RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 74 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 74

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुःसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 74)

भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना

(यह कार्य RamCharit.in के द्वारा आर्थिक व्यय कर के उपलब्ध कराया गया है। कृपया शेयर करें तो  website लिंक क्रेडिट अवश्य दें। किसी अन्य वेबसाइट द्वारा चोरी किये जाने की दशा में Intellectual Property Rights (IPR) अधिनियम के तहत कानूनी कार्यवाही की जायेगी)

तां तथा गर्हयित्वा तु मातरं भरतस्तदा।
रोषेण महताविष्टः पुनरेवाब्रवीद् वचः॥१॥

इस प्रकार माता की निन्दा करके भरत उस समय महान् रोषावेश से भर गये और फिर कठोर वाणी में कहने लगे- ॥१॥

राज्याद भ्रंशस्व कैकेयि नृशंसे दुष्टचारिणि।
परित्यक्तासि धर्मेण मा मृतं रुदती भव॥२॥

‘दृष्टतापूर्ण बर्ताव करने वाली क्रूरहृदया कैकेयि! तू राज्य से भ्रष्ट हो जा। धर्म ने तेरा परित्याग कर दिया है, अतः अब तू मरे हुए महाराज के लिये रोना मत, (क्योंकि तू पत्नीधर्म से गिर चुकी है) अथवा मुझे मरा हुआ समझकर तू जन्मभर पुत्र के लिये रोया कर॥२॥

किं नु तेऽदूषयद् रामो राजा वा भृशधार्मिकः।
ययोर्मृत्युर्विवासश्च त्वत्कृते तुल्यमागतौ॥ ३॥

‘श्रीराम ने अथवा अत्यन्त धर्मात्मा महाराज (पिताजी) ने तेरा क्या बिगाड़ा था, जिससे एक साथ ही उन्हें तुम्हारे कारण वनवास और मृत्यु का कष्ट भोगना पड़ा? ॥३॥

भ्रूणहत्यामसि प्राप्ता कुलस्यास्य विनाशनात्।
कैकेयि नरकं गच्छ मा च तातसलोकताम्॥४॥

कैकेयि! तूने इस कुल का विनाश करने के कारण भ्रूणहत्या का पाप अपने सिर पर लिया है, इसलिये तू नरक में जा और पिताजी का लोक तुझे न मिले ॥४॥

यत्त्वया हीदृशं पापं कृतं घोरेण कर्मणा।
सर्वलोकप्रियं हित्वा ममाप्यापादितं भयम्॥५॥

‘तूने इस घोर कर्म के द्वारा समस्त लोकों के प्रिय श्रीराम को देशनिकाला देकर जो ऐसा बड़ा पापकिया है, उसने मेरे लिये भी भय उपस्थित कर दिया है॥५॥

त्वत्कृते मे पिता वृत्तो रामश्चारण्यमाश्रितः।
अयशो जीवलोके च त्वयाहं प्रतिपादितः॥६॥

‘तेरे कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई, श्रीराम को वन का आश्रय लेना पड़ा और मुझे भी तूने इस जीवजगत् में अपयश का भागी बना दिया॥६॥

मातृरूपे ममामित्रे नृशंसे राज्यकामुके।
न तेऽहमभिभाष्योऽस्मि दुर्वृत्ते पतिघातिनि॥७॥

‘राज्य के लोभ में पड़कर क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाली दुराचारिणी पतिघातिनि! तू माता के रूप में मेरी शत्रु है। तुझे मुझसे बात नहीं करनी चाहिये॥७॥

कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या मम मातरः।
दुःखेन महताविष्टास्त्वां प्राप्य कुलदूषिणीम्॥ ८॥

‘कौसल्या, सुमित्रा तथा जो अन्य मेरी माताएँ हैं, वे सब तुझ कुलकलङ्किनी के कारण महान् दुःख में पड़ गयी हैं॥८॥

न त्वमश्वपतेः कन्या धर्मराजस्य धीमतः।
राक्षसी तत्र जातासि कुलप्रध्वंसिनी पितुः॥९॥

‘तू बुद्धिमान् धर्मराज अश्वपति की कन्या नहीं है। तू उनके कुल में कोई राक्षसी पैदा हो गयी है, जो पिता के वंश का विध्वंस करने वाली है॥९॥

