वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 83 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 83
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्र्यशीतितमः सर्गः (सर्ग 83)
भरत की वनयात्रा और शृङ्गवेरपुर में रात्रिवास
ततः समुत्थितः कल्यमास्थाय स्यन्दनोत्तमम्।
प्रययौ भरतः शीघ्रं रामदर्शनकाम्यया॥१॥
तदनन्तर प्रातःकाल उठकर भरत ने उत्तम रथपर आरूढ़ हो श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान किया॥१॥
अग्रतः प्रययुस्तस्य सर्वे मन्त्रिपुरोहिताः।
अधिरुह्य हयैर्युक्तान् रथान् सूर्यरथोपमान्॥२॥
उनके आगे-आगे सभी मन्त्री और पुरोहित घोड़े जुते हुए रथों पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। वे रथ सूर्यदेव के रथ के समान तेजस्वी दिखायी देते थे॥२॥
नवनागसहस्राणि कल्पितानि यथाविधि।
अन्वयुर्भरतं यान्तमिक्ष्वाकुकुलनन्दनम्॥३॥
यात्रा करते हुए इक्ष्वाकुकुलनन्दन भरत के पीछे पीछे विधिपूर्वक सजाये गये नौ हजार हाथी चल रहे थे॥
षष्ठी रथसहस्राणि धन्विनो विविधायुधाः।
अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम्॥४॥
यात्रापरायण यशस्वी राजकुमार भरत के पीछे साठ हजार रथ और नाना प्रकार के आयुध धारण करने वाले धनुर्धर योद्धा भी जा रहे थे॥ ४॥
शतं सहस्राण्यश्वानां समारूढानि राघवम्।
अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम्॥५॥
उसी प्रकार एक लाख घुड़सवार भी उन यशस्वी रघुकुलनन्दन राजकुमार भरत की यात्रा के समय उनका अनुसरण कर रहे थे॥५॥
कैकेयी च सुमित्रा च कौसल्या च यशस्विनी।
रामानयनसंतुष्टा ययुर्यानेन भास्वता॥६॥
कैकेयी, सुमित्रा और यशस्विनी कौसल्या देवी भी श्रीरामचन्द्रजी को लौटा लाने के लिये की जाने वाली उस यात्रा से संतुष्ट हो तेजस्वी रथ के द्वारा प्रस्थित
प्रयाताश्चार्यसंघाता रामं द्रष्टुं सलक्ष्मणम्।
तस्यैव च कथाश्चित्राः कुर्वाणा हृष्टमानसाः॥ ७॥
ब्राह्मण आदि आर्यों (त्रैवर्णिकों) के समूह मन में अत्यन्त हर्ष लेकर लक्ष्मणसहित श्रीराम का दर्शन करने के लिये उन्हीं के सम्बन्ध में विचित्र बातें कहते सुनते हुए यात्रा कर रहे थे॥७॥
मेघश्यामं महाबाहुं स्थिरसत्त्वं दृढव्रतम्।
कदा द्रक्ष्यामहे रामं जगतः शोकनाशनम्॥८॥
(वे आपस में कहते थे—) ‘हमलोग दृढ़ता के साथ उत्तम व्रत का पालन करने वाले तथा संसार का दुःख दूर करने वाले, स्थितप्रज्ञ, श्यामवर्ण महाबाहु श्रीराम का कब दर्शन करेंगे? ॥ ८॥
दृष्ट एव हि नः शोकमपनेष्यति राघवः।
तमः सर्वस्य लोकस्य समुद्यन्निव भास्करः॥९॥
‘जैसे सूर्यदेव उदय लेते ही सारे जगत् का अन्धकार हर लेते हैं, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी हमारी आँखों के सामने पड़ते ही हमलोगों का सारा शोक संताप दूर कर देंगे’॥ ९॥
इत्येवं कथयन्तस्ते सम्प्रहृष्टाः कथाः शुभाः।
परिष्वजानाश्चान्योन्यं ययुर्नागरिकास्तदा॥१०॥
इस प्रकार की बातें कहते और अत्यन्त हर्ष से भरकर एक-दूसरे का आलिङ्गन करते हुए अयोध्या के नागरिक उस समय यात्रा कर रहे थे॥ १० ॥
ये च तत्रापरे सर्वे सम्मता ये च नैगमाः।
रामं प्रतिययुर्हृष्टाः सर्वाः प्रकृतयः शुभाः॥११॥
उस नगर में जो दूसरे सम्मानित पुरुष थे, वे सब लोग तथा व्यापारी और शुभ विचार वाले प्रजाजन भी बड़े हर्ष के साथ श्रीराम से मिलने के लिये प्रस्थित हुए ॥ ११॥
मणिकाराश्च ये केचित् कुम्भकाराश्च शोभनाः।
सूत्रकर्मविशेषज्ञा ये च शस्त्रोपजीविनः॥१२॥
मायूरकाः क्राकचिका वेधका रोचकास्तथा।
दन्तकाराः सुधाकारा ये च गन्धोपजीविनः॥ १३॥
सुवर्णकाराः प्रख्यातास्तथा कम्बलकारकाः।
स्नापकोष्णोदका वैद्या धूपकाः शौण्डिकास्तथा॥१४॥
रजकास्तुन्नवायाश्च ग्रामघोषमहत्तराः।
शैलूषाश्च सह स्त्रीभिर्यान्ति कैवर्तकास्तथा॥ १५॥
समाहिता वेदविदो ब्राह्मणा वृत्तसम्मताः।
गोरथैर्भरतं यान्तमनुजग्मुः सहस्रशः॥१६॥
