वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 82 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 82
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्व्यशीतितमः सर्गः (सर्ग 82)
वसिष्ठजी का भरत को राज्य पर अभिषिक्त होने के लिये आदेश देना,भरत का उसे अनुचित बताकर श्रीराम को लाने के लिये वन में चलने की तैयारी का आदेश देना
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तामार्यगणसम्पूर्णां भरतः प्रग्रहां सभाम्।
ददर्श बुद्धिसम्पन्नः पूर्णचन्द्रां निशामिव॥१॥
बुद्धिमान् भरत ने उत्तम ग्रह-नक्षत्रों से सुशोभित और पूर्ण चन्द्रमण्डल से प्रकाशित रात्रि की भाँति उस सभा को देखा। वह श्रेष्ठ पुरुषों की मण्डली से भरी-पूरी तथा वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ मुनियों की उपस्थिति से शोभायमान थी॥१॥
आसनानि यथान्यायमार्याणां विशतां तदा।
वस्त्राङ्गरागप्रभया द्योतिता सा सभोत्तमा॥२॥
उस समय यथायोग्य आसनों पर बैठे हुए आर्य पुरुषों के वस्त्रों तथा अङ्गरागों की प्रभा से वह उत्तम सभा अधिक दीप्तिमती हो उठी थी॥२॥
सा विद्वज्जनसम्पूर्णा सभा सुरुचिरा तथा।
अदृश्यत घनापाये पूर्णचन्द्रेव शर्वरी॥३॥
जैसे वर्षाकाल व्यतीत होने पर शरद्-ऋतु की पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्रमण्डल से अलंकृत रजनी बड़ी मनोहर दिखायी देती है, उसी प्रकार विद्वानों के समुदाय से भरी हुई वह सभा बड़ी सुन्दर दिखायी देती थी॥३॥
राज्ञस्तु प्रकृतीः सर्वाः स सम्प्रेक्ष्य च धर्मवित् ।
इदं पुरोहितो वाक्यं भरतं मृदु चाब्रवीत्॥४॥
उस समय धर्म के ज्ञाता पुरोहित वसिष्ठजी ने राजा की सम्पूर्ण प्रकृतियों को उपस्थित देख भरत से यह मधुर वचन कहा— ॥४॥
तात राजा दशरथः स्वर्गतो धर्ममाचरन्।
धनधान्यवतीं स्फीतां प्रदाय पृथिवीं तव॥५॥
‘तात! राजा दशरथ यह धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धिशालिनी पृथिवी तुम्हें देकर स्वयं धर्म का आचरण करते हुए स्वर्गवासी हुए हैं ॥ ५ ॥
रामस्तथा सत्यवृत्तिः सतां धर्ममनुस्मरन्।
नाजहात् पितुरादेशं शशी ज्योत्स्नामिवोदितः॥ ६॥
‘सत्यपूर्ण बर्ताव करने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने सत्पुरुषों के धर्म का विचार करके पिताकी आज्ञा का उसी प्रकार उल्लङ्घन नहीं किया, जैसे उदित चन्द्रमा अपनी चाँदनी को नहीं छोड़ता है॥६॥
पित्रा भ्रात्रा च ते दत्तं राज्यं निहतकण्टकम्।
तद् भुक्ष्व मुदितामात्यः क्षिप्रमेवाभिषेचय॥ ७॥
उदीच्याश्च प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च केवलाः।
कोट्यापरान्ताः सामुद्रा रत्नान्युपहरन्तु ते॥८॥
‘इस प्रकार पिता और ज्येष्ठ भ्राता—दोनों ने ही तुम्हें यह अकण्टक राज्य प्रदान किया है। अतः तुम मन्त्रियों को प्रसन्न रखते हुए इसका पालन करो और शीघ्र ही अपना अभिषेक करा लो। जिससे उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व और अपरान्त देश के निवासी राजा तथा समुद्र में जहाजों द्वारा व्यापार करने वाले व्यवसायी तुम्हें असंख्य रत्न प्रदान करें। ७-८॥
तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं शोकेनाभिपरिप्लुतः।
जगाम मनसा रामं धर्मज्ञो धर्मकांक्षया॥९॥
यह बात सुनकर धर्मज्ञ भरत शोक में डूब गये और धर्मपालन की इच्छा से उन्होंने मन-ही-मन श्रीराम की शरण ली॥ ९॥
सबाष्पकलया वाचा कलहंसस्वरो युवा।
विललाप सभामध्ये जगहें च पुरोहितम्॥१०॥
नवयुवक भरत उस भरी सभा में आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी द्वारा कलहंस के समान मधुर स्वर से विलाप करने और पुरोहितजी को उपालम्भ देने लगे – ॥१०॥
