वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 69 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 69
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 69)
भरत की चिन्ता, मित्रों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास तथा उनके पूछने पर भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न का वर्णन करना
यामेव रात्रिं ते दताः प्रविशन्ति स्म तां पुरीम्।
भरतेनापि तां रात्रिं स्वप्नो दृष्टोऽयमप्रियः॥१॥
जिस रात में दूतों ने उस नगर में प्रवेश किया था, उससे पहली रात में भरत ने भी एक अप्रिय स्वप्न देखा था॥
व्युष्टामेव तु तां रात्रिं दृष्ट्वा तं स्वप्नमप्रियम्।
पुत्रो राजाधिराजस्य सुभृशं पर्यतप्यत॥२॥
रात बीतकर प्रायः सबेरा हो चला था तभी उस अप्रिय स्वप्न को देखकर राजाधिराज दशरथ के पुत्र भरत मन-ही-मन बहुत संतप्त हुए॥२॥
तप्यमानं तमाज्ञाय वयस्याः प्रियवादिनः।
आयासं विनयिष्यन्तः सभायां चक्रिरे कथाः॥
उन्हें चिन्तित जान उनके अनेक प्रियवादी मित्रों ने उनका मानसिक क्लेश दूर करने की इच्छा से एक गोष्ठी की और उसमें अनेक प्रकार की बातें करने लगे॥३॥
वादयन्ति तदा शान्तिं लासयन्त्यपि चापरे।
नाटकान्यपरे स्माहुर्हास्यानि विविधानि च॥४॥
कुछ लोग वीणा आदि बजाने लगे। दूसरे लोग उनके खेद की शान्ति के लिये नृत्य कराने लगे। दूसरे मित्रों ने नाना प्रकार के नाटकों का आयोजन किया, जिनमें हास्य रस की प्रधानता थी॥ ४॥
स तैर्महात्मा भरतः सखिभिः प्रियवादिभिः।
गोष्ठीहास्यानि कुर्वद्भिर्न प्राहृष्यत राघवः॥५॥
किंतु रघुकुलभूषण महात्मा भरत उन प्रियवादी मित्रों की गोष्ठी में हास्यविनोद करने पर भी प्रसन्न नहीं हुए॥५॥
तमब्रवीत् प्रियसखो भरतं सखिभिर्वृतम्।
सुहृद्भिः पर्युपासीनः किं सखे नानुमोदसे॥६॥
” तब सुहृदों से घिरकर बैठे हुए एक प्रिय मित्र ने मित्रों के बीच में विराजमान भरत से पूछा-‘सखे! तुम आज प्रसन्न क्यों नहीं होते हो?’॥ ६॥
एवं ब्रुवाणं सुहृदं भरतः प्रत्युवाच ह।
शृणु त्वं यन्निमित्तं मे दैन्यमेतदुपागतम्॥७॥
स्वप्ने पितरमद्राक्षं मलिनं मुक्तमूर्धजम्।
पतन्तमद्रिशिखरात् कलुषे गोमये ह्रदे॥८॥
– इस प्रकार पूछते हुए सुहृद् को भरत ने इस प्रकार उत्तर दिया—’मित्र! जिस कारण से मेरे मन में यह दैन्य आया है, वह बताता हूँ, सुनो। मैंने आज स्वप्न में अपने पिताजी को देखा है। उनका मुख मलिन था; बाल खुले हुए थे और वे पर्वत की चोटी से एक ऐसे गंदे गढे में गिर पड़े थे, जिसमें गोबर भरा हुआ था। ७-८॥
प्लवमानश्च मे दृष्टः स तस्मिन् गोमये ह्रदे।
पिबन्नञ्जलिना तैलं हसन्निव मुहुर्मुहुः॥९॥
‘मैंने उस गोबर के कुण्ड में उन्हें तैरते देखा था। वे अञ्जलि में तेल लेकर पी रहे थे और बारम्बार हँसते हुए-से प्रतीत होते थे॥९॥
ततस्तिलोदनं भुक्त्वा पुनः पुनरधःशिराः।
तैलेनाभ्यक्तसर्वाङ्गस्तैलमेवान्वगाहत॥१०॥
‘फिर उन्होंने तिल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीर में तेल लगाया गया और फिर वे सिर नीचे किये तैल में ही गोते लगाने लगे॥१०॥
स्वप्नेऽपि सागरं शुष्कं चन्द्रं च पतितं भुवि।
उपरुद्धां च जगतीं तमसेव समावृताम्॥११॥
‘स्वप्न में ही मैंने यह भी देखा है कि समुद्र सूख गया, चन्द्रमा पृथ्वी पर गिर पड़े हैं, सारी पृथ्वी उपद्रव से ग्रस्त और अन्धकार से आच्छादित-सी हो गयी है।॥ ११॥
