वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 7 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 7
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (सर्ग 7)
मन्थरा का कैकेयी को उभाड़ना, कैकेयी का उसे पुरस्कार में आभूषण देना और वर माँगने के लिये प्रेरित करना
ज्ञातिदासी यतो जाता कैकेय्या तु सहोषिता।
प्रासादं चन्द्रसंकाशमारुरोह यदृच्छया॥१॥
रानी कैकेयी के पास एक दासी थी, जो उसके मायके से आयी हुई थी। वह सदा कैकेयी के ही साथ रहा करती थी। उसका जन्म कहाँ हुआ था? उसके देश और माता-पिता कौन थे? इसका पता किसी को नहीं था। अभिषेक से एक दिन पहले वह स्वेच्छा से ही कैकेयी के चन्द्रमा के समान कान्तिमान् महल की छत पर जा चढ़ी ॥१॥
सिक्तराजपथां कृत्स्ना प्रकीर्णकमलोत्पलाम्।
अयोध्यां मन्थरा तस्मात् प्रासादादन्ववैक्षत ॥२॥
उस दासी का नाम था-मन्थरा। उसने उस महल की छत से देखा-अयोध्या की सड़कों पर छिड़काव किया गया है और सारी पुरी में यत्र-तत्र खिले हुए कमल और उत्पल बिखेरे गये हैं॥२॥
पताकाभिर्वरारंभिर्ध्वजैश्च समलंकृताम्।
सिक्तां चन्दनतोयैश्च शिरःस्नातजनैर्युताम्॥३॥
सब ओर बहुमूल्य पताकाएँ फहरा रही हैं। ध्वजाओं से इस पुरी की अपूर्व शोभा हो रही है। राज मार्गों पर चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव किया गया है तथा अयोध्यापुरी के सब लोग उबटन लगाकर सिर के ऊपर से स्नान किये हुए हैं॥३॥
माल्यमोदकहस्तैश्च द्विजेन्द्रैरभिनादिताम्।
शुक्लदेवगृहद्वारां सर्ववादित्रनादिताम्॥४॥
सम्प्रहृष्टजनाकीर्णां ब्रह्मघोषनिनादिताम्।
प्रहृष्टवरहस्त्यश्वां सम्प्रणर्दितगोवृषाम्॥५॥
श्रीराम के दिये हुए माल्य और मोदक हाथ में लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण हर्षनाद कर रहे हैं, देवमन्दिरों के दरवाजे चूने और चन्दन आदि से लीपकर सफेद एवं सुन्दर बनाये गये हैं, सब प्रकार के बाजों की मनोहर ध्वनि हो रही है, अत्यन्त हर्ष में भरे हुए मनुष्यों से सारा नगरपरिपूर्ण है और चारों ओर वेदपाठकों की ध्वनि गँज रही है, श्रेष्ठ हाथी और घोड़े हर् षसे उत्फुल्ल दिखायी देते हैं तथा गाय-बैल प्रसन्न होकर रँभा रहे हैं। ४-५॥
हृष्टप्रमुदितैः पौरैरुच्छ्रितध्वजमालिनीम्।
अयोध्यां मन्थरा दृष्ट्वा परं विस्मयमागता॥६॥
सारे नगर निवासी हर्षजनित रोमाञ्च से युक्त और आनन्द मग्न हैं तथा नगर में सब ओर श्रेणी बद्ध ऊँचे ऊँचे ध्वज फहरा रहे हैं। अयोध्या की ऐसी शोभा को देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ॥६॥
सा हर्षोत्फुल्लनयनां पाण्डुरक्षौमवासिनीम्।
अविदूरे स्थितां दृष्ट्वा धात्री पप्रच्छ मन्थरा॥७॥
उसने पास के ही कोठे पर राम की धाय को खड़ी देखा, उसके नेत्र प्रसन्नता से खिले हुए थे और शरीर पर पीले रंग की रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी। उसे देखकर मन्थरा ने उससे पूछा- ॥७॥
उत्तमेनाभिसंयुक्ता हर्षेणार्थपरा सती।
राममाता धनं किं नु जनेभ्यः सम्प्रयच्छति॥८॥
अतिमात्रं प्रहर्षः किं जनस्यास्य च शंस मे।
कारयिष्यति किं वापि सम्प्रहृष्टो महीपतिः॥९॥