चरितब्रह्मचर्यस्य विद्यास्नातस्य धीमतः।
धर्मे प्रयतमानस्य को राज्यं मद्विधो हरेत्॥११॥
‘गुरुदेव! जिन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात हुए तथा जो सदा ही धर्म के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, उन बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजी के राज्य का मेरे-जैसा कौन मनुष्य अपहरण कर सकता है ? ॥ ११॥
कथं दशरथाज्जातो भवेद् राज्यापहारकः।
राज्यं चाहं च रामस्य धर्मं वक्तुमिहार्हसि ॥१२॥
‘महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र बड़े भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? यह राज्य और मैं दोनों ही श्रीराम के हैं; यह समझकर आपको इस सभा में धर्मसंगत बात कहनी चाहिये (अन्याययुक्त नहीं)॥
ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च धर्मात्मा दिलीपनहुषोपमः।
लब्धुमर्हति काकुत्स्थो राज्यं दशरथो यथा॥ १३॥
‘धर्मात्मा श्रीराम मुझसे अवस्था में बड़े और गुणों में भी श्रेष्ठ हैं। वे दिलीप और नहुष के समान तेजस्वी हैं; अतः महाराज दशरथ की भाँति वे ही इस राज्य को पाने के अधिकारी हैं॥ १३॥
अनार्यजुष्टमस्वयं कुर्यां पापमहं यदि।
इक्ष्वाकूणामहं लोके भवेयं कुलपांसनः॥१४॥
‘पाप का आचरण तो नीच पुरुष करते हैं। वह मनुष्य को निश्चय ही नरक में डालने वाला है। यदि श्रीरामचन्द्रजी का राज्य लेकर मैं भी पापाचरण करूँ तो संसार में इक्ष्वाकुकुल का कलंक समझा जाऊँगा॥ १४॥
यद्धि मात्रा कृतं पापं नाहं तदपि रोचये।
इहस्थो वनदुर्गस्थं नमस्यामि कृताञ्जलिः॥१५॥
‘मेरी माता ने जो पाप किया है, उसे मैं कभी पसंद नहीं करता; इसीलिये यहाँ रहकर भी मैं दुर्गम वन में निवास करने वाले श्रीरामचन्द्रजी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥ १५ ॥
राममेवानुगच्छामि स राजा द्विपदां वरः।
त्रयाणामपि लोकानां राघवो राज्यमर्हति॥१६॥
‘मैं श्रीराम का ही अनुसरण करूँगा। मनुष्यों में श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजी ही इस राज्य के राजा हैं। वे तीनों ही लोकों के राजा होने योग्य हैं ॥ १६॥
तद्वाक्यं धर्मसंयुक्तं श्रुत्वा सर्वे सभासदः।
हर्षान्मुमुचुरश्रूणि रामे निहितचेतसः॥ १७॥
भरत का वह धर्मयुक्त वचन सुनकर सभी सभासद् श्रीराम में चित्त लगाकर हर्ष के आँसू बहाने लगे। १७॥
यदि त्वार्यं न शक्ष्यामि विनिवर्तयितुं वनात्।
वने तत्रैव वत्स्यामि यथार्यो लक्ष्मणस्तथा॥१८॥
भरत ने फिर कहा—’यदि मैं आर्य श्रीराम को वन से न लौटा सकूँगा तो स्वयं भी नरश्रेष्ठ लक्ष्मण की भाँति वहीं निवास करूँगा॥ १८॥
सर्वोपायं तु वर्तिष्ये विनिवर्तयितुं बलात्।
समक्षमार्यमिश्राणां साधूनां गुणवर्तिनाम्॥१९॥
‘मैं आप सभी सद्गुणयुक्त बर्ताव करने वाले पूजनीय श्रेष्ठ सभासदों के समक्ष श्रीरामचन्द्रजी को बलपूर्वक लौटा लाने के लिये सारे उपायों से चेष्टा करूँगा॥ १९॥
विष्टिकान्तिकाः सर्वे मार्गशोधकदक्षकाः।
प्रस्थापिता मया पूर्वं यात्रा च मम रोचते॥२०॥
‘मैंने मार्गशोधन में कुशल सभी अवैतनिक तथा वेतनभोगी कार्यकर्ताओं को पहले ही यहाँ से भेज दिया है। अतः मुझे श्रीरामचन्द्रजी के पास चलना ही अच्छा जान पड़ता है’ ॥ २०॥
एवमुक्त्वा तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः।
समीपस्थमुवाचेदं सुमन्त्रं मन्त्रकोविदम्॥२१॥
सभासदों से ऐसा कहकर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा भरत पास बैठे हुए मन्त्रवेत्ता सुमन्त्र से इस प्रकार बोले-॥
तूर्णमुत्थाय गच्छ त्वं सुमन्त्र मम शासनात्।
यात्रामाज्ञापय क्षिप्रं बलं चैव समानय॥२२॥
