वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 70 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 70
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्ततितमः सर्गः (सर्ग 70)
दूतों का भरत को वसिष्ठजी का संदेश सुनाना, भरत का पिता आदि की कुशल पूछना, शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करना
भरते ब्रुवति स्वप्नं दूतास्ते क्लान्तवाहनाः।
प्रविश्यासह्यपरिखं रम्यं राजगृहं पुरम्॥१॥
इस प्रकार भरत जब अपने मित्रों को स्वप्न का वृत्तान्त बता रहे थे, उसी समय थके हुए वाहनों वाले वे दूत उस रमणीय राजगृहपुर में प्रविष्ट हुए, जिसकी खाई को लाँघने का कष्ट शत्रुओं के लिये असह्य था॥ १॥
समागम्य च राज्ञा ते राजपुत्रेण चार्चिताः।
राज्ञः पादौ गृहीत्वा च तमूचुर्भरतं वचः॥२॥
नगर में आकर वे दूत केकयदेश के राजा और राजकुमार से मिले तथा उन दोनों ने भी उनका सत्कार किया। फिर वे भावी राजा भरत के चरणों का स्पर्श करके उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २॥
पुरोहितस्त्वां कुशलं प्राह सर्वे च मन्त्रिणः।
त्वरमाणश्च निर्याहि कृत्यमात्ययिकं त्वया॥३॥
‘कुमार! पुरोहितजी तथा समस्त मन्त्रियों ने आपसे कुशल-मङ्गल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिये। अयोध्या में आपसे अत्यन्त आवश्यक कार्य है॥३॥
इमानि च महार्हाणि वस्त्राण्याभरणानि च।
प्रतिगृह्य विशालाक्ष मातुलस्य च दापय॥४॥
‘विशाल नेत्रों वाले राजकुमार! ये बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण आप स्वयं भी ग्रहण कीजिये और अपने मामा को भी दीजिये॥४॥
अत्र विंशतिकोट्यस्तु नृपतेर्मातुलस्य ते।
दशकोट्यस्तु सम्पूर्णास्तथैव च नृपात्मज॥५॥
‘राजकुमार! यहाँ जो बहुमूल्य सामग्री लायी गयी है, इसमें बीस करोड़ की लागत का सामान आपके नाना केकेयनरेश के लिये है और पूरे दस करोड़ की लागत का सामान आपके मामा के लिये है’॥ ५ ॥
प्रतिगृह्य तु तत् सर्वं स्वनुरक्तः सुहृज्जने।
दूतानुवाच भरतः कामैः सम्प्रतिपूज्य तान्॥६॥
वे सारी वस्तुएँ लेकर मामा आदि सुहृदों में अनुराग रखने वाले भरत ने उन्हें भेंट कर दीं। तत्पश्चात् इच्छानुसार वस्तुएँ देकर दूतों का सत्कार करने के अनन्तर उनसे इस प्रकार कहा- ॥६॥
कच्चित् स कुशली राजा पिता दशरथो मम।
कच्चिदारोग्यता रामे लक्ष्मणे च महात्मनि॥७॥
‘मेरे पिता महाराज दशरथ सकुशल तो हैं न? महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण नीरोग तो हैं न? ॥ ७॥
आर्या च धर्मनिरता धर्मज्ञा धर्मवादिनी।
अरोगा चापि कौसल्या माता रामस्य धीमतः॥ ८॥
‘धर्म को जानने और धर्म की ही चर्चा करने वाली बुद्धिमान् श्रीराम की माता धर्मपरायणा आर्या कौसल्या को तो कोई रोग या कष्ट नहीं है ? ॥ ८॥
कच्चित् सुमित्रा धर्मज्ञा जननी लक्ष्मणस्य या।
शत्रुघ्नस्य च वीरस्य अरोगा चापि मध्यमा॥९॥
‘क्या वीर लक्ष्मण और शत्रुघ्न की जननी मेरी मझली माता धर्मज्ञा सुमित्रा स्वस्थ और सुखी हैं ?।। ९॥
आत्मकामा सदा चण्डी क्रोधना प्राज्ञमानिनी।
अरोगा चापि मे माता कैकेयी किमुवाच ह॥ १०॥
