वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 59 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 59
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनषष्टितमः सर्गः (सर्ग 59)
सुमन्त्र द्वारा श्रीराम के शोक से जडचेतन एवं अयोध्यापुरी की दुरवस्था का वर्णन तथा राजा दशरथ का विलाप
मम त्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वर्त्मनि।
उष्णमश्रु विमुञ्चन्तो रामे सम्प्रस्थिते वनम्॥१॥
उभाभ्यां राजपुत्राभ्यामथ कृत्वाहमञ्जलिम्।
प्रस्थितो रथमास्थाय तदुःखमपि धारयन्॥२॥
सुमन्त्र ने कहा-‘जब श्रीरामचन्द्रजी वन की ओर प्रस्थित हुए, तब मैंने उन दोनों राजकुमारों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके वियोग के दुःख को हृदय में धारण करके रथ पर आरूढ़ हो उधर से लौटा। लौटते समय मेरे घोड़े नेत्रों से गरम-गरम आँसू बहाने लगे रास्ता चलने में उनका मन नहीं लगता था। १-२॥
गुहेन सार्धं तत्रैव स्थितोऽस्मि दिवसान् बहून्।
आशया यदि मां रामः पुनः शब्दापयेदिति॥३॥
‘मैं गृह के साथ कई दिनों तक वहाँ इस आशा से ठहरा रहा कि सम्भव है, श्रीराम फिर मुझे बुला लें। ३॥
विषये ते महाराज महाव्यसनकर्शिताः।
अपि वृक्षाः परिम्लानाः सपुष्पाङ्करकोरकाः॥४॥
‘महाराज! आपके राज्य में वृक्ष भी इस महान् संकट से कृशकाय हो गये हैं, फूल, अंकुर और कलियों सहित मुरझा गये हैं॥ ४॥
उपतप्तोदका नद्यः पल्वलानि सरांसि च।
परिशुष्कपलाशानि वनान्युपवनानि च ॥५॥
‘नदियों, छोटे जलाशयों तथा बड़े सरोवरों के जल गरम हो गये हैं। वनों और उपवनों के पत्ते सूख गये हैं॥
न च सर्पन्ति सत्त्वानि व्याला न प्रचरन्ति च।
रामशोकाभिभूतं तन्निष्कूजमभवद् वनम्॥६॥
‘वन के जीव-जन्तु आहार के लिये भी कहीं नहीं जाते हैं। अजगर आदि सर्प भी जहाँ-के-तहाँ पड़े हैं, आगे नहीं बढ़ते हैं। श्रीराम के शोक से पीड़ित हुआ वह सारा वन नीरव-सा हो गया है॥६॥
लीनपुष्करपत्राश्च नद्यश्च कलुषोदकाः।
संतप्तपद्माः पद्मिन्यो लीनमीनविहंगमाः॥७॥
‘नदियों के जल मलिन हो गये हैं। उनमें फैले हुए कमलों के पत्ते गल गये हैं। सरोवरों के कमल भी सूख गये हैं। उनमें रहने वाले मत्स्य और पक्षी भी नष्टप्राय हो गये हैं॥ ७॥
जलजानि च पुष्पाणि माल्यानि स्थलजानि च।
नातिभान्त्यल्पगन्धीनि फलानि च यथापुरम्॥ ८॥
‘जल में उत्पन्न होने वाले पुष्प तथा स्थल से पैदा होने वाले फूल भी बहुत थोड़ी सुगन्ध से युक्त होने के कारण अधिक शोभा नहीं पाते हैं तथा फल भी पूर्ववत् नहीं दृष्टिगोचर होते हैं॥८॥
