वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 80 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 80
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अशीतितमः सर्गः (सर्ग 80)
अयोध्या से गङ्गा तट तक सुरम्य शिविर और कूप आदि से युक्त सुखद राजमार्ग का निर्माण
अथ भूमिप्रदेशज्ञाः सूत्रकर्मविशारदाः।
स्वकर्माभिरताः शूराः खनका यन्त्रकास्तथा॥ १॥
कान्तिकाः स्थपतयः पुरुषा यन्त्रकोविदाः।
तथा वर्धकयश्चैव मार्गिणो वृक्षतक्षकाः॥२॥
सूपकाराः सुधाकारा वंशचर्मकृतस्तथा।
समर्था ये च द्रष्टारः पुरतश्च प्रतस्थिरे॥३॥
तत्पश्चात् ऊँची-नीची एवं सजल-निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, सूत्रकर्म (छावनी आदि बनाने के लिये सूत धारण करने) में कुशल, मार्ग की रक्षा आदि अपने कर्म में सदा सावधान रहने वाले शूर-वीर, भूमि खोदने या सुरङ्ग आदि बनाने वाले, नदी आदि पार करने के लिये तुरंत साधन उपस्थित करनेवाले अथवा जल के प्रवाह को रोकने वाले वेतन भोगी कारीगर, थवई, रथ और यन्त्र आदि बनाने वाले पुरुष, बढ़ई, मार्गरक्षक, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूनेसे पोतने आदि का काम करने वाले, बाँस की चटाई और सूप आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजामा आदि बनाने वाले तथा रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले सामर्थ्यशाली पुरुषों ने पहले प्रस्थान किया॥१-३॥
स तु हर्षात् तमुद्देशं जनौघो विपुलः प्रयान्।
अशोभत महावेगः सागरस्येव पर्वणि॥४॥
उस समय मार्ग ठीक करने के लिये एक विशाल जनसमुदाय बड़े हर्ष के साथ वनप्रदेश की ओर अग्रसर हुआ, जो पूर्णिमा के दिन उमड़े हुए समुद्र के महान् वेग की भाँति शोभा पा रहा था॥ ४ ॥
ते स्ववारं समास्थाय वर्मकर्मणि कोविदाः।
करणैर्विविधोपेतैः पुरस्तात् सम्प्रतस्थिरे॥५॥
वे मार्ग-निर्माण में निपुण कारीगर अपना-अपना दल साथ लेकर अनेक प्रकार के औजारों के साथ आगे चल दिये॥५॥
लता वल्लीश्च गुल्मांश्च स्थाणूनश्मन एव च।
जनास्ते चक्रिरे मार्ग छिन्दन्तो विविधान् द्रुमान्॥
वे लोग लताएँ, बेलें, झाड़ियाँ, ठूठे वृक्ष तथा पत्थरों को हटाते और नाना प्रकार के वृक्षों को काटते हुए मार्ग तैयार करने लगे॥६॥
अवृक्षेषु च देशेषु केचिद् वृक्षानरोपयन्।
केचित् कुठारैष्टकैश्च दात्रैश्छिन्दन् क्वचित् क्वचित्॥७॥
जिन स्थानों में वृक्ष नहीं थे, वहाँ कुछ लोगों ने वृक्ष भी लगाये। कुछ कारीगरों ने कुल्हाड़ों, टंकों (पत्थर तोड़ने के औजारों) तथा हँसियों से कहीं-कहीं वृक्षों और घासों को काट-काटकर रास्ता साफ किया।॥ ७॥
अपरे वीरणस्तम्बान् बलिनो बलवत्तराः।
विधमन्ति स्म दुर्गाणि स्थलानि च ततस्ततः॥ ८॥
अपरेऽपूरयन् कूपान् पांसुभिः श्वभ्रमायतम्।
निम्नभागांस्तथैवाशु समांश्चक्रुः समन्ततः॥९॥
अन्य प्रबल मनुष्यों ने जिनकी जड़ें नीचेतक जमी हुई थीं, उन कुश, कास आदि के झुरमुटों को हाथों से ही उखाड़ फेंका। वे जहाँ-तहाँ ऊँचे-नीचे दुर्गम स्थानों को खोद-खोदकर बराबर कर देते थे। दूसरे लोग कुओं और लंबे-चौड़े गड्ढों को धूलों से ही पाट देते थे। जो स्थान नीचे होते, वहाँ सब ओर से मिट्टी डालकर वे उन्हें शीघ्र ही बराबर कर देते थे। ८-९॥
बबन्धर्बन्धनीयांश्च क्षोद्यान् संचुक्षुदुस्तथा।
बिभिदुर्भेदनीयांश्च तांस्तान् देशान् नरास्तदा॥ १०॥
उन्होंने जहाँ पुल बाँधने के योग्य पानी देखा, वहाँ पुल बाँध दिये। जहाँ कँकरीली जमीन दिखायी दी, वहाँ उसे ठोक-पीटकर मुलायम कर दिया और जहाँ पानी बहने के लिये मार्ग बनाना आवश्यक समझा,वहाँ बाँध काट दिया। इस प्रकार विभिन्न देशों में वहाँ की आवश्यकता के अनुसार कार्य किया॥१०॥
अचिरेण तु कालेन परिवाहान् बहूदकान्।
चक्रुर्बहुविधाकारान् सागरप्रतिमान् बहून्॥११॥
