वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 56 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 56
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षट्पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 56)
श्रीराम आदि का चित्रकूट में पहुँचना, वाल्मीकिजी का दर्शन करके श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मणद् वारा पर्णशाला का निर्माण,सबका कुटी में प्रवेश
अथ रात्र्यां व्यातीतायामवसुप्तमनन्तरम्।
प्रबोधयामास शनैर्लक्ष्मणं रघुपुङ्गवः॥१॥
तदनन्तर रात्रि व्यतीत होने पर रघुकुल-शिरोमणि श्रीराम ने अपने जागने के बाद वहाँ सोये हुए लक्ष्मण को धीरे से जगाया (और इस प्रकार कहा -)॥१॥
सौमित्रे शृणु वन्यानां वल्गु व्याहरतां स्वनम्।
सम्प्रतिष्ठामहे कालः प्रस्थानस्य परंतप॥२॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले सुमित्राकुमार! मीठी बोली बोलने वाले शुक-पिक आदि जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमलोग यहाँ से प्रस्थान करें; क्योंकि प्रस्थान के योग्य समय आ गया है’ ॥ २॥
प्रसुप्तस्तु ततो भ्रात्रा समये प्रतिबोधितः।
जहौ निद्रां च तन्द्रां च प्रसक्तं च परिश्रमम्॥३॥
सोये हुए लक्ष्मण ने अपने बड़े भाई द्वारा ठीक समय पर जगा दिये जाने पर निद्रा, आलस्य तथा राह चलने की थकावट को दूर कर दिया॥३॥
तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ट्वा नद्याः शिवं जलम्।
पन्थानमृषिभिर्जुष्टं चित्रकूटस्य तं ययुः॥४॥
फिर सब लोग उठे और यमुना नदी के शीतल जल में स्नान आदि करके ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित चित्रकूट के उस मार्ग पर चल दिये॥४॥
ततः सम्प्रस्थितः काले रामः सौमित्रिणा सह।
सीतां कमलपत्राक्षीमिदं वचनमब्रवीत्॥५॥
उस समय लक्ष्मण के साथ वहाँ से प्रस्थित हुए श्रीराम ने कमलनयनी सीता से इस प्रकार कहा-॥
आदीप्तानिव वैदेहि सर्वतः पुष्पितान् नगान्।
स्वैः पुष्पैः किंशुकान् पश्य मालिनः शिशिरात्यये॥६॥
‘विदेहराजनन्दिनी! इस वसन्त-ऋतु में सब ओर से खिले हुए इन पलाश-वृक्षों को तो देखो। ये अपने ही पुष्पों से पुष्पमालाधारी-से प्रतीत होते हैं और उन फूलों की अरुण प्रभा के कारण प्रज्वलित होते-से दिखायी देते हैं॥६॥
पश्य भल्लातकान् बिल्वान् नरैरनुपसेवितान्।
फलपुष्पैरवनतान् नूनं शक्ष्याम जीवितुम्॥७॥
‘देखो, ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों और फलों के भार से झुके हुए हैं। दूसरे मनुष्यों का यहाँ तक आना सम्भव न होने से ये उनके द्वारा उपयोग में नहीं लाये गये हैं; अतः निश्चय ही इन फलों से हम जीवन निर्वाह कर सकेंगे’ ॥७॥
पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण।
मधूनि मधुकारीभिः सम्भृतानि नगे नगे॥८॥
(फिर लक्ष्मण से कहा-) लक्ष्मण! देखो, यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों द्वारा लगाये और पुष्ट किये गये मधु के छत्ते कैसे लटक रहे हैं। इन सब में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु भरा हुआ है॥८॥
एष क्रोशति नत्यूहस्तं शिखी प्रतिकूजति।
रमणीये वनोद्देशे पुष्पसंस्तरसंकटे॥९॥
‘वन का यह भाग बड़ा ही रमणीय है, यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से आच्छादित दिखायी देती है। इस वनप्रान्त में यह चातक ‘पी कहाँ’ ‘पी कहाँ’ की रट लगा रहा है। उधर वह मोर बोल रहा है, मानो पपीहे की बात का उत्तर दे रहा हो॥९॥
