वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 57 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 57
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 57)
सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना, उनके मुख से श्रीराम का संदेश सुनकर पुरवासियों का विलाप, राजा दशरथ और कौसल्या की मूर्छा तथा अन्तःपुर की रानियों का आर्तनाद
कथयित्वा तु दुःखार्तः सुमन्त्रेण चिरं सह।
रामे दक्षिणकूलस्थे जगाम स्वगृहं गुहः॥१॥
इधर, जब श्रीराम गङ्गा के दक्षिण तट पर उतर गये, तब गुह दुःख से व्याकुल हो सुमन्त्र के साथ बड़ी देरतक बातचीत करता रहा। इसके बाद वह सुमन्त्र को साथ ले अपने घर को चला गया॥१॥
भरद्वाजाभिगमनं प्रयागे च सभाजनम्।
आ गिरेर्गमनं तेषां तत्रस्थैरभिलक्षितम्॥२॥
श्रीरामचन्द्रजी का प्रयाग में भरद्वाज के आश्रम पर जाना, मुनि के द्वारा सत्कार पाना तथा चित्रकूट पर्वत पर पहुँचना—ये सब वृत्तान्त शृङ्गवेर के निवासी गुप्तचरों ने देखे और लौटकर गुह को इन बातों से अवगत कराया॥२॥
अनुज्ञातः सुमन्त्रोऽथ योजयित्वा हयोत्तमान्।
अयोध्यामेव नगरी प्रययौ गाढदुर्मनाः॥३॥
इन सब बातों को जानकर सुमन्त्र गुह से विदा ले अपने उत्तम घोड़ों को रथ में जोतकर अयोध्या की ओर ही लौट पड़े। उस समय उनके मन में बड़ा दुःख हो रहा था॥
स वनानि सुगन्धीनि सरितश्च सरांसि च।
पश्यन् यत्तो ययौ शीघ्रं ग्रामाणि नगराणि च॥ ४॥
वे मार्ग में सुगन्धित वनों, नदियों, सरोवरों, गाँवों और नगरों को देखते हुए बड़ी सावधानी के साथ शीघ्रतापूर्वक जा रहे थे॥४॥
ततः सायाह्नसमये द्वितीयेऽहनि सारथिः।
अयोध्यां समनुप्राप्य निरानन्दां ददर्श ह॥५॥
शृङ्गवेरपुर से लौटने के दूसरे दिन सायंकाल में अयोध्या पहुँचकर उन्होंने देखा, सारी पुरी आनन्दशून्य हो गयी है॥५॥
स शून्यामिव निःशब्दां दृष्ट्वा परमदुर्मनाः।
सुमन्त्रश्चिन्तयामास शोकवेगसमाहतः॥६॥
वहाँ कहीं एक शब्द भी सुनायी नहीं देता था। सारी पुरी ऐसी नीरव थी, मानो मनुष्यों से सूनी हो गयी हो। अयोध्या की ऐसी दशा देखकर सुमन्त्र के मन में बड़ा दुःख हुआ। वे शोक के वेग से पीड़ित हो इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ॥६॥
कच्चिन्न सगजा साश्वा सजना सजनाधिपा।
रामसंतापदुःखेन दग्धा शोकाग्निना पुरी॥७॥
‘कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि श्रीराम के विरहजनित संताप के दुःख से व्यथित हो हाथी, घोड़े, मनुष्य और महाराजसहित सारी अयोध्यापुरी शोकाग्नि से दग्ध हो गयी हो ॥ ७॥
इति चिन्तापरः सूतो वाजिभिः शीघ्रयायिभिः।
नगरद्वारमासाद्य त्वरितः प्रविवेश ह॥८॥
