वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 66 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 66
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षट्षष्टितमः सर्गः (सर्ग 66)
राजा के लिये कौसल्या का विलाप और कैकेयी की भर्त्सना, मन्त्रियों का राजा के शव को तेल से भरे हुए कड़ाह में सुलाना, पुरी की श्रीहीनता और पुरवासियों का शोक
तमग्निमिव संशान्तमम्बुहीनमिवार्णवम्।
गतप्रभमिवादित्यं स्वर्गस्थं प्रेक्ष्य भूमिपम्॥१॥
कौसल्या बाष्पपूर्णाक्षी विविधं शोककर्शिता।
उपगृह्य शिरो राज्ञः कैकेयीं प्रत्यभाषत॥२॥
बुझी हुई आग, जलहीन समुद्र तथा प्रभाहीन सूर्य की भाँति शोभाहीन हुए दिवङ्गत राजा का शव देखकर कौसल्या के नेत्रों में आँसू भर आये। वे अनेक प्रकार से शोकाकुल होकर राजा के मस्तक को गोद में ले कैकेयी से इस प्रकार बोलीं- ॥ १-२॥
सकामा भव कैकेयी भुक्ष्व राज्यमकण्टकम्।
त्यक्त्वा राजानमेकाना नृशंसे दुष्टचारिणि॥३॥
‘दुराचारिणी क्रूर कैकेयी! ले, तेरी कामना सफल हुई। अब राजा को भी त्यागकर एकाग्रचित्त हो अपना अकण्टक राज्य भोग॥३॥
विहाय मां गतो रामो भर्ता च स्वर्गतो मम।
विपथे सार्थहीनेव नाहं जीवितुमुत्सहे॥४॥
‘राम मुझे छोड़कर वन में चले गये और मेरे स्वामी स्वर्ग सिधारे। अब मैं दुर्गम मार्ग में साथियों से बिछुड़कर असहाय हुई अबला की भाँति जीवित नहीं रह सकती॥
भर्तारं तु परित्यज्य का स्त्री दैवतमात्मनः।
इच्छेज्जीवितुमन्यत्र कैकेय्यास्त्यक्तधर्मणः॥५॥
‘नारीधर्म को त्याग देने वाली कैकेयी के सिवा संसार में दूसरी कौन ऐसी स्त्री होगी जो अपने लिये आराध्य देवस्वरूप पति का परित्याग करके जीना चाहेगी? ॥ ५॥
न लुब्धो बुध्यते दोषान् किंपाकमिव भक्षयन्।
कुब्जानिमित्तं कैकेय्या राघवाणां कुलं हतम्॥
‘जैसे कोई धन का लोभी दूसरों को विष खिला देता है और उससे होने वाले हत्या के दोषों पर ध्यान नहीं देता, उसी प्रकार इस कैकेयी ने कुब्जा के कारण रघुवंशियों के इस कुल का नाश कर डाला॥ ६॥
अनियोगे नियुक्तेन राज्ञा रामं विवासितम्।
सभार्यं जनकः श्रुत्वा परितप्स्यत्यहं यथा॥७॥
‘कैकेयी ने महाराज को अयोग्य कार्य में लगाकर उनके द्वारा पत्नीसहित श्रीराम को वनवास दिलवा दिया। यह समाचार जब राजा जनक सुनेंगे, तब मेरे ही समान उनको भी बड़ा कष्ट होगा।॥ ७॥
स मामनाथां विधवां नाद्य जानाति धार्मिकः।
रामः कमलपत्राक्षो जीवन्नाशमितो गतः॥८॥
‘मैं अनाथ और विधवा हो गयी—यह बात मेरे धर्मात्मा पुत्र कमलनयन श्रीराम को नहीं मालूम है। वे तो यहाँ से जीते-जी अदृश्य हो गये हैं॥८॥
विदेहराजस्य सुता तथा चारुतपस्विनी।
दुःखस्यानुचिता दुःखं वने पर्युद्धिजिष्यति॥९॥
‘पति-सेवारूप मनोहर तप करने वाली विदेहराजकुमारी सीता दुःख भोगने के योग्य नहीं है। वह वन में दुःखका अनुभव करके उद्विग्न हो उठेगी॥ ९॥
नदतां भीमघोषाणां निशासु मृगपक्षिणाम्।
निशम्यमाना संत्रस्ता राघवं संश्रयिष्यति॥१०॥
‘रात के समय भयानक शब्द करने वाले पशुपक्षियों की बोली सुनकर भयभीत हो सीता श्रीराम की ही शरण लेगी- उन्हीं की गोद में जाकर छिपेगी॥ १०॥