यत् त्वया धार्मिको रामो नित्यं सत्यपरायणः।
वनं प्रस्थापितो वीरः पितापि त्रिदिवं गतः॥ १०॥
यत् प्रधानासि तत् पापं मयि पित्रा विना कृते।
भ्रातृभ्यां च परित्यक्ते सर्वलोकस्य चाप्रिये॥

‘तूने सदा सत्य में तत्पर रहने वाले धर्मात्मा वीर श्रीराम को जो वन में भेज दिया और तेरे कारण जो मेरे पिता स्वर्गवासी हो गये, इन सब कुकृत्यों द्वारा तूने प्रधान रूप से जिस पाप का अर्जन किया है, वह पाप मुझमें आकर अपना फल दिखा रहा है; इसलिये मैं पितृहीन हो गया, अपने दो भाइयों से बिछुड़ गया और समस्त जगत् के लोगों के लिये अप्रिय बन गया॥ १०-११॥

कौसल्यां धर्मसंयुक्तां वियुक्तां पापनिश्चये।
कृत्वा कं प्राप्स्यसे ह्यद्य लोकं निरयगामिनि॥ १२॥

‘पापपूर्ण विचार रखने वाली नरकगामिनी कैकेयि ! धर्मपरायणा माता कौसल्या को पति और पुत्र से वञ्चित करके अब तू किस लोक में जायगी? ॥ १२ ॥

किं नावबुध्यसे क्रूरे नियतं बन्धुसंश्रयम्।
ज्येष्ठं पितृसमं रामं कौसल्यायात्मसम्भवम्॥ १३॥

‘क्रूरहृदये! कौसल्यापुत्र श्रीराम मेरे बड़े भाई और पिता के तुल्य हैं। वे जितेन्द्रिय और बन्धुओं के आश्रयदाता हैं। क्या तू उन्हें इस रूप में नहीं जानती है? ॥ १३॥

अङ्गप्रत्यङ्गजः पुत्रो हृदयाच्चाभिजायते।
तस्मात् प्रियतरो मातुः प्रिया एव तु बान्धवाः॥ १४॥

‘पुत्र माता के अङ्ग-प्रत्यङ्ग और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये वह माता को अधिक प्रिय होता है।अन्य भाई-बन्धु केवल प्रिय ही होते हैं (किंतु पुत्र प्रियतर होता है) ॥ १४॥

अन्यदा किल धर्मज्ञा सुरभिः सुरसम्मता।
वहमानौ ददर्शोर्त्यां पुत्रौ विगतचेतसौ॥१५॥

‘एक समय की बात है कि धर्म को जानने वाली देव-सम्मानित सुरभि (कामधेनु) ने पृथ्वी पर अपने दो पुत्रों को देखा, जो हल जोतते-जोतते अचेत हो गये थे॥ १५॥

तावर्धदिवसं श्रान्तौ दृष्ट्वा पुत्रौ महीतले।
रुरोद पुत्रशोकेन बाष्पपर्याकुलेक्षणम्॥१६॥

‘मध्याह्न का समय होने तक लगातार हल जोतने से वे बहुत थक गये थे। पृथ्वी पर अपने उन दोनों पुत्रों को ऐसी दुर्दशा में पड़ा देख सुरभि पुत्रशोक से रोने लगी। उसके नेत्रों में आँसू उमड़ आये॥१६॥

अधस्ताद् व्रजतस्तस्याः सुरराज्ञो महात्मनः।
बिन्दवः पतिता गात्रे सूक्ष्माः सुरभिगन्धिनः॥ १७॥

‘उसी समय महात्मा देवराज इन्द्र सुरभि के नीचे से होकर कहीं जा रहे थे। उनके शरीर पर कामधेनु के दो बूंद सुगन्धित आँसू गिर पड़े॥१७॥

निरीक्षमाणस्तां शक्रो ददर्श सुरभिं स्थिताम्।
आकाशे विष्ठितां दीनां रुदतीं भृशदुःखिताम्॥१८॥

‘जब इन्द्र ने ऊपर दृष्टि डाली, तब देखा आकाश में सुरभि खड़ी हैं और अत्यन्त दुःखी हो दीनभाव से रो रही हैं॥ १८॥