अत्रोद्यानानि शून्यानि प्रलीनविहगानि च।
न चाभिरामानारामान् पश्यामि मनुजर्षभ॥९॥
‘नरश्रेष्ठ! अयोध्या के उद्यान भी सूने हो गये हैं, उनमें रहने वाले पक्षी भी कहीं छिप गये हैं। यहाँ के बगीचे भी मुझे पहले की भाँति मनोहर नहीं दिखायी देते हैं॥९॥
प्रविशन्तमयोध्यायां न कश्चिदभिनन्दति।
नरा राममपश्यन्तो निःश्वसन्ति मुहुर्मुहुः ॥१०॥
‘अयोध्या में प्रवेश करते समय मुझसे किसी ने प्रसन्न होकर बात नहीं की। श्रीराम को न देखकर लोग बारंबार लंबी साँसें खींचने लगे॥१०॥
देव राजरथं दृष्ट्वा विना राममिहागतम्।
दूरादश्रुमुखः सर्वो राजमार्गे गतो जनः॥११॥
‘देव! सड़क पर आये हुए सब लोग राजा का रथ श्रीराम के बिना ही यहाँ लौट आया है, यह देखकर दूर से ही आँसू बहाने लगे थे॥ ११॥
हम्र्यैर्विमानैः प्रासादैरवेक्ष्य रथमागतम्।
हाहाकारकृता नार्यो रामादर्शनकर्शिताः॥१२॥
‘अट्टालिकाओं, विमानों और प्रासादों पर बैठी हुई स्त्रियाँ वहाँ से रथ को सूना ही लौटा देखकर श्रीराम को न देखने के कारण व्यथित हो उठीं और हाहाकार करने लगीं॥ १२॥
आयतैर्विमलैर्नेर श्रुवेगपरिप्लुतैः।
अन्योन्यमभिवीक्षन्तेऽव्यक्तमार्ततराः स्त्रियः॥ १३॥
‘उनके कज्जल आदि से रहित बड़े-बड़े नेत्र आँसुओंके वेग में डूबे हुए थे। वे स्त्रियाँ अत्यन्त आर्त होकर अव्यक्त भाव से एक-दूसरी की ओर देख रही थीं॥
नामित्राणां न मित्राणामदासीनजनस्य च।
अहमार्ततया कंचिद् विशेषं नोपलक्षये॥१४॥
‘शत्रुओं, मित्रों तथा उदासीन (मध्यस्थ) मनुष्यों को भी मैंने समान रूप से दुःखी देखा है। किसी के शोक में मुझे कुछ अन्तर नहीं दिखायी दिया है॥१४॥
अप्रहृष्टमनुष्या च दीननागतुरंगमा।
आर्तस्वरपरिम्लाना विनिःश्वसितनिःस्वना॥ १५॥
निरानन्दा महाराज रामप्रव्राजनातुरा।
कौसल्या पुत्रहीनेव अयोध्या प्रतिभाति मे॥
‘महाराज! अयोध्या के मनुष्यों का हर्ष छिन गया है। वहाँके घोड़े और हाथी भी बहुत दुःखी हैं। सारी पुरी आर्तनाद से मलिन दिखायी देती है। लोगों की लंबी-लंबी साँसें ही इस नगरी का उच्छ्वास बन गयी हैं। यह अयोध्यापुरी श्रीराम के वनवास से व्याकुल हुई पुत्रवियोगिनी कौसल्या की भाँति मुझे आनन्दशून्य प्रतीत हो रही है’ ॥ १५-१६॥
सूतस्य वचनं श्रुत्वा वाचा परमदीनया।
बाष्पोपहतया सूतमिदं वचनमब्रवीत्॥१७॥
सुमन्त्र के वचन सुनकर राजा ने उनसे अश्रु-गद्गद परम दीन वाणी में कहा- ॥ १७॥
कैकेय्या विनियुक्तेन पापाभिजनभावया।
मया न मन्त्रकुशलैर्वृद्धैः सह समर्थितम्॥१८॥
