वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 76 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 76
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षट्सप्ततितमः सर्गः (सर्ग 76)
राजा दशरथ का अन्त्येष्टि संस्कार
तमेवं शोकसंतप्तं भरतं कैकयीसुतम्।
उवाच वदतां श्रेष्ठो वसिष्ठः श्रेष्ठवागृषिः॥१॥
इस प्रकार शोक से संतप्त हुए केकयी कुमार भरत से वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ ने उत्तम वाणी में कहा॥१॥
अलं शोकेन भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
प्राप्तकालं नरपतेः कुरु संयानमुत्तमम्॥२॥
‘महायशस्वी राजकुमार ! तुम्हारा कल्याण हो। यह शोक छोड़ो, क्योंकि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। अब समयोचित कर्तव्य पर ध्यान दो। राजा दशरथ के शव को दाहसंस्कार के लिये ले चलने का उत्तम प्रबन्ध करो’ ॥ २॥
वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा भरतो धरणीं गतः।
प्रेतकृत्यानि सर्वाणि कारयामास धर्मवित्॥३॥
वसिष्ठजी का वचन सुनकर धर्मज्ञ भरत ने पृथ्वी पर पड़कर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और मन्त्रियों द्वारा पिता के सम्पूर्ण प्रेतकर्म का प्रबन्ध करवाया॥३॥
उद्धृत्य तैलसंसेकात् स तु भूमौ निवेशितम्।
आपीतवर्णवदनं प्रसुप्तमिव भूमिपम्॥४॥
राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाह से निकालकर भूमि पर रखा गया। अधिक समय तक तेल में पड़े रहने से उनका मुख कुछ पीला हो गया। उसे देखने से ऐसा जान पड़ता था, मानो भूमिपाल दशरथ सो रहे हों॥४॥
संवेश्य शयने चाग्रये नानारत्नपरिष्कृते।
ततो दशरथं पुत्रो विललाप सदःखितः॥५॥
तदनन्तर मृत राजा दशरथ को धो-पोंछकर नानाप्रकार के रत्नों से विभूषित उत्तम शय्या (विमान) पर सुलाकर उनके पुत्र भरत अत्यन्त दुःखी हो विलाप करने लगे— ॥५॥
किं ते व्यवसितं राजन् प्रोषिते मय्यनागते।
विवास्य रामं धर्मज्ञं लक्ष्मणं च महाबलम्॥६॥
‘राजन् ! मैं परदेश में था और आपके पास पहुँचने भी नहीं पाया था, तब तक ही धर्मज्ञ श्रीराम और महाबली लक्ष्मण को वन में भेजकर आपने इस तरह स्वर्ग में जाने का निश्चय कैसे कर लिया?॥६॥
क्व यास्यसि महाराज हित्वेमं दुःखितं जनम्।
हीनं पुरुषसिंहेन रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥७॥
‘महाराज! अनायास ही महान् कर्म करने वाले पुरुषसिंह श्रीराम से हीन इस दुःखी सेवक को छोड़ आप कहाँ चले जायेंगे? ॥ ७॥
योगक्षेमं तु तेऽव्यग्रं कोऽस्मिन् कल्पयिता पुरे।
त्वयि प्रयाते स्वस्तात रामे च वनमाश्रिते॥८॥
“तात! आप स्वर्ग को चल दिये और श्रीराम ने वन का आश्रय लिया-ऐसी दशा में आपके इस नगर में निश्चिन्तता-पूर्वक प्रजा के योगक्षेम की व्यवस्था कौन करेगा? ॥ ८॥
विधवा पृथिवी राजंस्त्वया हीना न राजते।
हीनचन्द्रेव रजनी नगरी प्रतिभाति माम्॥९॥
‘राजन् ! आपके बिना यह पृथ्वी विधवा के समान हो गयी है, अतः इसकी शोभा नहीं हो रही है। यह पुरी भी मुझे चन्द्रहीन रात्रि के समान श्रीहीन प्रतीत होती है’।
एवं विलपमानं तं भरतं दीनमानसम्।
अब्रवीद् वचनं भूयो वसिष्ठस्तु महामुनिः॥१०॥
इस प्रकार दीनचित्त होकर विलाप करते हुए भरत से महामुनि वसिष्ठ ने फिर कहा- ॥ १० ॥
प्रेतकार्याणि यान्यस्य कर्तव्यानि विशाम्पतेः।
तान्यव्यग्रं महाबाहो क्रियतामविचारितम्॥११॥
‘महाबाहो! इन महाराज के लिये जो कुछ भी प्रेतकर्म करने हैं, उन्हें बिना विचारे शान्तचित्त होकर करो’ ॥ ११॥
तथेति भरतो वाक्यं वसिष्ठस्याभिपूज्य तत्।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यांस्त्वरयामास सर्वशः॥१२॥
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर भरत ने वसिष्ठजी की आज्ञा शिरोधार्य की तथा ऋत्विक्, पुरोहित और आचार्य—सबको इस कार्य के लिये जल्दी करने को कहा—
ये त्वग्नयो नरेन्द्रस्य अग्न्यगाराद् बहिष्कृताः।
ऋत्विग्भिर्याजकैश्चैव ते हूयन्ते यथाविधि॥ १३॥
राजा की अग्निशाला से जो अग्नियाँ बाहर निकाली गयी थीं, उनमें ऋत्विजों और याजकों द्वारा विधिपूर्वक हवन किया गया॥ १३॥
शिबिकायामथारोप्य राजानं गतचेतनम्।
बाष्पकण्ठा विमनसस्तमूहः परिचारकाः॥१४॥
तत्पश्चात् महाराज दशरथ के प्राणहीन शरीर को पालकी में बिठाकर परिचारकगण उन्हें श्मशानभूमि को ले चले। उस समय आँसुओं से उनका गला रुंध गया था और मन-ही-मन उन्हें बड़ा दुःख हो रहा था॥१४॥
हिरण्यं च सुवर्णं च वासांसि विविधानि च।
प्रकिरन्तो जना मार्गे नृपतेरग्रतो ययुः ॥१५॥
मार्ग में राजकीय पुरुष राजा के शव के आगे-आगे सोने, चाँदी तथा भाँति-भाँति के वस्त्र लुटाते चलते थे॥
चन्दनागुरुनिर्यासान् सरलं पद्मकं तथा।
देवदारूणि चाहृत्य क्षेपयन्ति तथापरे॥१६॥
गन्धानुच्चावचांश्चान्यांस्तत्र गत्वाथ भूमिपम्।
तत्र संवेशयामासुश्चितामध्ये तमृत्विजः॥१७॥
श्मशानभूमि में पहुँचकर चिता तैयार की जाने लगी, किसी ने चन्दन लाकर रखा तो किसी ने अगर कोई कोई गुग्गुल तथा कोई सरल, पद्मक और देवदारु की लकड़ियाँ ला-लाकर चिता में डालने लगे। कुछ लोगों ने तरह-तरह के सुगन्धित पदार्थ लाकर छोड़े। इसके बाद ऋत्विजों ने राजा के शव को चितापर रखा।
तदा हुताशनं हुत्वा जेपुस्तस्य तदृत्विजः।
जगुश्च ते यथाशास्त्रं तत्र सामानि सामगाः॥ १८॥
उस समय अग्नि में आहुति देकर उनके ऋत्विजों ने वेदोक्त मन्त्रों का जप किया। सामगान करने वाले विद्वान् शास्त्रीय पद्धति के अनुसार साम-श्रुतियों का गायन करने लगे॥१८॥
शिबिकाभिश्च यानैश्च यथार्ह तस्य योषितः।
नगरान्निर्ययुस्तत्र वृद्धैः परिवृतास्तथा॥१९॥
प्रसव्यं चापि तं चक्रुर्ऋत्विजोऽग्निचितं नृपम्।
स्त्रियश्च शोकसंतप्ताः कौसल्याप्रमुखास्तदा। २०॥
(इसके बाद चिता में आग लगायी गयी) तदनन्तर राजा दशरथ की कौसल्या आदि रानियाँ बूढ़े रक्षकों से घिरी हुई यथायोग्य शिबिकाओं तथा रथों पर आरूढ़ होकर नगर से निकलीं तथा शोक से संतप्त हो श्मशानभूमि में आकर अश्वमेधान्त यज्ञों के अनुष्ठाता राजा दशरथ के शव की परिक्रमा करने लगीं। साथ ही ऋत्विजों ने भी उस शव की परिक्रमा की। १९-२० ॥
क्रौञ्चीनामिव नारीणां निनादस्तत्र शुश्रुवे।
आर्तानां करुणं काले क्रोशन्तीनां सहस्रशः॥ २१॥
उस समय वहाँ करुण क्रन्दन करती हुई सहस्रों शोकात रानियों का आर्तनाद कुररियों के चीत्कार के समान सुनायी देता था॥ २१॥
ततो रुदन्त्यो विवशा विलप्य च पुनः पुनः।
यानेभ्यः सरयूतीरमवतेरुनृपाङ्गनाः॥२२॥
दाहकर्म के पश्चात् विवश होकर रोती हुई वे राजरानियाँ बारंबार विलाप करके सवारियों से ही सरयू के तट पर जाकर उतरीं ।। २२॥
कृत्वोदकं ते भरतेन सार्धं नृपाङ्गना मन्त्रिपुरोहिताश्च।
पुरं प्रविश्याश्रुपरीतनेत्रा भूमौ दशाहं व्यनयन्त दुःखम्॥२३॥
भरत के साथ रानियों, मन्त्रियों और पुरोहितों ने भी राजा के लिये जलाञ्जलि दी, फिर सब-के-सब नेत्रों से आँसू बहाते हुए नगर में आये और दस दिनों तक भूमि पर शयन करते हुए उन्होंने बड़े दुःख से अपना समय व्यतीत किया॥ २३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षट्सप्ततितमः सर्गः॥ ७६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७६॥
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