वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 81 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 81
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकाशीतितमः सर्गः (सर्ग 81)
प्रातःकाल के मङ्गलवाद्य-घोष को सुनकर भरत का दुःखी होना और उसे बंद कराकर विलाप करना, वसिष्ठजी का सभा में आकर मन्त्री आदि को बुलाने के लिये दूत भेजना
ततो नान्दीमुखीं रात्रिं भरतं सूतमागधाः।
तुष्टुवुः सविशेषज्ञाः स्तवैर्मङ्गलसंस्तवैः॥१॥
इधर अयोध्या में उस अभ्युदयसूचक रात्रि का थोड़ा-सा ही भाग अवशिष्ट देख स्तुति-कलाके विशेषज्ञ सूत और मागधों ने मङ्गलमयी स्तुतियों द्वारा भरत का स्तवन आरम्भ किया॥१॥
सुवर्णकोणाभिहतः प्राणदद्यामदुन्दुभिः।
दध्मुः शङ्खांश्च शतशो वाद्यांश्चोच्चावचस्वरान्॥ २॥
प्रहरकी समाप्ति को सूचित करने वाली दुन्दुभि सोने के डंडे से आहत होकर बज उठी। बाजे बजाने वालों ने शङ्ख तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकार के सैकड़ों बाजे बजाये॥२॥
स तूर्यघोषः सुमहान् दिवमापूरयन्निव।
भरतं शोकसंतप्तं भूयः शोकैररन्धयत्॥३॥
वाद्यों का वह महान् तुमुल घोष समस्त आकाश को व्याप्त करता हुआ-सा गूंज उठा और शोकसंतप्त भरत को पुनः शोकाग्नि की आँच से राँध ने लगा॥३॥
ततः प्रबुद्धो भरतस्तं घोषं संनिवर्त्य च।
नाहं राजेति चोक्त्वा तं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्॥४॥
वाद्यों की उस ध्वनि से भरत की नींद खुल गयी; वे जाग उठे और ‘मैं राजा नहीं हूँ’ ऐसा कहकर उन्होंने उन बाजों का बजना बंद करा दिया। तत्पश्चात् वे शत्रुघ्न से बोले
पश्य शत्रुघ्न कैकेय्या लोकस्यापकृतं महत्।
विसृज्य मयि दुःखानि राजा दशरथो गतः॥५॥
‘शत्रुघ्न! देखो तो सही, कैकेयी ने जगत् का कितना महान् अपकार किया है। महाराज दशरथ मुझ पर बहुत-से दुःखों का बोझ डालकर स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
तस्यैषा धर्मराजस्य धर्ममूला महात्मनः।
परिभ्रमति राजश्रीनौरिवाकर्णिका जले॥६॥
‘आज उन धर्मराज महामना नरेश की यह धर्ममूला राजलक्ष्मी जल में पड़ी हुई बिना नाविक की नौका के समान इधर-उधर डगमगा रही है॥६॥
यो हि नः सुमहान् नाथः सोऽपि प्रव्राजितो वने।
अनया धर्ममुत्सृज्य मात्रा मे राघवः स्वयम्॥७॥
‘जो हमलोगों के सबसे बड़े स्वामी और संरक्षक हैं, उन श्रीरघुनाथजी को भी स्वयं मेरी इस माता ने धर्म को तिलाञ्जलि देकर वन में भेज दिया’ ॥ ७॥
इत्येवं भरतं वीक्ष्य विलपन्तमचेतनम्।
कृपणा रुरुदुः सर्वाः सुस्वरं योषितस्तदा ॥८॥
उस समय भरत को इस प्रकार अचेत हो-होकर विलाप करते देख रनिवास की सारी स्त्रियाँ दीनभाव से फूट-फूटकर रोने लगीं॥ ८॥
तथा तस्मिन् विलपति वसिष्ठो राजधर्मवित्।
सभामिक्ष्वाकुनाथस्य प्रविवेश महायशाः॥९॥
जब भरत इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय राजधर्म के ज्ञाता महायशस्वी महर्षि वसिष्ठ ने इक्ष्वाकुनाथ राजा दशरथ के सभाभवन में प्रवेश किया॥९॥