‘सूत! जो पापी कुल और पापपूर्ण देश में उत्पन्न हुई है तथा जिसके विचार भी पाप से भरे हैं, उस कैकेयी के कहने में आकर मैंने सलाह देने में कुशल वृद्ध पुरुषों के साथ बैठकर इस विषय में कोई परामर्श भी नहीं किया॥१८॥
न सुहृद्भिर्न चामात्यैर्मन्त्रयित्वा सनैगमैः।
मयायमर्थः सम्मोहात् स्त्रीहेतोः सहसा कृतः॥ १९॥
‘सुहृदों, मन्त्रियों और वेदवेत्ताओं से सलाह लिये बिना ही मैंने मोहवश केवल एक स्त्री की इच्छा पूर्ण करने के लिये सहसा यह अनर्थमय कार्य कर डाला॥ १९॥
भवितव्यतया नूनमिदं वा व्यसनं महत्।
कुलस्यास्य विनाशाय प्राप्तं सूत यदृच्छया॥ २०॥
‘सुमन्त्र! होनहारवश यह भारी विपत्ति निश्चय ही इस कुलका विनाश करने के लिये अकस्मात् आ पहुँची है॥२०॥
सूत यद्यस्ति ते किंचिन्मयापि सुकृतं कृतम्।
त्वं प्रापयाशु मां रामं प्राणाः संत्वरयन्ति माम्॥ २१॥
‘सारथे! यदि मैंने तुम्हारा कभी कुछ थोड़ा-सा भी उपकार किया हो तो तुम मुझे शीघ्र ही श्रीराम के पास पहँचा दो। मेरे प्राण मुझे श्रीराम के दर्शन के लिये शीघ्रता करने की प्रेरणा दे रहे हैं॥ २१॥
यद्यद्यापि ममैवाज्ञा निवर्तयतु राघवम्।
न शक्ष्यामि विना रामं मुहूर्तमपि जीवितुम्॥ २२॥
‘यदि आज भी इस राज्य में मेरी ही आज्ञा चलती हो तो तुम मेरे ही आदेश से जाकर श्रीराम को वन से लौटा ले आओ; क्योंकि अब मैं उनके बिना दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकूँगा॥ २२ ॥
अथवापि महाबाहुर्गतो दूरं भविष्यति।
मामेव रथमारोप्य शीघ्रं रामाय दर्शय॥ २३॥
‘अथवा महाबाहु श्रीराम तो अब दूर चले गये होंगे, इसलिये मुझे ही रथ पर बिठाकर ले चलो और । शीघ्र ही राम का दर्शन कराओ॥ २३॥
वृत्तदंष्ट्रो महेष्वासः क्वासौ लक्ष्मणपूर्वजः।
यदि जीवामि साध्वेनं पश्येयं सीतया सह ॥ २४॥
‘कुन्दकली के समान श्वेत दाँतोंवाले, लक्ष्मण के बड़े भाई महाधनुर्धर श्रीराम कहाँ हैं? यदि सीता के साथ भली-भाँति उनका दर्शन कर लूँ, तभी मैं जीवित रह सकता हूँ॥२४॥
लोहिताक्षं महाबाहुमामुक्तमणिकुण्डलम्।
रामं यदि न पश्येयं गमिष्यामि यमक्षयम्॥ २५॥
‘जिनके लाल नेत्र और बड़ी-बड़ी भुजाएँ हैं तथा जो मणियों के कुण्डल धारण करते हैं, उन श्रीराम को यदि मैं नहीं देखूगा तो अवश्य यमलोक को चला जाऊँगा॥२५॥
अतो नु किं दुःखतरं योऽहमिक्ष्वाकुनन्दनम्।
इमामवस्थामापन्नो नेह पश्यामि राघवम्॥२६॥
‘इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी कि मैं इस मरणासन्न अवस्था में पहुँचकर भी इक्ष्वाकुकुलनन्दन राघवेन्द्र श्रीराम को यहाँ नहीं देख रहा हूँ॥२६॥
हा राम रामानुज हा हा वैदेहि तपस्विनि।
न मां जानीत दुःखेन म्रियमाणमनाथवत्॥२७॥
