वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 67 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 67
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तषष्टितमः सर्गः (सर्ग 67)
मार्कण्डेय आदि मुनियों तथा मन्त्रियों का राजा के बिना होने वाली देश की दुरवस्था का वर्णन करके वसिष्ठजी से किसी को राजा बनाने के लिये अनुरोध
आक्रन्दिता निरानन्दा सास्रकण्ठजनाविला।
अयोध्यायामवतता सा व्यतीयाय शर्वरी॥१॥
अयोध्या में लोगों की वह रात रोते-कलपते ही बीती। उसमें आनन्द का नाम भी नहीं था। आँसुओं से सब लोगों के कण्ठ भरे हुए थे। दुःख के कारण वह रात सबको बड़ी लम्बी प्रतीत हुई थी॥१॥
व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये ततः।
समेत्य राजकर्तारः सभामीयुर्द्विजातयः॥२॥
जब रात बीत गयी और सूर्योदय हुआ, तब राज्य का प्रबन्ध करने वाले ब्राह्मणलोग एकत्र हो दरबार में आये॥२॥
मार्कण्डेयोऽथ मौद्गल्यो वामदेवश्च कश्यपः।
कात्यायनो गौतमश्च जाबालिश्च महायशाः॥
एते द्विजाः सहामात्यैः पृथग्वाचमुदीरयन्।
वसिष्ठमेवाभिमुखाः श्रेष्ठं राजपुरोहितम्॥४॥
मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और महायशस्वी जाबालि—ये सभी ब्राह्मणश्रेष्ठ राजपुरोहित वसिष्ठजी के सामने बैठकर मन्त्रियों के साथ अपनी अलग-अलग राय देने लगे॥३-४॥
अतीता शर्वरी दुःखं या नो वर्षशतोपमा।
अस्मिन् पञ्चत्वमापन्ने पुत्रशोकेन पार्थिवे॥५॥
वे बोले—’पुत्रशोक से इन महाराज के स्वर्गवासी होने के कारण यह रात बड़े दुःख से बीती है, जो हमारे लिये सौ वर्षों के समान प्रतीत हुई थी॥५॥
स्वर्गस्थश्च महाराजो रामश्चारण्यमाश्रितः।
लक्ष्मणश्चापि तेजस्वी रामेणैव गतः सह॥६॥
‘महाराज दशरथ स्वर्ग सिधारे, श्रीरामचन्द्रजी वन में रहने लगे और तेजस्वी लक्ष्मण भी श्रीराम के साथ ही चले गये॥६॥
उभौ भरतशत्रुघ्नौ केकयेषु परंतपौ।
पुरे राजगृहे रम्ये मातामहनिवेशने॥७॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न केकयदेश के रमणीय राजगृह में नाना के घर में निवास करते हैं ।। ७॥
इक्ष्वाकूणामिहाचैव कश्चिद् राजा विधीयताम्।
अराजकं हि नो राष्ट्रं विनाशं समवाप्नुयात्॥८॥
‘इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों में से किसी को आज ही यहाँ का राजा बनाया जाय; क्योंकि राजा के बिना हमारे इस राज्य का नाश हो जायगा॥ ८॥
नाराजके जनपदे विद्युन्माली महास्वनः।
अभिवर्षति पर्जन्यो महीं दिव्येन वारिणा॥९॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, ऐसे जनपद में विद्युन्मालाओं से अलंकृत महान् गर्जन करने वाला मेघ पृथ्वी पर दिव्य जल की वर्षा नहीं करता है॥९॥
नाराजके जनपदे बीजमुष्टिः प्रकीर्यते।
नाराजके पितुः पुत्रो भार्या वा वर्तते वशे॥१०॥
‘जिस जनपद में कोई राजा नहीं, वहाँ के खेतों में मुट्ठी-के-मुट्ठी बीज नहीं बिखेरे जाते। राजा से रहित देश में पुत्र पिता और स्त्री पति के वश में नहीं रहती॥ १०॥
अराजके धनं नास्ति नास्ति भार्याप्यराजके।
