वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 84 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 84
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुरशीतितमः सर्गः (सर्ग 84)
निषादराज गुह का अपने बन्धुओं भेंट की सामग्री ले भरत के पास जाना और उनसे आतिथ्य स्वीकार करने के लिये अनुरोध करना
ततो निविष्टां ध्वजिनीं गङ्गामन्वाश्रितां नदीम्।
निषादराजो दृष्ट्वैव ज्ञातीन् स परितोऽब्रवीत्॥
उधर निषादराज गुह ने गङ्गा नदी के तटपर ठहरी हुई भरत की सेना को देखकर सब ओर बैठे हुए अपने भाई-बन्धुओं से कहा- ॥१॥
महतीयमितः सेना सागराभा प्रदृश्यते।
नास्यान्तमवगच्छामि मनसापि विचिन्तयन्॥२॥
‘भाइयो! इस ओर जो यह विशाल सेना ठहरी हुई है समुद्र के समान अपार दिखायी देती है; मैं मन से बहुत सोचने पर भी इसका पार नहीं पाता हूँ॥२॥
यदा नु खलु दुर्बुद्धिर्भरतः स्वयमागतः।
स एष हि महाकायः कोविदारध्वजो रथे॥३॥
‘निश्चय ही इसमें स्वयं दुर्बुद्धि भरत भी आया हआ है; यह कोविदार के चिह्मवाली विशाल ध्वजा उसी के रथ पर फहरा रही है॥३॥
बन्धयिष्यति वा पाशैरथ वास्मान् वधिष्यति।
अनु दाशरथिं रामं पित्रा राज्याद् विवासितम्॥ ४॥
‘मैं समझता हूँ कि यह अपने मन्त्रियों द्वारा पहले हमलोगों को पाशों से बँधवायेगा अथवा हमारा वध कर डालेगा; तत्पश्चात् जिन्हें पिता ने राज्य से निकाल दिया है, उन दशरथनन्दन श्रीराम को भी मार डालेगा॥४॥
सम्पन्नां श्रियमन्विच्छंस्तस्य राज्ञः सुदुर्लभाम्।
भरतः कैकयीपुत्रो हन्तुं समधिगच्छति॥५॥
‘कैकेयी का पुत्र भरत राजा दशरथ की सम्पन्न एवं सुदुर्लभ राजलक्ष्मी को अकेला ही हड़प लेना चाहता है, इसीलिये वह श्रीरामचन्द्रजी को वन में मार डालने के लिये जा रहा है।॥ ५॥
भर्ता चैव सखा चैव रामो दाशरथिर्मम।
तस्यार्थकामाः संनद्धा गङ्गानूपेऽत्र तिष्ठत॥६॥
‘परंतु दशरथकुमार श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं, इसलिये उनके हित की कामना रखकर तुमलोग अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो यहाँ गङ्गा के तटपर मौजूद रहो॥
तिष्ठन्तु सर्वदाशाश्च गङ्गामन्वाश्रिता नदीम्।
बलयुक्ता नदीरक्षा मांसमूलफलाशनाः॥७॥
‘सभी मल्लाह सेनाके साथ नदीकी रक्षा करते हुए गङ्गाके तटपर ही खड़े रहें और नावपर रखे हुए फल-मूल आदिका आहार करके ही आजकी रात बितावें॥ ७॥
नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम्।
संनद्धानां तथा यूनां तिष्ठन्त्वत्यभ्यचोदयत्॥८॥
‘हमारे पास पाँच सौ नावें हैं, उनमेंसे एक-एक नावपर मल्लाहोंके सौ-सौ जवान युद्ध-सामग्रीसे लैस होकर बैठे रहें।’ इस प्रकार गुहने उन सबको आदेश दिया॥ ८॥
यदि तुष्टस्तु भरतो रामस्येह भविष्यति।
इयं स्वस्तिमती सेना गङ्गामद्य तरिष्यति॥९॥
उसने फिर कहा कि ‘यदि यहाँ भरत का भाव श्रीराम के प्रति संतोषजनक होगा, तभी उनकी यह सेना आज कुशलपूर्वक गङ्गा के पार जा सकेगी’। ९॥
इत्युक्त्वोपायनं गृह्य मत्स्यमांसमधूनि च।
अभिचक्राम भरतं निषादाधिपतिर्मुहः॥१०॥
यों कहकर निषादराज गुह मत्स्यण्डी* (मिश्री), फल के गूदे और मधु आदि भेंट की सामग्री लेकर भरत के पास गया॥१०॥