‘हा राम! हा लक्ष्मण! हा विदेहराजकुमारी तपस्विनी सीते! तुम्हें पता नहीं होगा कि मैं किस प्रकार दुःख से अनाथकी भाँति मर रहा हूँ’॥२७॥
स तेन राजा दुःखेन भृशमर्पितचेतनः।
अवगाढः सुदुष्पारं शोकसागरमब्रवीत्॥२८॥
राजा उस दुःख से अत्यन्त अचेत हो रहे थे, अतः वे उस परम दुर्लङ्ग्य शोकसमुद्र में निमग्न होकर बोले -||
रामशोकमहावेगः सीताविरहपारगः।
श्वसितोर्मिमहावर्तो बाष्पवेगजलाविलः॥२९॥
बाहविक्षेपमीनोऽसौ विक्रन्दितमहास्वनः।
प्रकीर्णकेशशैवालः कैकेयीवडवामुखः ॥३०॥
ममाश्रुवेगप्रभवः कुब्जावाक्यमहाग्रहः।
वरवेलो नृशंसाया रामप्रव्राजनायतः॥३१॥
यस्मिन् बत निमग्नोऽहं कौसल्ये राघवं विना।
दुस्तरो जीवता देवि मयायं शोकसागरः॥ ३२॥
‘देवि कौसल्ये! मैं श्रीराम के बिना जिस शोकसमुद्र में डूबा हुआ हूँ, उसे जीते-जी पार करना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है। श्रीराम का शोक ही उस समुद्र का महान् वेग है। सीता का बिछोह ही उसका दूसरा छोर है। लंबी-लंबी साँसें उसकी लहरें और बड़ी-बड़ी भँवरें हैं। आँसुओं का वेगपूर्वक उमड़ा हुआ प्रवाह ही उसका मलिन जल है। मेरा हाथ पटकना ही उसमें उछलती हुई मछलियों का विलास है। करुण-क्रन्दन ही उसकी महान् गर्जना है। ये बिखरे हुए केश ही उसमें उपलब्ध होने वाले सेवार हैं। कैकेयी बड़वानल है। वह शोक-समुद्र मेरी वेगपूर्वक होनेवाली अश्रुवर्षा की उत्पत्ति का मूल कारण है। मन्थरा के कुटिलतापूर्ण वचन ही उस समुद्र के बड़े-बड़े ग्राह हैं। क्रूर कैकेयी के माँगे हुए दो वर ही उसके दो तट हैं तथा श्रीराम का वनवास ही उस शोक-सागर का महान् विस्तार है॥ २९–३२॥
अशोभनं योऽहमिहाद्य राघवं दिदृक्षमाणो न लभे सलक्ष्मणम्।
इतीव राजा विलपन् महायशाः पपात तूर्णं शयने स मूर्च्छितः॥३३॥
‘मैं लक्ष्मणसहित श्रीराम को देखना चाहता हूँ, परंतु इस समय उन्हें यहाँ देख नहीं पाता हूँ—यह मेरे बहुत बड़े पाप का फल है।’ इस तरह विलाप करते हुए महायशस्वी राजा दशरथ तुरंत ही मूर्च्छित होकर शय्या पर गिर पड़े॥ ३३॥
इति विलपति पार्थिवे प्रणष्टे करुणतरं द्विगुणं च रामहेतोः।
वचनमनुनिशम्य तस्य देवी भयमगमत् पुनरेव राममाता॥३४॥
श्रीरामचन्द्रजी के लिये इस प्रकार विलाप करते हुए राजा दशरथ के मूर्च्छित हो जाने पर उनके उस अत्यन्त करुणाजनक वचन को सुनकर राममाता देवी कौसल्या को पुनः दुगुना भय हो गया॥३४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः॥ ५९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ५९॥
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