इदमत्याहितं चान्यत् कुतः सत्यमराजके॥११॥
‘राजहीन देश में धन अपना नहीं होता है। बिना राजा के राज्य में पत्नी भी अपनी नहीं रह पाती है। राजारहित देश में यह महान् भय बना रहता है। (जब वहाँ पति-पत्नी आदि का सत्य सम्बन्ध नहीं रह सकता,) तब फिर दूसरा कोई सत्य कैसे रह सकता है? ॥ ११॥
नाराजके जनपदे कारयन्ति सभां नराः।
उद्यानानि च रम्याणि हृष्टाः पुण्यगृहाणि च॥ १२॥
‘बिना राजा के राज्य में मनुष्य कोई पञ्चायत-भवन नहीं बनवाते, रमणीय उद्यान का भी निर्माण नहीं करवाते तथा हर्ष और उत्साह के साथ पुण्यगृह (धर्मशाला, मन्दिर आदि) भी नहीं बनवाते हैं। १२ ।।
नाराजके जनपदे यज्ञशीला द्विजातयः।
सत्राण्यन्वासते दान्ता ब्राह्मणः संशितव्रताः॥ १३॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं, उस जनपद में स्वभावतः यज्ञ करने वाले द्विज और कठोर व्रत का पालन करने वाले जितेन्द्रिय ब्राह्मण उन बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान नहीं करते, जिनमें सभी ऋत्विज् और सभी यजमान होते हैं।
नाराजके जनपदे महायज्ञेषु यज्वनः।
ब्राह्मणा वसुसम्पूर्णा विसृजन्त्याप्तदक्षिणाः॥ १४॥
‘राजारहित जनपद में कदाचित् महायज्ञों का आरम्भ हो भी तो उनमें धनसम्पन्न ब्राह्मण भी ऋत्विजों को पर्याप्त दक्षिणा नहीं देते (उन्हें भय रहता है कि लोग हमें धनी समझकर लूट न लें)॥१४॥
नाराजके जनपदे प्रहृष्टनटनर्तकाः।
उत्सवाश्च समाजाश्च वर्धन्ते राष्ट्रवर्धनाः ॥१५॥
‘अराजक देश में राष्ट्र को उन्नतिशील बनाने वाले उत्सव, जिनमें नट और नर्तक हर्ष में भरकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, बढ़ने नहीं पाते हैं तथा दूसरे-दूसरे राष्ट्रहितकारी संघ भी नहीं पनपने पाते हैं। १५॥
नाराजके जनपदे सिद्धार्था व्यवहारिणः।
कथाभिरभिरज्यन्ते कथाशीलाः कथाप्रियैः॥ १६॥
‘बिना राजा के राज्य में वादी और प्रतिवादी के विवाद का संतोषजनक निपटारा नहीं हो पाता अथवा व्यापारियों को लाभ नहीं होता। कथा सुनने की इच्छा वाले लोग कथावाचक पौराणिकों की कथाओं से प्रसन्न नहीं होते॥
नाराजके जनपदे तूद्यानानि समागताः।
सायाह्ने क्रीडितुं यान्ति कुमार्यो हेमभूषिताः॥ १७॥
‘राजारहित जनपद में सोने के आभूषणों से विभूषित हुई कुमारियाँ एक साथ मिलकर संध्या के समय उद्यानों में क्रीड़ा करने के लिये नहीं जाती हैं॥ १७॥
नाराजके जनपदे धनवन्तः सुरक्षिताः।
शेरते विवृतद्वाराः कृषिगोरक्षजीविनः॥१८॥
‘बिना राजा के राज्य में धनीलोग सुरक्षित नहीं रह पाते तथा कृषि और गोरक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले वैश्य भी दरवाजा खोलकर नहीं सो पाते हैं।॥ १८॥
नाराजके जनपदे वाहनैः शीघ्रवाहिभिः।
नरा निर्यान्त्यरण्यानि नारीभिः सह कामिनः॥ १९॥
‘राजा से रहित जनपद में कामी मनुष्य नारियों के साथ शीघ्रगामी वाहनों द्वारा वनविहार के लिये नहीं निकलते हैं॥ १९॥
नाराजके जनपदे बद्धघण्टा विषाणिनः।