इसी चिन्ता में पड़े हुए सारथि सुमन्त्र ने शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा नगर द्वार पर पहुँचकर तुरंत ही पुरी के भीतर प्रवेश किया।॥ ८॥
सुमन्त्रमभिधावन्तः शतशोऽथ सहस्रशः।
क्व राम इति पृच्छन्तः सूतमभ्यद्रवन् नराः॥९॥
सुमन्त्र को देखकर सैकड़ों और हजारों पुरवासी मनुष्य दौड़े आये और ‘श्रीराम कहाँ हैं?’ यह पूछते हुए उनके रथ के साथ-साथ दौड़ने लगे॥९॥
तेषां शशंस गङ्गायामहमापृच्छ्य राघवम्।
अनुज्ञातो निवृत्तोऽस्मि धार्मिकेण महात्मना॥ १०॥
ते तीर्णा इति विज्ञाय बाष्पपूर्णमुखा नराः।
अहो धिगिति निःश्वस्य हा रामेति विचुक्रुशुः॥ ११॥
उस समय सुमन्त्र ने उन लोगों से कहा—’सज्जनो! मैं गङ्गाजी के किनारे तक श्रीरघुनाथजी के साथ गया था। वहाँ से उन धर्मनिष्ठ महात्मा ने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी। अतः मैं उनसे बिदा लेकर यहाँ लौट आया हूँ। वे तीनों व्यक्ति गङ्गा के उस पार चले गये’ यह जानकर सब लोगों के मुख पर आँसुओं की धाराएँ बह चलीं। ‘अहो! हमें धिक्कार है।’ ऐसा कहकर वे लंबी साँसें खींचते और ‘हा राम!’ की पुकार मचाते हुए जोर-जोर से करुणक्रन्दन करने लगे। १०-११॥
शुश्राव च वचस्तेषां वृन्दं वृन्दं च तिष्ठताम्।
हताः स्म खलु ये नेह पश्याम इति राघवम्॥ १२॥
सुमन्त्र ने उनकी बातें सुनीं। वे झुंड-के-झुंड खड़े होकर कह रहे थे—’हाय! निश्चय ही हमलोग मारे गये; क्योंकि अब हम यहाँ श्रीरामचन्द्रजी को नहीं देख पायेंगे॥ १२॥
दानयज्ञविवाहेषु समाजेषु महत्सु च।
न द्रक्ष्यामः पुनर्जातु धार्मिकं राममन्तरा॥१३॥
‘दान, यज्ञ, विवाह तथा बड़े-बड़े सामाजिक उत्सवों के समय अब हम कभी धर्मात्मा श्रीराम को अपने बीच में खड़ा हुआ नहीं देख सकेंगे॥ १३॥
किं समर्थं जनस्यास्य किं प्रियं किं सुखावहम्।
इति रामेण नगरं पित्रेव परिपालितम्॥१४॥
‘अमुक पुरुष के लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है? क्या करने से उसका प्रिय होगा? और कैसे किसकिस वस्तु से उसे सुख मिलेगा, इत्यादि बातों का विचार करते हुए श्रीरामचन्द्रजी पिता की भाँति इस नगर का पालन करते थे’॥ १४॥
वातायनगतानां च स्त्रीणामन्वन्तरापणम्।
राममेवाभितप्तानां शुश्राव परिदेवनाम्॥१५॥
बाजार के बीच से निकलते समय सारथि के कानों में स्त्रियों के रोने की आवाज सुनायी दी, जो महलों की खिड़कियों में बैठकर श्रीराम के लिये ही संतप्त हो विलाप कर रहीं थीं॥ १५॥
स राजमार्गमध्येन सुमन्त्रः पिहिताननः।
यत्र राजा दशरथस्तदेवोपययौ गृहम्॥१६॥
राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढक लिया। वे रथ लेकर उसी भवन की ओर गये, जहाँ राजा दशरथ मौजूद थे॥ १६ ।।
सोऽवतीर्य रथाच्छीघ्रं राजवेश्म प्रविश्य च।
कक्ष्याः सप्ताभिचक्राम महाजनसमाकुलाः॥ १७॥
