वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 72 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 72
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्विसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 72)
भरत का कैकेयी से पिता के परलोकवास का समाचार पा दुःखी हो विलाप करना,कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तान्त से अवगत होना
अपश्यंस्तु ततस्तत्र पितरं पितरालये।
जगाम भरतो द्रष्टुं मातरं मातुरालये॥१॥
तदनन्तर पिता के घर में पिता को न देखकर भरत माता का दर्शन करने के लिये अपनी माता के महल में गये॥१॥
अनुप्राप्तं तु तं दृष्ट्वा कैकेयी प्रोषितं सुतम्।
उत्पपात तदा हृष्टा त्यक्त्वा सौवर्णमासनम्॥२॥
अपने परदेश गये हुए पुत्र को घर आया देख उस समय कैकेयी हर्ष से भर गयी और अपने सुवर्णमय आसन को छोड़ उछलकर खड़ी हो गयी॥२॥
स प्रविश्यैव धर्मात्मा स्वगृहं श्रीविवर्जितम्।
भरतः प्रेक्ष्य जग्राह जनन्याश्चरणौ शुभौ॥३॥
धर्मात्मा भरत ने अपने उस घर में प्रवेश करके देखा कि सारा घर श्रीहीन हो रहा है, फिर उन्होंने माता के शुभ चरणों का स्पर्श किया॥३॥
तं मूर्ध्नि समुपाघ्राय परिष्वज्य यशस्विनम्।
अङ्के भरतमारोप्य प्रष्टुं समुपचक्रमे॥४॥
अपने यशस्वी पुत्र भरत को छाती से लगाकर कैकेयी ने उनका मस्तक सँघा और उन्हें गोद में बिठाकर पूछना आरम्भ किया— ॥ ४॥
अद्य ते कतिचिद् रात्र्यश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः।
अपि नाध्वश्रमः शीघ्रं रथेनापततस्तव॥५॥
‘बेटा ! तुम्हें अपने नाना के घर से चले आज कितनी रातें व्यतीत हो गयीं? तुम रथ के द्वारा बड़ी शीघ्रता के साथ आये हो। रास्ते में तुम्हें अधिक थकावट तो नहीं हुई? ॥ ५॥
आर्यकस्ते सुकुशली युधाजिन्मातुलस्तव।
प्रवासाच्च सुखं पुत्र सर्वं मे वक्तुमर्हसि॥६॥
‘तुम्हारे नाना सकुशल तो हैं न? तुम्हारे मामा युधाजित् तो कुशल से हैं? बेटा ! जब तुम यहाँ से गये थे, तबसे लेकर अबतक सुख से रहे हो न? ये सारी बातें मुझे बताओ’॥६॥
एवं पृष्टस्तु कैकेय्या प्रियं पार्थिवनन्दनः।
आचष्ट भरतः सर्वं मात्रे राजीवलोचनः॥७॥
कैकेयी के इस प्रकार प्रिय वाणी में पूछने पर दशरथनन्दन कमलनयन भरत ने माता को सब बातें बतायीं ॥ ७॥
अद्य मे सप्तमी रात्रिश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः।
अम्बायाः कुशली तातो युधाजिन्मातुलश्च मे॥८॥
(वे बोले-) ‘मा! नाना के घर से चले मेरी यह सातवीं रात बीती है। मेरे नानाजी और मामा युधाजित् भी कुशल से हैं॥ ८॥
यन्मे धनं च रत्नं च ददौ राजा परंतपः।
परिश्रान्तं पथ्यभवत् ततोऽहं पूर्वमागतः॥९॥
राजवाक्यहरैर्दूतैस्त्वर्यमाणोऽहमागतः।
यदहं प्रष्टुमिच्छामि तदम्बा वक्तुमर्हति॥१०॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले केकयनरेश ने मुझे जो धन-रत्न प्रदान किये हैं, उनके भार से मार्ग में सब वाहन थक गये थे, इसलिये मैं राजकीय संदेश लेकर गये हुए दूतों के जल्दी मचाने से यहाँ पहले ही चला आया हूँ। अच्छा माँ, अब मैं जो कुछ पूछता हूँ, उसे तुम बताओ’ ॥ ९-१०॥
शून्योऽयं शयनीयस्ते पर्यङ्को हेमभूषितः।
न चायमिक्ष्वाकुजनः प्रहृष्टः प्रतिभाति मे॥११॥
‘यह तुम्हारी शय्या सुवर्णभूषित पलंग इस समय सूना है, इसका क्या कारण है (आज यहाँ महाराज उपस्थित क्यों नहीं हैं)? ये महाराज के परिजन आज प्रसन्न क्यों नहीं जान पड़ते हैं? ॥ ११॥