अटन्ति राजमार्गेषु कुञ्जराः षष्टिहायनाः॥२०॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, उस जनपद में साठ वर्ष के दन्तार हाथी घंटे बाँधकर सड़कों पर नहीं घूमते हैं।॥ २०॥
नाराजके जनपदे शरान् संततमस्यताम्।
श्रूयते तलनिर्घोष इष्वस्त्राणामुपासने॥२१॥
‘बिना राजा के राज्य में धनुर्विद्या के अभ्यासकाल में निरन्तर लक्ष्य की ओर बाण चलाने वाले वीरों की प्रत्यञ्चा तथा करतल का शब्द नहीं सुनायी देता है। २१॥
नाराजके जनपदे वणिजो दूरगामिनः।
गच्छन्ति क्षेममध्वानं बहुपण्यसमाचिताः॥२२॥
‘राजा से रहित जनपद में दूर जाकर व्यापार करने वाले वणिक् बेचने की बहुत-सी वस्तुएँ साथ लेकर कुशलपूर्वक मार्ग तै नहीं कर सकते॥ २२ ॥
नाराजके जनपदे चरत्येकचरो वशी।
भावयन्नात्मनाऽऽत्मानं यत्र सायं गृहो मुनिः॥ २३॥
‘जहाँ कोई राजा नहीं होता, उस जनपद में जहाँ संध्या हो वहीं डेरा डाल देने वाला, अपने अन्तःकरण के द्वारा परमात्मा का ध्यान करनेवाला और अकेला ही विचरने वाला जितेन्द्रिय मुनि नहीं घूमता-फिरता है (क्योंकि उसे कोई भोजन देने वाला नहीं होता) ॥ २३॥
नाराजके जनपदे योगक्षेमः प्रवर्तते।
न चाप्यराजके सेना शत्रून् विषहते युधि॥ २४॥
‘अराजक देश में लोगों को अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा नहीं हो पाती। राजा के न रहने पर सेना भी युद्ध में शत्रुओं का सामना नहीं करती॥ २४॥
नाराजके जनपदे हृष्टैः परमवाजिभिः।
नराः संयान्ति सहसा रथैश्च प्रतिमण्डिताः॥ २५॥
‘बिना राजा के राज्य में लोग वस्त्राभूषणों से विभूषित हो हृष्ट-पुष्ट उत्तम घोड़ों तथा रथों द्वारा सहसा यात्रा नहीं करते हैं (क्योंकि उन्हें लुटेरों का भय बना रहता हैं )॥
नाराजके जनपदे नराः शास्त्रविशारदाः।
संवदन्तोपतिष्ठन्ते वनेषूपवनेषु वा ॥२६॥
‘राजा से रहित राज्य में शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान् मनुष्य वनों और उपवनों में शास्त्रों की व्याख्या करते हुए नहीं ठहर पाते हैं ॥ २६॥
नाराजके जनपदे माल्यमोदकदक्षिणाः।
देवताभ्यर्चनार्थाय कल्प्यन्ते नियतैर्जनैः॥२७॥
‘जहाँ अराजकता फैल जाती है, उस जनपद में मन को वश में रखने वाले लोग देवताओं की पूजा के लिये फूल, मिठाई और दक्षिणा की व्यवस्था नहीं करते हैं ॥ २७॥
नाराजके जनपदे चन्दनागुरुरूषिताः।
राजपुत्रा विराजन्ते वसन्ते इव शाखिनः॥ २८॥
‘जिस जनपद में कोई राजा नहीं होता है, वहाँचन्दन और अगुरु का लेप लगाये हुए राजकुमार वसन्त-ऋतु के खिले हुए वृक्षों की भाँति शोभा नहीं पाते हैं॥२८॥
यथा ह्यनुदका नद्यो यथा वाप्यतृणं वनम्।
अगोपाला यथा गावस्तथा राष्ट्रमराजकम्॥२९॥
‘जैसे जल के बिना नदियाँ, घास के बिना वन और ग्वालों के बिना गौओं की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार राजा के बिना राज्य शोभा नहीं पाता है॥ २९॥
ध्वजो रथस्य प्रज्ञानं धूमो ज्ञानं विभावसोः।
तेषां यो नो ध्वजो राजा स देवत्वमितो गतः॥ ३०॥
‘जैसे ध्वज रथ का ज्ञान कराता है और धूम अग्नि का बोधक होता है, उसी प्रकार राजकाज देखने वाले हमलोगों के अधिकार को प्रकाशित करने वाले जो महाराज थे, वे यहाँ से देवलोक को चले गये॥३०॥
नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित।
मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति परस्परम्॥ ३१॥
‘राजा के न रहने पर राज्य में किसी भी मनुष्य की कोई भी वस्तु अपनी नहीं रह जाती। जैसे मत्स्य एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अराजक देश के लोग सदा एक-दूसरे को खाते-लूटते-खसोटते रहते हैं॥३१॥
ये हि सम्भिन्नमर्यादा नास्तिकाश्छिन्नसंशयाः।
तेऽपि भावाय कल्पन्ते राजदण्डनिपीडिताः॥ ३२॥
‘जो वेद-शास्त्रों की तथा अपनी-अपनी जाति के लिये नियत वर्णाश्रम की मर्यादा को भङ्ग करने वाले नास्तिक मनुष्य पहले राजदण्ड से पीड़ित होकर दबे रहते थे, वे भी अब राजा के न रहने से निःशङ्क होकर अपना प्रभुत्व प्रकट करेंगे॥ ३२॥
यथा दृष्टिः शरीरस्य नित्यमेव प्रवर्तते।
तथा नरेन्द्रो राष्ट्रस्य प्रभवः सत्यधर्मयोः॥३३॥
‘जैसे दृष्टि सदा ही शरीर के हित में प्रवृत्त रहती है, उसी प्रकार राजा राज्य के भीतर सत्य और धर्म का प्रवर्तक होता है॥ ३३॥
राजा सत्यं च धर्मश्च राजा कुलवतां कुलम्।
राजा माता पिता चैव राजा हितकरो नृणाम्॥ ३४॥
‘राजा ही सत्य और धर्म है। राजा ही कुलवानों का कुल है। राजा ही माता और पिता है तथा राजा ही मनुष्यों का हित करने वाला है॥३४॥
यमो वैश्रवणः शक्रो वरुणश्च महाबलः।
विशिष्यन्ते नरेन्द्रेण वृत्तेन महता ततः॥ ३५॥
‘राजा अपने महान् चरित्र के द्वारा यम, कुबेर, इन्द्र और महाबली वरुण से भी बढ़ जाते हैं (यमराज केवल दण्ड देते हैं, कुबेर केवल धन देते हैं, इन्द्र केवल पालन करते हैं और वरुण केवल सदाचार में नियन्त्रित करते हैं; परंतु एक श्रेष्ठ राजा में ये चारों गुण मौजूद होते हैं। अतः वह इनसे बढ़ जाता है) ॥ ३५ ॥
अहो तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किंचन।
राजा चेन्न भवेल्लोके विभजन् साध्वसाधुनी॥ ३६॥
‘यदि संसारमें भले-बुरे का विभाग करने वाला राजा न हो तो यह सारा जगत् अन्धकार से आच्छन्न-सा हो जाय, कुछ भी सूझ न पड़े॥ ३६॥
जीवत्यपि महाराजे तवैव वचनं वयम्।
नातिक्रमामहे सर्वे बेलां प्राप्येव सागरः॥ ३७॥
‘वसिष्ठजी! जैसे उमड़ता हुआ समुद्र अपनी तटभूमि तक पहुँचकर उससे आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार हम सब लोग महाराज के जीवनकाल में भी केवल आपकी ही बात का उल्लङ्घन नहीं करते थे। ३७॥
स नः समीक्ष्य द्विजवर्य वृत्तं नृपं विना राष्ट्रमरण्यभूतम्।
कुमारमिक्ष्वाकुसुतं तथान्यं त्वमेव राजानमिहाभिषेचय॥ ३८॥
‘अतः विप्रवर! इस समय हमारे व्यवहार को देखकर तथा राजा के अभाव में जंगल बने हुए इस देशपर दृष्टिपात करके आप ही किसी इक्ष्वाकुवंशी राजकुमार को अथवा दूसरे किसी योग्य पुरुष को राजा के पदपर अभिषिक्त कीजिये’॥ ३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः॥ ६७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६७॥
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