातेजस्वी महामुनि भरद्वाज ने सत्य पराक्रमी श्रीराम से इस प्रकार कहना आरम्भ किया
गङ्गायमुनयोः संधिमासाद्य मनुजर्षभौ।
कालिन्दीमनुगच्छेतां नदी पश्चान्मुखाश्रिताम्॥ ४॥
‘नरश्रेष्ठ! तुम दोनों भाई गङ्गा और यमुना के संगम पर पहुँचकर जिनमें पश्चिममुखी होकर गङ्गा मिली हैं, उन महानदी यमुना के निकट जाना॥ ४॥
अथासाद्य तु कालिन्दी प्रतिस्रोतःसमागताम्।
तस्यास्तीर्थं प्रचरितं प्रकामं प्रेक्ष्य राघव।
तत्र यूयं प्लवं कृत्वा तरतांशुमती नदीम्॥५॥
‘रघुनन्दन! तदनन्तर गङ्गाजी के जल के वेग से अपने प्रवाह के प्रतिकूल दिशा में मुड़ी हुई यमुना के पास पहुँचकर लोगों के आने-जाने के कारण उनके पदचिह्नों से चिह्नित हुए अवतरण-प्रदेश (पार उतरने के लिये उपयोगी घाट) को अच्छी तरह देखभालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर उसी के द्वारा सूर्यकन्या यमुना के उस पार उतर जाना॥५॥
ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम्।
परीतं बहुभिर्वृक्षः श्यामं सिद्धोपसेवितम्॥६॥
तस्मिन् सीताञ्जलिं कृत्वा प्रयुञ्जीताशिषां क्रियाम्।
समासाद्य च तं वृक्षं वसेद् वातिक्रमेत वा॥५॥
‘तत्पश्चात् आगे जाने पर एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते हरे रंग के हैं। वह चारों ओर से बहुसंख्यक दूसरे वृक्षों द्वारा घिरा हुआ है। उस वृक्ष का नाम श्यामवट है। उसकी छाया के नीचे बहुत-से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहाँ पहुँचकर सीता दोनों हाथ जोड़कर उस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करें। यात्री की इच्छा हो तो उस वृक्ष के पास जाकर कुछ कालतक वहाँ निवास करे अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाय॥६-७॥
क्रोशमात्रं ततो गत्वा नीलं प्रेक्ष्य च काननम्।
सल्लकीबदरीमिश्रं रम्यं वंशैश्च यामुनैः॥८॥
‘श्यामवट से एक कोस दूर जाने पर तुम्हें नीलवन का दर्शन होगा; वहाँ सल्लकी (चीड़) और बेर के भी पेड़ मिले हुए हैं। यमुना के तट पर उत्पन्न हुए बाँसों के कारण वह और भी रमणीय दिखायी देता है॥ ८॥
स पन्थाश्चित्रकूटस्य गतस्य बहुशो मया।
रम्यो मार्दवयुक्तश्च दावैश्चैव विवर्जितः॥९॥
‘यह वही स्थान है जहाँ से चित्रकूट को रास्ता जाता है। मैं उस मार्ग से कई बार गया हूँ। वहाँ की भूमि कोमल और दृश्य रमणीय है। उधर कभी दावानल का भय नहीं होता है’॥९॥
इति पन्थानमादिश्य महर्षिः संन्यवर्तत।
अभिवाद्य तथेत्युक्त्वा रामेण विनिवर्तितः॥ १०॥
इस प्रकार मार्ग बताकर जब महर्षि भरद्वाज लौटने लगे, तब श्रीराम ने ‘तथास्तु’ कहकर उनके चरणों में प्रणाम किया और कहा–’अब आप आश्रम को लौट जाइये’॥ १०॥
उपावृत्ते मुनौ तस्मिन् रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
कृतपुण्याः स्म भद्रं ते मुनिर्यन्नोऽनुकम्पते॥११॥
उन महर्षि के लौट जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा —’सुमित्रानन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो। ये मुनि हमारे ऊपर जो इतनी कृपा रखते हैं, इससे जान पड़ता है कि हमलोगों ने पहले कभी महान् पुण्य किया है’।
इति तौ पुरुषव्याघ्रौ मन्त्रयित्वा मनस्विनौ।
सीतामेवाग्रतः कृत्वा कालिन्दी जग्मतुर्नदीम्॥ १२॥
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों मनस्वी पुरुषसिंह सीता को ही आगे करके यमुना नदी के तटपर गये॥ १२॥
अथासाद्य तु कालिन्दी शीघ्रस्रोतस्विनी नदीम।
चिन्तामापेदिरे सद्यो नदीजलतितीर्षवः॥१३॥