वृद्धश्चैवाल्पपुत्रश्च वैदेहीमनुचिन्तयन्।
सोऽपि शोकसमाविष्टो नूनं त्यक्ष्यति जीवितम्॥ ११॥
‘जो बूढ़े हो गये हैं, कन्याएँ मात्र ही जिनकी संतति हैं, वे राजा जनक भी सीता की ही बारम्बार चिन्ता करते हुए शोक में डूबकर अवश्य ही अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ ११ ॥
साहमयैव दिष्टान्तं गमिष्यामि पतिव्रता।
इदं शरीरमालिङ्ग्य प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्॥१२॥
‘मैं भी आज ही मृत्यु का वरण करूँगी। एक पतिव्रता की भाँति पति के शरीर का आलिङ्गन करके चिता की आग में प्रवेश कर जाऊँगी’ ॥ १२ ॥
तां ततः सम्परिष्वज्य विलपन्तीं तपस्विनीम्।
व्यपनिन्युः सुदुःखार्ता कौसल्यां व्यावहारिकाः॥ १३॥
पति के शरीर को हृदय से लगाकर अत्यन्त दुःख से आर्त हो करुण विलाप करती हुई तपस्विनी कौसल्या को राजकाज देखने वाले मन्त्रियों ने दूसरी स्त्रियों द्वारा वहाँ से हटवा दिया॥ १३ ॥
तैलद्रोण्यां तदामात्याः संवेश्य जगतीपतिम्।
राज्ञः सर्वाण्यथादिष्टाश्चक्रुः कर्माण्यनन्तरम्॥ १४॥
फिर उन्होंने महाराज के शरीर को तेल से भरी हुई नाव में रखकर वसिष्ठ आदि की आज्ञा के अनुसार शव की रक्षा आदि अन्य सब राजकीय कार्यों की सँभाल आरम्भ कर दी॥१४॥
न तु संकालनं राज्ञो विना पुत्रेण मन्त्रिणः।
सर्वज्ञाः कर्तुमीषुस्ते ततो रक्षन्ति भूमिपम्॥१५॥
वे सर्वज्ञ मन्त्री पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार न कर सके, इसलिये उनके शव की रक्षा करने लगे।
तैलद्रोण्यां शायितं तं सचिवैस्तु नराधिपम्।
हा मृतोऽयमिति ज्ञात्वा स्त्रियस्ताः पर्यदेवयन्॥ १६॥
जब मन्त्रियों ने राजा के शव को तैल की नाव में सुलाया, तब यह जानकर सारी रानियाँ ‘हाय! येमहाराज परलोकवासी हो गये’ ऐसा कहती हुई पुनः विलाप करने लगीं॥ १६॥
बाहूनुच्छ्रित्य कृपणा नेत्रप्रस्रवणैर्मुखैः।
रुदत्यः शोकसंतप्ताः कृपणं पर्यदेवयन्॥१७॥
उनके मुखपर नेत्रों से आँसुओं के झरने झर रहे थे। वे अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर दीनभाव से रोने और शोकसंतप्त हो दयनीय विलाप करने लगीं। १७॥
हा महाराज रामेण सततं प्रियवादिना।
विहीनाः सत्यसंधेन किमर्थं विजहासि नः॥१८॥
वे बोलीं—’हा महाराज! हम सत्यप्रतिज्ञ एवं सदा प्रिय बोलने वाले अपने पुत्र श्रीराम से तो बिछुड़ी ही थीं, अब आप भी क्यों हमारा परित्याग कर रहे हैं?॥ १८॥
कैकेय्या दुष्टभावाया राघवेण विवर्जिताः।
कथं सपत्न्या वत्स्यामः समीपे विधवा वयम्॥ १९॥
‘श्रीराम से बिछुड़कर हम सब विधवाएँ इस दुष्ट विचार वाली सौत कैकेयी के समीप कैसे रहेंगी?॥ १९॥
स हि नाथः स चास्माकं तव च प्रभुरात्मवान्।
वनं रामो गतः श्रीमान् विहाय नृपतिश्रियम्॥ २०॥
‘जो हमारे और आपके भी रक्षक और प्रभु थे,वे मनस्वी श्रीरामचन्द्र राजलक्ष्मी को छोड़कर वन चले गये॥
त्वया तेन च वीरेण विना व्यसनमोहिताः।
कथं वयं निवत्स्यामः कैकेय्या च विदूषिताः॥ २१॥
‘वीरवर श्रीराम और आपके भी न रहने से हमारे ऊपर बड़ा भारी संकट आ गया, जिससे हम मोहित हो रही हैं। अब सौत कैकेयी के द्वारा तिरस्कृत हो हम यहाँ कैसे रह सकेंगी? ॥ २१॥