राजा भवति भूयिष्ठमहाम्बाया निवेशने।
तमहं नाद्य पश्यामि द्रष्टुमिच्छन्निहागतः॥१२॥
‘महाराज (पिताजी) प्रायः माताजी के ही महल में रहा करते थे, किंतु आज मैं उन्हें यहाँ नहीं देख रहा हूँ। मैं उन्हीं का दर्शन करने की इच्छासे यहाँ आया
पितुर्ग्रहीष्ये पादौ च तं ममाख्याहि पृच्छतः।
आहोस्विदम्बाज्येष्ठायाः कौसल्याया निवेशने॥ १३॥
‘मैं पूछता हूँ, बताओ, पिताजी कहाँ हैं? मैं उनके पैर पकगा। अथवा बड़ी माता कौसल्याके घरमें तो वे नहीं हैं?’ ॥ १३॥
तं प्रत्युवाच कैकेयी प्रियवद घोरमप्रियम्।
अजानन्तं प्रजानन्ती राज्यलोभेन मोहिता॥१४॥
कैकेयी राज्य के लोभ से मोहित हो रही थी। वह राजा का वृत्तान्त न जानने वाले भरत से उस घोर अप्रिय समाचार को प्रिय-सा समझती हुई इस प्रकार बताने लगी- ॥१४॥
या गतिः सर्वभूतानां तां गतिं ते पिता गतः।
राजा महात्मा तेजस्वी यायजूकः सतां गतिः॥ १५॥
‘बेटा ! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ बड़े महात्मा, तेजस्वी, यज्ञशील और सत्पुरुषों के आश्रयदाता थे। एक दिन समस्त प्राणियों की जो गति होती है, उसी गति को वे भी प्राप्त हुए हैं’ ॥ १५ ॥
तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं धर्माभिजनवाञ्छुचिः।
पपात सहसा भूमौ पितृशोकबलार्दितः॥१६॥
हा हतोऽस्मीति कृपणां दीनां वाचमुदीरयन्।
निपपात महाबाहुर्बाहू विक्षिप्य वीर्यवान्॥१७॥
भरत धार्मिक कुल में उत्पन्न हुए थे और उनका हृदय शुद्ध था। माता की बात सुनकर वे पितृशोक से अत्यन्त पीड़ित हो सहसा पृथ्वी पर गिर पड़े और ‘हाय, मैं मारा गया!’ इस प्रकार अत्यन्त दीन और दुःखमय वचन कहकर रोने लगे। पराक्रमी महाबाहु भरत अपनी भुजाओं को बारम्बार पृथ्वी पर पटककर गिरने और लोटने लगे॥ १६-१७ ॥
ततः शोकेन संवीतः पितुर्मरणदुःखितः।
विललाप महातेजा भ्रान्ताकुलितचेतनः॥१८॥
उन महातेजस्वी राजकुमार की चेतना भ्रान्त और व्याकुल हो गयी। वे पिता की मृत्यु से दुःखी और शोक से व्याकुलचित्त होकर विलाप करने लगे—॥ १८॥
एतत् सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयनं पुरा।
शशिनेवामलं रात्रौ गगनं तोयदात्यये॥१९॥
तदिदं न विभात्यद्य विहीनं तेन धीमता।
व्योमेव शशिना हीनमप्शुष्क इव सागरः॥२०॥
‘हाय! मेरे पिताजी की जो यह अत्यन्त सुन्दर शय्या पहले शरत्काल की रात में चन्द्रमा से सुशोभित होने वाले निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी, वही यह आज उन्हीं बुद्धिमान् महाराज से रहित होकर चन्द्रमा से हीन आकाश और सूखे हुए समुद्र के समान श्रीहीन प्रतीत होती है’।। १९-२० ॥
बाष्पमुत्सृज्य कण्ठेन स्वात्मना परिपीडितः।
प्रच्छाद्य वदनं श्रीमद् वस्त्रेण जयतां वरः॥२१॥
विजयी वीरों में श्रेष्ठ भरत अपने सुन्दर मुख वस्त्र से ढककर अपने कण्ठस्वर के साथ आँसू गिराकर मन ही-मन अत्यन्त पीड़ित हो पृथ्वी पर पड़कर विलाप करने लगे॥ २१॥
तमार्तं देवसंकाशं समीक्ष्य पतितं भुवि।
निकृत्तमिव सालस्य स्कन्धं परशुना वने॥२२॥
माता मातङ्गसंकाशं चन्द्रार्कसदृशं सुतम्।
उत्थापयित्वा शोकार्तं वचनं चेदमब्रवीत्॥२३॥