वहाँ कालिन्दी का स्रोत बड़ी तीव्रगति से प्रवाहित हो रहा था; वहाँ पहुँचकर वे इस चिन्ता में पड़े कि कैसे नदी को पार किया जाय; क्योंकि वे तुरंत ही यमुनाजी के जल को पार करना चाहते थे॥१३॥
तौ काष्ठसंघाटमथो चक्रतुः सुमहाप्लवम्।
शुष्कर्वंशैः समाकीर्णमुशीरैश्च समावृतम्॥१४॥
ततो वैतसशाखाश्च जम्बुशाखाश्च वीर्यवान्।
चकार लक्ष्मणश्छित्त्वा सीतायाः सुखमासनम्॥ १५॥
फिर उन दोनों भाइयों ने जंगल के सूखे काठ बटोरकर उन्हीं के द्वारा एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार किया। वह बेड़ा सूखे बाँसों से व्याप्त था और उसके ऊपर खस बिछाया गया था। तदनन्तर पराक्रमी लक्ष्मण ने बेंत और जामुन की टहनियों को काटकर सीता के बैठने के लिये एक सुखद आसन तैयार किया। १४-१५॥
तत्र श्रियमिवाचिन्त्यां रामो दाशरथिः प्रियाम्।
ईषत्स लज्जमानां तामध्यारोपयत प्लवम्॥१६॥
पार्श्वे तत्र च वैदेह्या वसने भूषणानि च।।
प्लवे कठिनकाजं च रामश्चक्रे समाहितः॥१७॥
दशरथनन्दन श्रीराम ने लक्ष्मी के समान अचिन्त्य ऐश्वर्यवाली अपनी प्रिया सीता को जो कुछ लज्जित सी हो रही थीं, उस बेड़े पर चढ़ा दिया और उनके बगल में वस्त्र एवं आभूषण रख दिये; फिर श्रीराम ने बड़ी सावधानी के साथ खन्ती (कुदारी) और बकरे के चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी को भी बेड़ेपर ही रखा। १६-१७॥
आरोप्य सीतां प्रथमं संघाटं परिगृह्य तौ।
ततः प्रतेरतुर्यत्तौ प्रीतौ दशरथात्मजौ॥१८॥
इस प्रकार पहले सीता को चढ़ाकर वे दोनों भाई दशरथकुमार श्रीराम और लक्ष्मण उस बेड़े को पकड़कर खेने लगे। उन्होंने बड़े प्रयत्न और प्रसन्नता के साथ नदी को पार करना आरम्भ किया। १८॥
कालिन्दीमध्यमायाता सीता त्वेनामवन्दत।
स्वस्ति देवि तरामि त्वां पारयेन्मे पतिव्रतम्॥ १९॥
यमुना की बीच धारा में आनेपर सीता ने उन्हें प्रणाम किया और कहा–’देवि! इस बेड़े द्वारा मैं आपके पार जा रही हूँ। आप ऐसी कृपा करें, जिससे हमलोग सकुशल पार हो जायँ और मेरे पतिदेव अपनी वनवासविषयक प्रतिज्ञा को निर्विघ्न पूर्ण करें॥ १९॥
यक्ष्ये त्वां गोसहस्रेण सुराघटशतेन च।
स्वस्ति प्रत्यागते रामे पुरीमिक्ष्वाकुपालिताम्॥ २०॥
‘इक्ष्वाकुवंशी वीरों द्वारा पालित अयोध्यापुरी में श्रीरघुनाथजी के सकुशल लौट आने पर मैं आपके किनारे एक सहस्र गौओं का दान करूँगी और सैकड़ों देवदुर्लभ पदार्थ अर्पित करके आपकी पूजा सम्पन्न करूँगी’ ॥२०॥
कालिन्दीमथ सीता तु याचमाना कृताञ्जलिः।
तीरमेवाभिसम्प्राप्ता दक्षिणं वरवर्णिनी॥२१॥
इस प्रकार सुन्दरी सीता हाथ जोड़कर यमुनाजी से प्रार्थना कर रही थीं, इतने ही में वे दक्षिण तटपर जा पहुँचीं॥
ततः प्लवेनांशुमती शीघ्रगामूर्मिमालिनीम्।
तीरजैर्बहुभिर्वृक्षैः संतेरुर्यमुना नदीम्॥२२॥
इस तरह उन तीनों ने उसी बेड़े द्वारा बहुसंख्यक तटवर्ती वृक्षों से सुशोभित और तरङ्गमालाओं से अलंकृत शीघ्रगामिनी सूर्य-कन्या यमुना नदी को पार किया॥ २२॥
ते तीर्णाः प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात्।
श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम्॥२३॥
पार उतरकर उन्होंने बेड़े को तो वहीं तट पर छोड़ दिया और यमुना-तटवर्ती वन से प्रस्थान करके वे हरे हरे पत्तों से सुशोभित शीतल छाया वाले श्यामवट के पास जा पहुँचे।। २३॥
न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत।
नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम्॥२४॥