छोटे-छोटे सोतो को, जिनका पानी सब ओर बह जाया करता था, चारों ओर से बाँधकर शीघ्र ही अधिक जलवाला बना दिया। इस तरह थोड़े ही समय में उन्होंने भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के बहुत-से सरोवर तैयार कर दिये, जो अगाध जल से भरे होने के कारण समुद्र के समान जान पड़ते थे॥११॥
निर्जलेषु च देशेषु खानयामासुरुत्तमान्।
उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान्॥ १२॥
निर्जल स्थानों में नाना प्रकार के अच्छे-अच्छे कुएँ और बावड़ी आदि बनवा दिये, जो आस-पास बनी हुई वेदिकाओं से अलंकृत थे॥ १२ ॥
ससुधाकुट्टिमतलः प्रपुष्पितमहीरुहः।
मत्तो ष्टद्विजगणः पताकाभिरलंकृतः॥१३॥
चन्दनोदकसंसिक्तो नानाकुसुमभूषितः।
बह्वशोभत सेनायाः पन्थाः सुरपथोपमः॥१४॥
इस प्रकार सेना का वह मार्ग देवताओं के मार्ग की भाँति अधिक शोभा पाने लगा। उसकी भूमिपर चूनासुर्थी और कंकरीट बिछाकर उसे कूट-पीटकर पक्का कर दिया गया था। उसके किनारे-किनारे फूलों से सुशोभित वृक्ष लगाये गये थे। वहाँ के वृक्षों पर मतवाले पक्षी चहक रहे थे। सारे मार्ग को पताकाओं से सजा दिया गया था, उसपर चन्दनमिश्रित जल का छिड़काव किया गया था तथा अनेक प्रकार के फूलों से वह सड़क सजायी गयी थी॥
आज्ञाप्याथ यथाज्ञप्ति युक्तास्तेऽधिकृता नराः।
रमणीयेषु देशेषु बहुस्वादुफलेषु च॥१५॥
यो निवेशस्त्वभिप्रेतो भरतस्य महात्मनः।
भूयस्तं शोभयामासुभूषाभिभूषणोपमम्॥१६॥
मार्ग बन जाने पर जहाँ-तहाँ छावनी आदि बनाने के लिये जिन्हें अधिकार दिया गया था, कार्य में दत्त-चित्त रहने वाले उन लोगों ने भरत की आज्ञा के अनुसार सेवकों को काम करने का आदेश देकर जहाँ स्वादिष्ट फलों की अधिकता थी उन सुन्दर प्रदेशों में छावनियाँ बनवायीं और जो भरत को अभीष्ट था, मार्ग के भूषणरूप उस शिविर को नाना प्रकार के अलंकारों से और भी सजा दिया॥ १५-१६॥
नक्षत्रेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु च तद्विदः।
निवेशान् स्थापयामासुर्भरतस्य महात्मनः॥१७॥
वास्तु-कर्म के ज्ञाता विद्वानों ने उत्तम नक्षत्रों और मुहूर्तों में महात्मा भरत के ठहरने के लिये जो-जो स्थान बने थे, उनकी प्रतिष्ठा करवायी॥ १७ ॥
बहुपांसुचयाश्चापि परिखाः परिवारिताः।
तत्रेन्द्रनीलप्रतिमाः प्रतोलीवरशोभिताः॥१८॥
प्रासादमालासंयुक्ताः सौधप्राकारसंवृताः।
पताकाशोभिताः सर्वे सुनिर्मितमहापथाः॥१९॥
विसर्पद्भिरिवाकाशे विटङ्काग्रविमानकैः।
समच्छितैर्निवेशास्ते बभः शक्रपुरोपमाः॥२०॥
मार्ग में बने हए वे निवेश (विश्राम-स्थान) इन्द्रपुरी के समान शोभा पाते थे। उनके चारों ओर खाइयाँ खोदी गयी थीं, धूल-मिट्टी के ऊँचे ढेर लगाये गये थे। खेमों के भीतर इन्द्रनीलमणि की बनी हुई प्रतिमाएँ सजायी गयी थीं। गलियों और सड़कों से उनकी विशेष शोभा होती थी। राजकीय गृहों और देवस्थानों से युक्त वे शिविर चूने पुते हुए प्राकारों (चहारदीवारियों)से घिरे थे। सभी विश्रामस्थान पताकाओं से सुशोभित थे। सर्वत्र बड़ी-बड़ी सड़कों का सुन्दर ढंग से निर्माण किया गया था। विटङ्कों (कबूतरों के रहने के स्थानों-कावकों) और ऊँचे-ऊँचे श्रेष्ठ विमानों के कारण उन सभी शिविरों की बड़ी शोभा हो रही थी॥ १८-२०॥
जाह्नवीं तु समासाद्य विविधद्रुमकाननाम्।
शीतलामलपानीयां महामीनसमाकुलाम्॥२१॥
सचन्द्रतारागणमण्डितं यथा नभः क्षपायाममलं विराजते।
नरेन्द्रमार्गः स तदा व्यराजत क्रमेण रम्यः शुभशिल्पिनिर्मितः॥ २२॥
नाना प्रकार के वृक्षों और वनों से सुशोभित, शीतल निर्मल जल से भरी हुई और बड़े-बड़े मत्स्यों से व्याप्त गङ्गा के किनारे तक बना हुआ वह रमणीय राजमार्ग उस समय बड़ी शोभा पा रहा था। अच्छे कारीगरों ने उसका निर्माण किया था। रात्रि के समय वह चन्द्रमा और तारागणों से मण्डित निर्मल आकाश के समान सुशोभित होता था॥२१-२२।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽशीतितमः सर्गः॥८०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अस्सीवाँ सर्ग पूरा हुआ।८०॥
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