यया च राजा रामश्च लक्ष्मणश्च महाबलः।
सीतया सह संत्यक्ताः सा कमन्यं न हास्यति॥ २२॥
‘जिसने राजा का तथा सीतासहित श्रीराम और महाबली लक्ष्मण का भी परित्याग कर दिया, वह दूसरे किसका त्याग नहीं करेगी? ॥ २२ ॥
ता बाष्पेण च संवीताः शोकेन विपुलेन च।
व्यचेष्टन्त निरानन्दा राघवस्य वरस्त्रियः॥२३॥
रघुकुलनरेश दशरथ की वे सुन्दरी रानियाँ महान् शोक से ग्रस्त हो आँसू बहाती हुई नाना प्रकार की चेष्टाएँ और विलाप कर रही थीं। उनका आनन्द लुट गया था।
निशा नक्षत्रहीनेव स्त्रीव भर्तृविवर्जिता।
पुरी नाराजतायोध्या हीना राज्ञा महात्मना ॥२४॥
महामना राजा दशरथ से हीन हुई वह अयोध्यापुरी नक्षत्रहीन रात्रि और पतिविहीना नारी की भाँति श्रीहीन हो गयी थी॥ २४॥
बाष्पपर्याकुलजना हाहाभूतकुलाङ्गना।
शून्यचत्वरवेश्मान्ता न बभ्राज यथापुरम्॥ २५॥
नगर के सभी मनुष्य आँसू बहा रहे थे। कुलवती स्त्रियाँ हाहाकार कर रही थीं। चौराहे तथा घरों के द्वार सूने दिखायी देते थे। (वहाँ झाड-बुहार, लीपने-पोतने तथा बलि अर्पण करने आदि की क्रियाएँ नहीं होती थीं।) इस प्रकार वह पुरी पहले की भाँति शोभा नहीं पाती थी॥
गते तु शोकात् त्रिदिवं नराधिपे महीतलस्थासु नृपाङ्गनासु च।
निवृत्तचारः सहसा गतो रविः प्रवृत्तचारा रजनी ह्युपस्थिता ॥२६॥
राजा दशरथ शोक वश स्वर्ग सिधारे और उनकी रानियाँ शोक से ही भूतल पर लोटती रहीं। इस शोक में ही सहसा सूर्य की किरणों का प्रचार बंद हो गया और सूर्यदेव अस्त हो गये। तत्पश्चात् अन्धकार का प्रचार करती हुई रात्रि उपस्थित हुई॥ २६ ॥
ऋते तु पुत्राद् दहनं महीपते रोचयंस्ते सुहृदः समागताः।
इतीव तस्मिन् शयने न्यवेशयन् विचिन्त्य राजानमचिन्त्यदर्शनम्॥२७॥
वहाँ पधारे हुए सुहृदों ने किसी भी पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार होना नहीं पसंद किया। अब राजा का दर्शन अचिन्त्य हो गया, यह सोचते हुए उन सबने उस तैलपूर्ण कड़ाह में उनके शव को सुरक्षित रख दिया॥२७॥
गतप्रभा द्यौरिव भास्करं विना व्यपेतनक्षत्रगणेव शर्वरी।
पुरी बभासे रहिता महात्मना कण्ठास्रकण्ठाकुलमार्गचत्वरा ॥२८॥
सूर्य के बिना प्रभाहीन आकाश तथा नक्षत्रों के बिना शोभाहीन रात्रि की भाँति अयोध्यापुरी महात्मा राजा दशरथ से रहित हो श्रीहीन प्रतीत होती थी। उसकी सड़कों और चौराहों पर आँसुओं से अवरुद्ध कण्ठवाले मनुष्यों की भीड़ एकत्र हो गयी थी॥ २८॥
नराश्च नार्यश्च समेत्य संघशो विगर्हमाणा भरतस्य मातरम्।
तदा नगर्यां नरदेवसंक्षये बभूवुरार्ता न च शर्म लेभिरे॥२९॥
झुंड-के-झुंड स्त्री और पुरुष एक साथ खड़े होकर भरत-माता कैकेयी की निन्दा करने लगे। उस समय महाराज की मृत्यु से अयोध्यापुरी में रहने वाले सभी लोग शोकाकुल हो रहे थे। कोई भी शान्ति नहीं पाता था। २९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षट्षष्टितमः सर्गः॥६६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६६॥
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