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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 85 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 85

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चाशीतितमः सर्गः (सर्ग 85)

गुह और भरत की बातचीत तथा भरत का शोक

 

एवमुक्तस्तु भरतो निषादाधिपतिं गुहम्।
प्रत्युवाच महाप्राज्ञो वाक्यं हेत्वर्थसंहितम्॥१॥

निषादराज गुह के ऐसा कहने पर महाबुद्धिमान् भरत ने युक्ति और प्रयोजनयुक्त वचनों में उसे इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥

ऊर्जितः खलु ते कामः कृतो मम गुरोः सखे।
यो मे त्वमीदृशीं सेनामभ्यर्चयितुमिच्छसि॥२॥

‘भैया ! तुम मेरे बड़े भाई श्रीराम के सखा हो। मेरी इतनी बड़ी सेना का सत्कार करना चाहते हो, यह तुम्हारा मनोरथ बहुत ही ऊँचा है। तुम उसे पूर्ण ही समझो तुम्हारी श्रद्धा से ही हम सब लोगों का सत्कार हो गया’ ॥ २॥

इत्युक्त्वा स महातेजा गुहं वचनमुत्तमम्।
अब्रवीद् भरतः श्रीमान् पन्थानं दर्शयन् पुनः॥ ३॥

यह कहकर महातेजस्वी श्रीमान् भरत ने गन्तव्य मार्ग को हाथ के संकेत से दिखाते हुए पुनः गुह से उत्तम वाणी में पूछा- ॥३॥

कतरेण गमिष्यामि भरद्वाजाश्रमं यथा।
गहनोऽयं भृशं देशो गङ्गानूपो दुरत्ययः॥४॥

‘निषादराज! इन दो मार्गों में से किसके द्वारा मुझे भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाना होगा? गङ्गा के किनारे का यह प्रदेश तो बड़ा गहन मालूम होता है। इसे लाँघकर आगे बढ़ना कठिन है’ ॥ ४ ॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्भूत्वा गुहो गहनगोचरः॥५॥

बुद्धिमान् राजकुमार भरत का यह वचन सुनकर वन में विचरने वाले गुह ने हाथ जोड़कर कहा— ॥५॥

दाशास्त्वनुगमिष्यन्ति देशज्ञाः सुसमाहिताः।
अहं चानुगमिष्यामि राजपुत्र महाबल॥६॥

‘महाबली राजकुमार! आपके साथ बहत-से मल्लाह जायँगे, जो इस प्रदेश से पूर्ण परिचित तथा भलीभाँति सावधान रहने वाले हैं। इनके सिवा मैं भी आपके साथ चलूँगा॥६॥

कच्चिन्न दुष्टो व्रजसि रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
इयं ते महती सेना शङ्कां जनयतीव मे॥७॥

‘परन्तु एक बात बताइये, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के प्रति आप कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं जा रहे हैं? आपकी यह विशाल सेना मेरे मन में शङ्का-सी उत्पन्न कर रही है’ ॥ ७॥

तमेवमभिभाषन्तमाकाश इव निर्मलः।
भरतः श्लक्ष्णया वाचा गुहं वचनमब्रवीत्॥८॥

ऐसी बात कहते हुए गुह से आकाश के समान निर्मल भरत ने मधुर वाणी में कहा— ॥८॥

मा भूत् स कालो यत् कष्टं न मां शङ्कितुमर्हसि।
राघवः स हि मे भ्राता ज्येष्ठः पितृसमो मतः॥९॥

‘निषादराज! ऐसा समय कभी न आये। तुम्हारी बात सुनकर मुझे बड़ा कष्ट हुआ। तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये। श्रीरघुनाथजी मेरे बड़े भाई हैं। मैं उन्हें पिता के समान मानता हूँ॥९॥

तं निवर्तयितुं यामि काकुत्स्थं वनवासिनम्।
बुद्धिरन्या न मे कार्या गृह सत्यं ब्रवीमि ते॥ १०॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम वन में निवास करते हैं, अतः उन्हें लौटा लाने के लिये जा रहा हूँ। गुह ! मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हें मेरे विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’ ॥ १० ॥

स तु संहृष्टवदनः श्रुत्वा भरतभाषितम्।
पुनरेवाब्रवीद वाक्यं भरतं प्रति हर्षितः॥११॥

भरत की बात सुनकर निषादराज का मुँह प्रसन्नता से खिल उठा। वह हर्ष से भरकर पुनः भरत से बोला- ॥ ११॥

धन्यस्त्वं न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले।
अयत्नादागतं राज्यं यस्त्वं त्यक्तुमिहेच्छसि॥ १२॥

‘आप धन्य हैं, जो बिना प्रयत्न के हाथ में आये हुए राज्य को त्याग देना चाहते हैं। आपके समान धर्मात्मा मुझे इस भूमण्डल में कोई नहीं दिखायी देता ॥ १२ ॥