मातङ्गयूथानुसृतं पक्षिसंघानुनादितम्।
चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम्॥१०॥
‘यह रहा चित्रकूट पर्वत—इसका शिखर बहुत ऊँचा है। झुंड-के-झुंड हाथी उसी ओर जा रहे हैं और वहाँ बहुत-से पक्षी चहक रहे हैं॥१०॥
समभूमितले रम्ये द्रुमैर्बहुभिरावृते।
पुण्ये रंस्यामहे तात चित्रकूटस्य कानने॥११॥
‘तात! जहाँ की भूमि समतल है और जो बहुत-से वृक्षों से भरा हुआ है, चित्रकूट के उस पवित्र कानन में हमलोग बड़े आनन्द से विचरेंगे’ ॥ ११॥
ततस्तौ पादचारेण गच्छन्तौ सह सीतया।
रम्यमासेदतुः शैलं चित्रकूटं मनोरमम्॥१२॥
सीता के साथ दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण पैदल ही यात्रा करते हुए यथासमय रमणीय एवं मनोरम पर्वत चित्रकूट पर जा पहुँचे॥ १२॥
तं तु पर्वतमासाद्य नानापक्षिगणायुतम्।
बहुमूलफलं रम्यं सम्पन्नसरसोदकम्॥१३॥
वह पर्वत नाना प्रकार के पक्षियों से परिपूर्ण था। वहाँ फल-मूलों की बहतायत थी और स्वादिष्ट जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता था। उस रमणीय शैल के समीप जाकर श्रीराम ने कहा- ॥१३॥
मनोज्ञोऽयं गिरिः सौम्य नानाद्रुमलतायुतः।
बहुमूलफलो रम्यः स्वाजीवः प्रतिभाति मे॥ १४॥
‘सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है नाना प्रकार के वृक्ष और लताएँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं। यहाँ फलमूल भी बहुत हैं; यह रमणीय तो है ही मुझे जान पड़ता है कि यहाँ बड़े सुख से जीवन-निर्वाह हो सकता है॥ १४॥
मुनयश्च महात्मानो वसन्त्यस्मिन् शिलोच्चये।
अयं वासो भवेत् तात वयमत्र वसेमहि ॥१५॥
‘इस पर्वत पर बहुत-से महात्मा मुनि निवास करते हैं। तात! यही हमारा वासस्थान होने योग्य है। हम यहीं निवास करेंगे’ ॥ १५ ॥
इति सीता च रामश्च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः।
अभिगम्याश्रमं सर्वे वाल्मीकिमभिवादयन्॥
ऐसा निश्चय करके सीता, श्रीराम और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया और सबने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। १६॥
तान् महर्षिः प्रमुदितः पूजयामास धर्मवित्।
आस्यतामिति चोवाच स्वागतं तं निवेद्य च। १७॥
धर्म को जानने वाले महर्षि उनके आगमन से बहुत प्रसन्न हुए और ‘आप लोगोंका स्वागत है आइये,बैठिये।’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका आदर सत्कार किया॥१७॥
ततोऽब्रवीन्महाबाहुर्लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः।
संनिवेद्य यथान्यायमात्मानमृषये प्रभुः॥१८॥
तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय दिया और लक्ष्मण से कहा – ॥१८॥
लक्ष्मणानय दारूणि दृढानि च वराणि च।
कुरुष्वावसथं सौम्य वासे मेऽभिरतं मनः॥१९॥
‘सौम्य लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिये एक कुटी तैयार करो। यहीं निवास करने को मेरा जी चाहता है’ ॥ १९॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सौमित्रिर्विविधान् द्रुमान्।
आजहार ततश्चक्रे पर्णशालामरिंदमः॥ २०॥
श्रीराम की यह बात सुनकर शत्रुदमन लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ काट लाये और उनके द्वारा एक पर्णशाला तैयार की॥ २० ॥
तां निष्ठितां बद्धकटां दृष्ट्वा रामः सुदर्शनाम्।
शुश्रूषमाणमेकाग्रमिदं वचनमब्रवीत्॥२१॥
वह कुटी बाहर-भीतर से लकड़ी की ही दीवार से सुस्थिर बनायी गयी थी और उसे ऊपरसे छा दिया गया था, जिससे वर्षा आदि का निवारण हो। वह देखने में बड़ी सुन्दर लगती थी। उसे तैयार हुई देखकर एकाग्रचित्त होकर अपनी बात सुनने वाले लक्ष्मण से श्रीराम ने इस प्रकार कहा— ॥२१॥
ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम्।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः॥२२॥
‘सुमित्राकुमार! हम गजकन्द का गूदा लेकर उसी से पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे;* क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाले पुरुषों को वास्तुशान्ति अवश्य करनी चाहिये॥ २२ ॥
* यहाँ ‘ऐणेयं मांसम्’ का अर्थ है-गजकन्द नामक कन्द विशेष का गूदा। इस प्रसंग में मांस परक अर्थ नहीं लेना चाहिये; क्योंकि ऐसा अर्थ लेने पर ‘हित्वा मुनिवदामिषम्’ (२। २० । २९), ‘फलानि मूलानि च भक्षयन् वने’ (२। ३४। ५९) तथा ‘धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः’ (२। ५४। १६) इत्यादि रूप से की हुई श्रीराम की प्रतिज्ञाओं से विरोध पड़ेगा। इन वचनों में निरामिष रहने और फल-मूल खाकर धर्माचरण करने की ही बात कही गयी है। ‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ (श्रीराम दो तरह की बात नहीं कहते हैं, एक बार जो कह दिया, वह अटल है) इस कथन के अनुसार श्रीराम की प्रतिज्ञा टलने वाली नहीं है।
मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर ॥२३॥
‘कल्याणदर्शी लक्ष्मण! तुम ‘गजकन्द’ नामक कन्द को* उखाड़कर या खोदकर शीघ्र यहाँ ले आओ; क्योंकि शास्त्रोक्त विधि का अनुष्ठान हमारे लिये अवश्य-कर्तव्य है। तुम धर्म का ही सदा चिन्तन किया करो’ ॥ २३॥
* मदनपाल-निघण्टुके अनुसार ‘मृग’ का अर्थ गजकन्द है।
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय लक्ष्मणः परवीरहा।
चकार च यथोक्तं हि तं रामः पुनरब्रवीत्॥२४॥
भाई की इस बात को समझकर शत्रुवीरों का वध करने वाले लक्ष्मण ने उनके कथनानुसार कार्य किया। तब श्रीराम ने पुनः उनसे कहा- ॥२४॥
ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्।
त्वर सौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसो ह्ययम्॥ २५॥
‘लक्ष्मण! इस गजकन्द को पकाओ। हम पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे। जल्दी करो यह सौम्यमुहूर्त है और यह दिन भी ‘ध्रुव’* संज्ञक है (अतः इसी में यह शुभ कार्य होना चाहिये)’ ॥ २५॥
* ‘उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम्।’ (मुहूर्तचिन्तामणि)
अर्थात तीनों उत्तरा और रोहिणी नक्षत्र तथा रविवार—ये ‘ध्रुव’ एवं ‘स्थिर’ संज्ञक हैं। इसमें गृहशान्ति या वास्तुशान्ति आदि कार्य अच्छे माने गये हैं।
स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान्।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि ॥२६॥
प्रतापी सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने पवित्र और काले छिलके वाले गजकन्द को उखाड़कर प्रज्वलित आग में डाल दिया॥ २६॥
तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम्।
लक्ष्मणः पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत्॥२७॥
रक्तविकार का नाश करनेवाले* उस गजकंद को भलीभाँति पका हुआ जानकर लक्ष्मण ने पुरुषसिंह श्रीरघुनाथजी से कहा- ॥२७॥
* ‘छिन्नशोणितम्’ की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-‘छिन्नं शोणितं रक्तविकाररूपं रोगजातं येन सः तम्।’ ‘गजकन्द’ रोगविकारका नाशक है’ यह वैद्यक में प्रसिद्ध है। मदनपालनिघण्टुके ‘षड्दोषादिकुष्ठहन्ता’ आदि वचन से भी यह चर्मदोष तथा कुष्ठ आदि रक्तविकार का नाशक सिद्ध होता है।