‘धाय! आज श्रीरामचन्द्रजी की माता अपने किसी अभीष्ट मनोरथ के साधन में तत्पर हो अत्यन्त हर्ष में भरकर लोगों को धन क्यों बाँट रही हैं? आज यहाँ के सभी मनुष्यों को इतनी अधिक प्रसन्नता क्यों है? इसका कारण मुझे बताओ! आज महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न होकर कौन-सा कर्म करायेंगे’। ८-९॥
विदीर्यमाणा हर्षेण धात्री तु परया मुदा।
आचचक्षेऽथ कुब्जायै भूयसीं राघवे श्रियम्॥ १०॥
श्वः पुष्येण जितक्रोधं यौवराज्येन चानघम्।
राजा दशरथो राममभिषेक्ता हि राघवम्॥११॥
श्रीराम की धाय तो हर्ष से फूली नहीं समाती थी, उसने कुब्जा के पूछने पर बड़े आनन्द के साथ उसे बताया—’कुब्जे! रघुनाथजी को बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त होने वाली है। कल महाराज दशरथ पुष्य नक्षत्र के योग में क्रोध को जीतने वाले, पापरहित, रघुकुलनन्दन श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त करेंगे’। १०-११॥
धात्र्यास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षितः।
कैलासशिखराकारात् प्रासादादवरोहत॥१२॥
धाय का यह वचन सुनकर कुब्जा मन-ही-मन कुढ़ गयी और उस कैलास-शिखर की भाँति उज्ज्वल एवं गगनचुम्बी प्रासाद से तुरंत ही नीचे उतर गयी।॥ १२ ॥
सा दह्यमाना क्रोधेन मन्थरा पापदर्शिनी।
शयानामेव कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत्॥१३॥
मन्थरा को इसमें कैकेयी का अनिष्ट दिखायी देता था, वह क्रोध से जल रही थी। उसने महल में लेटी हुई कैकेयी के पास जाकर इस प्रकार कहा- ॥ १३ ॥
उत्तिष्ठ मूढे किं शेषे भयं त्वामभिवर्तते।
उपप्लुतमघौघेन नात्मानमवबुध्यसे॥१४॥
‘मूर्खे! उठ। क्या सो रही है? तुझपर बड़ा भारी भय आ रहा है। अरी! तेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है, फिर भी तुझे अपनी इस दुरवस्था का बोध नहीं होता?’ ॥१४॥
अनिष्टे सुभगाकारे सौभाग्येन विकत्थसे।
चलं हि तव सौभाग्यं नद्याः स्रोत इवोष्णगे॥ १५॥
‘तेरे प्रियतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते हैं मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित कर देते हों, परंतु पीठ-पीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं। तू उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर सौभाग्य की डींग हाँका करती है, परंतु जैसे ग्रीष्म ऋतु में नदी का प्रवाह सूखता चला जाता है, उसी प्रकार तेरा वह सौभाग्य अब अस्थिर हो गया है तेरे हाथ से चला जाना चाहता है!’॥ १५॥
एवमुक्ता तु कैकेयी रुष्टया परुषं वचः।
कुब्जया पापदर्शिन्या विषादमगमत् परम्॥१६॥
इष्टमें भी अनिष्टका दर्शन करानेवाली रोषभरी कुब्जाके इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर कैकेयीके मनमें बड़ा दुःख हुआ॥ १६॥
कैकेयी त्वब्रवीत् कुब्जां कच्चित् क्षेमं न मन्थरे।
विषण्णवदनां हि त्वां लक्षये भृशदुःखिताम्॥ १७॥
उस समय केकयराजकुमारी ने कुब्जा से पूछा —’मन्थरे ! कोई अमङ्गल की बात तो नहीं हो गयी; क्योंकि तेरे मुख पर विषाद छा रहा है और तू मुझे बहुत दुःखी दिखायी देती है’ ॥ १७ ॥
मन्थरा तु वचः श्रुत्वा कैकेय्या मधुराक्षरम्।
उवाच क्रोधसंयुक्ता वाक्यं वाक्यविशारदा॥ १८॥
सा विषण्णतरा भूत्वा कुब्जा तस्यां हितैषिणी।