देवतुल्य भरत शो कसे व्याकुल हो वन में फरसे से काटे गये साखू के तने की भाँति पृथ्वी पर पड़े थे, मतवाले हाथी के समान पुष्ट तथा चन्द्रमा या सूर्य के समान तेजस्वी अपने शोकाकुल पुत्र को इस तरह भूमि पर पड़ा देख माता कैकेयी ने उन्हें उठाया और इस प्रकार कहा— ॥ २२-२३॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे राजन्नत्र महायशः।
त्वद्विधा नहि शोचन्ति सन्तः सदसि सम्मताः॥ २४॥
‘राजन् ! उठो! उठो! महायशस्वी कुमार! तुम इस तरह यहाँ धरती पर क्यों पड़े हो? तुम्हारे-जैसे सभाओं में सम्मानित होने वाले सत्पुरुष शोक नहीं किया करते हैं।॥ २४॥
दानयज्ञाधिकारा हि शीलश्रुतितपोनुगा।
बुद्धिस्ते बुद्धिसम्पन्न प्रभेवार्कस्य मन्दिरे॥२५॥
‘बुद्धिसम्पन्न पुत्र! जैसे सूर्यमण्डल में प्रभा निश्चल रूप से रहती है, उसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि सुस्थिर है। वह दान और यज्ञ में लगने की अधिकारिणी है; क्योंकि सदाचार और वेदवाक्यों का अनुसरण करने वाली है’॥ २५॥
सरुदित्वा चिरं कालं भूमौ परिविवृत्य च।
जननीं प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहुभिरावृतः॥२६॥
भरत पृथ्वी पर लोटते-पोटते बहुत देर तक रोते रहे। तत्पश्चात् अधिकाधिक शोक से आकुल होकर वे माता से इस प्रकार बोले- ॥ २६ ॥
अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते।
इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्॥ २७॥
‘मैंने तो यह सोचा था कि महाराज श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और स्वयं यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे —यही सोचकर मैंने बड़े हर् षके साथ वहाँ से यात्रा की थी॥२७॥
तदिदं ह्यन्यथाभूतं व्यवदीर्णं मनो मम।
पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम्॥ २८॥
‘किंतु यहाँ आने पर सारी बातें मेरी आशा के विपरीत हो गयीं। मेरा हृदय फटा जा रहा है; क्योंकि सदा अपने प्रिय और हित में लगे रहने वाले पिताजी को मैं नहीं देख रहा हूँ॥२८॥
अम्ब केनात्यगाद् राजा व्याधिना मय्यनागते।
धन्या रामादयः सर्वे यैः पिता संस्कृतः स्वयम्॥२९॥
‘मा! महाराज को ऐसा कौन-सा रोग हो गया था, जिससे वे मेरे आने के पहले ही चल बसे? श्रीराम आदि सब भाई धन्य हैं, जिन्होंने स्वयं उपस्थित रहकर पिताजी का अन्त्येष्टि-संस्कार किया॥२९॥
न नूनं मां महाराजः प्राप्तं जानाति कीर्तिमान्।
उपजिभ्रेत् तु मां मूर्ध्नि तातः संनाम्य सत्वरम्॥ ३०॥
निश्चय ही मेरे पूज्य पिता यशस्वी महाराज को मेरे यहाँ आने का कुछ पता नहीं है, अन्यथा वे शीघ्र ही मेरे मस्तक को झुकाकर उसे प्यार से सूंघते॥ ३० ॥
क्व स पाणिः सुखस्पर्शस्तातस्याक्लिष्टकर्मणः।
यो हि मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमार्जति॥ ३१॥
‘हा! अनायास ही महान् कर्म करने वाले मेरे पिता का वह कोमल हाथ कहाँ है, जिसका स्पर्श मेरे लिये बहुत ही सुखदायक था? वे उसी हाथ से मेरे धूलिधूसर शरीर को बारंबार पोंछा करते थे॥ ३१ ॥
यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि सम्मतः।
तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्टकर्मणः॥ ३२॥
‘अब जो मेरे भाई, पिता और बन्धु हैं तथा जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले उन श्रीरामचन्द्रजी को तुम शीघ्र ही मेरे आने की सूचना दो॥ ३२॥
पिता हि भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः।
तस्य पादौ ग्रहीष्यामि स हीदानीं गतिर्मम॥३३॥