‘सुमन्त्रजी! आप जल्दी उठकर जाइये और मेरी आज्ञा से सबको वन में चलने का आदेश सूचित कर दीजिये और सेना को भी शीघ्र ही बुला भेजिये’। २२॥
एवमुक्तः सुमन्त्रस्तु भरतेन महात्मना।
प्रहृष्टः सोऽदिशत् सर्वं यथासंदिष्टमिष्टवत्॥२३॥
महात्मा भरत के ऐसा कहने पर सुमन्त्र ने बड़े हर्ष के साथ सबको उनके कथनानुसार वह प्रिय संदेश सुना दिया॥ २३॥
ताः प्रहृष्टाः प्रकृतयो बलाध्यक्षा बलस्य च।
श्रुत्वा यात्रां समाज्ञप्तां राघवस्य निवर्तने॥२४॥
‘श्रीरामचन्द्रजी को लौटा लाने के लिये भरत जायँगे और उनके साथ जाने के लिये सेना को भी आदेश प्राप्त हुआ है’ यह समाचार सुनकर वे सभी प्रजाजन तथा सेनापतिगण बहुत प्रसन्न हुए॥२४॥
ततो योधाङ्गनाः सर्वा भर्तृन् सर्वान् गृहे गृहे।
यात्रागमनमाज्ञाय त्वरयन्ति स्म हर्षिताः॥२५॥
तदनन्तर उस यात्रा का समाचार पाकर सैनिकों की सभी स्त्रियाँ घर-घर में हर्ष से खिल उठीं और अपने पतियों को जल्दी तैयार होने के लिये प्रेरित करने लगीं।
ते हयैर्गोरथैः शीघ्रं स्यन्दनैश्च मनोजवैः।
सह योषिद्बलाध्यक्षा बलं सर्वमचोदयन्॥२६॥
सेनापतियों ने घोड़ों, बैलगाड़ियों तथा मन के समान वेगशाली रथों सहित सम्पूर्ण सेना को स्त्रियों सहित यात्रा के लिये शीघ्र तैयार होने की आज्ञा दी॥२६॥
सज्जं तु तद् बलं दृष्ट्वा भरतो गुरुसंनिधौ।
रथं मे त्वरयस्वेति सुमन्त्रं पार्श्वतोऽब्रवीत्॥२७॥
सेना को कूँच के लिये उद्यत देख भरत ने गुरु के समीप ही बगल में खड़े हुए सुमन्त्र से कहा—’आप मेरे रथ को शीघ्र तैयार करके लाइये’ ॥ २७॥
भरतस्य तु तस्याज्ञां परिगृह्य प्रहर्षितः।
रथं गृहीत्वोपययौ युक्तं परमवाजिभिः ॥ २८॥
भरत की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके सुमन्त्र बड़े हर्ष के साथ गये और उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ लेकर लौट आये॥२८॥
स राघवः सत्यधृतिः प्रतापवान् ब्रुवन् सुयुक्तं दृढसत्यविक्रमः।
गुरुं महारण्यगतं यशस्विनं प्रसादयिष्यन् भरतोऽब्रवीत् तदा ॥ २९॥
तब सुदृढ़ एवं सत्य पराक्रम वाले सत्यपरायण प्रतापी भरत विशाल वन में गये हुए अपने बड़े भाई यशस्वी श्रीराम को लौटा लाने के निमित्त राजी करने के लिये यात्रा के उद्देश्य से उस समय इस प्रकार बोले – ॥ २९॥
तूर्णं त्वमुत्थाय सुमन्त्र गच्छ बलस्य योगाय बलप्रधानान्।
आनेतुमिच्छामि हि तं वनस्थं प्रसाद्य रामं जगतो हिताय॥३०॥
‘सुमन्त्रजी! आप शीघ्र उठकर सेनापतियों के पास जाइये और उनसे कहकर सेना को कल फॅच करने के लिये तैयार होने का प्रबन्ध कीजिये; क्योंकि मैं सारे जगत् का कल्याण करने के लिये उन वनवासी श्रीराम को प्रसन्न करके यहाँ ले आना चाहता हूँ’॥ ३०॥
स सूतपुत्रो भरतेन सम्यगाज्ञापितः सम्परिपूर्णकामः।
शशास सर्वान् प्रकृतिप्रधानान् बलस्य मुख्यांश्च सुहृज्जनं च॥३१॥
भरत की यह उत्तम आज्ञा पाकर सूतपुत्र सुमन्त्र ने अपना मनोरथ सफल हुआ समझा और उन्होंने प्रजावर्ग के सभी प्रधान व्यक्तियों, सेनापतियों तथा सुहृदों को भरत का आदेश सुना दिया॥३१॥
ततः समुत्थाय कुले कुले ते राजन्यवैश्या वृषलाश्च विप्राः।
अयूयुजन्नुष्ट्ररथान् खरांश्च नागान् हयांश्चैव कुलप्रसूतान्॥३२॥
तब प्रत्येक घर के लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उठ-उठकर अच्छी जाति के घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे तथा रथों को जोतने लगे॥ ३२ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे व्यशीतितमः सर्गः॥ ८२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बयासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ८२॥
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