तां दृष्ट्वा शोकसंतप्तां वज्रपाणिर्यशस्विनीम्।
इन्द्रः प्राञ्जलिरुद्विग्नः सुरराजोऽब्रवीद् वचः॥ १९॥

‘यशस्विनी सुरभि को शोक से संतप्त हुई देख वज्रधारी देवराज इन्द्र उद्विग्न हो उठे और हाथ जोड़कर बोले- ॥ १९॥

भयं कच्चिन्न चास्मासु कुतश्चिद विद्यते महत्।
कुतोनिमित्तः शोकस्ते ब्रूहि सर्वहितैषिणि॥२०॥

‘सबका हित चाहने वाली देवि! हमलोगों पर कहीं से कोई महान् भय तो नहीं उपस्थित हआ है? बताओ, किस कारण से तुम्हें यह शोक प्राप्त हुआ है ? ॥ २० ॥

एवमुक्ता तु सुरभिः सुरराजेन धीमता।
प्रत्युवाच ततो धीरा वाक्यं वाक्यविशारदा॥ २१॥

‘बुद्धिमान् देवराज इन्द्र के इस प्रकार पूछने पर बोलने में चतुर और धीर स्वभाव वाली सुरभि ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२१॥

शान्तं पापं न वः किंचित् कुतश्चिदमराधिप।
अहं तु मग्नौ शोचामि स्व पत्रौ विषमे स्थितौ॥ २२॥

‘देवेश्वर! पाप शान्त हो। तुमलोगों पर कहीं से कोई भय नहीं है। मैं तो अपने इन दोनों पुत्रों को विषम अवस्था (घोर सङ्कट) में मग्न हुआ देख शोक कर रही हूँ॥ २२ ॥

एतौ दृष्ट्वा कृशौ दीनौ सूर्यरश्मिप्रतापितौ।
वध्यमानौ बलीवर्दी कर्षकेण दरात्मना॥२३॥

‘ये दोनों बैल अत्यन्त दुर्बल और दुःखी हैं, सूर्य की किरणों से बहुत तप गये हैं और ऊपर से वह दुष्ट किसान इन्हें पीट रहा है ॥ २३॥

मम कायात् प्रसूतौ हि दुःखितौ भारपीडितौ।
यौ दृष्ट्वा परितप्येऽहं नास्ति पुत्रसमः प्रियः॥ २४॥

‘मेरे शरीर से इनकी उत्पत्ति हुई है। ये दोनों भार से पीड़ित और दुःखी हैं, इसीलिये इन्हें देखकर मैं शोक से संतप्त हो रही हूँ; क्योंकि पुत्र के समान प्रिय दूसरा कोई नहीं है’॥ २४॥

यस्याः पुत्रसहस्रेस्तु कृत्स्नं व्याप्तमिदं जगत्।
तां दृष्ट्वा रुदतीं शक्रो न सुतान् मन्यते परम्॥ २५॥

‘जिनके सहस्रों पुत्रों से यह सारा जगत् भरा हुआ है, उन्हीं कामधेनु को इस तरह रोती देख इन्द्र ने यह माना कि पुत्र से बढ़कर और कोई नहीं है।॥ २५ ॥

इन्द्रो ह्यश्रुनिपातं तं स्वगात्रे पुण्यगन्धिनम्।
सुरभिं मन्यते दृष्ट्वा भूयसी तामिहेश्वरः॥२६॥

‘देवेश्वर इन्द्र ने अपने शरीर पर उस पवित्र गन्धवाले अश्रुपात को देखकर देवी सुरभि को इस जगत् में सबसे श्रेष्ठ माना॥ २६॥

समाप्रतिमवृत्ताया लोकधारणकाम्यया।
श्रीमत्या गुणमुख्यायाः स्वभावपरिचेष्टया॥२७॥
यस्याः पुत्रसहस्राणि सापि शोचति कामधुक।
किं पुनर्या विना रामं कौसल्या वर्तयिष्यति॥ २८॥