‘धर्म के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष के लिये बड़ा भाई पिता के समान होता है। मैं उनके चरणों में प्रणाम करूँगा। अब वे ही मेरे आश्रय हैं॥ ३३॥
धर्मविद् धर्मशीलश्च महाभागो दृढव्रतः।
आर्ये किमब्रवीद राजा पिता मे सत्यविक्रमः॥ ३४॥
पश्चिमं साधुसंदेशमिच्छामि श्रोतुमात्मनः।
‘आर्ये! धर्म का आचरण जिनका स्वभाव बन गया था तथा जो बड़ी दृढ़ता के साथ उत्तम व्रत का पालन करते थे, वे मेरे सत्यपराक्रमी और धर्मज्ञ पिता महाराज दशरथ अन्तिम समय में क्या कह गये थे? मेरे लिये जो उनका अन्तिम संदेश हो उसे मैं सुनना चाहता हूँ’॥ ३४ १/२॥
इति पृष्टा यथातत्त्वं कैकेयी वाक्यमब्रवीत्॥ ३५॥
रामेति राजा विलपन् हा सीते लक्ष्मणेति च।
स महात्मा परं लोकं गतो मतिमतां वरः॥ ३६॥
भरत के इस प्रकार पूछने पर कैकेयी ने सब बात ठीक-ठीक बता दी। वह कहने लगी—’बेटा! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तुम्हारे महात्मा पिता महाराजने ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ इस प्रकार विलाप करते हुए परलोक की यात्रा की थी॥ ३५-३६ ।।
इतीमा पश्चिमां वाचं व्याजहार पिता तव।
कालधर्मं परिक्षिप्तः पाशैरिव महागजः॥ ३७॥
‘जैसे पाशों से बँधा हुआ महान् गज विवश हो जाता है, उसी प्रकार कालधर्म के वशीभूत हुए तुम्हारे पिता ने अन्तिम वचन इस प्रकार कहा था- ॥ ३७॥
सिद्धार्थास्तु नरा राममागतं सह सीतया।
लक्ष्मणं च महाबाहुं द्रक्ष्यन्ति पुनरागतम्॥३८॥
‘जो लोग सीता के साथ पुनः लौटकर आये हुए महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मण को देखेंगे, वे ही कृतार्थ होंगे।
तच्छ्रुत्वा विषसादैव द्वितीयाप्रियशंसनात्।
विषण्णवदनो भूत्वा भूयः पप्रच्छ मातरम्॥ ३९॥
माता के द्वारा यह दूसरी अप्रिय बात कही जाने पर भरत और भी दुःखी ही हुए। उनके मुखपर विषाद छा गया और उन्होंने पुनः माता से पूछा- ॥३९॥
क्व चेदानीं स धर्मात्मा कौसल्यानन्दवर्धनः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया च समागतः॥४०॥
मा! माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी इस अवसर पर भाई लक्ष्मण और सीता के साथ कहाँ चले गये हैं?’ ॥ ४० ॥
तथा पृष्टा यथान्यायमाख्यातुमुपचक्रमे।
मातास्य युगपद्वाक्यं विप्रियं प्रियशंसया॥४१॥
इस प्रकार पूछने पर उनकी माता कैकेयी ने एक साथ ही प्रिय बुद्धि से वह अप्रिय संवाद यथोचित रीति से सुनाना आरम्भ किया— ॥४१॥
स हि राजसुतः पुत्र चीरवासा महावनम्।
दण्डकान् सह वैदेह्या लक्ष्मणानुचरो गतः॥ ४२॥
‘बेटा! राजकुमार श्रीराम वल्कल-वस्त्र धारण करके सीता के साथ दण्डक वन में चले गये हैं। लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया है’ । ४२॥
तच्छ्रुत्वा भरतस्त्रस्तो भ्रातुश्चारित्रशङ्कया।
स्वस्य वंशस्य माहात्म्यात् प्रष्टं समुपचक्रमे॥ ४३॥
यह सुनकर भरत डर गये, उन्हें अपने भाई के चरित्र पर शङ्का हो आयी। (वे सोचने लगे—श्रीराम कहीं धर्म से गिर तो नहीं गये?) अपने वंश की महत्ता (धर्मपरायणता) का स्मरण करके वे कैकेयी से इस प्रकार पूछने लगे- ॥ ४३॥
कच्चिन्न ब्राह्मणधनं हृतं रामेण कस्यचित्।
कच्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः॥ ४४॥
‘मा! श्रीराम ने किसी कारण वश ब्राह्मण का धन तो नहीं हर लिया था? किसी निष्पाप धनी या दरिद्र की हत्या तो नहीं कर डाली थी? ॥ ४४ ॥