अयं सर्वः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया।
देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि॥२८॥
‘देवोपम तेजस्वी श्रीरघुनाथजी! यह काले छिलके वाला गजकन्द, जो बिगड़े हुए सभी अङ्गों को ठीक करनेवाला है,* मेरे द्वारा सम्पूर्णतः पका दिया गया है। अब आप वास्तुदेवताओं का यजन कीजिये; क्योंकि आप इस कर्म में कुशल हैं।॥ २८॥
* ‘समस्ताङ्गः’ की व्युत्पत्ति यों समझनी चाहिये—’सम्यग् भवन्ति अस्तानि अङ्गानि येन सः।’
रामः स्नात्वा तु नियतो गुणवाञ्जपकोविदः।
संग्रहेणाकरोत् सर्वान् मन्त्रान् सत्रावसानिकान्॥ २९॥
सद्गुणसम्पन्न तथा जपकर्म के ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान करके शौच-संतोषादि नियमों के पालनपूर्वक संक्षेप से उन सभी मन्त्रों का पाठ एवं जप किया, जिनसे वास्तुयज्ञ की पूर्ति हो जाती है।॥ २९॥
इष्ट्वा देवगणान् सर्वान् विवेशावसथं शुचिः।
बभूव च मनोह्लादो रामस्यामिततेजसः ॥ ३०॥
समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से श्रीराम ने पर्णकुटी में प्रवेश किया। उस समय अमिततेजस्वी श्रीराम के मन में बड़ा आह्लाद हुआ॥ ३० ॥
वैश्वदेवबलिं कृत्वा रौद्रं वैष्णवमेव च।
वास्तुसंशमनीयानि मङ्गलानि प्रवर्तयन्॥३१॥
तत्पश्चात् बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके श्रीराम ने वास्तुदोष की शान्ति के लिये मङ्गलपाठ किया॥ ३१॥
जपं च न्यायतः कृत्वा स्नात्वा नद्यां यथाविधि।
पापसंशमनं रामश्चकार बलिमुत्तमम्॥३२॥
नदी में विधिपूर्वक स्नान करके न्यायतः गायत्री आदि मन्त्रों का जप करने के अनन्तर श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिये उत्तम बलिकर्म सम्पन्न किया॥ ३२॥
वेदिस्थलविधानानि चैत्यान्यायतनानि च।
आश्रमस्यानुरूपाणि स्थापयामास राघवः॥३३॥
रघुनाथजी ने अपनी छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही वेदिस्थलों (आठ दिक्पालों के लिये बलि-समर्पण के स्थानों), चैत्यों (गणेश आदि के स्थानों) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थानों) का निर्माण एवं स्थापना की॥ ३३॥
तां वृक्षपर्णच्छदनां मनोज्ञां यथाप्रदेशं सुकृतां निवाताम्।
वासाय सर्वे विविशुः समेताः सभां यथा देवगणाः सुधर्माम्॥३४॥
वह मनोहर कुटी उपयुक्त स्थान पर बनी थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और उसके भीतर प्रचण्ड वायु से बचने का पूरा प्रबन्ध था। सीता, लक्ष्मण और श्रीराम सबने एक साथ उसमें निवास के लिये प्रवेश किया। ठीक वैसे ही, जैसे देवतालोग सुधर्मा सभा में प्रवेश करते हैं। ३४॥
सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं नदीं च तां माल्यवती सुतीर्थाम्।
ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां जहौ च दुःखं पुरविप्रवासात्॥ ३५॥
चित्रकूट पर्वत बड़ा ही रमणीय था। वहाँ उत्तमतीर्थों (तीर्थस्थान, सीढ़ी और घाटों) से सुशोभित माल्यवती (मन्दाकिनी) नदी बह रही थी, जिसका बहुत-से पशुपक्षी सेवन करते थे। उस पर्वत
और नदी का सांनिध्य पाकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा हर्ष और आनन्द हुआ। वे नगर से दूर वन में आने के कारण होने वाले कष्ट को भूल गये॥ ३५ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः॥५६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ५६॥
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