वट के समीप पहुँचकर विदेहनन्दिनी सीता ने उसे मस्तक झुकाया और इस प्रकार कहा—’महावृक्ष! आपको नमस्कार है। आप ऐसी कृपा करें, जिससे मेरे पतिदेव अपने वनवास-विषयक व्रत को पूर्ण करें॥ २४॥
कौसल्यां चैव पश्येम सुमित्रां च यशस्विनीम्।
इति सीताञ्जलिं कृत्वा पर्यगच्छन्मनस्विनी॥ २५॥
‘तथा हमलोग वन से सकुशल लौटकर माता कौसल्या तथा यशस्विनी सुमित्रा देवी का दर्शन कर सकें।’ इस प्रकार कहकर मनस्विनी सीता ने हाथ जोड़े हुए उस वृक्ष की परिक्रमा की॥ २५ ॥
अवलोक्य ततः सीतामायाचन्तीमनिन्दिताम्।
दयितां च विधेयां च रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ २६॥
सदा अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाली प्राणप्यारी सती-साध्वी सीता को श्यामवट से आशीर्वाद की याचना करती देख श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—॥ २६॥
सीतामादाय गच्छ त्वमग्रतो भरतानुज।
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सायुधो द्विपदां वर ॥२७॥
‘भरत के छोटे भाई नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! तुम सीता को साथ लेकर आगे-आगे चलो और मैं धनुष धारण किये पीछे से तुमलोगों की रक्षा करता हुआ चलूँगा। २७॥
यद् यत् फलं प्रार्थयते पुष्पं वा जनकात्मजा।
तत् तत् प्रयच्छ वैदेह्या यत्रास्या रमते मनः॥ २८॥
‘विदेहकुलनन्दिनी जनकदुलारी सीता जो-जो फल या फूल माँगें अथवा जिस वस्तु को पाकर इनका मन प्रसन्न रहे, वह सब इन्हें देते रहो’ ॥ २८॥
एकैकं पादपं गुल्मं लतां वा पुष्पशालिनीम्।
अदृष्टरूपां पश्यन्ती रामं पप्रच्छ साऽबला॥२९॥
अबला सीता एक-एक वृक्ष, झाड़ी अथवा पहले की न देखी हुई पुष्पशोभित लता को देखकर उसके विषय में श्रीरामचन्द्रजी से पूछती थीं॥ २९॥
रमणीयान् बहुविधान् पादपान् कुसुमोत्करान्।
सीतावचनसंरब्ध आनयामास लक्ष्मणः॥३०॥
तथा लक्ष्मण सीता के कथनानुसार तुरंत ही भाँतिभाँति के वृक्षों की मनोहर शाखाएँ और फूलों के गुच्छे ला-लाकर उन्हें देते थे॥३०॥
विचित्रवालुकजलां हंससारसनादिताम्।
रेमे जनकराजस्य सुता प्रेक्ष्य तदा नदीम्॥३१॥
उस समय जनकराजकिशोरी सीता विचित्र वालुका और जलराशि से सुशोभित तथा हंस और सारसों के कलनाद से मुखरित यमुना नदी को देखकर बहुत प्रसन्न होती थीं॥३१॥
क्रोशमात्रं ततो गत्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बहून् मेध्यान् मृगान् हत्वा चेरतुर्यमुनावने ॥३२॥
इस तरह एक कोस की यात्रा करके दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण (प्राणियों के हित के लिये) मार्ग में मिले हुए हिंसक पशुओं का वध करते हुए यमुनातटवर्ती वन में विचरने लगे॥ ३२॥
विहृत्य ते बर्हिणपूगनादिते शुभे वने वारणवानरायुते।
समं नदीवप्रमुपेत्य सत्वरं निवासमाजग्मुरदीनदर्शनाः॥३३॥
उदार दृष्टिवाले वे सीता, लक्ष्मण और श्रीराम मोरों के झुंडों की मीठी बोली से गूंजते तथा हाथियों और वानरों से भरे हुए उस सुन्दर वन में घूम-फिरकर शीघ्र ही यमुनानदी के समतल तटपर आ गये और रात में उन्होंने वहीं निवास किया॥ ३३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः॥५५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ५५॥
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ये श्यामवट जिसका वर्णन किया है यमुना जी मार्ग में चित्रकूट जाते समय ये तीर्थ स्थान ये वृक्ष क्या आज भी मौजूद है ? कहां है कृपया बताएं मुझे
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