वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 86 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 86
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षडशीतितमः सर्गः (सर्ग 86)
निषादराज गुह के द्वारा लक्ष्मण के सद्भाव और विलाप का वर्णन
आचचक्षेऽथ सद्भावं लक्ष्मणस्य महात्मनः।
भरतायाप्रमेयाय गुहो गहनगोचरः॥१॥
वनचारी गुह ने अप्रमेय शक्तिशाली भरत से महात्मा लक्ष्मण के सद्भाव का इस प्रकार वर्णन किया— ॥१॥
तं जाग्रतं गुणैर्युक्तं वरचापेषुधारिणम्।
भ्रातृगुप्त्यर्थमत्यन्तमहं लक्ष्मणमब्रुवम्॥२॥
‘लक्ष्मण अपने भाई की रक्षा के लिये श्रेष्ठ धनुष और बाण धारण किये अधिक कालतक जागते रहे। उस समय उन सद्गुणशाली लक्ष्मण से मैंने इस प्रकार कहा— ॥२॥
इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता।
प्रत्याश्वसिहि शेष्वास्यां सुखं राघवनन्दन॥३॥
उचितोऽयं जनः सर्वो दुःखानां त्वं सुखोचितः।
धर्मात्मस्तस्य गुप्त्यर्थं जागरिष्यामहे वयम्॥४॥
‘तात रघुकुलनन्दन! मैंने तुम्हारे लिये यह सुखदायिनी शय्या तैयार की है। तुम इसपर सुखपूर्वक सोओ और भलीभाँति विश्राम करो। यह (मैं) सेवक तथा इसके साथ के सब लोग वनवासी होने के कारण दुःख सहन करने के योग्य हैं (क्योंकि हम सबको कष्ट सहने का अभ्यास है); परंतु तुम सुख में ही पले होने के कारण उसी के योग्य हो। धर्मात्मन्! हमलोग श्रीरामचन्द्रजी की रक्षा के लिये रातभर जागते रहेंगे॥ ३-४॥
नहि रामात् प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चन।
मोत्सुको भूर्ब्रवीम्येतदथ सत्यं तवाग्रतः॥५॥
‘मैं तुम्हारे सामने सत्य कहता हूँ कि इस भूमण्डल में मुझे श्रीराम से बढ़कर प्रिय दूसरा कोई नहीं है; अतः तुम इनकी रक्षा के लिये उत्सुक न होओ॥५॥
अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन् सुमहद्यशः।
धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थकामौ च केवलौ॥६॥
‘इन श्रीरघुनाथजी के प्रसाद से ही मैं इस लोक में महान् यश, प्रचुर धर्मलाभ तथा विशुद्ध अर्थ एवं भोग्य वस्तु पाने की आशा करता हूँ॥६॥
सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया।
रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वैः स्वैातिभिः सह॥ ७॥
‘अतः मैं अपने समस्त बन्धु-बान्धवों के साथ हाथ में धनुष लेकर सीता के साथ सोये प्रिय सखा श्रीराम की (सब प्रकार से) रक्षा करूँगा॥ ७ ॥
नहि मेऽविदितं किंचिद् वनेऽस्मिंश्चरतः सदा।
चतुरङ ह्यपि बलं प्रसहेम वयं युधि॥८॥
“इस वन में सदा विचरते रहने के कारण मुझसे यहाँ की कोई बात छिपी नहीं है। हमलोग यहाँ युद्ध में शत्रु की चतुरङ्गिणी सेना का भी अच्छी तरह सामना कर सकते हैं’॥ ८॥
एवमस्माभिरुक्तेन लक्ष्मणेन महात्मना।
अनुनीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता॥९॥
‘हमारे इस प्रकार कहने पर धर्म पर ही दृष्टि रखने वाले महात्मा लक्ष्मण ने हम सब लोगों से अनुनयपूर्वक कहा- ॥९॥
कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया।
शक्या निद्रा मया लब्धं जीवितानि सुखानि वा॥ १०॥
‘निषादराज ! जब दशरथनन्दन श्रीराम देवी सीता के साथ भूमिपर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिये उत्तम शय्या पर सोकर नींद लेना, जीवन-धारण के लिये स्वादिष्ट अन्न खाना अथवा दूसरे-दूसरे सुखों को भोगना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥ १० ॥
यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि।
तं पश्य गुह संविष्टं तृणेषु सह सीतया॥११॥
‘गुह ! देखो, सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में जिनके वेग को नहीं सह सकते, वे ही श्रीराम इस समय सीता के साथ तिनकों पर सो रहे हैं॥ ११॥
महता तपसा लब्धो विविधैश्च परिश्रमैः।
एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः॥१२॥
अस्मिन् प्रव्राजिते राजा न चिरं वर्तयिष्यति।
विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति॥१३॥
‘महान् तप और नाना प्रकार के परिश्रमसाध्य उपायों द्वारा जो यह महाराज दशरथ को अपने समान उत्तम लक्षणों से युक्त ज्येष्ठ पुत्र के रूप में प्राप्त हुए हैं, उन्हीं इन श्रीराम के वन में आ जाने से राजा दशरथ
अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकेंगे जान पड़ता है निश्चय ही यह पृथ्वी अब शीघ्र विधवा हो जायगी॥ १२-१३॥
विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः।
निर्घोषो विरतो नूनमद्य राजनिवेशने॥१४॥
‘अवश्य ही अब रनिवास की स्त्रियाँ बड़े जोर से आर्तनाद करके अधिक श्रम के कारण अब चुप हो गयी होंगी और राजमहल का वह हाहाकार इस समय शान्त हो गया होगा॥१४॥
कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम।
नाशंसे यदि ते स जीवेयुः शर्वरीमिमाम्॥१५॥
‘महारानी कौसल्या, राजा दशरथ तथा मेरी माता सुमित्रा—ये सब लोग आज की इस रात तक जीवित रह सकेंगे या नहीं यह मैं नहीं कह सकता॥ १५ ॥
जीवेदपि च मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया।
दुःखिता या हि कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति॥ १६॥
‘शत्रुघ्न की बाट देखने के कारण सम्भव है, मेरी माता सुमित्रा जीवित रह जायँ; परंतु पुत्र के विरह से दुःख में डूबी हुई वीर-जननी कौसल्या अवश्य नष्ट हो जायँगी॥ १६ ॥
अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम्।
राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति॥ १७॥
(महाराज की इच्छा थी कि श्रीराम को राज्य पर अभिषिक्त करूँ) अपने उस मनोरथ को न पाकर श्रीराम को राज्यपर स्थापित किये बिना ही ‘हाय! मेरा सब कुछ नष्ट हो गया! नष्ट हो गया !!’ ऐसा कहते हुए मेरे पिताजी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे। १७॥
सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन् काले ह्युपस्थिते।
प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति भूमिपम्॥१८॥
‘उनकी उस मृत्यु का समय उपस्थित होने पर जो लोग वहाँ रहेंगे और मेरे मरे हुए पिता महाराज दशरथ का सभी प्रेतकार्यों में संस्कार करेंगे, वे ही सफल मनोरथ और भाग्यशाली हैं॥ १८ ॥
रम्यचत्वरसंस्थानां सुविभक्तमहापथाम्।
हर्म्यप्रासादसम्पन्नां सर्वरत्नविभूषिताम्॥१९॥
गजाश्वरथसम्बाधां तूर्यनादविनादिताम्।
सर्वकल्याणसम्पूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम्॥२०॥
आरामोद्यानसम्पूर्णां समाजोत्सवशालिनीम्।
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानी पितुर्मम॥२१॥
‘(यदि पिताजी जीवित रहे तो) रमणीय चबूतरों और चौराहों के सुन्दर स्थानों से युक्त, पृथक्-पृथक् बने हुए विशाल राजमार्गों से अलंकृत, धनिकों की अट्टालिकाओं और देवमन्दिरों एवं राजभवनों से सम्पन्न, सब प्रकार के रत्नों से विभूषित, हाथियों,घोड़ों और रथों के आवागमन से भरी हुई, विविध वाद्यों की ध्वनियों से निनादित, समस्त कल्याणकारी वस्तुओं से भरपूर, हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से व्याप्त, पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से परिपूर्ण तथा सामाजिक उत्सवों से सुशोभित हुई मेरे पिता की राजधानी अयोध्यापुरी में जो लोग विचरेंगे, वास्तव में वे ही सुखी हैं॥ १९–२१॥
अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम्।
निवृत्ते समये ह्यस्मिन् सुखिताः प्रविशेमहि॥ २२॥
‘क्या वनवास की इस अवधि के समाप्त होने पर सकुशल लौटे हुए सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम के साथ हमलोग अयोध्यापुरी में प्रवेश कर सकेंगे’ ॥ २२ ॥
परिदेवयमानस्य तस्यैवं हि महात्मनः।
तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत॥२३॥
‘इस प्रकार विलाप करते हुए महामनस्वी राजकुमार लक्ष्मण की वह सारी रात जागते ही बीती॥ २३॥
प्रभाते विमले सूर्ये कारयित्वा जटा उभौ।
अस्मिन् भागीरथीतीरे सुखं संतारितौ मया॥ २४॥
‘प्रातःकाल निर्मल सूर्योदय होने पर मैंने भागीरथी के तट पर (वट के दूध से) उन दोनों के केशों को जटा का रूप दिलवाया और उन्हें सुखपूर्वक पार उतारा॥ २४॥
जटाधरौ तौ द्रुमचीरवाससौ महाबलौ कुञ्जरयूथपोपमौ।
वरेषुधीचापधरौ परंतपौ व्यपेक्षमाणौ सह सीतया गतौ॥२५॥
‘सिरपर जटा धारण करके वल्कल एवं चीर-वस्त्र पहने हुए, महाबली, शत्रुसंतापी श्रीराम और लक्ष्मण दो गजयूथपतियों के समान शोभा पाते थे। वे सुन्दर तरकस और धनुष धारण किये इधर-उधर देखते हुए सीता के साथ चले गये’ ॥ २५ ॥
इत्याचे श्रीमद्रारामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षडशीतितमः सर्गः॥ ८६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८६॥