‘जिनका चरित्र समस्त प्राणियों के लिये समान रूप से हितकर और अनुपम है, जो अभीष्ट दान रूप ऐश्वर्यशक्ति से सम्पन्न, सत्यरूप प्रधान गुण से युक्त तथा लोकरक्षा की कामना से कार्य में प्रवृत्त होने वाली हैं और जिनके सहस्रों पुत्र हैं, वे कामधेनु भी जब अपने दो पुत्रों के लिये उनके स्वाभाविक चेष्टा में रत होने पर भी कष्ट पाने के कारण शोक करती हैं तब जिनके एक ही पुत्र है, वे माता कौसल्या श्रीराम के बिना कैसे जीवित रहेंगी? ॥ २७-२८॥

एकपुत्रा च साध्वी च विवत्सेयं त्वया कृता।
तस्मात् त्वं सततं दुःखं प्रेत्य चेह च लप्स्यसे॥ २९॥

‘इकलौते बेटेवाली इन सती-साध्वी कौसल्या का तूने उनके पुत्र से बिछोह करा दिया है, इसलिये तू सदा ही इस लोक और परलोक में भी दुःख ही पायेगी॥ २९॥

अहं त्वपचितिं भ्रातुः पितुश्च सकलामिमाम।
वर्धनं यशसश्चापि करिष्यामि न संशयः॥३०॥

‘मैं तो यह राज्य लौटाकर भाई की पूजा करूँगा और यह सारा अन्त्येष्टिसंस्कार आदि करके पिता का भी पूर्णरूप से पूजन करूँगा तथा निःसंदेह मैं वही कर्म करूँगा, जो (तेरे दिये हुए कलङ्क को मिटाने वाला और) मेरे यश को बढ़ाने वाला हो॥३०॥

आनाय्य च महाबाहुं कोसलेन्द्रं महाबलम्।
स्वयमेव प्रवेक्ष्यामि वनं मुनिनिषेवितम्॥ ३१॥

‘महाबली महाबाहु कोसलनरेश श्रीराम को यहाँ लौटा लाकर मैं स्वयं ही मुनिजनसेवित वन में प्रवेश करूँगा॥

नह्यहं पापसंकल्पे पापे पापं त्वया कृतम्।
शक्तो धारयितुं पौरैरश्रुकण्ठैर्निरीक्षितः॥३२॥

‘पापपूर्ण संकल्प करने वाली पापिनि! पुरवासी मनुष्य आँसू बहाते हुए अवरुद्धकण्ठ हो मुझे देखें और मैं तेरे किये हुए इस पाप का बोझ ढोता रहूँ यह मुझसे नहीं हो सकता ॥ ३२ ॥

सा त्वमग्निं प्रविश वा स्वयं वा विश दण्डकान्।
रज्जुं बद्ध्वाथवा कण्ठे नहि तेऽन्यत् परायणम्॥ ३३॥

‘अब तू जलती आग में प्रवेश कर जा, या स्वयं दण्डकारण्य में चली जा अथवा गले में रस्सी बाँधकर प्राण दे दे, इसके सिवा तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है॥३३॥

अहमप्यवनीं प्राप्ते रामे सत्यपराक्रमे।
कृतकृत्यो भविष्यामि विप्रवासितकल्मषः॥ ३४॥

‘सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी जब अयोध्या की भूमि पर पदार्पण करेंगे, तभी मेरा कलङ्क दूर होगा और तभी मैं कृतकृत्य होऊँगा’॥ ३४ ॥

इति नाग इवारण्ये तोमराङ्कशतोदितः।
पपात भुवि संक्रुद्धो निःश्वसन्निव पन्नगः॥ ३५॥

यह कहकर भरत वन में तोमर और अंकुश द्वारा पीडित किये गये हाथी की भाँति मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और क्रोध में भरकर फुफकारते हुए साँप की भाँति लम्बी साँस खींचने लगे॥ ३५ ॥

संरक्तनेत्रः शिथिलाम्बरस्तथा विधूतसर्वाभरणः परंतपः।
बभूव भूमौ पतितो नृपात्मजः शचीपतेः केतुरिवोत्सवक्षये॥ ३६॥

शत्रुओं को तपाने वाले राजकुमार भरत उत्सव समाप्त होने पर नीचे गिराये गये शचीपति इन्द्र के ध्वज की भाँति उस समय पृथ्वी पर पड़े थे, उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे, वस्त्र ढीले पड़ गये थे और सारे आभूषण टूटकर बिखर गये थे॥ ३६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुःसप्ततितमः सर्गः॥ ७४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग पूराहुआ। ७४॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 74 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 74

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: