वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 79 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 79
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनाशीतितमः सर्गः (सर्ग 79)
भरत का अभिषेक-सामग्री की परिक्रमा करके श्रीराम को ही राज्य का अधिकारी बताकर उन्हें लौटा लाने के लिये चलने के निमित्त व्यवस्था करने की सबको आज्ञा देना
ततः प्रभातसमये दिवसेऽथ चतुर्दशे।
समेत्य राजकर्तारो भरतं वाक्यमब्रुवन्॥१॥
तदनन्तर चौदहवें दिन प्रातःकाल समस्त राजकर्मचारी मिलकर भरत से इस प्रकार बोले-॥ १॥
गतो दशरथः स्वर्ग यो नो गुरुतरो गुरुः।
रामं प्रव्राज्य वै ज्येष्ठं लक्ष्मणं च महाबलम्॥२॥
त्वमद्य भव नो राजा राजपुत्रो महायशः।
संगत्या नापराध्नोति राज्यमेतदनायकम्॥३॥
‘महायशस्वी राजकुमार ! जो हमारे सर्वश्रेष्ठ गुरु थे, वे महाराज दशरथ तो अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण को वन में भेजकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गये, अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है; इसलिये अब आप ही हमारे राजा हों। आपके बड़े भाई को स्वयं महाराज ने वनवास की आज्ञा दी और आपको यह राज्य प्रदान किया ! अतः आपका राजा होना न्यायसङ्गत है। इस सङ्गति के कारण ही आप राज्य को अपने अधिकार में लेकर किसी के प्रति कोई अपराध नहीं कर रहे हैं ॥ २-३॥
आभिषेचनिकं सर्वमिदमादाय राघव।
प्रतीक्षते त्वां स्वजनः श्रेणयश्च नृपात्मज॥४॥
‘राजकुमार रघुनन्दन! ये मन्त्री आदि स्वजन, पुरवासी तथा सेठलोग अभिषेक की सब सामग्री लेकर आपकी राह देखते हैं॥४॥
राज्यं गृहाण भरत पितृपैतामहं ध्रुवम्।
अभिषेचय चात्मानं पाहि चास्मान् नरर्षभ॥५॥
‘भरतजी! आप अपने माता-पितामहों के इस राज्य को अवश्य ग्रहण कीजिये। नरश्रेष्ठ! राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये और हमलोगों की रक्षा कीजिये।
आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा सर्वं प्रदक्षिणम्।
भरतस्तं जनं सर्वं प्रत्युवाच धृतव्रतः॥६॥
यह सुनकर उत्तम व्रत को धारण करने वाले भरत ने अभिषेक के लिये रखी हुई कलश आदि सब सामग्री की प्रदक्षिणा की और वहाँ उपस्थित हुए सब लोगों को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥६॥
ज्येष्ठस्य राजता नित्यमुचिता हि कुलस्य नः।
नैवं भवन्तो मां वक्तुमर्हन्ति कुशला जनाः॥७॥
‘सज्जनो! आपलोग बुद्धिमान् हैं, आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। हमारे कुल में सदा ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता आया है और यही उचित भी है॥ ७॥
रामः पूर्वो हि नो भ्राता भविष्यति महीपतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि वर्षाणि नव पञ्च च॥ ८॥
‘श्रीरामचन्द्रजी हमलोगों के बड़े भाई हैं, अतः वे ही राजा होंगे। उनके बदले मैं ही चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा॥८॥
युज्यतां महती सेना चतुरङ्गमहाबला।
आनयिष्याम्यहं ज्येष्ठं भ्रातरं राघवं वनात्॥९॥
‘आपलोग विशाल चतुरङ्गिणी सेना, जो सब प्रकार से सबल हो, तैयार कीजिये। मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी को वन से लौटा लाऊँगा॥९॥
आभिषेचनिकं चैव सर्वमेतदुपस्कृतम्।
पुरस्कृत्य गमिष्यामि रामहेतोर्वनं प्रति॥१०॥
तत्रैव तं नरव्याघ्रमभिषिच्य पुरस्कृतम्।
आनयिष्यामि वै रामं हव्यवाहमिवाध्वरात्॥ ११॥
‘अभिषेक के लिये संचित हुई इस सारी सामग्री को आगे करके मैं श्रीराम से मिलने के लिये वन में चलूँगा और उन नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी का वहीं अभिषेक करके यज्ञ से लायी जाने वाली अग्नि के समान उन्हें आगे करके अयोध्या में ले आऊँगा॥ १०-११॥
न सकामां करिष्यामि स्वामिमां मातृगन्धिनीम्।
वने वत्स्याम्यहं दुर्गे रामो राजा भविष्यति॥१२॥
‘परंतु जिसमें लेशमात्र मातृभाव शेष है, अपनी माता कहलाने वाली इस कैकेयी को मैं कदापि सफल मनोरथ नहीं होने दूंगा। श्रीराम यहाँ के राजा होंगे और मैं दुर्गम वन में निवास करूँगा॥ १२ ॥
क्रियतां शिल्पिभिः पन्थाः समानि विषमाणि च।
रक्षिणश्चानुसंयान्तु पथि दुर्गविचारकाः॥१३॥
‘कारीगर आगे जाकर रास्ता बनायें, ऊँची-नीची भूमि को बराबर करें तथा मार्ग में दुर्गम स्थानों की जानकारी रखने वाले रक्षक भी साथ-साथ चलें’। १३॥
एवं सम्भाषमाणं तं रामहेतोर्नृपात्मजम्।
प्रत्युवाच जनः सर्वः श्रीमद् वाक्यमनुत्तमम्॥ १४॥
श्रीरामचन्द्रजी के लिये ऐसी बातें कहते हुए राजकुमार भरत से वहाँ आये हुए सब लोगों ने इस प्रकार सुन्दर एवं परम उत्तम बात कही- ॥१४॥
एवं ते भाषमाणस्य पद्मा श्रीरुपतिष्ठताम्।
यस्त्वं ज्येष्ठे नृपसुते पृथिवीं दातुमिच्छसि॥१५॥
‘भरतजी! ऐसे उत्तम वचन कहने वाले आपके पास कमलवन में निवास करने वाली लक्ष्मी अवस्थित हों क्योंकि आप राजा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको स्वयं ही इस पृथिवीका राज्य लौटा देना चाहते हैं’॥ १५॥
अनुत्तमं तद्वचनं नृपात्मजः प्रभाषितं संश्रवणे निशम्य च।
प्रहर्षजास्तं प्रति बाष्पबिन्दवो निपेतुरार्यानननेत्रसम्भवाः॥१६॥
उन लोगों का कहा हुआ वह परम उत्तम आशीर्वचन जब कान में पड़ा, तब उसे सुनकर राजकुमार भरत को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सबकी ओर देखकर भरत के मुखमण्डल में सुशोभित होने वाले नेत्रों से हर्षजनित आँसुओं की बूंदें गिरने लगीं। १६॥
ऊचुस्ते वचनमिदं निशम्य हृष्टाः सामात्याः सपरिषदो वियातशोकाः।
पन्थानं नरवरभक्तिमान् जनश्च व्यादिष्टस्तव वचनाच्च शिल्पिवर्गः॥१७॥
भरत के मुख से श्रीराम को ले आने की बात सुनकर उस सभा के सभी सदस्यों और मन्त्रियों सहित समस्त राजकर्मचारी हर्ष से खिल उठे। उनका सारा शोक दूर हो गया और वे भरत से बोले—’नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञा के अनुसार राजपरिवार के प्रति भक्तिभाव रखने वाले कारीगरों और रक्षकों को मार्ग ठीक करने के लिये भेज दिया गया है’॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनाशीतितमः सर्गः॥ ७९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उन्नासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७९॥