विषादयन्ती प्रोवाच भेदयन्ती च राघवम्॥१९॥
मन्थरा बातचीत करने में बड़ी कुशल थी, वह कैकेयी के मीठे वचन सुनकर और भी खिन्न हो गयी, उसके प्रति अपनी हितैषिता प्रकट करती हुई कुपित हो उठी और कैकेयी के मन में श्रीराम के प्रति भेदभाव और विषाद उत्पन्न करती हुई इस प्रकार बोली- ॥
अक्षयं सुमहद् देवि प्रवृत्तं त्वद्विनाशनम्।
रामं दशरथो राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति॥२०॥
‘देवि! तुम्हारे सौभाग्य के महान् विनाश का कार्य आरम्भ हो गया है, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है। कल महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त कर देंगे॥२०॥
सासम्यगाधे भये मग्ना दुःखशोकसमन्विता।
दह्यमानानलेनेव त्वद्धितार्थमिहागता॥२१॥
‘यह समाचार पाकर मैं दुःख और शोक से व्याकुल हो अगाध भय के समुद्र में डूब गयी हूँ, चिन्ता की आग से मानो जली जा रही हूँ और तुम्हारे हित की बात बताने के लिये यहाँ आयी हूँ’॥२१॥
तव दुःखेन कैकेयि मम दुःखं महद् भवेत्।
त्ववृद्धौ मम वृद्धिश्च भवेदिह न संशयः॥ २२॥
‘केकयनन्दिनि! यदि तुम पर कोई दुःख आया तो उससे मुझे भी बड़े भारी दुःख में पड़ना होगा। तुम्हारी उन्नति में ही मेरी भी उन्नति है, इसमें संशय नहीं है। २२॥
नराधिपकुले जाता महिषी त्वं महीपतेः।
उग्रत्वं राजधर्माणां कथं देवि न बुध्यसे॥२३॥
‘देवि! तुम राजाओं के कुल में उत्पन्न हुई हो और एक महाराज की महारानी हो, फिर भी राजधर्मो की उग्रता को कैसे नहीं समझ रही हो? ॥ २३॥
धर्मवादी शठो भर्ता श्लक्ष्णवादी च दारुणः।
शुद्धभावेन जानीषे तेनैवमतिसंधिता॥२४॥
‘तुम्हारे स्वामी धर्म की बातें तो बहुत करते हैं, परंतु हैं बड़े शठ मुँह से चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, परंतु हृदय के बड़े क्रूर हैं। तुम समझती हो कि वे सारी बातें शुद्ध भाव से ही कहते हैं, इसीलिये आज उनके द्वारा तुम बेतरह ठगी गयी॥ २४ ॥
उपस्थितः प्रयुञ्जानस्त्वयि सान्त्वमनर्थकम्।
अर्थेनैवाद्य ते भर्ता कौसल्यां योजयिष्यति॥ २५॥
‘तुम्हारे पति तुम्हें व्यर्थ सान्त्वना देने के लिये यहाँ उपस्थित होते हैं, वे ही अब रानी कौसल्या को अर्थ से सम्पन्न करने जा रहे हैं।॥ २५॥
अपवाह्य तु दुष्टात्मा भरतं तव बन्धुषु।
काल्ये स्थापयिता रामं राज्ये निहतकण्टके। २६॥
‘उनका हृदय इतना दूषित है कि भरत को तो उन्होंने तुम्हारे मायके भेज दिया और कल सबेरे ही अवध के निष्कण्टक राज्यपर वे श्रीराम का अभिषेक करेंगे॥२६॥
शत्रुः पतिप्रवादेन मात्रेव हितकाम्यया।
आशीविष इवाङ्गेन बाले परिधृतस्त्वया॥२७॥
‘बाले! जैसे माता हित की कामना से पुत्र का पोषण करती है, उसी प्रकार ‘पति’ कहलाने वाले जिस व्यक्ति का तुमने पोषण किया है, वह वास्तव में शत्रुनिकला जैसे कोई अज्ञानवश सर्प को अपनी गोद में लेकर उसका लालन करे, उसी प्रकार तुमने उन सर्पवत् बर्ताव करने वाले महाराज को अपने अङ्क में स्थान दिया है।॥ २७॥
यथा हि कुर्याच्छत्रुर्वा सो वा प्रत्युपेक्षितः।
राज्ञा दशरथेनाद्य सपुत्रा त्वं तथा कृता॥२८॥
‘उपेक्षित शत्रु अथवा सर्प जैसा बर्ताव कर सकता है, राजा दशरथ ने आज पुत्र सहित तुझ कैकेयी के प्रति वैसा ही बर्ताव किया है॥२८॥