जो कोई मणिकार (मणियों को सान पर चढ़ाकर चमका देने वाले), अच्छे कुम्भकार, सूत का ताना बाना करके वस्त्र बनाने की कला के विशेषज्ञ, शस्त्र निर्माण करके जीविका चलाने वाले, मायूरक (मोर की पाँखों से छत्र-व्यजन आदि बनाने वाले), आरे से चन्दन आदि की लकड़ी चीरने वाले, मणि-मोती आदि में छेद करने वाले, रोचक (दीवारों और वेदी आदि में शोभा का सम्पादन करने वाले), दन्तकार (हाथी के दाँत आदि से नाना प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करने वाले), सुधाकार (चूना बनाने वाले), गन्धी, प्रसिद्ध सोनार, कम्बल और कालीन बनाने वाले, गरम जल से नहलाने का काम करने वाले, वैद्य, धूपक (धूपन-क्रिया द्वारा जीविका चलाने वाले), शौण्डिक (मद्यविक्रेता), धोबी, दर्जी, गाँवों तथा गोशालाओं के महतो, स्त्रियोंसहित नट, केवट तथा समाहितचित्त सदाचारी वेदवेत्ता सहस्रों ब्राह्मण बैलगाड़ियों पर चढ़कर वन की यात्रा करने वाले भरत के पीछे-पीछे गये॥ १२–१६ ॥
सुवेषाः शुद्धवसनास्ताम्रमृष्टानुलेपिनः।
सर्वे ते विविधैर्यानैः शनैर्भरतमन्वयुः ॥१७॥
सबके वेश सुन्दर थे। सबने शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे तथा सबके अङ्गों में ताँबे के समान लाल रंग का अङ्गराग लगा था। वे सब-के-सब नाना प्रकार के वाहनों द्वारा धीरे-धीरे भरत का अनुसरण कर रहे थे॥ १७॥
प्रहृष्टमुदिता सेना सान्वयात् कैकयीसुतम्।
भ्रातुरानयने यातं भरतं भ्रातृवत्सलम्॥१८॥
हर्ष और आनन्द में भरी हुई वह सेना भाई को बुलाने के लिये प्रस्थित हुए कैकेयी कुमार भ्रातृवत्सल भरत के पीछे-पीछे चलने लगी॥ १८॥
ते गत्वा दूरमध्वानं रथयानाश्वकुञ्जरैः।
समासेदुस्ततो गङ्गां शृङ्गवेरपुरं प्रति॥ १९॥
इस प्रकार रथ, पालकी, घोड़े और हाथियों के द्वारा बहुत दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद वे सब लोग शृङ्गवेरपुर में गङ्गाजी के तट पर जा पहुँचे॥ १९ ॥
यत्र रामसखा वीरो गुहो ज्ञातिगणैर्वृतः।।
निवसत्यप्रमादेन देशं तं परिपालयन्॥२०॥
जहाँ श्रीरामचन्द्रजी का सखा वीर निषादराज गुह सावधानी के साथ उस देश की रक्षा करता हुआ अपने भाई-बन्धुओं के साथ निवास करता था॥ २० ॥
उपेत्य तीरं गङ्गायाश्चक्रवाकैरलंकृतम्।
व्यवतिष्ठत सा सेना भरतस्यानुयायिनी॥२१॥
चक्रवाकों से अलंकृत गङ्गा तट पर पहुँचकर भरत का अनुसरण करने वाली वह सेना ठहर गयी॥ २१ ॥
निरीक्ष्यानुत्थितां सेनां तां च गङ्गां शिवोदकाम्।
भरतः सचिवान् सर्वानब्रवीद् वाक्यकोविदः॥ २२॥
पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन करके अपनी उस सेना को शिथिल हुई देख बातचीत करने की कला में कुशल भरत ने समस्त सचिवों से कहा— ॥ २२ ॥
निवेशयत मे सैन्यमभिप्रायेण सर्वतः।
विश्रान्ताः प्रतरिष्यामः श्व इमां सागरङ्गमाम्॥ २३॥
‘आपलोग मेरे सैनिकों को उनकी इच्छा के अनुसार यहाँ सब ओर ठहरा दीजिये। आज रात में विश्राम कर लेने के बाद हम सब लोग कल सबेरे इन सागर गामिनी नदी गङ्गाजी को पार करेंगे॥ २३ ।।
दातुं च तावदिच्छामि स्वर्गतस्य महीपतेः।
और्ध्वदेहनिमित्तार्थमवतीर्योदकं नदीम्॥ २४॥
‘यहाँ ठहरने का एक और प्रयोजन है—मैं चाहता हूँ कि गङ्गाजी में उतरकर स्वर्गीय महाराज के पारलौकिक कल्याण के लिये जलाञ्जलि दे दूं’। २४॥
तस्यैवं ब्रुवतोऽमात्यास्तथेत्युक्त्वा समाहिताः।
न्यवेशयंस्तांश्छन्देन स्वेन स्वेन पृथक् पृथक्॥ २५॥
उनके इस प्रकार कहने पर सभी मन्त्रियों ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और समस्त सैनिकों को उनकी इच्छा के अनुसार भिन्नभिन्न स्थानों पर ठहरा दिया॥ २५ ॥
निवेश्य गङ्गामनु तां महानदी चमं विधानैः परिबर्हशोभिनीम।
उवास रामस्य तदा महात्मनो विचिन्तमानो भरतो निवर्तनम्॥२६॥
महानदी गङ्गा के तटपर खेमे आदि से सुशोभित होने वाली उस सेना को व्यवस्थापूर्वक ठहराकर भरत ने महात्मा श्रीराम के लौटने के विषय में विचार करते हुए उस समय वहीं निवास किया॥ २६ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्र्यशीतितमः सर्गः॥ ८३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिरासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ८३॥
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