राजमहल के पास पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर पड़े और भीतर प्रवेश करके बहुत-से मनुष्यों से भरी हुई सात ड्योढ़ियों को पार कर गये॥१७॥
हम्यैर्विमानैः प्रासादैरवेक्ष्याथ समागतम्।
हाहाकारकृता नार्यो रामादर्शनकर्शिताः॥१८॥
धनियों की अट्टालिकाओं, सतमंजिले मकानों तथा राजभवनों में बैठी हुईं स्त्रियाँ सुमन्त्र को लौटा हुआ देख श्रीराम के दर्शन से वञ्चित होने के दुःख से दुर्बल हो हाहाकर कर उठीं ॥ १८॥
आयतैर्विमलैनॆत्रैरश्रुवेगपरिप्लुतैः।
अन्योन्यमभिवीक्षन्तेऽव्यक्तमार्ततराः स्त्रियः॥ १९॥
उनके कज्जल आदि से रहित बड़े-बड़े नेत्र आँसुओं के वेग में डूबे हुए थे। वे स्त्रियाँ अत्यन्त आर्त होकर अव्यक्तभाव से एक-दूसरी की ओर देख रही थीं॥
ततो दशरथस्त्रीणां प्रासादेभ्यस्ततस्ततः।
रामशोकाभितप्तानां मन्दं शुश्राव जल्पितम्॥ २०॥
तदनन्तर राजमहलों में जहाँ-तहाँ से श्रीराम के शोक से संतप्त हुई राजा दशरथ की रानियों के मन्दस्वर में कहे गये वचन सुनायी पड़े॥ २० ॥
सह रामेण निर्यातो विना राममिहागतः।
सूतः किं नाम कौसल्यां क्रोशन्तीं प्रतिवक्ष्यति॥ २१॥
‘ये सारथि सुमन्त्र श्रीराम के साथ यहाँ से गये थे और उनके बिना ही यहाँ लौटे हैं, ऐसी दशा में करुण क्रन्दन करती हुई कौसल्या को ये क्या उत्तर देंगे? ॥ २१॥
यथा च मन्ये दुर्जीवमेवं न सुकरं ध्रुवम्।
आच्छिद्य पुत्रे निर्याते कौसल्या यत्र जीवति॥ २२॥
‘मैं समझती हूँ, जैसे जीवन दुःखजनित है, निश्चय ही उसी प्रकार इसका नाश भी सुकर नहीं है; तभी तो न्यायतः प्राप्त हुए अभिषेक को त्यागकर पुत् रके वन में चले जाने पर भी कौसल्या अभी तक जीवित हैं। २२॥
सत्यरूपं तु तद् वाक्यं राजस्त्रीणां निशामयन्।
प्रदीप्त इव शोकेन विवेश सहसा गृहम्॥ २३॥
रानियों की वह सच्ची बात सुनकर शोक से दग्ध से होते हुए सुमन्त्र ने सहसा राजभवन में प्रवेश किया॥२३॥
स प्रविश्याष्टमीं कक्ष्यां राजानं दीनमातुरम्।
पुत्रशोकपरियूनमपश्यत् पाण्डुरे गृहे ॥२४॥
आठवीं ड्योढ़ी में प्रवेश करके उन्होंने देखा, राजा एक श्वेत भवन में बैठे और पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर हो रहे हैं॥ २४॥
अभिगम्य तमासीनं राजानमभिवाद्य च।
सुमन्त्रो रामवचनं यथोक्तं प्रत्यवेदयत्॥२५॥
सुमन्त्र ने वहाँ बैठे हुए महाराज के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और उन्हें श्रीरामचन्द्रजी की कही हुई बातें ज्यों-की-त्यों सुना दीं॥ २५ ॥
स तूष्णीमेव तच्छ्रुत्वा राजा विद्रुतमानसः।
मूर्च्छितो न्यपतद् भूमौ रामशोकाभिपीडितः॥ २६॥
राजा ने चुपचाप ही वह सुन लिया, सुनकर उनका हृदय द्रवित (व्याकुल) हो गया। फिर वे श्रीराम के शोक से अत्यन्त पीड़ित हो मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥२६॥
ततोऽन्तःपुरमाविद्धं मूर्च्छिते पृथिवीपतौ।
उच्छ्रित्य बाहू चुक्रोश नृपतौ पतिते क्षितौ॥२७॥
महाराज के मूर्च्छित हो जाने पर सारा अन्तःपुर दुःख से व्यथित हो उठा। राजा के पृथ्वी पर गिरते ही सब लोग दोनों बाहें उठाकर जोर-जोर से चीत्कार करने लगे॥ २७॥
सुमित्रया तु सहिता कौसल्या पतितं पतिम्।
उत्थापयामास तदा वचनं चेदमब्रवीत्॥ २८॥
उस समय कौसल्या ने सुमित्रा की सहायता से अपने गिरे हुए पति को उठाया और इस प्रकार कहा-॥ २८॥
इमं तस्य महाभाग दूतं दुष्करकारिणः।
वनवासादनुप्राप्तं कस्मान्न प्रतिभाषसे॥२९॥
‘महाभाग! ये सुमन्त्रजी दुष्कर कर्म करने वाले श्रीराम के दूत होकर उनका संदेश लेकर वनवास से लौटे हैं आप इनसे बात क्यों नहीं करते हैं? ॥ २९ ॥
अद्येममनयं कृत्वा व्यपत्रपसि राघव।।
उत्तिष्ठ सुकृतं तेऽस्तु शोके न स्यात् सहायता॥ ३०॥
‘रघुनन्दन! पुत्रको वनवास दे देना अन्याय है। यह अन्याय करके आप लज्जित क्यों हो रहे हैं? उठिये, आपको अपने सत्य के पालन का पुण्य प्राप्त हो जब आप इस तरह शोक करेंगे, तब आपके सहायकों का समुदाय भी आपके साथ ही नष्ट हो जायगा॥ ३० ॥
देव यस्या भयाद् रामं नानुपृच्छसि सारथिम्।
नेह तिष्ठति कैकेयी विश्रब्धं प्रतिभाष्यताम्॥ ३१॥
‘देव! आप जिसके भय से सुमन्त्रजी से श्रीराम का समाचार नहीं पूछ रहे हैं, वह कैकेयी यहाँ मौजूद नहीं है; अतः निर्भय होकर बात कीजिये’ ॥ ३१॥
सा तथोक्त्वा महाराज कौसल्या शोकलालसा।
धरण्यां निपपाताशु बाष्पविप्लुतभाषिणी॥३२॥
महाराज से ऐसा कहकर कौसल्या का गला भर आया। आँसुओं के कारण उनसे बोला नहीं गया और वे शोक से व्याकुल होकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़ीं॥ ३२॥
विलपन्ती तथा दृष्ट्वा कौसल्यां पतितां भुवि।
पतिं चावेक्ष्य ताः सर्वाः समन्ताद् रुरुदुः स्त्रियः॥
इस प्रकार विलाप करती हुई कौसल्या को भूमिपर पड़ी देख और अपने पति की मूर्च्छित दशा पर दृष्टिपात करके सभी रानियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर रोने लगीं॥ ३३॥
ततस्तमन्तःपुरनादमुत्थितं समीक्ष्य वृद्धास्तरुणाश्च मानवाः।
स्त्रियश्च सर्वा रुरुदुः समन्ततः पुरं तदासीत् पुनरेव संकुलम्॥ ३४॥
अन्तःपुर से उठे हुए उस आर्तनाद को देख सुनकर नगर के बूढ़े और जवान पुरुष रो पड़े। सारी स्त्रियाँ भी रोने लगीं। वह सारा नगर उस समय सब ओर से पुनः शोक से व्याकुल हो उठा॥ ३४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः॥ ५७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५७॥
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