औपवाह्यस्य नागस्य विषाणं शकलीकृतम्।
सहसा चापि संशान्ता ज्वलिता जातवेदसः॥ १२॥
‘महाराज की सवारी के काम में आने वाले हाथी का दाँत टूक-टूक हो गया है और पहले से प्रज्वलित होती हुई आग सहसा बुझ गयी है॥ १२॥
अवदीर्णां च पृथिवीं शुष्कांश्च विविधान् द्रुमान्।
अहं पश्यामि विध्वस्तान् सधूमांश्चैव पर्वतान्॥
‘मैंने यह भी देखा है कि पृथ्वी फट गयी है, नाना प्रकार के वृक्ष सूख गये हैं तथा पर्वत ढह गये हैं और उनसे धुआँ निकल रहा है॥ १३॥
पीठे कार्णायसे चैव निषष्ण्णं कृष्णवाससम्।
प्रहरन्ति स्म राजानं प्रमदाः कृष्णपिङ्गलाः॥ १४॥
‘काले लोहे की चौकी पर महाराज दशरथ बैठे हैं। उन्होंने काला ही वस्त्र पहन रखा है और काले एवं पिङ्गलवर्ण की स्त्रियाँ उनके ऊपर प्रहार करती हैं। १४॥
त्वरमाणश्च धर्मात्मा रक्तमाल्यानुलेपनः।
रथेन खरयुक्तेन प्रयातो दक्षिणामुखः॥१५॥
‘धर्मात्मा राजा दशरथ लाल रंग के फूलों की माला पहने और लाल चन्दन लगाये गधे जुते हुए रथ पर बैठकर बड़ी तेजी के साथ दक्षिण दिशाकी ओर गये
प्रहसन्तीव राजानं प्रमदा रक्तवासिनी।
प्रकर्षन्ती मया दृष्टा राक्षसी विकृतानना॥१६॥
‘लाल वस्त्र धारण करने वाली एक स्त्री, जो विकराल मुखवाली राक्षसी प्रतीत होती थी, महाराज को हँसती हई-सी खींचकर लिये जा रही थी। यह दृश्य भी मेरे देखने में आया॥१६॥
एवमेतन्मया दृष्टमिमां रात्रिं भयावहाम्।
अहं रामोऽथवा राजा लक्ष्मणो वा मरिष्यति॥ १७॥
‘इस प्रकार इस भयंकर रात्रि के समय मैंने यह स्वप्न देखा है। इसका फल यह होगा कि मैं, श्रीराम, राजा दशरथ अथवा लक्ष्मण—इनमें से किसी एक की अवश्य मृत्यु होगी॥ १७॥
नरो यानेन यः स्वप्ने खरयुक्तेन याति हि।
अचिरात्तस्य धूम्राग्रं चितायां सम्प्रदृश्यते॥१८॥
एतन्निमित्तं दीनोऽहं न वचः प्रतिपूजये।
शुष्यतीव च मे कण्ठो न स्वस्थमिव मे मनः॥ १९॥
‘जो मनुष्य स्वप्न में गधे जुते हुए रथ से यात्रा करता दिखायी देता है, उसकी चिता का धुआँ शीघ्र ही देखने में आता है। यही कारण है कि मैं दुःखी हो रहा हूँ और आपलोगों की बातों का आदर नहीं करता हूँ। मेरा गला सूखा-सा जा रहा है और मन अस्वस्थ-सा हो चला है॥
न पश्यामि भयस्थानं भयं चैवोपधारये।
भ्रष्टश्च स्वरयोगो मे छाया चापगता मम।
जुगुप्सु इव चात्मानं न च पश्यामि कारणम्॥ २०॥
‘मैं भय का कोई कारण नहीं देखता तो भी भय को प्राप्त हो रहा हूँ। मेरा स्वर बदल गया है तथा मेरी कान्ति भी फीकी पड़ गयी है। मैं अपने-आप से घृणा सी करने लगा हूँ, परंतु इसका कारण क्या है, यह मेरी समझ में नहीं आता ॥ २० ॥
इमां च दुःस्वप्नगतिं निशम्य हि त्वनेकरूपामवितर्कितां पुरा।
भयं महत् तुद् हृदयान्न याति में विचिन्त्य राजानमचिन्त्यदर्शनम्॥२१॥
‘जिनके विषय में मैंने पहले कभी सोचा तक नहीं था, ऐसे अनेक प्रकार के दुःस्वप्नों को देखकर तथा महाराज का दर्शन इस रूप में क्यों हुआ, जिसकी मेरे मन में कोई कल्पना नहीं थी—यह सोचकर मेरे हृदय से महान् भय दूर नहीं हो रहा है’ ॥ २१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनसप्ततितमः सर्गः॥ ६९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनहत्तरवाँ सर्ग पूराहुआ॥ ६९॥
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