* यहाँ मूल में ‘मत्स्य’ शब्द ‘मत्स्यण्डी’ अर्थात् मिश्री का वाचक है। ‘मत्स्यण्डी’ इस नामका एक अंश ‘मत्स्य’ है, अतः नाम के एक अंश के ग्रहण से सम्पूर्ण नाम का ग्रहण किया गया है।
तमायान्तं तु सम्प्रेक्ष्य सूतपुत्रः प्रतापवान्।
भरतायाचचक्षेऽथ समयज्ञो विनीतवत्॥११॥
उसे आते देख समयोचित कर्तव्यको समझनेवाले प्रतापी सूतपुत्र सुमन्त्रने विनीतकी भाँति भरतसे कहा – ॥११॥
एष ज्ञातिसहस्रेण स्थपतिः परिवारितः।
कुशलो दण्डकारण्ये वृद्धो भ्रातुश्च ते सखा॥ १२॥
तस्मात् पश्यतु काकुत्स्थं त्वां निषादाधिपो गुहः।
असंशयं विजानीते यत्र तौ रामलक्ष्मणौ ॥१३॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण! यह बूढ़ा निषादराज गुह अपने सहस्रों भाई-बन्धुओं के साथ यहाँ निवास करता है। यह तुम्हारे बड़े भाई श्रीराम का सखा है। इसे दण्डकारण्य के मार्ग की विशेष जानकारी है। निश्चय
ही इसे पता होगा कि दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण कहाँ हैं, अतः निषादराज गुह यहाँ आकर तुमसे मिलें, इसके लिये अवसर दो’ ॥ १२-१३॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा सुमन्त्राद् भरतः शुभम्।
उवाच वचनं शीघ्रं गुहः पश्यतु मामिति ॥१४॥
सुमन्त्र के मुख से यह शुभ वचन सुनकर भरत ने कहा—’निषादराज गुह मुझसे शीघ्र मिलें इसकी व्यवस्था की जाय’ ॥ १४॥
लब्ध्वानुज्ञां सम्प्रहृष्टो ज्ञातिभिः परिवारितः।
आगम्य भरतं प्रह्वो गुहो वचनमब्रवीत्॥१५॥
मिलने की अनुमति पाकर गुह अपने भाई बन्धुओं के साथ वहाँ प्रसन्नतापूर्वक आया और भरत से मिलकर बड़ी नम्रता के साथ बोला- ॥१५॥
निष्कुटश्चैव देशोऽयं वञ्चिताश्चापि ते वयम्।
निवेदयाम ते सर्वं स्वके दाशगृहे वस॥१६॥
‘यह वन-प्रदेश आपके लिये घर में लगे हुए बगीचे के समान है। आपने अपने आगमन की सूचना न देकर हमें धोखे में रख दिया—हम आपके स्वागत की कोई तैयारी न कर सके। हमारे पास जो कुछ है, वह सब आपकी सेवा में अर्पित है। यह निषादों का घर आपका ही है, आप यहाँ सुखपूर्वक निवास करें॥१६॥
अस्ति मूलफलं चैतन्निषादैः स्वयमर्जितम्।
आर्द्र शुष्कं तथा मांसं वन्यं चोच्चावचं तथा॥ १७॥
‘यह फल-मूल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। इसे निषाद लोग स्वयं तोड़कर लाये हैं। इनमें से कुछ फल तो अभी हरे ताजे हैं और कुछ सूख गये हैं।इनके साथ तैयार किया हुआ फल का गूदा भी है। इन सबके सिवा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे वन्य पदार्थ भी हैं। इन सबको ग्रहण करें॥ १७॥
आशंसे स्वाशिता सेना वत्स्यत्येनां विभावरीम्।
अर्चितो विविधैः कामैः श्वः ससैन्यो गमिष्यसि॥ १८॥
‘हम आशा करते हैं कि यह सेना आज की रात यहीं ठहरेगी और हमारा दिया हुआ भोजन स्वीकार करेगी। नाना प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं से आज हम सेनासहित आपका सत्कार करेंगे, फिर कल सबेरे आप अपने सैनिकों के साथ यहाँ से अन्यत्र जाइयेगा’ ॥ १८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुरशीतितमः सर्गः॥ ८४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौरासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८४॥
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