कच्चिन्न परदारान् वा राजपुत्रोऽभिमन्यते।
कस्मात् स दण्डकारण्ये भ्राता रामो विवासितः॥ ४५॥
‘राजकुमार श्रीराम का मन किसी परायी स्त्री की ओर तो नहीं चला गया? किस अपराध के कारण भैया श्रीराम को दण्डकारण्य में जाने के लिये निर्वासित कर दिया गया है?’॥ ४५ ॥
अथास्य चपला माता तत् स्वकर्म यथातथम्।
तेनैव स्त्रीस्वभावेन व्याहर्तुमुपचक्रमे॥ ४६॥
तब चपल स्वभाववाली भरत की माता कैकेयी ने उस विवेकशून्य चञ्चल नारी स्वभाव के कारण ही अपनी करतूत को ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया। ४६॥
एवमुक्ता तु कैकेयी भरतेन महात्मना।
उवाच वचनं हृष्टा वृथापण्डितमानिनी॥४७॥
महात्मा भरत के पूर्वोक्त रूप से पूछने पर व्यर्थ ही अपने को बड़ी विदुषी मानने वाली कैकेयी ने बडे हर् षमें भरकर कहा- ॥ ४७॥
न ब्राह्मणधनं किंचिद्धृतं रामेण कस्यचित्।
कश्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः।
न रामः परदारान् स चक्षुामपि पश्यति॥ ४८॥
‘बेटा! श्रीराम ने किसी कारण वश किञ्चिन्मात्र भी ब्राह्मण के धन का अपहरण नहीं किया है। किसी निरपराध धनी या दरिद्र की हत्या भी उन्होंने नहीं की है। श्रीराम कभी किसी परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं डालते हैं। ४८॥
मया तु पुत्र श्रुत्वैव रामस्येहाभिषेचनम्।
याचितस्ते पिता राज्यं रामस्य च विवासनम्॥ ४९॥
बेटा! (उनके वन में जाने का कारण इस प्रकार है)—मैंने सुना था कि अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा है, तब मैंने तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिये राज्य और श्रीराम के लिये वनवास की प्रार्थना की॥ ४९॥
स स्ववृत्तिं समास्थाय पिता ते तत् तथाकरोत्।
रामस्त सहसौमित्रिः प्रेषितः सह सीतया॥५०॥
तमपश्यन् प्रियं पुत्रं महीपालो महायशाः।
पुत्रशोकपरिघुनः पञ्चत्वमुपपेदिवान्॥५१॥
‘उन्होंने अपने सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के अनुसार मेरी माँग पूरी की। श्रीराम लक्ष्मण और सीता के साथ वन को भेज दिये गये, फिर अपने प्रिय पुत्र श्रीराम को न देखकर वे महायशस्वी महाराज पुत्रशोक से पीड़ित हो परलोकवासी हो गये। ५०-५१॥
त्वया त्विदानीं धर्मज्ञ राजत्वमवलम्ब्यताम्।
त्वत्कृते हि मया सर्वमिदमेवंविधं कृतम्॥५२॥
‘धर्मज्ञ! अब तुम राजपद स्वीकार करो। तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकार से यह सब कुछ किया है। ५२॥
मा शोकं मा च संतापं धैर्यमाश्रय पुत्रक।
त्वदधीना हि नगरी राज्यं चैतदनामयम्॥५३॥
‘बेटा! शोक और संताप न करो, धैर्य का आश्रय लो। अब यह नगर और निष्कण्टक राज्य तुम्हारे ही अधीन है॥
तत् पुत्र शीघ्रं विधिना विधिज्ञैर्वसिष्ठमुख्यैः सहितो द्विजेन्द्रैः।
संकाल्य राजानमदीनसत्त्वमात्मानमुामभिषेचयस्व॥५४॥
‘अतः वत्स! अब विधि-विधान के ज्ञाता वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों के साथ तुम उदार हृदय वाले महाराज का अन्त्येष्टि-संस्कार करके इस पृथ्वी के राज्य पर अपना अभिषेक कराओ’ ॥ ५४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्विसप्ततितमः सर्गः॥ ७२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बहत्तरवाँ सर्ग पूराहुआ। ७२॥
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