‘जो सदा अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहती और अपने को बड़ी बुद्धिमती समझती है, उस उग्र स्वभाव वाली कोपशीला मेरी माता कैकेयी को तो कोई कष्ट नहीं है? उसने क्या कहा है?’ ॥ १० ॥
एवमुक्तास्तु ते दूता भरतेन महात्मना।
ऊचुः सम्प्रश्रितं वाक्यमिदं तं भरतं तदा ॥११॥
महात्मा भरत के इस प्रकार पूछने पर उस समय दूतों ने विनयपूर्वक उनसे यह बात कही- ॥११॥
कुशलास्ते नरव्याघ्र येषां कुशलमिच्छसि।
श्रीश्च त्वां वृणुते पद्मा युज्यतां चापि ते रथः॥ १२॥
‘पुरुषसिंह! आपको जिनका कुशल-मङ्गल अभिप्रेत है, वे सकुशल हैं। हाथ में कमल लिये रहने वाली लक्ष्मी (शोभा) आपका वरण कर रही है। अब यात्रा के लिये शीघ्र ही आपका रथ जुतकर तैयार हो जाना चाहिये’॥ १२ ॥
भरतश्चापि तान् दूतानेवमुक्तोऽभ्यभाषत।
आपृच्छेऽहं महाराजं दूताः संत्वरयन्ति माम्॥ १३॥
उन दूतों के ऐसा कहने पर भरत ने उनसे कहा —’अच्छा मैं महाराज से पूछता हूँ कि दूत मुझसे शीघ्र अयोध्या चलने के लिये कह रहे हैं। आपकी क्या आज्ञा है?’ ॥ १३॥
एवमुक्त्वा तु तान् दूतान् भरतः पार्थिवात्मजः।
दूतैः संचोदितो वाक्यं मातामहमुवाच ह॥१४॥
दूतों से ऐसा कहकर राजकुमार भरत उनसे प्रेरित हो नाना के पास जाकर बोले- ॥ १४ ॥
राजन् पितुर्गमिष्यामि सकाशं दूतचोदितः।
पुनरप्यहमेष्यामि यदा मे त्वं स्मरिष्यसि॥१५॥
‘राजन्! मैं दूतों के कहने से इस समय पिताजी के पास जा रहा हूँ। पुनः जब आप मुझे याद करेंगे, यहाँ आ जाऊँगा’।
भरतेनैवमुक्तस्तु नृपो मातामहस्तदा।
तमुवाच शुभं वाक्यं शिरस्याघ्राय राघवम्॥ १६॥
भरत के ऐसा कहने पर नाना केकयनरेश ने उस समय उन रघुकुलभूषण भरत का मस्तक सूंघकर यह शुभ वचन कहा— ॥ १६॥
गच्छ तातानुजाने त्वां कैकेयी सुप्रजास्त्वया।
मातरं कुशलं ब्रूयाः पितरं च परंतप॥१७॥
‘तात! जाओ, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम्हें पाकर कैकेयी उत्तम संतानवाली हो गयी। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम अपनी माता और पिता से यहाँ का कुशल-समाचार कहना॥ १७॥
पुरोहितं च कुशलं ये चान्ये द्विजसत्तमाः।
तौ च तात महेष्वासौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ १८॥
‘तात! अपने पुरोहितजी से तथा अन्य जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उनसे भी मेरा कुशल-मङ्गल कहना। उन महाधनुर्धर दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से भी यहाँ का कुशल-समाचार सुना देना’ ॥ १८॥
तस्मै हस्त्युत्तमांश्चित्रान् कम्बलानजिनानि च।
सत्कृत्य केकयो राजा भरताय ददौ धनम्॥ १९॥
ऐसा कहकर केकयनरेश ने भरत का सत्कार करके उन्हें बहुत-से उत्तम हाथी, विचित्र कालीन, मृगचर्म और बहुत-सा धन दिये॥ १९॥
अन्तःपुरेऽतिसंवृद्धान् व्याघ्रवीर्यबलोपमान्।
दंष्ट्रायुक्तान् महाकायान् शुनश्चोपायनं ददौ॥ २०॥
जो अन्तःपुर में पाल-पोसकर बड़े किये गये थे, बल और पराक्रम में बाघों के समान थे, जिनकी दाढ़ें बड़ी-बड़ी और काया विशाल थी, ऐसे बहुत-से कुत्ते भी केकयनरेश ने भरत को भेट में दिये॥२०॥