पापेनानृतसान्त्वेन बाले नित्यं सुखोचिता।
रामं स्थापयता राज्ये सानुबन्धा हता ह्यसि॥ २९॥
‘बाले! तुम सदा सुख भोगने के योग्य हो, परंतु मन में पाप (दुर्भावना) रखकर ऊपर से झूठी सान्त्वना देने वाले महाराज ने अपने राज्य पर श्रीराम को स्थापित करने का विचार करके आज सगे-सम्बन्धियों सहित तुमको मानो मौत के मुखमें डाल दिया है।। २९ ॥
सा प्राप्तकालं कैकेयि क्षिप्रं कुरु हितं तव।
त्रायस्व पुत्रमात्मानं मां च विस्मयदर्शने॥३०॥
‘केकयराजकुमारी! तुम दुःख जनक बात सुनकर भी मेरी ओर इस तरह देख रही हो, मानो तुम्हें प्रसन्नता हुई हो और मेरी बातों से तुम्हें विस्मय हो रहा हो, परंतु यह विस्मय छोड़ो और जिसे करने का समय आ गया है, अपने उस हितकर कार्य को शीघ्र करो तथा ऐसा करके अपनी, अपने पुत्र की और मेरी भी रक्षा करो’ ॥ ३०॥
मन्थराया वचः श्रुत्वा शयनात् सा शुभानना।
उत्तस्थौ हर्षसम्पूर्णा चन्द्रलेखेव शारदी॥३१॥
मन्थरा की यह बात सुनकर सुन्दर मुखवाली कैकेयी सहसा शय्या से उठ बैठी। उसका हृदय हर्ष से भर गया। वह शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल की भाँति उद्दीप्त हो उठी॥ ३१॥
अतीव सा तु संतुष्टा कैकेयी विस्मयान्विता।
दिव्यमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम्॥ ३२॥
कैकेयी मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट हुई। विस्मयविमुग्ध हो मुसकराते हुए उसने कुब्जा को पुरस्कार के रूप में एक बहुत सुन्दर दिव्य आभूषण प्रदान किया॥ ३२॥
दत्त्वा त्वाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रमदोत्तमा।
कैकेयी मन्थरां हृष्टा पुनरेवाब्रवीदिदम्॥३३॥
इदं तु मन्थरे मामाख्यातं परमं प्रियम्।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूयः करोमि ते॥ ३४॥
कुब्जा को वह आभूषण देकर हर्ष से भरी हुई रमणीशिरोमणि कैकेयी ने पुनः मन्थरा से इस प्रकार कहा—’मन्थरे! यह तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया। तूने मेरे लिये जो यह प्रिय संवाद सुनाया, इसके लिये मैं तेरा और कौन-सा उपकार करूँ॥ ३३-३४॥
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये।
तस्मात् तुष्टास्मि यद् राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति॥ ३५॥
‘मैं भी राम और भरत में कोई भेद नहीं समझती। अतः यह जानकर कि राजा श्रीराम का अभिषेक करनेवाले हैं, मुझे बड़ी खुशी हुई है ॥ ३५ ॥
न मे परं किंचिदितो वरं पुनः प्रियं प्रिया सुवचं वचोऽमृतम्।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरंवरं परं ते प्रददामि तं वृणु॥३६॥
‘मन्थरे ! तू मुझसे प्रिय वस्तु पाने के योग्य है। मेरे लिये श्रीराम के अभिषेक सम्बन्धी इस समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय एवं अमृत के समान मधुर वचन नहीं कहा जा सकता। ऐसी परम प्रिय बात तुमने कही है; अतः अब यह प्रिय संवाद सुनाने के बाद तू कोई श्रेष्ठ वर माँग ले, मैं उसे अवश्य दूंगी’। ३६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ।७॥
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