शातकुम्भमयीं रम्यां मणिहेमसमाकुलाम्।
सुधर्मामिव धर्मात्मा सगणः प्रत्यपद्यत॥१०॥
स काञ्चनमयं पीठं स्वस्त्यास्तरणसंवृतम्।
अध्यास्त सर्ववेदज्ञो दूताननुशशास च॥११॥
वह सभाभवन अधिकांश सुवर्ण का बना हुआ था। उसमें सोने के खम्भे लगे थे। वह रमणीय सभा देवताओं की सुधर्मा सभा के समान शोभा पाती थी। सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता धर्मात्मा वसिष्ठ ने अपने शिष्यगण के साथ उस सभा में पदार्पण किया और सुवर्णमय पीठ पर जो स्वस्तिका कार बिछौने से ढका हुआ था, वे विराजमान हुए। आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने दूतों को आज्ञा दी— ॥ १०-११।।
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् योधानमात्यान् गणवल्लभान्।
क्षिप्रमानयताव्यग्राः कृत्यमात्ययिकं हि नः॥ १२॥
सराजपुत्रं शत्रुघ्नं भरतं च यशस्विनम्।
युधाजितं सुमन्त्रं च ये च तत्र हिता जनाः॥ १३॥
‘तुमलोग शान्तभाव से जाकर ब्राह्मणों, क्षत्रियों, योद्धाओं, अमात्यों और सेनापतियों को शीघ्र बुला लाओ। अन्य राजकुमारों के साथ यशस्वी भरत और शत्रुघ्न को, मन्त्री युधाजित् और सुमन्त्र को तथा और भी जो हितैषी पुरुष वहाँ हों उन सबको शीघ्र बुलाओ। हमें उनसे बहुत ही आवश्यक कार्य है’। १२-१३॥
ततो हलहलाशब्दो महान् समुदपद्यत।
रथैरश्वैर्गजैश्चापि जनानामुपगच्छताम्॥१४॥
तदनन्तर घोड़े, हाथी और रथों से आने वाले लोगों का महान् कोलाहल आरम्भ हुआ॥१४॥
ततो भरतमायान्तं शतक्रतुमिवामराः।
प्रत्यनन्दन् प्रकृतयो यथा दशरथं तथा॥१५॥
तत्पश्चात् जैसे देवता इन्द्र का अभिनन्दन करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रकृतियों (मन्त्री-प्रजा आदि) ने आते हुए भरत का राजा दशरथ की ही भाँति अभिनन्दन किया॥
ह्रद इव तिमिनागसंवृतः स्तिमितजलो मणिशङ्खशर्करः।
दशरथसुतशोभिता सभा सदशरथेव बभूव सा पुरा॥१६॥
तिमि नामक महान् मत्स्य और जलहस्ती से युक्त, स्थिर जलवाले तथा मुक्ता आदि मणियों से युक्त शङ्खऔर बालुका वाले समुद्र के जलाशय की भाँति वह सभा दशरथ पुत्र भरत से सुशोभित होकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे पूर्वकाल में राजा दशरथ की उपस्थिति से शोभा पाती थी* ॥ १६॥
* यहाँ सभा उपमेय और ह्रद (जलाशय) उपमान है। जलाशय के जो विशेषण दिये गये हैं, वे सभा में इस प्रकार संगत होते हैं—सभा में तिमि और जलहस्ती के चित्र लगे हैं। स्थिर जल की जगह उसमें स्थिर तेज है, खम्भों में मणियाँ जड़ी गयी हैं, शङ्ख के चित्र हैं तथा फर्श में सोने का लेप लगा है, जो स्वर्णबालु का-सा प्रतीत होता है।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकाशीतितमः सर्गः॥ ८१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्यासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८१॥
सारा अर्थ गलत लिखा है, सुधारें।।🙏।।
kripaya sahi arth bhejne ki kripa karen uski tulna ki jayegi. dosh kahan hai use batane ka kasht karen