शाश्वती खलु ते र्कीतिर्लोकाननु चरिष्यति।
यस्त्वं कृच्छ्रगतं रामं प्रत्यानयितुमिच्छसि ॥१३॥

‘कष्टप्रद वन में निवास करने वाले श्रीराम को जो आप लौटा लाना चाहते हैं, इससे समस्त लोकों में आपकी अक्षय कीर्ति का प्रसार होगा’ ॥ १३ ॥

एवं सम्भाषमाणस्य गुहस्य भरतं तदा।
बभौ नष्टप्रभः सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत॥१४॥

जब गुह भरत से इस प्रकार की बातें कह रहा था, उसी समय सूर्यदेव की प्रभा अदृश्य हो गयी और रात का अन्धकार सब ओर फैल गया॥१४॥

संनिवेश्य स तां सेनां गुहेन परितोषितः।
शत्रुजेन समं श्रीमाञ्छयनं पुनरागमत्॥१५॥

गुहके बर्ताव से श्रीमान् भरत को बड़ा संतोष हुआ और वे सेना को विश्राम करने की आज्ञा दे शत्रुघ्न के साथ शयन करने के लिये गये॥ १५ ॥

रामचिन्तामयः शोको भरतस्य महात्मनः।
उपस्थितो ह्यनर्हस्य धर्मप्रेक्षस्य तादृशः॥१६॥

धर्मपर दृष्टि रखने वाले महात्मा भरत शोक के योग्य नहीं थे तथापि उनके मन में श्रीरामचन्द्रजी के लिये चिन्ता के कारण ऐसा शोक उत्पन्न हुआ, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥ १६ ॥

अन्तर्दाहेन दहनः संतापयति राघवम्।
वनदाहाग्निसंतप्तं गूढोऽग्निरिव पादपम्॥१७॥

जैसे वन में फैले हुए दावानल से संतप्त हुए वृक्ष को उसके खोखले में छिपी हुई आग और भी अधिक जलाती है, उसी प्रकार दशरथ-मरणजन्य चिन्ता की आग से संतप्त हुए रघुकुलनन्दन भरत को वह रामवियोग से उत्पन्न हुई शोकाग्नि और भी जलाने लगी॥ १७॥

प्रसृतः सर्वगात्रेभ्यः स्वेदं शोकाग्निसम्भवम्।
यथा सूर्यांशुसंतप्तो हिमवान् प्रसृतो हिमम्॥ १८॥

जैसे सूर्य की किरणों से तपा हुआ हिमालय अपनी पिघली हुई बर्फ को बहाने लगता है, उसी प्रकार भरत शोकाग्निसे संतप्त होने के कारण अपने सम्पूर्ण अङ्गों से पसीना बहाने लगे॥ १८॥

ध्याननिर्दरशैलेन विनिःश्वसितधातुना।
दैन्यपादपसंघेन शोकायासाधिशृङ्गिणा॥१९॥
प्रमोहानन्तसत्त्वेन संतापौषधिवेणुना।
आक्रान्तो दुःखशैलेन महता कैकयीसुतः॥२०॥

उस समय कैकेयीकुमार भरत दुःख के विशाल पर्वत से आक्रान्त हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान ही उसमें छिद्ररहित शिलाओं का समूह था। दुःखपूर्ण उच्छ्वास ही गैरिक आदि धातु का स्थान ले रहा था। दीनता(इन्द्रियों की अपने विषयों से विमुखता) ही वृक्षसमूहों के रूप में प्रतीत होती थी। शोकजनित आयास ही उस दुःखरूपी पर्वत के ऊँचे शिखर थे। अतिशय मोह ही उसमें अनन्त प्राणी थे। बाहरभीतर की इन्द्रियों में होने वाले संताप ही उस पर्वत की ओषधियाँ तथा बाँस के वृक्ष थे॥ १९-२० ॥

विनिःश्वसन् वै भृशदुर्मनास्ततः प्रमूढसंज्ञः परमापदं गतः।
शमं न लेभे हृदयज्वरार्दितो नरर्षभो यूथहतो यथर्षभः॥२१॥

उनका मन बहुत दुःखी था। वे लंबी साँस खींचते हुए सहसा अपनी सुध-बुध खोकर बड़ी भारी आपत्ति में पड़ गये। मानसिक चिन्ता से पीड़ित होने के कारण नरश्रेष्ठ भरत को शान्ति नहीं मिलती थी। उनकी दशा अपने झुंड से बिछुड़े हुए वृषभ की-सी हो रही थी॥ २१॥

गुहेन सार्धं भरतः समागतो महानुभावः सजनः समाहितः।
सुदुर्मनास्तं भरतं तदा पुनगुहः समाश्वासयदग्रज प्रति॥२२॥

परिवार सहित एकाग्रचित्त महानुभाव भरत जब गुह से मिले, उस समय उनके मन में बड़ा दुःख था। वे अपने बड़े भाई के लिये चिन्तित थे, अतः गुह ने उन्हें पुनः आश्वासन दिया॥ २२ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चाशीतितमः सर्गः॥ ८५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८५॥


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