रुक्मनिष्कसहस्रे द्वे षोडशाश्वशतानि च।
सत्कृत्य केकयीपुत्रं केकयो धनमादिशत्॥२१॥
दो हजार सोने की मोहरें और सोलह सौ घोड़े भी दिये। इस प्रकार केकयनरेश ने केकयीकुमार भरत को सत्कारपूर्वक बहुत-सा धन दिया॥ २१॥
तदामात्यानभिप्रेतान् विश्वास्यांश्च गुणान्वितान्।
ददावश्वपतिः शीघ्रं भरतायानुयायिनः॥२२॥
उस समय केकयनरेश अश्वपति ने अपने अभीष्ट, विश्वासपात्र और गुणवान् मन्त्रियों को भरत के साथ जाने के लिये शीघ्र आज्ञा दी॥ २२ ॥
ऐरावतानैन्द्रशिरान् नागान् वै प्रियदर्शनान्।
खरान् शीघ्रान् सुसंयुक्तान् मातुलोऽस्मै धनं ददौ॥ २३॥
भरत के मामा ने उन्हें उपहार में दिये जाने वाले फल के रूप में इरावान् पर्वत और इन्द्रशिर नामक स्थान के आस-पास उत्पन्न होने वाले बहुत-से सुन्दरसुन्दर हाथी तथा तेज चलने वाले सुशिक्षित खच्चर दिये॥२३॥
स दत्तं केकयेन्द्रेण धनं तन्नाभ्यनन्दत।
भरतः केकयीपुत्रो गमनत्वरया तदा॥२४॥
उस समय जाने की जल्दी होने के कारण केकयीपुत्र भरत ने केकयराज के दिये हुए उस धन का अभिनन्दन नहीं किया॥२४॥
बभूव ह्यस्य हृदये चिन्ता सुमहती तदा।
त्वरया चापि दूतानां स्वप्नस्यापि च दर्शनात्॥ २५॥
उस अवसर पर उनके हृदय में बड़ी भारी चिन्ता हो रही थी। इसके दो कारण थे, एक तो दूत वहाँ से चलने की जल्दी मचा रहे थे, दूसरे उन्हें दुःस्वप्न का दर्शन भी हुआ था।
स स्ववेश्माभ्यतिक्रम्य नरनागाश्वसंकुलम्।
प्रपेदे सुमहच्छ्रीमान् राजमार्गमनुत्तमम्॥ २६॥
वे यात्रा की तैयारी के लिये पहले अपने आवास स्थान पर गये। फिर वहाँ से निकलकर मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों से भरे हुए परम उत्तम राजमार्ग पर गये। उस समय भरतजी के पास बहुत बड़ी सम्पत्ति जुट गयी थी॥
अभ्यतीत्य ततोऽपश्यदन्तःपुरमनुत्तमम्।
ततस्तद् भरतः श्रीमानाविवेशानिवारितः॥२७॥
सड़क को पार करके श्रीमान् भरत ने राजभवन के परम उत्तम अन्तःपुर का दर्शन किया और उसमें वे बेरोक-टोक घुस गये॥ २७॥
स मातामहमापृच्छ्य मातुलं च युधाजितम्।
रथमारुह्य भरतः शत्रुघ्नसहितो ययौ॥ २८॥
वहाँ नाना, नानी, मामा युधाजित् और मामी से विदा ले शत्रुघ्न सहित रथ पर सवार हो भरत ने यात्रा आरम्भ की॥ २८॥
रथान् मण्डलचक्रांश्च योजयित्वा परः शतम्।
उष्टगोऽश्वखरैर्भृत्या भरतं यान्तमन्वयुः॥ २९॥
गोलाकार पहिये वाले सौ से भी अधिक रथों में ऊँट, बैल, घोड़े और खच्चर जोतकर सेवकों ने जाते हुए भरत का अनुसरण किया॥ २९॥
बलेन गुप्तो भरतो महात्मा सहार्यकस्यात्मसमैरमात्यैः।
आदाय शत्रुघ्नमपेतशत्रुहाद् ययौ सिद्ध इवेन्द्रलोकात्॥३०॥
शत्रुहीन महामना भरत अपनी और मामा की सेना से सुरक्षित हो शत्रुघ्न को अपने साथ रथ पर लेकर नाना के अपने ही समान माननीय मन्त्रियों के साथ मामा के घर से चले; मानो कोई सिद्ध पुरुष इन्द्रलोक से किसी अन्य स्थान के लिये प्रस्थित हुआ हो॥३०॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्ततितमः सर्गः॥ ७०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७०॥
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